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कर्मप्रकृति
शब्दार्थ-वुड्ढीहाणिचउक्क-वृद्धि और हानि चार प्रकार की है, तम्हा-इसलिये, काल-काल, समय, अस्थ--यहाँ, अंतिमिल्लाणं-अन्तिम का, अंतोमुहुत्तं-अन्तर्मुहूर्त, आवलि-आवलि, असंखभागोअसंख्यातवें भाग, य-और, सेसाणं-शेष का, बाकी का ।
गाथार्थ--योगस्थानों की वृद्धि और हानि चार प्रकार की है (अर्थात् योगस्थानों की वृद्धि चार प्रकार की है और हानि भी चार प्रकार की है)। इनमें से अंतिम वृद्धि और हानि का उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है और शेष तीन वृद्धि, हानियों का उत्कृष्टकाल आवलि के असंख्यातवें भाग प्रमाण है।
विशेषार्थ--वीर्यान्तराय कर्म का क्षयोपशम क्वचित्, कदाचित् और कथंचित् (अर्थात् क्वचित्किसी क्षेत्र में, कहीं पर, कदाचित्-किसी कालविशेष में, कथंचित्-किसी भावविशेष की अपेक्षा से) होता है । अतएव उसके निमित्त से (वीर्यान्तराय कर्म के विचित्र क्षयोपशम रूप कारण से) होने वाले योगस्थान भी कदाचित् वढ़ते हैं और कदाचित् घटते हैं। जिससे इनमें वृद्धि के चार प्रकार होते हैं-१. असंख्यात भागवृद्धि, २. संख्यात भागवृद्धि, ३. संख्यात गुणवृद्धि, ४. असंख्यात गुणवृद्धि । इसी प्रकार हानियां भी चार प्रकार की होती हैं- १. असंख्यात भागहानि, २. संख्यात भागहानि, ३. संख्यात गुणहानि, ४. असंख्यात गुणहानि। यह वृद्धि और हानि का चतुष्क निरन्तर प्रवर्तता रहता है। अतएव इसका सोपस्कार अन्वय करते हुए अब गाथा का प्रतिज्ञात अर्थ कहते हैं कि--
___ अंतिम असंख्यात गुण लक्षणवाली वृद्धि और असंख्यात गुण लक्षणवाली हानि अर्थात् असंख्यात गुणवृद्धि और असंख्यात गुणहानि इन दोनों का उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है और शेष आदि की तीनों वद्धियों और हानियों का उत्कृष्ट काल आवलि के असंख्यातवें भाग प्रमाण है।
उक्त कथन का यह भाव है कि क्षयोपशम के प्रकर्ष से विवक्षित योगस्थान से प्रतिसमय आगे-आगे के दूसरे-दूसरे असंख्येय गणवृद्धि रूप योगस्थान में जीव का जो आरोहण होता है, वह असंख्यात गुणवृद्धि है और जव क्षयोपशम के अपकर्ष से प्रति समय दूसरे-दूसरे असंख्यात गुणहीन रूप योगस्थान में जो अबरोहण होता है, वह असंख्यात गुणहानि है। ये दोनों हानि और वृद्धि उत्कर्ष स अन्तर्मुहुर्त काल तक निरंतर होती हैं और आदि की तीनों वृद्धियां और हानियां उत्कर्ष से आवलि के असंख्यातवें भाग काल तक होती हैं एवं जघन्यापेक्षा चारों ही वृद्धियां और हानियां एक या दो समय पर्यन्त होती है । समय-प्ररूपणा
कितने काल तक उक्त वुद्धियों और हानियों से रहित जीव योगस्थानों पर अवस्थित पाये जाते हैं ? ऐसी जिज्ञासा होने पर ग्रंथकार अब समय की प्ररूपणा करते हैं--
चउराई जावट्ठग-मित्तो जाव दुगं ति समयाणं । पज्जत्तजहन्नाओ जावुक्कोसं ति उक्कोसो ॥१२॥