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कर्मप्रति
गाथार्थ-स्व वर्ग की उत्कृष्ट स्थिति में मिथ्यात्व की उत्कृष्ट स्थिति से भाग देने पर जो लब्ध प्राप्त होता है, उसमें से पल्य का असंख्यातवां भाग कम करने पर वह शेष प्रकृतियों का जघन्य स्थितिबंध है ।
विशेषार्थ--'वग्गुक्कोस त्ति' अर्थात् यहाँ ज्ञानावरण कर्म की प्रकृतियों के समुदाय को ज्ञानावरणवर्ग कहते हैं। इसी प्रकार दर्शनावरण कर्म के प्रकृतिसमुदाय को दर्शनावरणवर्ग, वेदनीय के प्रकृतिसमुदाय को वेदनीयवर्ग, दर्शनमोहनीय के प्रकृतिसमुदाय को दर्शनमोहनीयवर्ग, चारित्रमोहनीय के प्रकृतिसमुदाय को चारित्रमोहनीयवर्ग, नोकषायमोहनीय प्रकृतिसमुदाय को नोकषायमोहनीयवर्ग, नामकर्म के प्रकृतिसमुदाय को नामकर्मवर्ग, गोत्रकर्म के प्रकृतिसमुदाय को गोत्रकर्मवर्ग और अन्तराय के प्रकृतिसमुदाय को अन्तरायकर्मवर्ग कहते हैं। इन वर्गों को जो अपनी-अपनी तीस कोडाकोडी सागरोपम आदि रूप उत्कृष्ट स्थिति है, उसमें मिथ्यात्व की सत्तर कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति से भाग देने पर जो लब्ध प्राप्त हो, उसमें से पल्य का असख्यातवां भाग कम करने पर पहले कही गई प्रकृतियों में से शेष रही प्रकृतियों की जघन्य स्थिति का प्रमाण जानना चाहिये। जैसे कि--
दर्शनावरण और वेदनीय की उत्कृष्ट स्थिति तीस कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण है, उसमें मिथ्यात्व की सत्तर कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति से भाग देने पर और 'शून्यं शून्येन पातयेत्' इस वचन के अनुसार शून्य को शून्य से काट देने पर ३/७ सागरोपम लब्ध प्राप्त होता है, उसको पल्योपम के असंख्यातवें भाग से हीन करने पर पांचों निद्राओं (दर्शनावरण कर्म की प्रकृतियों) और असातावेदनीय की जघन्य स्थिति हो जाती है । इसी प्रकार मिथ्यात्व की जघन्य स्थिति पल्योपम के असंख्यातवें भाग से होन ७/७ भाग है, अर्थात् पल्योपम के असंख्यातवें भाग से कम एक सागरोपम प्रमाण है । संज्वलनकषायचतुष्क को छोड़कर शेष बारह कषायों की जघन्य स्थिति पल्योपम के असंख्यातवें भाग से न्यून ४/७ सागरोपम होती है तथा नोकषायमोहनीय की, नामकर्म और गोत्रकर्म की अपनी-अपनी बीस कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण रूप उत्कृष्ट स्थिति में मिथ्यात्व की सत्तर कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण उत्कुष्ट स्थिति से भाग देने पर जो २/७ सागरोपम भाग लब्ध प्राप्त होता है, उसमें पल्योपम के असंख्यातवें भाग से हीन करने पर वही भाग पुरुषवेद को छोड़कर शेष आठ नोकषायों की तथा देवद्विक, नरकद्विक, वैक्रियद्विक, आहारकद्विक, यशःकीति और तीर्थकर नामकर्म को छोड़कर शेष नामकर्म' की प्रकृतियों की एवं नीत्रगोत्र की जघन्य स्थिति है ।
१. शेष नामकर्म को प्रकृतियों में वर्णचतुष्का भी है। उनकी सामान्य से २/७ सागर जघन्य स्थिति बतलाई है।
इसका कारण यह है कि बंध अवस्था में वर्णादि चार लिये जाते हैं, उनके अपने-अपने अवान्तर भेद नहीं लिये जाते हैं। नामकर्म की उत्कृष्ट स्थिति बीस कोडाकोडी सागर होती है, अतः चारों की जघन्य स्थिति सामान्य से २/७ सागर ही समझना चाहिये। इनके अवान्तर भेदों की अपेक्षा प्रत्येक की जघन्य स्थिति का प्रमाण पंचसंग्रह, पंचमद्वार गाथा ४८ की दीका में स्पष्ट किया गया है। .....