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ब धनकरण
कहना चाहिये, जब तक कंडक पूर्ण होता है । उसके बाद उक्त क्रम से पुन: संख्येय भागाधिक स्थान के बदले संख्ये गुणाधिक स्थान कहना चाहिये । तदनन्तर पुनः मूल से प्रारंभ करके उतने ही शरीरस्थान कहना चाहिये । उससे पुन: एक संख्येय गुणाधिक स्थान कहें । ये संख्येय गुणाधिक स्थान भी तब तक कहना चाहिये, जब वे कंडक प्रमाण हो जाते हैं । उसके बाद पूर्व परिपाटी के अनुसार संख्येय
किस्थान के बदले असंख्येय गुणाधिक स्थान कहें। उससे पुनः मूल से आरंभ करके पूर्व में अतिक्रान्त किये गये स्थान कहना चाहिये । उससे पुनः एक असंख्येय गुणाधिक स्थान कहना चाहिये । इस प्रकार असंख्य गुणाधिक स्थान कंडक मात्र कहना चाहिये। उसके बाद पूर्व परिपाटी के अनुसार असंख्य गुणाधिक स्थान के बदले अनन्त गुणाधिक एक स्थान कहना चाहिये । उसके बाद पूर्व में अतिक्रान्त आदि रूप कथनादि के क्रम से अनन्तगुणाधिक स्थान भी कंडक प्रमाण कहना चाहिये। उनसे ऊपर पंचवृद्धयात्मक स्थान पुनः कहना चाहिये, जब तक कि अनन्तगुणवृद्ध स्थान प्राप्त नहीं होता है, क्योंकि इसमें षड् स्थानों की समाप्ति होती है। इस प्रकार असंख्यात षट्स्थान शरीरस्थानों में होते हैं और ये सभी शरीरस्थान असंख्यात लोकाकाशप्रदेशप्रमाण होते हैं।
इस प्रकार नामप्रत्ययस्पर्धकप्ररूपण जानना चाहिये । अब प्रयोगप्रत्ययस्पर्धकप्ररूपणा करते हैं । प्रयोगप्रत्ययस्पर्धकप्ररूपणा
प्रयोग अर्थात् प्रकृष्ट योग को प्रयोग कहते हैं। उसके स्थान की वृद्धि द्वारा जो रस केवल योगप्रत्यय से बंधने वाले कर्म परमाणुओं में स्पर्धक रूप से बढ़ता है, उसे प्रयोगप्रत्ययस्पर्धक कहते हैं - प्रयोगो योगः प्रकृष्टो योगः इति व्युत्पत्तेः तत्स्थानवृद्धया यो रसः कर्मपरमाणुषु केवलयोगप्रत्ययतो बध्यमानेषु परिवर्धते स्पर्धकरूपतया तत्प्रयोगप्रत्ययस्पर्धकं । इसी प्रकार पंचसंग्रह ( बंधनकरण गाथा ३६ ) में भी कहा गया है -
होई पओगो जोगो तट्ठाणविवद्धणाए जो उ रसो । परिवड्ढेई जीवे पयोगफड्ड तयं बेंति ॥
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प्रकृष्ट योग की स्थानवृद्धि से जीव में जो रस बढ़ता है, उसे प्रयोगप्रत्ययस्पर्धक कहते हैं । यह प्रयोगप्रत्ययस्पर्धकप्ररूपणा नामप्रत्ययस्पर्धकप्ररूपणा के समान जानना चाहिये । जैसा कि कहा है
अविभागवग्गफड्डग अंतरठाणाई एत्थ जह पुव्वि ।
ठाणा वग्गणाओ अनंतगुणणाई गच्छति ॥ १
इसका यह अर्थ हुआ कि अविभागप्ररूपणा, वर्गणाप्ररूपणा, स्पर्धकप्ररूपणा, अन्तरप्ररूपणा, स्थानप्ररूपणादि प्ररूपणायें जैसी पूर्व में नामप्रत्ययस्पर्धकप्ररूपणा में की गई हैं, उसी प्रकार प्रयोगप्रत्ययस्पर्धकप्ररूपणा में भी करना चाहिये । स्थानों में आदि वर्गणा अनन्त गुणित प्राप्त होती है । वह इस प्रकार कि प्रथम स्थान की प्रथम वर्गणा में संपूर्ण पुद्गलपरमाणुगत स्नेहाविभाग सबसे कम होते हैं। उनसे द्वितीय स्थान की प्रथम वर्गणा में अनन्तगुणे होते हैं। उनसे भी तृतीय स्थान संबंधी प्रथम १. पंचसंग्रह, बंधनकरण ३७