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बंधमकरण
ध्रुवबंधिनी प्रकृतियों) को बांधते हुए यदि परावर्तमाना (३९) अशुभ प्रकृतियों' को जीव बांधते हैं, तब उनका अनुभाग विपरीतत्रिक के क्रम से बांधते हैं, जैसे द्विस्थानगत, त्रिस्थानगत और चतुःस्थानगत । यहाँ पर ध्रुव प्रकृतियों की जघन्य स्थिति को बांधता हुआ बंध को प्राप्त होने वाली परावर्तमान शुभ प्रकृतियों के चतुःस्थानगत रस को बांधता है और अशुभ प्रकृतियों के द्विस्थानगत रस को बांधता है। ध्रुव प्रकृतियों की अजघन्य स्थिति बांधता हुआ बंध को प्राप्त होने वाली शुभ प्रकृतियों के अथवा अशुभ प्रकृतियों के यथायोग्य त्रिस्थानगत रस को बांधता है और ध्रुव प्रकृतियों को उत्कृष्ट स्थिति को बांधता हुआ शुभ प्रकृतियों के द्विस्थानगत रस को और अशुभ प्रकृतियों के चतुःस्थानगत रस को बांधता है । इसलिये शुभ प्रकृतिगत रस की विविधता के क्रम की अपेक्षा अशुभ प्रकृतियों के रस की विविधता के क्रम को विपरीतक्रम वाला कहा गया है। सरलता से जिसका स्पष्टीकरण निम्नलिखित प्रारूप द्वारा समझा जा सकता है
ध्रुवबंधिनी के स्थितिबंध में
. शुभप्रकृति का रसबंध
अशुभप्रकृति का रसबंध
.
जघन्य स्थितिबंध में अजघन्य (मध्यम)स्थितिबंध में
चतु:स्थानगत त्रिस्थानगत
--द्विस्थानगत विस्थानगत
उत्कृष्ट स्थितिबंध में
द्विस्थानगत
चतु:स्थानगत
शुभ प्रकृतियों के चतुःस्थानिक आदि के रसबंधक
. कौन जीव शुभ प्रकृतियों के चतुःस्थानगत, त्रिस्थानगत और द्विस्थानगत रस को बांधते हैं ? इस जिज्ञासा का समाधान करने के लिये कहते हैं--
सम्वविसुद्धा बंधंति, मज्झिमा संकिलितरगा य । धुवपगडि जहन्नठिइं, सव्वविसुद्धा उबंधति ॥९१॥ तिट्ठाणे अजहण्णं, बिट्ठाणे जेट्टगं सुभाण कमा । ।
सट्ठाणे उ जहन्न, अजहन्नुक्कोसमियरासि ॥९२॥ शब्दार्थ--सव्वविसुद्धा-अतिविशुद्ध, बंधंति-वांधते हैं, मजिममा-मध्यम परिणाम . वाले, संकिलिट्ठतरगा-संक्लिष्टतर परिणाम वाले, य-और, धुवपगडि-ध्रुवप्रकृति की, जहन्नगिजघन्य स्थिति को, सव्वविसुद्धा-सर्वविशुद्ध, उ-और, बंधंति-बांधते हैं ।
तिट्ठाणे-त्रिस्थानिक, अजहण्णं-अजघन्य (मध्यम) स्थिति वाले, बिट्ठाणे-द्विस्थानिक, जेठ्ठगं-उत्कृष्ट स्थिति, सुभाण-शुभ की, कमा-क्रम से, सटाणे-स्वस्थान में (स्वविशुद्धि १. असातावेदनीय. वेदत्रिक, हास्य, रति, अरति, शोक, नरकाय, नरकद्विक, तिर्यंचद्विक आदिजातिचतुष्टय, आदि के
संस्थान, संहनन को छोड़कर शेष पांच संस्थान, संहनन, अप्रशस्तविहायोगति, स्थावरदशक, नीचगोन।