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बंधनकरण
पुनरावृत्ति नहीं करते हैं । अतएव पूर्वोक्त चौदह जीवभेदों में सर्वत्र विशुद्धिस्थान भी संक्लेशस्थानों के समान असंख्यात गुणित कहना चाहिये ।
प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति
____ अब उत्कृष्ट और जघन्य स्थिति का प्रतिपादन करने के लिये माथा में 'विग्घ त्ति' आदि पद कहे गये हैं । जिनका अर्थ यह है कि अन्तराय और आवरणद्विक अर्थात् ज्ञानावरण और दर्शनावरण । इनमें अन्तराय कर्म की पांचों प्रकृति, पांचों ज्ञानावरण प्रकृति, नौ दर्शनावरण प्रकृति और असातावेदनीय, इन बीस (२०) प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति तीस कोडाकोडी सागरोपम होती है।'
प्रस्तुत में दो प्रकार की स्थिति जानना चाहिये- १. कर्मरूपतावस्थानलक्षणा' २. और अनुभवयोग्यारे। इनमें से कर्मरूप से अवस्थान लक्षण वाली स्थिति को अधिकृत करके यहाँ जघन्य
और उत्कृष्ट प्रमाण वाली स्थिति का कथन जानना चाहिये और जो अनुभवप्रायोग्य स्थिति होती है, वह अबाधाकाल से हीन होती है। जिन कर्मों की स्थिति जितने ,कोडाकोडी, सागरोपम होती है, उनका अबाधाकाल उतने ही वर्षशतप्रमाण होता है। जैसे--मतिज्ञानावरण कर्म की उत्कृष्ट स्थिति तीस कोडाकोडी सागरोपम है, तो उसका उत्कृष्ट अवाधाकाल तीसवर्षशत अर्थात् तीन हजार वर्ष जानना चाहिये । क्योंकि जो मतिज्ञानावरण कर्म उत्कृष्ट स्थिति का बांधा हो तो वह तीन हजार वर्ष तक अपने उदय से जीव को कोई भी बाधा उत्पन्न नहीं करता है । अवाधाकाल से रहित जो शेष स्थिति होती है, उतनी स्थिति में कर्मदलिकों का निषेक होता १. यहां ग्रंथकार ने उत्तर प्रकृतियों को लेकर उत्कृष्ट स्थिति बतलाई है। इनमें जिस उत्तरप्रकृति की सबसे अधिक स्थिति हो, वही उस मूल कर्मप्रकृति की उत्कृष्ट स्थिति समसमा चाहिये । इस दृष्टि से मूल कर्मप्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति निम्न प्रकार है-ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय और अन्तराय, इन चार कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति ३० कोडाकोडी सागरोपम, आयु की तेतीस सागरोपम और मोहनीय की ७० कोडाकोडी सागरोपम और नाम, गोत्र की २० कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण है। २. बंधने के बाद जब तक कर्म आत्मा के साथ ठहरता है, उतने काल के परिमाण को कर्मरूपतावस्थानलक्षणास्थिति
कहते हैं। ३. अबाधाकाल से रहित उदयोन्मुखी स्थिति अनुभवयोग्यास्थिति कहलाती है। ४. अबाधाकाल में कर्मदलिकों की निर्जरा न होने से उसमें निषेकरचना नहीं होती है । किसी-किसी कर्म
की अबाधाकाल के अन्तर्गत रहते हुए भी उद्वर्तना आदि से होने वाली प्रक्रिया भी अबाधाकाल की प्रक्रिया
में होती है। जिसका यहां ग्रहण नहीं किया है। प्रबुद्ध पाठक उसका अनुसंधान कर लें। ५. अबाधाकाल के बाद एक-एक समय में उदय आने योग्य द्रव्य के प्रमाण को निषेक कहते हैं। आयकर्म के
अतिरिक्त शेष सात कर्मों की अपनी-अपनी उत्कृष्ट स्थिति में से उन-उनका अबाधाकाल घटा कर जो शेष रहता है, उतने काल के जितने समय होते हैं, उतने ही उस कर्म के निषेक जानना चाहिये। लेकिन आयकर्म की अबाधा पूर्व भव में व्यतीत हो जाने से नवीन भब के प्रारम्भ से निषेक-रचना होती है।