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बंधनकरण
पल्लासंखियभागो - पल्य के असंख्यातवें भाग स्थान के, होई - होती है, बिइयम्मि- दूसरे स्थान में तक, एवं इस प्रकार, उवघाए - उपघात नामकर्म में,
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प्रमाण. जावं - तक, बिइयस्स - दूसरे स्थितआ उक्कस्सा - इस तरह उत्कृष्ट स्थितिस्थान वा-और, विधी, अणुकड्ढी - अनुकृष्टि ।
• गाथार्थ - - घातिप्रकृतियों तथा अशुभ वर्ण, रस, गंध और स्पर्श, इन प्रकृतियों के जघन्य स्थितिबंध में जो अनुभागबंधाध्यवसायस्थान हैं, उनका एक देश तथा अन्य भी अनुभाग बंधाध्यवसायस्थान द्वितीय स्थितिबंध में जानना चाहिये ।
इस प्रकार पत्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण स्थितिस्थानों का उल्लंघन करने पर प्रथम स्थितिस्थान के अध्यवसायों की अनुकृष्टि समाप्त होती है । तदनन्तर ( प्रथम स्थितिस्थान की अनुकृष्टि पूर्ण होने के बाद) दूसरे स्थितिबंध के अनुभागबंघाध्यवसायस्थानों की अनुकृष्टि दूसरे स्थान में समाप्त होती है । इस प्रकार उत्कृष्ट स्थितिस्थान तक कहना चाहिये । उपघात नामकर्म में भी इसी प्रकार अनुकृष्टि जानना चाहिये ।
विशेषार्थ —— यहाँ पर प्रायः ग्रंथिदेश में वर्तमान अभव्य जीव के जो जघन्य स्थितिबंध होता है, वहाँ से स्थिति की वृद्धि होने पर कही जाने वाली अनुकृष्टि का अनुसरण करना चाहिये । अर्थात् यहाँ जो स्थिति की वृद्धि में अनुकृष्टि कही जायेगी, वह प्रायः ग्रंथिदेश में वर्तमान अभव्य जीव के जघन्य स्थितिबंध से प्रारम्भ करके कहना चाहिये । परन्तु निम्नलिखित प्रकृतियों के विषय में यह विशेषता है कि-
सातावेदनीय, मनुष्यद्विक, देवद्विक, तिर्यंचद्विक, पंचेन्द्रियजाति, तस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकः शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वज्रऋषभनाराचसंहनन, प्रशस्तविहायोगति, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशः कीर्ति, उच्चगोत्र, और नीचगोत्र इन तेईस प्रकृतियों की अभव्यप्रायोग्य जघन्यः स्थितिबंध से नीचे भी अनुकृष्टि का अनुसरण करना चाहिये ।
१. कुछ एक प्रकृतियों की अनुकृष्टि अभव्य के जवन्य स्थितिबंध से भी पहले ( हीनतर स्थितिबंध से ) प्रारम्भ होती है, इसी बात को स्पष्ट करने के लिये यहां 'प्रायः' शब्द रखा है।
२. प्रकृतियों को चार वर्गों में विभाजित करके प्रत्येक वर्ग में अनुकृष्टि, तीव्रमंदत्व और स्वस्थान में तुल्यता का विचार किया है -- १. अपरावर्तमान अशुभप्रकृति वर्ग, २. अपरावर्तमान शुभप्रकृति वर्ग, ३. परावर्तमान शुभप्रकृति वर्ग, ४. परावर्तमान अशुभप्रकृति वर्ग । इन वर्गों में ग्रहीत प्रकृतियों के नाम इस प्रकार हैं
१. अपरावर्तमान अशुभ प्रकृति -- पैंतालीस घाति प्रकृतियां, अशुभ वर्णादि नवक, उपघातनाम । कुल पचवन प्रकृतियां ।.
२. अपरावर्तमान शुभ प्रकृति-पराघात, पन्द्रह बंधन, पांच शरीर, पांच संघातन, तीन अंगोपांग, शुभवर्णादि ग्यारह, तीर्थंकर, निर्माण, अगुरुलघु, उच्छ्वास, आतप, उद्योत । कुल छियालीस प्रकृतियां ।
३. परावर्तमान शुभ प्रकृति — सातावेदनीय, स्थिरादि षट्क, उच्चगोत्र, देवद्विक, मनुष्यद्विक, पंचेन्द्रियजाति, समचतुरस्रसंस्थान, वज्रऋषभनाराचसंहनन, प्रशस्तविहायोगति । कुल सोलह प्रकृतियां । ४. परावर्तमान अशुभ प्रकृति- असातावेदनीय, स्थावरदशक, नरकद्विक, अप्रशस्तविहायोगति, एकेन्द्रिय
आदि चार जातियां, प्रथम संस्थान और संहनन को छोड़कर शेष पांच संस्थान और पांच संहनन । कुल अट्ठाईस प्रकृतियाँ