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बंधनकरण
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इस प्रकार एकेन्द्रियों के जघन्य और उत्कृष्ट स्थितिबंध का कथन जानना चाहिये । ' अब विकलेन्द्रियों के जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति के बंध का विचार करते हैं-
'गुणा
'पणवीसेत्यादि' अर्थात् एकेन्द्रियों का जो उत्कृष्ट स्थितिबंध है, वही पच्चीस आदि के कार से गुणित किये जाने पर क्रमशः द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय लक्षण वाले विकलेन्द्रियों का और असंज्ञी पंचेन्द्रियों का उत्कृष्ट स्थितिबंध जानना चाहिये । वह इस प्रकार है
एकेन्द्रियों का जो उत्कृष्ट स्थितिबंध है, उसे पच्चीस से गुणा करने पर द्वीन्द्रियों का उत्कृष्ट स्थितिबंध होता है । एकेन्द्रियों का वही उत्कृष्ट स्थितिबंध पचास से गुणा करने पर त्रीन्द्रियों का उत्कृष्ट स्थितिबंध होता है, सौ से गुणा करने पर चतुरिन्द्रियों का उत्कृष्ट स्थितिबंध होता है और हजार से गुणा करने पर असंज्ञी पंचेन्द्रियों का उत्कृष्ट स्थितिबंध होता है। तथा 'पल्लसंखेज्जभागहा इयरो' अर्थात् द्वीन्द्रिय आदि जीवों का अपना-अपना जो उत्कृष्ट स्थितिबंध है वह पत्योपम के संख्यातवें भाग से हीन करने पर इतर अर्थात् जघन्य स्थितिबंध जानना चाहिये ।
स्थितिबंध का अल्पबहुत्व
अब सभी जघन्य और उत्कृष्ट स्थितिबंधों के अल्पबहुत्व का विचार करते हैं ----
१. सूक्ष्मसंपराय यति का जघन्य स्थितिबंध सबसे कम होता है ।
२. उससे बादर पर्याप्तक का जघन्य स्थितिबंध असंख्यात गुणा होता है ।
३. उससे भी सूक्ष्म पर्याप्तक का जघन्य स्थितिबंध विशेषाधिक है ।
१. एकेन्द्रिय के उत्कृष्ट और जघन्य स्थितिबंध के बारे में कर्मप्रकृति और पंचसंग्रह के मत में अन्तर है । जहाँ तक प्रकृतियों की जघन्य स्थिति प्राप्त करने के लिये उनकी उत्कृष्ट स्थिति में भाग देने का सम्बन्ध है, वहां तक तो दोनों में समानता है। लेकिन उसके बाद अन्तर आ जाता है। कर्मप्रकृति में तो यह बताया है कि अपने-अपने वर्ग की उत्कृष्ट स्थिति में मिथ्यात्व की ७० कोडाकोडी सागर की उत्कृष्ट स्थिति का भाग देने पर जो लब्ध आता है, वह एकेन्द्रिय की अपेक्षा उत्कृष्ट स्थितिबंध है और उसमें पल्य का असंख्यातवां भाग कम करने पर जघन्यस्थिति है। लेकिन पंचसंग्रह के मतानुसार वर्ग में नहीं, किन्तु प्रत्येक प्रकृति की अपनी-अपनी उत्कृष्ट स्थिति में भाग देने पर जो लब्ध आता है, वह एकेन्द्रिय की अपेक्षा से जघन्य स्थिति होती है और उसमें पल्य का असंख्यातवां भाग जोड़ने पर उसकी उत्कृष्ट होती है ।
इसी बात को बताने के लिये उपाध्याय यशोविजय जी ने कर्मप्रकृति की 'वग्गुक्को सठिईण. (गा. ७९ ) की टीका में पंचसंग्रह के मत का उल्लेख करते हुए लिखा है -- पंचसंग्रहे तु वर्गोत्कृष्ट स्थितिविभजनीयतया नाभिप्रेता' किन्तु 'सेसाणुक्कोसाओ मिच्छत्तठिईह जं लद्धं' (पंचमद्वार, गा. ४८) इति ग्रंथेन 'स्वस्वोत्कृष्टस्थितिमिथ्यात्वोत्कृष्टस्थित्या भागे हृते यल्लभ्यते तदेव जघन्य स्थितिपरिमाणमुक्त' अर्थात् पंचसंग्रह में तो अपने-अपने वर्ग की उत्कृष्ट स्थिति में भाग नहीं दिया जाता है, किन्तु अपनी-अपनी उत्कृष्ट स्थिति में मिथ्यात्व की उत्कृष्ट स्थिति से भाग देने पर जो लब्ध आता है, वही जघन्य स्थिति का परिमाण होता है।