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कर्मप्रकृति
विशेषार्थ-स्थावर जीवों के अनुभागबंध के योग्य एक-एक अनुभागबंधस्थान पर अनन्त स्थावर जीव बंधक के रूप में पाये जाते हैं, किन्तु त्रस जीवों के बंधयोग्य एक-एक अनुभागबंधस्थान पर जघन्य से एक-दो और उत्कृष्ट से असंख्यात अर्थात् एक आवलिका के असंख्यातवें भाग के जितने समय होते हैं, उनके प्रमाण असंख्यातः त्रस जीव प्राप्त होते हैं ।
इस प्रकार यह एक-एक स्थान में जीवों के प्रमाण की प्ररूपणा है।' अब दूसरी अंतरस्थान प्ररूपणा करते हैं। _. अन्तरस्थान की प्ररूपणा २ के लिए गाथा में 'लोगासिमित्यादि' पद कहा है । जिसका अर्थ यह है कि इन त्रस जीवों के असंख्यात लोक अर्थात् असंख्यात लोकाकाशप्रदेशप्रमाण अनुभागबंधस्थानों का अन्तर होता है, अर्थात् इतने अनुभागबंधस्थान त्रस जीवों के बंध को प्राप्त नहीं होते हैं। इस कथन का तात्पर्य यह है कि उसयोग्य अर्थात् त्रस जीवों के बंधयोग्य जितने अनुभागबंधस्थान हैं, वे सभी बंध को प्राप्त नहीं होते हैं। वे अनुभागस्थान जघन्यपद की अपेक्षा एक या दो और उत्कृष्टपद की अपेक्षा' असंख्यात लोकाकाशप्रदेशप्रमाण होते हैं और स्थावर जीवों के बंधने योग्य अनुभागस्थानों में अन्तर नहीं है । क्योंकि सभी स्थान स्थावरों के योग्य हैं, अर्थात् स्थावर जीवों के द्वारा सदा ही अपने योग्य सभी अनुभागस्थान बांधे जाते हुए प्राप्त होते हैं । यह कैसे जाना? तो इसका उत्तर यह है कि संसार में स्थावर जीव अनन्त हैं किन्तु स्थावरों के बंधयोग्य अनुभागस्थान असंख्यात ही हैं । इसलिये उनमें अन्तर प्राप्त नहीं होता है । यह अन्तरप्ररूपणा का अभिधेय है।३. ___ इस तरह प्रतिस्थान जीवों के प्रमाण और अन्तरस्थान की प्ररूपणा करने के बाद आगे की गाथा में निरन्तरस्थान और नानाजीवकाल प्ररूपणा का विवेचन करते हैं । निरन्तरस्थान एवं नानाजीवकाल प्ररूपणा .......... आवलि असंखभागो, तसा निरंतरं अहेगठाणम्मि ।
नाणा जीवा एवइ-कालं एगिदिया निच्चं ॥४५॥
उक्त जीवप्रमाणप्ररूपणा का सारांश यह है कि स्थावरप्रायोग्य एक-एक अनभागबंधस्थान में अनन्त स्थावर जीव पाये जाते हैं। उनमें जघन्य, उत्कृष्ट का भेद नहीं है और त्रसप्रायोग्य एक-एक अनुभागबंधस्थान में जघन्य से एक. दो और उत्कृष्ट से आवलिका के असंख्यातवें भाग प्रमाण त्रस जीव
पाये जाते हैं। २. पंक्ति रूप में स्थापित अध्यवसायों के मध्य में जो बंधरहित स्थानों का अन्तर पड़ता है उस पंक्तिगत अन्तर
की प्ररूपणा करने को अन्तरप्ररूपणा कहते हैं। जैसे 0000००००.BOO इस स्थापना में जो खुले हुए गोलाकार शून्य हैं वे बंधरहित स्थान के दर्शक यानी अन्तर रूप हैं। अन्तरप्ररूपणा में पंक्तिबद्ध अन्तर को ग्रहण किया जाता है, किन्तु जुदे-जुदे बिखरे हुए बंधशून्यस्थान के समुदाय की अपेक्षा अन्तरप्ररूपणा
नहीं समझना चाहिये। ३. उक्त कथन का सारांश यह है कि स्थावरप्रायोग्य अनु. स्थानों में अन्तर नहीं होता है और त्रसप्रायोग्य
अनु. स्थानों में जघन्य से १,२ और उत्कृष्ट से असंख्यात लोकाकाशप्रदेशप्रमाण स्थानों का अन्तर होता है, अर्थात् उतने स्थान बंधशून्य होते हैं।