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कर्मप्रकृति
की ओर छलांग लगाने की इच्छा होती है, तब वह पहले अपने अंगों को संकुचित करके उनका अवलंबन लेती है, यानी स्थिर होकर उन्हें धारणं ( संतुलित ) करती है । पश्चात् उस अवलंबन से शक्तिविशेष प्राप्त करके अपने अंगों को ऊपर की ओर उछालने में समर्थ होती है, अन्यथा वैसा करने में सक्षम नहीं हो पाती है। उसी प्रकार यहां जानना चाहिये। क्योंकि 'द्रव्यनिमित्तं वीर्य संसारिणामुपजायत इति' - संसारी जीवों का वीर्य द्रव्यसंयोग के निमित्त से उत्पन्न होता है— इस वचन को यहां भी प्रमाण रूप से समझना चाहिये ।
पौगलिक वर्गणाओं का निरूपण
ऊपर जो यह कहा गया है कि जीव योगों के द्वारा तत् तत् प्रायोग्य पुद्गलों को ग्रहण करता है, सो उनमें से पुद्गलग्रहणयोग्य हैं और कौनसे अग्रहणयोग्य ? शिष्य की इस जिज्ञासा के समाधानार्थ ग्रंथकार ग्रहणयोग्य और अग्रहणयोग्य पुद्गलवर्गणाओं का निरूपण करते हैं
परमाणु संख संखाऽणं तपसा अभव्वणंतगुणा । सिद्धाणणंतभागो, आहारगवग्गणा तितणू ॥१८॥
अग्गहणंतरियाओ, तेयगभासामणे य कम्मे य । • धुवअधुव अच्चित्ता सुन्नाचअंतरे सुप्पि ॥१९॥ पत्तेगतणुसु बायर - सुमनिगोए तहा महाखंधे । गुणनिष्कन सनामो, असंखभागंगुलवगाहो ॥२०॥
शब्दार्थ -- परमाणु- परमाणु रूप, संख संखाऽणंतपएसा - संख्यात प्रदेशी, असंख्यात प्रदेशी, अनन्त प्रदेशी अभव्वणंतगुणा - अभव्यों से अनन्त गुणे, सिद्धाणणंतभागो - सिद्धों के अनन्तवें भाग प्रमाण, आहारगवग्गणा - ग्रहण योग्य वर्गणा, तितणू-तीन शरीर रूप ।
अग्गहणंतरियाओ - अग्रहण वर्गणा के अन्तर से तेयगभासामणे - तेजस, भाषा, मन, य-और, कम्मे - कार्मण, य-तथा, धुवअधुवअच्चित्ता-ध्रुवाचित्त, अध्रुवाचित्त, सुन्नाचउ - चार शून्य वर्गणायें, अंतरेसु - अन्तरों में, उप्पि - ऊपर ।
पत्तेतणुसु- प्रत्येक शरीरी, बायरसुहमनिगोए - बादर निगोद, सूक्ष्म निगोद, तहा— तथा, महाखंधेमहास्कन्ध वर्गणा, गुणनिष्पन्नसनामो - गुणनिष्पन्न नामवाली, असंखभाग - असंख्यातवें भाग, अंगुलवगाहोअंगुल के अवगाह वाली ।
गाथार्थ - एक परमाणु रूप वर्गणा, संख्यात प्रदेशी वर्गणा, असंख्यात प्रदेशी वर्गणा और अनन्त प्रदेशी वर्गणा, ये सब वर्गणायें जीव के द्वारा अग्रहणयोग्य हैं— ग्रहण करने योग्य नहीं होती हैं, किन्तु अभव्य जीवों से अनन्तगुण और सिद्धों के अनन्तवें भाग प्रमाण प्रदेशों की वर्गणायें तीन शरीर रूप में जीव द्वारा ग्रहण करने योग्य होती हैं ।