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बंधtere
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स्पर्धकों के समुदाय रूप परिमाण को अनुभागबंघस्थान कहते हैं - अनुभागबंधस्थानं नामैकेन काषायिकेणाध्यवसायेन गृहीतानां कर्मपरमाणूनां रसस्पर्धकसमुदायपरिमाणं ।'
इस प्रकार स्थानप्ररूपणा जानना चाहिये । अब आगे की गाथाओं में कंडक आदि की प्ररूपणा करते हैं ।
कंडक और षट्स्थान प्ररूपणा
एतो अंतरतुल्लं अंतरमणंतभागुत्तरं बिइयमेवं । अंगुल असंभागो भागुत्तरं कंड ॥३२॥
बाद),
शब्दार्थ -- एत्तो - इससे ( प्रथम स्थान के अंतरं - अन्तर, अनंतभागुत्तरं - अनन्त भाग से अधिक, अंगुलअसंखभागो-अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण, कंड-कंडक ।
अंतरतुल्लं - - ( स्पर्धक ) अन्तर समान है, बिइयं - दूसरा स्थान, एवं इस प्रकार, अनंतभागुत्तरं - अनन्तवें भाग से बढ़ता हुआ,
गाथार्थ - इस प्रथम स्थान से दूसरे स्थान के अन्तराल में अन्तर स्पर्धक - जितना होता है तथा दूसरा अनुभागबंधस्थान प्रथम अनुभागबंधस्थान की अपेक्षा अनन्तवें भाग से अधिक होता है । इस प्रकार अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण अनन्तभाग वृद्धि वाले अनुभागस्थानों का प्रथम कंडक होता है ।
विशेषार्थ - - इस प्रथम स्थान से प्रारंभ करके द्वितीय स्थान से पहले जो अन्तर होता है, वह अन्तरतुल्य अर्थात् पूर्वोक्त प्रमाण वाले अंतर के समान जानना चाहिये । इसका अभिप्राय यह है कि जैसे प्रथम स्पर्धक की अंतिम वर्गणा से द्वितीय स्पर्धक की आदि वर्गणा का अंतर सर्व जीवों से अनन्तगुणा कहा गया है, उसी प्रकार यहाँ भी प्रथम स्थान के अंतिम स्पर्धक की अंतिम वर्गणा से द्वितीय स्थान के प्रथम स्पर्धक की प्रथम वर्गणा का अंतर भी सर्व जीवों से अनंतगुणा जानना चाहिये । यह द्वितीय अनुभागबंघस्थान स्पर्धकों की अपेक्षा अनन्तभागोत्तर अर्थात् अनन्तवें भाग से अधिक होता है । अर्थात् प्रथम अनुभागबंधस्थान में जितने स्पर्धक होते हैं उनसे अनन्तवें भाग अधिक स्पर्धक द्वितीय अनुभागबंघस्थान में जानना चाहिये । इस प्रकार पूर्व में दिखाये गये प्रकार से अनन्तवें भाग से अधिक वृद्धि वाले स्थान तब तक कहना चाहिये, जब तक कि वे अंगुल के असंख्यातवें भाग गत आकाश प्रदेशों की राशि प्रमाण होते हैं । इन सबका समुदाय एक कंडक कहलाता है । 'अनंतभागुत्तरं ' अर्थात् अनन्तभागोत्तर अनुभागबंधस्थानों का समुदाय रूप होने से कंडक को भी अनन्तभागोत्तर कहा जाता है ।
इस प्रकार कंडकप्ररूपणा समझना चाहिये । अब षट्स्थानप्ररूपणा करते हैं
१. उक्त कथन का आशय यह है कि किसी भी जीव को एक समय में एक वर्गमा या एक स्पर्धा रूप रस की प्राप्ति नहीं होती है, किन्तु अनेक वर्गणा और स्पर्धक रूप एक स्थान जितने रस की प्राप्ति होती है। उन जीवप्रदेशों से संबंद्ध होने वाले सभी कर्मस्कन्ध समस्साविभाग युक्त नहीं होते हैं । उनमें हीनाधिकपना पाया जाता है। ऐसे इन सब रसाविभाग के समुदाय को एक अनुभागबंधस्थान जानना चाहिये ।