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बंधनकरण
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गाथार्थ —— एक जीवप्रदेश में अवगाहित- अवगाहना को प्राप्त ग्रहण करने योग्य द्रव्य को भी जीव सर्वप्रदेशों से ग्रहण करता है और सर्व जीवप्रदेशों में अवगाहित सभी ग्रहणप्रायोग्य स्कन्धों को भी सर्व आत्मप्रदेशों द्वारा ग्रहण करता है ।
विशेषार्थ -- जीव अपने प्रदेशों में अवगाढ़ - अवगाह को प्राप्त अर्थात् जिन आकाशप्रदेशों पर आत्मा के प्रदेश रहे हुए हैं, उन्हीं आकाशप्रदेशों पर रहे हुए कर्मदलिकों को ग्रहण करता है, किन्तु अनन्तर और परम्परागत प्रदेशों पर अवगाढ़ रहे हुए द्रव्य को ग्रहण नहीं करता है । इस प्रकार एक जीवप्रदेश' पर अवगाढ़ ग्रहण करने योग्य जो भी कर्म-दलिक है, उसे भी सर्वात्मना अर्थात् सभी आत्मप्रदेशों से ग्रहण करता है । क्योंकि सभी जीवप्रदेशों का सांकल के अवययंत्रों के समान परस्पर संबंधविशेष पाया जाता है । इसलिए एक प्रदेश में अपने क्षेत्र - अवगाढ़ ग्रहणप्रायोग्य द्रव्य के ग्रहण करने के लिए व्यापार करने पर सभी आत्मप्रदेशों का अनन्तर व परम्परा से' उस द्रव्य को ग्रहण करने के लिये व्यापार होता है । जैसे हाथ के अग्रभाग घट आदि के ग्रहण किये जाने पर भी मणिबंध ( पहुंचा ), कूर्पर ( कोहनी), अंस (कंधा) आदि अवयवों का भी उस द्रव्य के ग्रहण करने हेतु अनन्तर एवं परंपरा से व्यापार होता है तथा 'सव्वत्थ वावि' सर्वत्र भी अर्थात् सभी जीवप्रदेशों में जो अवगाह को प्राप्त ग्रहणप्रायोग्य पुद्गलस्कन्ध हैं, उन सबको भी सर्वात्मप्रदेशों द्वारा ग्रहण करता है । क्योंकि एक-एक प्रदेश पर स्थित स्कन्ध को ग्रहण करने में सर्व आत्मप्रदेशों का अनन्तर व परंपरा व्यापार सिद्ध होने से सर्वत्र सर्वप्रदेशों का व्यापार होना न्यायप्राप्त है ।
स्नेहप्ररूपणा
इस लोक में पुद्गल द्रव्यों का परस्पर सम्बन्ध स्नेह गुण से होता है । ' अतः स्नेहप्ररूपणा करना चाहिये । वह स्नेहप्ररूपणा तीन प्रकार की है- १. स्नेहप्रत्ययस्पर्धक प्ररूपणा, २. नामप्रत्ययस्पर्धक प्ररूपणा, और ३ प्रयोगप्रत्ययस्पर्धक प्ररूपणा । इनके लक्षण क्रमश: इस प्रकार हैं
१. स्नेह-निमित्तक स्पर्धक की प्ररूपणा को स्नेहप्रत्यय स्पर्धक प्ररूपणा कहते हैं-- स्नेहनिमितस्य स्पर्धकस्य प्ररूपणा स्नेहप्रत्ययस्पर्धकप्ररूपणा ।
२. शरीरबंधन नामकर्म के उदय से परस्पर बंधे हुए शरीरपुद्गलों के स्नेह का आश्रय लेकर जो स्पर्धकप्ररूपणा की जाती है, वह नामप्रत्ययस्पर्धक प्ररूपणा कहलाती है-- शरीरबंधननामकर्मोदयतः परस्परं बद्धानां शरीरपुद्गलानां स्नेहमधिकृत्य स्पर्धकप्ररूपणा नामप्रत्ययस्पर्धक प्ररूपणा । इसका आशय यह है कि नामप्रत्यय अर्थात् बंधननामनिमित्तक शरीरप्रदेशों के स्पर्धक की प्ररूपणा
नामप्रत्ययस्पर्धक प्ररूपणा कहते हैं ।
१. स्वरूपतः ग्रहणप्रायोग्य द्रव्य असंख्यात प्रदेशावगाही है, परन्तु असंख्य प्रदेशों में से किसी एक प्रदेश की विवक्षा करना चाहिए । अथवा ग्रहणप्रायोग्य द्रव्य जितनी अवगाहना में रहे हुए आत्म- प्रदेश समूह में से भी एक प्रदेशरूप विवक्षा समझना चाहिये ।
२. एक के बाद एक, इस प्रकार प्रत्येक आत्मप्रदेश का सम्बन्ध होने से । ३. स्निग्धरूक्षत्वाद् बंधः ।
-तत्त्वार्थसूत्र, अ. ५