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कर्मप्रकृति
ज्ञानावरणपंचक, दर्शनावरणनवक, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नव नोकषाय, अन्तरायपंचक ये घातिकर्म की (४५) प्रकृतियां तथा अशुभ गंध, वर्ण, रस और स्पर्श अर्थात् कृष्ण, नील ये दो अशुभ वर्ण, दुरभिगंध, तिक्त, कटुक ये दो अशुभ रस, गुरु, कर्कश, रुक्ष, शीत, ये चार अशुभ स्पर्श रूप अशुभ वर्णादिनवक, उपधातु कुल पचवन (५५) प्रकृतियों के जघन्य स्थितिबंध में जो अनुभागबंधाध्यवसायस्थान होते हैं, उनका एकदेश दूसरे स्थितिबंध में भी रहता है तथा अन्य भी अनुभागबंधाध्यवसायस्थान रहते हैं । ___ उक्त कथन का अभिप्राय यह है कि जघन्य स्थितिबंध के प्रारम्भ में जो अनुभागबंधाध्यवसायस्थान होते हैं, उनका असंख्यातवां भाग छोड़कर शेष सभी अनुभागबंधाध्यवसायस्थान दूसरे स्थितिबंध के प्रारम्भ में पाये जाते हैं तथा अन्य भी होते हैं। इसी प्रकार दूसरे स्थितिबंध के प्रारम्भ में जो अनुभागबंधाध्यवसायस्थान होते हैं, उनका असंख्यातवां भाग छोड़कर शेष सभी अनुभागबंधाध्यवसायस्थान तृतीय स्थितिबंध के प्रारम्भ में पाये जाते हैं तथा अन्य भी होते हैं। तृतीय स्थितिबंध के प्रारंभ में जो अनुभागबंधाध्यवसायस्थान होते हैं, उनका असंख्यातवां भाग छोड़कर शेष सभी चतुर्थ स्थितिबंध के आरम्भ में पाये जाते हैं तथा अन्य भी होते हैं । इस प्रकार तब तक कहना चाहिये, जब तक कि पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण स्थितियां व्यतीत होती हैं। यहाँ पर अर्थात पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण स्थितियों का अन्त होता है, वहाँ जघन्य स्थितिबंध के प्रारम्भ में होने वाले अनुभागबंधाध्यवसाय स्थानों की अनुकृष्टि समाप्त हो जाती है। (और जहाँ पर जघन्य स्थितिबंध के प्रारंभ में होने वाले अनुभागबंधाध्यवसायस्थानों की अनुकृष्टि समाप्त होती है-)
उसकं अनन्तर उपरितन स्थितिबंध में द्वितीय स्थितिबंध के प्रारम्भ में होने वाले अनुभागबंधाध्यवसायस्थानों की अनुकृष्टि समाप्त होती है । इसी बात को स्पष्ट करने के लिये गाथा में कहा गया है कि-'बिइयस्स होइ बिइयम्मि' यानी द्वितीय स्थितिबंध सम्बन्धी अनुभागबंधाध्यवसायस्थानों की अनुकृष्टि दूसरे स्थान पर अर्थात् जहाँ जघन्य स्थितिबंध के प्रारम्भ में होने वाले अनुभागबंधाध्यवसायस्थानों की अनुकृष्टि समाप्त होती है, उसके अनन्तरवर्ती स्थान पर समाप्त हो जाती है। तीसरे स्थितिबंध के प्रारम्भ में होने वाले अनुभागबंधाध्यवसायस्थानों की अनुकृष्टि उसके अनन्तरवर्ती स्थान पर समाप्त होती है। इस प्रकार तब तक कहना चाहिये, जब तक कि ऊपर कही गई प्रकृतियों की अपनी-अपनी उत्कृष्ट स्थिति प्राप्त होती है । इसी बात को बतलाने के लिये गाथा में 'आ उक्कसा एवं' यह पद कहा है। अर्थात इसी प्रकार से उक्त प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति प्राप्त होने तक अनुभागबंधाध्यवसायस्थानों की अनुकृष्टि जानना चाहिये तथा जिस प्रकार से घातिकर्मों की प्रकृतियों की अनुकृष्टि कही है, उसी प्रकार उपघात नामकर्म में भी अनुकृष्टि जानना चाहिये। १. ये सभी प्रकृतियां अपरावर्तमान अशुभ प्रकृतिवर्ग की हैं। २. 'अन्य' का आशय यह है कि प्रथम स्थितिबंधगत सर्व अनुभागबंधाध्यवसायस्थानों में का कोई भी अनुभाग
बंधाध्यवसायस्थान न हो किन्तु उनसे व्यतिरिक्त दूसरे अनुभागबंधाध्यवसायस्थान हों। ३. कर्म प्रकृतियों की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति आगे स्थितिबंध प्रकरण में बताई जा रही है।