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कर्मप्रकृति पुद्गलों के आदानकाल में सर्व कर्मप्रदेशों में अर्थात् एक-एक कर्मपरमाणु पर गुणों अर्थात् रस के निर्विभाग पूर्वोक्त स्वरूप वाले अविभागी अंशों को सर्व जीवों से अनन्तगुणे उत्पन्न करता है।
उक्त कथन का आशय यह है कि जीव द्वारा ग्रहण किये जाने से पहले कर्मवर्गणाअन्तर्वर्ती परमाणु उस प्रकार के विशिष्ट रस से युक्त नहीं होते हैं, किन्तु प्रायः' नीरस और एकस्वरूप वाले होते हैं, लेकिन जब वे जीव के द्वारा ग्रहण किये जाते हैं. तब उस ग्रहणकाल में ही उन कर्मपरमाणओं में काषायिक अध्यवसाय के द्वारा सर्व जीवों से भी अनन्तगणे रसाविभाग उत्पन्न हो जाते हैं और उसी समय उनका अमुक भाग ज्ञानावरण, अमुक भाग दर्शनावरण आदि रूप विचित्र स्वभावरूपता को प्राप्त हो जाता है । क्योंकि जीवों की और पुद्गलों की शक्ति अचिन्त्य है और यह बात असंगत भी नहीं है, क्योंकि वैसा देखा जाता है । जैसे कि शुष्क तृण आदि के परमाणु अत्यन्त नीरस होते हुए भी गाय आदि के द्वारा ग्रहण किये जाने पर विशिष्ट दूध आदि रस रूप और सप्त धातु रूप से परिणत हो जाते हैं ।
शंका-जीव क्या सभी कर्मपरमाणुओं में उन रस के अविभागों को समान रूप से उत्पन्न करता है या विषम रूप से ?
समाधान-विषम रूप से उत्पन्न करता है। अर्थात् कितने. ही परमाणुओं में अल्प रसाविभागों को उत्पन्न करता है, कितनों में ही उनसे अधिक रसाविभागों को और कितनों में और भी अधिक रसाविभागों को उत्पन्न करता है। जिन परमाणुओं में सबसे कम रसाविभागों को उत्पन्न करता है, वे भी सर्वजीवों से. अनन्तगुणे होते हैं । लेकिन उससे यह ज्ञात नहीं होता है कि किन परमाणुओं में कितने रसाविभागों को उत्पन्न करता है ? अतः इसका स्पष्ट आशय प्रगट करने के लिये वर्गणा आदि प्ररूपणाओं का कथन करते हैं । वर्गणाप्ररूपणा इस प्रकार है
वर्गणाप्ररूपणा
सव्वप्पगुणा ते पढम वग्गणा सेसिया विसेसूणा।
अविभागुत्तरियाओ सिद्धाणमणंतभागसमा ॥३०॥ शब्दार्थ-सव्वप्पगुणा-सबसे अल्प रसाणु वाले, ते-उनकी (कर्म परमाणुओं की), पढम-प्रथम, वग्गणा-वर्गणा, सेसिया-शेष, विसेसूणा-विशेषहीन-विशेषहीन, अविभागुत्तरियाओ-एक-एक रसाणु से बढ़ती हुई, सिद्धाणं-सिद्धों के, अणंतभागसमा-अनन्तवें भाग जितनी । १. उत्तर समय में जो रस उत्पन्न होने वाला है, पूर्व समय में उस रस की योग्यता का अस्तित्व बतलाने के लिये यहां
'प्रायः' शब्द का प्रयोग किया गया है। २. रसाविभाग और स्नेहाविभाग के अन्तर का स्पष्टीकरण परिशिष्ट में देखिये। .' ३. उक्त कथन का आशय यह है कि कर्मपरमाण में कषायजनित रस के (विपाकशक्ति के) निविभाज्य अंश को
रसाविभाग कहते हैं और एक-एक कर्मपरमाणु में चाहे वह सर्व जघन्य रसयुक्त हो अथवा सर्वोत्कृष्ट रसयुक्त हो, समस्त जीव राशि से अनन्त गुण रसाविभाग वाले होते हैं। अविभागप्ररूपणा द्वारा यही बात स्पष्ट की है।