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बंधनकरण
चाहिये, उसका यहां कथन नहीं किया है । परन्तु यहां तो सर्व भेदों में संक्लेशस्थान असंख्यात गुणित होते हैं, यह गाथागत 'य' चकार का आशय है । जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है--
(१) सूक्ष्म अपर्याप्तक के संक्लेशस्थान सवसे कम होते है। (२) उससे बादर अपर्याप्त के संक्लेशस्थान असंख्यात गुणित होते हैं । (३) उससे पर्याप्त सूक्ष्म जीव के संक्लेशस्थान असंख्यात गुणित होते हैं । (४) उससे पर्याप्त वादर जीवों के संक्लेशस्थान असंख्यात गुणित होते हैं। (५) उससे दीन्द्रिय अपर्याप्त के संक्लेशस्थान असंख्यात गणित होते हैं। इसी प्रकार पर्याप्त द्वीन्द्रिय, अपर्याप्त एवं पर्याप्त त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, असंज्ञी पंचेन्द्रिय और संज्ञी पंचेन्द्रिय के संक्लेशस्थान क्रम से उत्तरोत्तर असंख्यात गुणित जानना चाहिये ।
प्रश्न--यह कैसे समझें कि सर्व जीव भेदों में संक्लेशस्थान असंख्यात गुणित होते हैं ?
उत्तर--इसका कारण यह है कि सूक्ष्म अपर्याप्तक के जघन्य स्थितिबंध के आरम्भ में जो संक्लेशस्थान होते हैं, उनमें एक समय अधिक जघन्य स्थितिबंध के आरम्भ में संक्लेशस्थान विशेषाधिक होते हैं, उनसे भी दो समय अधिक जघन्य स्थितिबंध के आरम्भ में संक्लेशस्थान विशेषाधिक होते हैं, इस प्रकार तव तक कहना चाहिये, जब तक उसी जीव की उत्कृष्ट स्थिति प्राप्त होती है और उस उत्कृष्ट स्थितिबंध के आरम्भ में संक्लेशस्थानं जघन्य स्थिति सम्वन्धी संक्लेशस्थानों की अपेक्षा असंख्यात गुणित पाये जाते हैं । जव यह स्थिति है, तब. अपने आप ही अपर्याप्त बादर जीव के संक्लेशस्थान अपर्याप्त सूक्ष्म जीव सम्बन्धी संक्लेशस्थानों की अपेक्षा असंख्यात गुणित होते हैं । वह इस प्रकार कि अपर्याप्त सूक्ष्म जीव सम्बन्धी स्थितिस्थान की अपेक्षा वादर अपर्याप्त जीव के स्थितिस्थान संख्यात गुणित होते हैं और स्थितिस्थान की वृद्धि होने पर संक्लेशस्थान की वृद्धि होती ही है । इसलिये जव सूक्ष्म अपर्याप्त जीव के अति अल्प भी स्थितिस्थानों में जघन्य स्थितिस्थान सम्बन्धी संक्लेशस्थानों की अपेक्षा उत्कृष्ट स्थितिस्थान में संक्लेशस्थान असंख्यात गुणित होते हैं, तव बादर अपर्याप्त जीवों के स्थितिस्थानों में सूक्ष्म अपर्याप्त जीव के स्थितिस्थानों की अपेक्षा असंख्यात गुणित स्वयमेव होते हैं । इसी प्रकार आगे भी सभी जीवभेदों में संक्लेशस्थानों का' असंख्यात गुणत्व जान लेना चाहिये।
जैसे संक्लेशस्थान असंख्यात गुणित क्रम से होते हैं, उसी प्रकार उत्तरोत्तर जीवभेदों में विशुद्धिस्थान भी जानना चाहिये । जिसका संकेत आगे की गाथा में 'एमेव विसोहीओ'-पद से किया गया है । जिसका कारण सहित विशेष स्पष्टीकरण वहाँ गाथा की व्याख्या के प्रसंग में किया जा रहा है । सरलता से समझने के लिये जीव भेदों में स्थितिस्थान, संवलेशस्थान, विशुद्धिस्थान का प्रारूप इस प्रकार है-- १. स्थितिबंध के हेतुभूत जो काषायिक अध्यवसायस्थान हैं, वे संक्लेशस्थान कहलाते हैं। जीवभेदों में संक्लेशस्थानों
की तरह विशुद्धिस्थान हैं, परन्तु विशुद्धिस्थान स्थितिबंध में हेतुभूत न होने से उनकी यहां विवक्षा नहीं की है, मात्र संक्लेशस्थानों को ही विवक्षा की है।