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कर्मप्रकृति और प्रदेश की भी विवक्षा न हो, उस अविशेषित रसप्रकृतिरूप प्रकृतिबंध जानना चाहिये' तथा गाथा में पठित 'तु' शब्द अधिकार्थसूचक है । अतः अविवक्षित है रस, प्रकृति और प्रदेश जिसमें ऐसा स्थितिबंध, अविवक्षित है प्रकृति, स्थिति, प्रदेश जिसमें ऐसा रसबंध और अविवक्षित है प्रकृति, स्थिति और रस जिसमें ऐसा प्रदेशबंध, यह अर्थ जानना चाहिये।
प्रकृतिबंध में जितनी प्रकृतियों का बंध होता है और जो इनके बंध के स्वामी हैं, यह समस्त वर्णन 'शतक' नामक ग्रंथ से जानना चाहिये। प्रकृतिबंध और प्रदेशबंध योग से होते हैं। जैसा कि कहा है-जोगा पयडिपएसं। इनमें से प्रकृतिबंध का वर्णन किया जा चुका है। २. प्रदेशबंध __अब प्रदेशबंध के वर्णन करने का अवसर प्राप्त है, अतः उसका कथन करते हैं कि आठ प्रकार के कर्मबंध करने वाले जीव के द्वारा विचित्रताभित एक ही अध्यवसाय के द्वारा जो कर्मदलिक ग्रहण किये जाते हैं, उनके आठ भाग होते हैं। सात प्रकार के कर्मों का बंध करने वाले जीव के द्वारा ग्रहण किये जाते दलिकों के सात भाग, छह प्रकार के कर्मबंध करने वाले जीव के द्वारा ग्रहीत दलिकों के छह भाग होते हैं तथा एक प्रकार के कर्मबंधक जीव के द्वारा ग्रहीत दलिकों का एक ही भाग होता है।
इस प्रकार जीव द्वारा ग्रहीत कर्मदलिकों के मूल विभाग जानना चाहिये। अब उत्तर प्रकृतियों के भाग और विभाग को बतलाने के लिये कहते हैं
जं सव्वघाइपत्तं, सगकम्मपएसणंतमो भागो ।
आवरणाण चउद्धा, तिहा य अह पंचहा विग्घे ॥२५॥ शब्दार्थ-जं-जो, सव्वधाइपत्तं-सर्वघाति को प्राप्त हुआ है वह, सग-स्व-अपने, कम्मपएसकर्मप्रदेश का, अणंतमो-अनन्तवां, भागो-भाग, आवरणाण-आवरणों में (ज्ञानावरण, दर्शनावरण में) चउद्धा-चार भेद, तिहा य-और तीन भेद, अह-और, पंचहा-पांच भेद, विग्धे-अन्तराय में। १. ठिइबंधु दलस्स ठिई पएसबंधो पएसगहणं जं।
ताण रसो अणुभागो तस्समुदाओ पगईबंधो । . बद्ध दलिकों की स्थिति को स्थितिबंध, प्रदेशों के ग्रहण को प्रदेशबंध और विपाकवेदन कराने वाले
रस-शक्ति को अनुभागबंध और इन सबके समुदाय को प्रकृतिबंध कहते हैं। २. उक्त कथन का आशय यह है कि यद्यपि प्रत्येक कर्म-प्रकृति, प्रकृति, स्थिति, रस और प्रदेश सहित है, परन्तु जब
विवक्षित प्रकृति के प्रकृतिबंध का वर्णन किया जाता है, तब शेष स्थिति, रस और प्रदेश इन तीन अंशों की अविवक्षा (अभी तत्स्वरूप कथन न करने की इच्छा) जानना चाहिये। इसी प्रकार स्थितिबंध के वर्णन के प्रसंग में प्रकृतिबंध आदि शेष तीन की, रसबंध के वर्णन में शेष प्रकृत्यादि तीन अंशों की और प्रदेशबंध के वर्णन में शेष प्रकृति, स्थिति, अनुभाग अंशों की अविवक्षा समझना चाहिये। सारांश यह कि वर्ण्य को मुख्य मानकर शेष अंशों को गौण मानना चाहिये। इन प्रकृतिबंध आदि चारों अंशों के स्वरूप को समझाने के लिए आचार्य मलयगिरि कृत टीका में दिये गये
दृष्टान्त का सारांश परिशिष्ट में देखिये। ३. जिस प्रकार भोजन पेट में जाने के बाद कालक्रम से रस, रुधिर आदि रूप हो जाता है, उसी तरह विचित्रता
गभित एक ही अध्यवसाय के द्वारा जीव प्रतिसमय जिन कर्मदलिकों को ग्रहण करता है, उसी समय वे उतने हिस्सों में बंट जाते हैं, जितने कर्मों का बंध उस समय उस जीव के होता है।
तिबंध कहते हैं। भार विपाकवेदन करना
यपि प्रत्येक कर्म-