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मोहे दुहा चउद्धा य, पंचहा वा वि बज्झमाणीणं । वेयणिया उयगोएसु, बज्झमाणीण भागो सिं ॥ २६ ॥
कर्मप्रकृति
शब्दार्थ - मोहे - मोहनीय कर्म में, दुहा- दो विभाग में चउद्धा चार विभाग में, य-और, पंचहा - पांच विभाग में, वा-और, वि-भी, बज्झमाणीणं बंधती हुई ( बध्यमान), drणियाउगोसु - वेदनीय, आयु और गोत्र कर्म में, बज्झमाणीण - वध्यमान, भागो भाग सि- इनकी ।
गाथार्थ -- मोहनीय कर्म में बध्यमान प्रकृतियों को दो, चार और पांच भागों में मिलता है तथा वेदनीय, आयु और गोत्र कर्म में उनका भाग बध्यमान प्रकृतियों को प्राप्त होता है ।
विशेषार्थ -- मोहनीय कर्म को स्थिति के अनुसार जो मूल भाग प्राप्त होता है, उसका अनन्तवां भाग जो सर्वघाति प्रकृतियों के योग्य है, उसके दो भाग किये जाते हैं। उसमें से एक अर्धभाग दर्शनमोहनीय को और दूसरा अर्धभाग चारित्रमोहनीय को दिया जाता है। दर्शनमोहनीय का जो यह भाग है, वह संपूर्ण मिथ्यात्व मोहनीय को मिलता है तथा चारित्रमोहनीय को प्राप्त भाग के बारह विभाग किये जाते हैं और वे बारह भाग बारह कषायों को दिये जाते हैं ।
अब शेष रहे दलिकों की अर्थात् सर्वघाति के अनन्तवें भाग से अवशिष्ट रहे भाग की विभागविधि बतलाते हैं --- 'मोहे दुहा इत्यादि' कि शेष मूल भाग के दो विभाग किये जाते हैं । उनमें से एक भाग कायमोहनीय का है और दूसरा भाग नोकषायमोहनीय का। इनमें से कषायमोहनीय. को प्राप्त भाग के पुनः चार भाग किये जाते हैं और वे चारों ही भाग संज्वलन क्रोधादि चतुष्क को दिये जाते हैं । नोकषायमोहनीय को जो भाग प्राप्त होता है, उसके पांच भाग किये जाते हैं और वे पांचों ही भाग यथाक्रम से तीन वेदों में से बंधने वाले किसी एक वेद को तथा हास्य- रति युगल और अरति-शोक युगल इन दोनों में से बंधने वाले किसी एक युगल के लिये तथा भय एवं जुगुप्सा के लिये दिये जाते हैं, अन्य के लिये भाग नहीं दिया जाता है। क्योंकि उस समय उनका बंध नहीं हो रहा है। इसका कारण यह है कि नव नोकषायें एक साथ बंध को प्राप्त नहीं होती हैं, किन्तु यथोक्त क्रम से पांव ही नोकषायें एक साथ बंध को प्राप्त होती हैं । "
वेदनीय, आयु और गोत्र कर्म को जो भाग प्राप्त होता है, वह उन्हीं की वध्यमान एकएक प्रकृति को प्राप्त होता है, क्योंकि इन कर्मों की दो प्रकृतियों का एक साथ बंध नहीं होता है । " fisease बतिगाण, वण्ण-रस-गंध-फासाणं । सव्वासि संघाए, तणुम्मि य तिगे चउक्के वा ॥२७॥
१. उक्त कथन का यह आशय है सामान्य और स्थूल दृष्टि से नहीं मिलता है।
कि नव नोकषायों को प्राप्त द्रव्य के जो पांच भाग किये गये हैं, वह समझना चाहिये । उसका मतलब यह नहीं कि शेष नोकषायों को भाग
२. इसका यह अर्थ है कि बंधते समय जिस प्रकृति की मुख्यता है, उस समय उसको अधिक भाग मिलेगा और अवध्यमान प्रकृतियों को स्वल्प मात्रा में मिलेगा, परन्तु भाग: सभी प्रकृतियों को मिलेमा अवश्य इसी प्रकार जहां-जहां भो सामान्य रूप से बध्यमानता की अपेक्षा जिन प्रकृतियों का उल्लेख आये, वहां यहां समझना चाहिये कि बध्यमान प्रकृति को अपेक्षा अबध्यमान प्रकृति को भाग अल्प मिलता है ।