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बंधनकरण
जीव-परिणामानुसार रसबंध और स्थितिबंध को सरलता से समझाने वाला प्रारूप इस प्रकार है--
जीवपरिणाम
परावर्तमान शुभ प्रकृतियों का रसबंध
परावर्तमान अशुभ प्रकृतियों का रसबंध
ध्रुव प्रकृतियों का स्थितिबंध
अतिविशुद्ध मध्यमविशुद्ध अतिसंक्लिष्ट
चतु:स्थानिक त्रिस्थानिक द्विस्थानिक
द्विस्थानिक त्रिस्थानिक चतु:स्थानिक
जघन्य स्थितिबंध मध्यम स्थितिबंध उत्कृष्ट स्थितिबंध
इस विषय में दो प्रकार की प्ररूपणा है-अनन्तरोपनिधा और परंपरोपनिधा । उनमें से पहले दो गाथाओं में अनन्तरोपनिधा से प्ररूपणा करते है--
थोवा जहनियाए, होति विसेसाहिओदहिसयाई । जीवा विसेसहीणा, उदहिसयपुहुत्त' मो' जाव ।।९३॥ एवं तिट्ठाणकरा, बिट्ठाणकरा य आ सुभुक्कोसा ।
असुभाणं बिट्ठाणे, तिचउट्ठाणे य उक्कोसा ॥९४॥ शब्दार्थ--थोवा-स्तोक-अल्प, जहनियाए-जघन्य स्थितिबंध में, होति-होते हैं, विसेसाहिओदहिसयाई-सैकड़ों सागरोपम तक विशेषाधिक, जीवा-जीव, विसेसहीणा-विशेषहीन, उदहिसयपुहुत्त-बहुत से सागरोपम शत-सैकड़ों सागरोपम, जाव-तक।
एवं-इसी प्रकार, तिट्ठाणकरा-त्रिस्थानिक, बिट्ठाणकरा-द्विस्थानिक, य-और, आ सुभुक्कोसा-शुभ प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति तक, असुभाणं-अशुभ प्रकृतियों के, बिट्ठाणे-द्विस्थानिक, तिचउट्ठाणे-त्रिस्थानिक, चतुःस्थानिक, च-और, उक्कोसा-उत्कृष्ट स्थिति ।
___ गाथार्थ--ध्रुव प्रकृतियों के जघन्य स्थितिबंध में वर्तमान जीव अल्प होते हैं। उससे द्वितीयादिक स्थितियों में विशेष-विशेष अधिक होते हैं, सैकड़ों सागरोपम प्राप्त होने तक । तत्पश्चात् सैकड़ों सागरोपम तक विशेष-विशेषहीन होते हैं।
इसी प्रकार परावर्तमान शुभ प्रकृतियों के त्रिस्थानिक और द्विस्थानिक रसबंधक जीव प्रत्येक स्थितिस्थान में विशेषाधिक और पीछे विशेषहीन जानना चाहिये, उत्कृष्ट स्थिति प्राप्त होने तक । परावर्तमान अशुभ प्रकृतियों के विस्थानिक, त्रिस्थानिक और चतुःस्थानिक रसबंध करने वाले जीव प्रत्येक स्थिति पर विशेषाधिक और विशेषहीन उत्कृष्ट स्थिति तक कहना चाहिये। १. यहाँ पुहुत्त (पृथक्त्व) शब्द बहुत्ववाचक है । जैसा कि कर्मप्रकृतिचूर्णि में कहा है-पहृत्तसद्दो बहुत्तवाचोति । २. 'मो' शब्द पादपूर्ति के लिये प्रयुक्त हुआ है ।