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- इसी प्रकार वादर, पर्याप्त और प्रत्येक नामकर्म के अनुभाग की भी तीव्रता-मंदता कहना चाहिये।
___ इस प्रकरण में (शुभाशुभ प्रकृतियों के अनुभागों में) सादि-अनादिप्ररूपणा, स्वामित्व, घातिसंज्ञा, स्थानसंज्ञा, शुभाशुभप्ररूपणा, प्रत्ययप्ररूपणा और विपाकप्ररूपणा जिस प्रकार शतक में कही गई है, तदनुरूप यहाँ कहना चाहिये।
इस प्रकार अनुभागबंध का कथन समाप्त होता है। अब स्थितिबंध के निरूपण का अवसर प्राप्त होने से उसका विचार प्रारम्भ करते हैं। ४ स्थितिबंध
इसमें चार अनुयोगद्वार हैं--(१) स्थितिस्थानप्ररूपणा, (२) निषेकप्ररूपणा, (३) अवाधाकंडकप्ररूपणा, (४) अल्पबहुत्वप्ररूपणा । इनमें से पहले स्थितिस्थानप्ररूपणा करते हैं
ठिइबंधट्ठाणाई, सुहुमअपज्जत्तगस्स थोवाइं ।
बायरसुहमेयरबिति-चरिदिय अमणसन्नीणं ॥६॥ . संखेनजगुणाणि कमा, असमत्तियरे य बिंदियाइम्मि ।..
नवरमसंखेज्जगुणाई संकिलेसाइं .(य) सव्वत्थ ॥६९॥ . शब्दार्थ-ठिइबंधट्ठाणाई--स्थितिबंधस्थान, सुहम-सूक्ष्म, अपज्जतगस्स-अपर्याप्त के, थोवाई-अल्प, बायरसुहमेयर-वादर, सूक्ष्म और इतर, बितिचरिदिय-दीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय, अमणसन्नीणं-असंज्ञी और संज्ञी ।
___संखेज्जगुणाणि-संख्यातगुण, कमा-अनुक्रम से, असमत्तियरे-अपर्याप्त और पर्याप्त, य-और, बिंदियाइम्मि-द्वीन्द्रिय में, नवरं-परन्तु, असंखेज्जगुणाई-असंख्यात गुण, संकिलेसाई-संक्लेशस्थान, सम्वत्थ-सर्वत्र।
गाथार्थ--सूक्ष्म अपर्याप्तक जीव के स्थितिस्थानक सवसे अल्प होते हैं, उससे बादर अपर्याप्त, सूक्ष्म पर्याप्त , बादर पर्याप्त, द्वीन्द्रिय अपर्याप्त, द्वीन्द्रिय पर्याप्त, त्रीन्द्रिय अपर्याप्त, त्रीन्द्रिय पर्याप्त, चतुरिन्द्रिय अपर्याप्त, चतुरिन्द्रिय पर्याप्त, असंज्ञी पंचेन्द्रिय अपर्याप्त, असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त, संज्ञी पंचेन्द्रिय अपर्याप्त, संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त-के स्थितिस्थान क्रम से संख्यात गुणित होते हैं । परन्तु वादर अपर्याप्त एकेन्द्रिय से द्वीन्द्रिय अपर्याप्त जीव के स्थितिस्थान असंख्यात गुणित होते हैं तथा उक्त सव भेदों (जीवसमासों) में संक्लेशस्थान सर्वत्र उत्तरोत्तर असंख्यात गुणित जानना चाहिये ।
विशेषार्थ--इस प्रकरण में जघन्य स्थिति से आरम्भ करके उत्कृष्ट स्थिति तक जितने समय होते हैं, उतने प्रमाण ही स्थितिस्थान होते हैं । जिसका अभिप्राम, यह है१. असत्काल्पना से समझने के लिये तीवता-मंदत्ता की स्थापना का प्रारूप परिशिष्ट में देखिपे ।