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कर्मप्रकृति इस प्रकार (मूल हानिपंचक और उत्तर हानिपंचक, इस तरह दो प्रकार से) परंपरोपनिधा प्ररूपणा समझना चाहिये।' अब इनका अल्पबहुत्व बतलाते हैं । पांच हानियों में वर्गणाओं का अल्पबहुत्व
१. असंख्यात भागहानि में वर्गणायें सब से कम होती हैं. २. उनसे संख्यात भागदानि में वर्गणायें अनन्त गुणी होती हैं , ३. उनसे भी संख्यात गुणहानि में वर्गणायें अनन्त गुणी होती हैं, ४. उनसे भी असंख्यात गुणहानि में वर्गणायें अनन्त गुणी होती हैं, ५. उनसे भी अनन्त गुणहानि में वर्गणायें अनन्त गुणी होती हैं।
हानियों में वर्गणाओं के अल्पाधिक्य का प्रमाण तो उक्त प्रकार है और परमाणुओं का अल्पबहुत्व इस प्रकार समझना चाहिये कि
(१) अनन्त गुणहानि में पुद्गल परमाणु सबसे कम हैं,२ (२) उनसे असंख्यात गणहानि में पुद्गल परमाणु अनन्तगुणे होते हैं,' (३) उनसे भी संख्यात गुणहानि में पुद्गलपरमाणु अनन्तगुणे १. स्नेहप्रत्ययस्पर्धक की परंपरोपनिधाप्ररूपणा का सारांश इस प्रकार है
पूर्व वर्गणा की अपेक्षा बीच में कुछ वर्गणाओं को छोड़कर आगे की वर्गणा में परमाणुओं संबंधी हीनाधिकपना कहना परंपरोपनिधा कहलाती है। उसको इस प्रकार समझना चाहिये-- १.असंख्यात भागहानि विभाग में असंख्यात लोकातिक्रमण होने पर द्विगुणहानि, २. संख्यात भागहानि विभाग में असंख्यात लोकातिक्रमण होने पर द्विगुणहानि तथा ३,४,५ संख्यात गुणहानि विभाग, असंख्यात गुणहानि विभाग, अनन्त गुणहानि विभाग, इन तीन विभागों में पहले से ही त्रिगुणादिहीनपना होने से द्विगुणहानि का अभाव है। यह पूर्वोक्त द्विगुणहानिरूप परंपरोपनिधा सर्व विभागों में प्राप्त न होने से दूसरे प्रकार से परंपरोपनिधा की प्ररूपणा इस प्रकार जानना चाहियेअसंख्यात भागहानि विभाग में प्रथम वर्गणा की अपेक्षा कुछ वर्गणायें असंख्यात भागहीन, संख्यात भागहीन, संख्यात गुणहीन, असंख्यात गुणहीन, अनन्त गुणहीन हैं। इसी प्रकार संख्यात भागहानि, संख्यात गुणहानि, असंख्यात गुणहानि और अनन्त गुणहानि विभाग में भी अपनी प्रथम वर्गणा की अपेक्षा उत्तर वर्गणायें भी हीन समझना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि यह हीनता अपने-अपने नाम के क्रम से प्रारम्भ करना चाहिये । जैसे कि संख्यात भागहीन विभाग में हीनताक्रम संख्यात भागहीन से प्रारंभ करें। सारांश यह है कि असंख्यात भागहानि में प्रथम वर्गणा की अपेक्षा आगे १. कितनी ही वर्गणायें असंख्यात. भागहीन, २. कितनी ही संख्यात भागहीन ३. कितनी ही संख्यात गुणहीन, ४. कितनी ही असंख्यात गुणहीन और ५. कितनी ही अनन्त गुणहीन, इस प्रकार पांचां हानि वाली होती हैं। संख्यात भागहानि में प्रथम वर्गणा की अपेक्षा आगे कितनी ही वर्गणायें पूर्व की असंख्यात भागहानि के बिना बाद की शेष चार हानियों वाली होती हैं। संख्यात गुणहानि में प्रथम वर्गणा की अपेक्षा आगे की कितनी ही वर्गणायें पूर्व की असंख्यात भाग और संख्यात भाग, इन दो हानियों के बिना बाद की तीन हानियों वाली, असंख्यात गुणहानि में प्रथम वर्गणा की अपेक्षा आगे की कितनी ही वर्गणायें पूर्व की असंख्यात भाग, संख्यात भाग और संख्यात गुण, इन तीन हानियों के बिना उत्तर की शेष दो हानियों वाली। अनन्त गुणहानि में प्रथम वर्गणा की अपेक्षा आगे की कितनी ही वर्गणायें पूर्वोक्त चार हानियों के बिना एक हानिवाली अर्थात् अनन्त गुणहानि वाली होती हैं। अनन्त गुणहानि में अनन्त गुण बड़े-बड़े भागों की हानि होने से यहां अनन्तगुण में गुण शब्द से अनन्त पुद्गल राशि प्रमाण एक भाग ऐसे अनन्त भाग समझना चाहिये। परन्तु गुण शब्द से गुणाकार जैसा भाग नहीं समझना चाहिये। अनन्त गुणरूप भाग तो सब भागों की अपेक्षा बृहत् प्रमाण वाला ही होता है तथा जहां-जहां हानि का प्रसंग आये वहां गुण शब्द से भाग प्रमाण ही जानना चाहिये, किन्तु गुणाकार रूप नहीं। लेकिन वृद्धि
के प्रसंग में गुण शब्द का गुणाकार आशय समझना चाहिये। ३. अनन्तः पुद्गल परमाणु राशि से असंख्यात पुद्गल परमाणुओं की राशि अल्प होने से हानि कम होती है,
जिससे पुद्गल परमाणु अधिक होते हैं।