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कर्मप्रकृति
और तेजस, कार्मण के सिवाय (क्योंकि इनका स्वतंत्र रूप स पहले उल्लेख कर दिया है) शेष इकतालीस प्रकृतियां तथा वेदत्रिक, संस्थानषटक, संहननषट्क, जातिपंचक, साता-असाता वेदनीयद्विक, हास्य-रतियुगल, अरति-शोकयगल, औदारिकशरीर, औदारिकअंगोपांग, औदारिकसंघातन, औदारिकऔदारिकबंधन, औदारिक-तैजसवन्धन, औदारिक-कार्मणबन्धन और औदारिक-तैजसकार्मणबन्धन रूप औदारिकसप्तक, उच्छवास, आतप, उद्योत और पराघात चतुष्क, विहायोगतिद्विक, तिर्यंचद्विक और नीचगोत्र, ये एक सौ तीस प्रकृतियां ध्रुवसत्ता वाली हैं। क्योंकि ये सम्यक्त्वलाभ से पहले सव प्राणियों को सदैव सम्भव हैं । ६. अध वसत्ताका प्रकृतियां
कदाचिद्भवन्ति कदाचिन्न भवन्तीत्येवमनियता सत्ता यासां ता अध वसत्ताकाः--जिनकी सत्ता कदाचित् होती है और कदाचित् नहीं होती है, वे अध्र वसत्ताका प्रकृतियां कहलाती हैं। उच्चगोत्र, तीर्थंकर नाम, सम्यक्त्व प्रकृति, सम्यमिथ्यात्व, देवगति, देवानुपूर्वी, नरकगति, नरकानपूर्वी, वैक्रियशरीर, वैक्रियअंगोपांग रूप वैक्रियषट्क, चारों आयु, मनुष्यगति, मनुष्यानुपूर्वी रूप मनुष्याद्विक तथा आहारकशरीर, आहारकअंगोपांग रूप आहारकद्विक--ये अठारह प्रकृतियां अध वसत्तावाली हैं।' क्योंकि उच्चगोत्र एवं वैक्रियषट्क, ये सात प्रकृतियां वसपर्याय की प्राप्ति होने पर होती हैं तथा अप्राप्त होने पर नहीं होती हैं। अथवा त्रसत्व अवस्था में उक्त प्रकृतियां प्राप्त हो जाने पर भी स्थावर पर्याय में गये हुए जीव के द्वारा अवस्था विशेष पाकर उद्वेलित कर दी जाती हैं। इसलिये इनको अध वसत्ता वाली कहा गया है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति जब तक भव्यत्व भाव का परिपाक नहीं होता है, तब तक सत्ता में नहीं रहती हैं तथा भव्यत्व भाव के परिपाक से सत्ता प्राप्त कर लेने पर भी जीव के मिथ्यात्व में चले जाने पर फिर उनकी उद्वेलना कर दी जाती है और अभव्यों के तो इन दोनों की सत्ता सर्वथा ही नहीं रहती है। इसीलिये इनको अभ्र वसत्ता वाला कहा गया है। तीर्थंकर नाम का सत्व विशुद्ध सम्यक्त्व होने पर होता है, अन्य समय नहीं होता है। आहारकद्विक प्रकुतियां भी तथाविधि विशिष्ट संयम के होने पर ही बंध को प्राप्त होती है, उसके
उपाध्याय यशोविजयकृत टीका के अनुसार ध्रुवसत्ताका प्रकृतियां एक सौ तीस और अध्रुवसत्ताका प्रकृतियां अठारह बतलाई हैं । इसका कारण यह है कि उसमें वैक्रियएकादश के स्थान में वैक्रियषट्क और आहारकसप्तक के स्थान में आहारकद्विक लिया है। इस प्रकार वैक्रियसंघातन, वैक्रिय-वैक्रिय बन्धन, वैक्रिय-तैजस बन्धन, वैक्रिय-कार्मण बन्धन, वक्रिय-तैजस-कार्मण बन्धन, आहारकसंघातन, आहारक-आहारक बंधन, आहारक-तेजस बन्धन, आहारक-कार्मण बन्धन, आहारक-तैजस-कार्मण बन्धन इन दस प्रकृतियों को सत्ता में सम्मिलित नहीं किया है। परन्तु यहां जो अध्रुवसत्ताका प्रकृतियां अठारह कही हैं, वे घटित नहीं होतो हैं। क्योंकि ध्रुवसत्ता में गिनाई गई एक सौ तीस प्रकुतियां , एक सौ अट्ठावन की अपेक्षा हैं, एक सौ अड़तालीस की अपेक्षा नहीं। एक सौ अड़तालीस की अपेक्षा तो ध्रुवसत्ता में एक सौ छब्बीस और अध्रुव सत्ता में बाईस होती हैं। यदि एक सौ अट्ठावन की अपेक्षा ध्रुवसत्ता एवं अध्रुवसत्ता का विचार किया जाये तो अध्रुवसत्ता में अट्ठाईस प्रकृतियां मानना चाहिये और तब बैंक्रियषट्क के बदले वैक्रियएकादश और आहारकद्विक के स्थान पर आहारक सप्तक का ग्रहण करना चाहिये। उपाध्याय यशोविजयजी द्वारा अठारह प्रकृतियों को अध्रुवसत्ताका बतलाने का कारण पंचसंग्रह के तृतीय द्वार की ३३वीं गाथा के चतुर्थ पाद में आगत
'अट्ठारस अध्रुवसत्ताओ' पद है। उसी के आधार पर उपाध्यायजी ने अठारह प्रकृतियों को अध्रुवसत्ता वाला कहा है। २. यथाप्रवृत्त आदि तीन करण रूप परिणामों के बिना ही कर्म प्रकृतियों का अन्य प्रकृति रूप परिणमन होना, जिससे
उनका सर्वथा निःसत्ताक होने का प्रसंग प्राप्त हो, उद्वेलना कहलाता है।