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बंधनकरण
थिरसुभपंचग उच्चे, चेवं संठाणसंघयणमूले । ...... तब्बीयाइ बिवुड्ढी, अट्ठारस सुहुमविगलतिगे ॥७२॥ . तित्थगराहारदुगे, अंतो वीसा सनिच्चनामाणं ।
तेत्तीसुदही सुरनारयाउ, सेसाउ पल्लतिगं ॥७३॥ . . . शब्दार्थ--थिरसुभपंचग उच्चे-स्थिर, शुभपंचक, उच्चगोत्र की, च-और, एवं-इसी प्रकार, संठाणसंघयणमूले-मूल (प्रथम) संस्थान और संहनन की, तब्बीयाइ-उनके द्वितीयादिक बिछुड्ढीदो-दो की वृद्धि, अट्ठारस-अठारह, सुहुमविगलतिगे-सूक्ष्मत्रिक और विकलत्रिक की।
तित्थगराहारगदुगे--तीर्थंकर और आहारकद्विक को, अंतो-अंतःकोडाकोडी सागरोपम, बीसाबीस, सनिच्चनामाणं-नीचगोत्र सहित शेष नामकर्म प्रकृतियों की, तेत्तीसुदही-तेतीस सागरोपम, सुरनारयाऊ-देव और नरकायु की, सेसाउ-शेष दो आयु की, पल्लतिगं-तीन पल्य ।
___गाथार्थ-स्थिर, शुभपंचक , उच्चगोत्र, प्रथम संस्थान और प्रथम संहनन, इन नौ प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति दस कोडाकोडी सागरोपम की है तथा द्वितीयादि संस्थान और संहननों में क्रमशः दो-दो कोडाकोडी सागरोपम की वृद्धि रूप उत्कृष्टस्थिति है और सूक्ष्मत्रिक एवं विकलत्रिक की उत्कृष्ट स्थिति अठारह कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण है ।
तीर्थंकर और आहारकद्विक की उत्कृष्ट स्थिति अन्तःकोडाकोडी सागरोपम है। नामकर्म की शेष प्रकृतियों और नीचगोत्र की उत्कृष्ट स्थिति बीस कोडाकोडों सागरोपम प्रमाण है । देवायु और नरकायु की उत्कृष्ट स्थिति तेतीस सागरोपम और तिर्यच व मनुष्यायु की तीन पल्योपम प्रमाण होती है ।
__विशेषार्थ--'थिर त्ति'-स्थिरनाम, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय यशःकीर्ति रूप शुभपंचक, उच्चगोत्र तथा 'संठाणसंघयणमूले त्ति' मूल अर्थात् समचतुरस्र नामक प्रथम संस्थान और प्रथम वज्रऋषभनाराचसंहनन की उत्कृष्ट स्थिति इसी प्रकार अर्थात् पूर्वोक्त दस कोडाकोडी सागरोपम' प्रमाण जानना चाहिये । उक्त प्रकृतियों का अवाधाकाल दसवर्षशत अर्थात् एक हजार वर्ष है । इनका कर्मदलिकनिषेक अवाधाकाल हीन शेष स्थिति प्रमाण है ।
- तत्पश्चात् 'तब्बीयाइ बिवुड्ढी' अर्थात् उन संस्थानों और संहननों के मध्य में जो द्वितीय, तृतीय आदि संस्थान और संहनन हैं, उनमें क्रमशः दो-दो सागरोपम की वृद्धि रूप उत्कृष्ट स्थिति जानना चाहिये । जिसका आशय यह है कि दूसरे संस्थान (न्यग्रोधपरिमण्डलसंस्थान) और संहनन (ऋषभनाराचसंहनन) की उत्कृष्टस्थिति बारह (१२) कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण है तथा बारह १. पल्यापम और सागरोपम के बारे में शास्त्रों में कहा है कि चार कोस के लंबे, चौड़े और गहरे कुएं में यगलिया जीवों
के केशों के असंख्य खण्ड करके उन्हें खूब दबा-दबा कर भरा जाये और फिर सौ-सौ वर्ष बाद एक-एक खण्ड निकाला जाये, निकालते-निकालते जब वह कुआं खाली हो जाये तब एक पल्योपम काल होता है। (इसमें असंख्य वर्ष लगते हैं) और दस कोडाकोडी पल्योपम का एक सागरोपम काल होता है। विशेष स्पष्टीकरण परिशिष्ट में किया गया है।