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२३. सान्तरबंधिनी प्रकृतियां __ यासां प्रकृतीनां जघन्यतः समयमात्रं बन्धः, उत्कर्षतः समयादारभ्य यावदन्तर्मुहूर्त न परतः, ताः सान्तरबन्धाः--जिन प्रकृतियों का जघन्य से एक समयमात्र बंध होता है और उत्कर्ष से एक समय से लेकर अन्तर्भुहूर्त तक बंध होता है, उससे परे नहीं होता है, वे सान्तरबंधिनी प्रकृतियां कहलाती हैं। अन्तर्मुहूर्त के मध्य में भी सान्तर अर्थात् विच्छेद रूप अन्तर सहित जिनका बंध होता है, इस प्रकार की व्युत्पत्ति सान्तर शब्द की है। सारांश यह है कि अन्तर्मुहुर्त के ऊपर जिनका बंधविच्छेद नियम से होता है और अन्तर्महर्त के मध्य में बंधविच्छेद और बंध होने रूप परिवर्तन होता रहता है, उनको सान्तरबंधिनी प्रकृतियां समझना चाहिये। ऐसी प्रकृतियां इकतालीस हैं। जो इस प्रकार हैं-असातावेदनीय, स्त्रीवेद, नपुंसक वेद, हास्य, रति, अरति, शोक, नरकद्विक, आहारकद्विक, प्रथम संस्थान के बिना शेष पांच संस्थान, प्रथम संहनन के बिना शेष पांच संहनन, आदि की चार जातियां, आतप, उद्योत, अप्रशस्तविहायोगति, स्थिर, शुभ, यशःकीति और स्थावरदशक। .
ये इकतालीस प्रकृतियां जघन्य से एक तमयमात्र और उत्कर्ष से अन्तर्मुहुर्त तक बंधती हैं। इससे आगे अपने बंध के कारण का सद्भाव होने पर भी तथाजातीय स्वभाव होने से और इनके बंधने योग्य अध्यवसाय के परावर्तन के नियम से प्रतिपक्षी प्रकृतियां बंधने लगती हैं। इसलिये ये सान्तरबंधिनी प्रकृतियां कहलाती हैं। २४. सान्तरनिरन्तरबंधिनी प्रकृतियां
___यासां जघन्यतः समयमात्रं बन्ध उत्कर्षतस्तु समयादारभ्य नैरन्तर्येणान्तर्मुहुर्तस्योपर्यपि कालमसंख्येयं (संख्येयं) यावत्ताः सान्तरनिरन्तरबन्धाः--जिन प्रकृतियों का बंध जघन्य एक समयमात्र से लेकर उत्कर्षतः निरन्तर अन्तर्मुहुर्त तक और अन्तर्मुहूर्त के ऊपर भी (संख्यात), असंख्यात काल तक बंध होता है, वे सान्तर-निरन्तरवन्धिनी कहलाती हैं।
अन्तर्मुहर्त के मध्य में भी वे कभी सान्तर अर्थात् अन्तर के साथ बंधती हैं और कभी निरन्तर अर्थात् अन्तर के बिना बंधती हैं। इस कारण इनको सान्तर-निरन्तरबंधिनी कहा गया है। भावार्थ यह हुआ कि अन्तर्मुहूर्त के मध्य में भी जिनका बंध विच्छिन्न हो सकता है और अन्तर्महर्त के ऊपर बंध विच्छिन्न हो और न भी हो, इस प्रकार की उभयवृत्ति रूप जाति वाली प्रकृतियों को सान्तर-निरन्तरबन्धिनी कहते हैं। ऐसी प्रकृतियां सत्ताईस है--समचतुरस्रसंस्थान, वज्रऋषभनाराचसंहनन, पराघात, उच्छ्वास, पुरुषवेद, पंचेन्द्रियजाति, सातावेदनीय, शुभविहायोगति, वैक्रियद्विक,
औदारिकद्विक, सुरद्विक, मनुजद्विक, तिर्यद्विक, गोत्रद्विक, सुस्वरत्रिक, नसचतुष्क । ये सत्ताईस प्रकृतियां जघन्य से एक समयमात्र बंधती हैं और उसके पश्चात् इनका बंध रुक सकता है, इसलिये ये सान्तर
और उत्कर्ष से अनुत्तरवासी देवादिकों के द्वारा असंख्यात काल तक बंधती रहती हैं. अतः अन्तर्मुहुर्त के मध्य में बंधने के व्यवच्छेद का अभाव होने से निरन्तर बंधिनी कहलाती हैं । इस प्रकार सान्तर और निरन्तर बंध की युगपद् - विवक्षा से इनको सान्तरनिरन्तरबंधिनी कहा गया है।