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बंधनकरण
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करता है । परिणामित करके उसके निसर्ग के हेतु रूप सामर्थ्य - विशेष की सिद्धि के लिये ' उन पुद्गलों का अवलंबन करता है । जैसे -- मंदशक्ति वाला कोई पुरुष नगर में परिभ्रमण करने के लिये लकड़ी का आलंबन लेता है, उसी प्रकार उच्छ्वास आदि पुद्गलों के ग्रहण और छोड़ने के लिये आलम्बन रूप प्रयत्न की आवश्यकता होती है । उस सामर्थ्यविशेष की सिद्धि के लिये ( ग्रहण और छोड़ने के लिये ) जीव उन्हीं पुद्गलों का आलंबन लेता है । इसलिये उसे ग्रहण, परिणाम और आलंबन का साधन होने से वह ग्रहण आदि संज्ञावाला कहा जाता है । कहा भी है-'गहणपरिणामकंदनरूवं तं ति' - वह योग ग्रहण, परिणाम और स्पन्दन रूप है । अतएव परिणाम, आलंबन, ग्रहण का साधन रूप होने से परिणामादि हेतुता प्रतिपादित की गई है। जिससे मन, वचन और काय के अवलम्बन से उत्पन्न होने वाले योग संज्ञावाले वीर्य द्वारा तीन नाम प्राप्त किये जाते हैं ।
उक्त कथन का अभिप्राय यह है कि करणभूत मन के द्वारा होने वाला योग मनोयोग है । करणभूत वचन के द्वारा होने वाला योग वचनयोग है और करणभूत काय के द्वारा होने वाला योग काययोग है । इस प्रकार के अन्वयात्मक कारण से प्राचीन आचार्यों ने संज्ञाभेद का व्याख्यान किया है।
शंका--सभी जीवप्रदेशों में क्षायोपशमिक लब्धि का समान रूप से सद्भाव होने पर भी कहीं arfare, कहीं अल्प वीर्य उपलब्ध होता है और कहीं अल्पतर ( और भी कम ), तो इस विषमता का क्या कारण है ?
समाधान -- जीव जिस अर्थ ( प्रयोजन) के प्रति चेष्टा करता है, वह कार्य और उसका अभ्यास, आसन्नता (निकटता, समीपता) कहलाती है तथा जीव के सर्व प्रदेशों में परस्पर एक- दूसरे से जुड़े हुए सांकल के अवयवों के समान परस्पर प्रवेश रूप सम्बन्धविशेष होता है । इन दोनों कारणों से विषम किये गये अर्थात् बहुत अधिक, अल्प और अल्पतर सद्भाव से जीवप्रदेश 1. वसंस्थुलीकृत अर्थात् विषम रूप से अवस्थित हैं। जैसे कि हस्तादि में रहने वाले जिन आत्मप्रदेशों की. उत्पाटन किये जाने वाले घट आदि कार्यों से निकटता होती है, उन प्रदेशों की चेष्टा अधिक
१. स्वाभाविक हेतुभूत क्रियावती शक्ति की सकारण सामर्थ्यविशेष की सिद्धि के लिये ।
२. संसारी जीव का वीर्यविशेष परिस्पन्दन रूप है, जिसके द्वारा वह तीन कार्य करता है- परिणमन, ग्रहण और आलंबन तथा उन्हीं तीनों का कारण रूप भी । अतः यह परिस्पन्दन किसी वस्तु को ग्रहण करने, ग्रहण करके परिणमित करने और परिणमित करने के आलम्बन रूप होता है, जैसे कि संसारी जीव योगसंज्ञक उस वीर्यविशेष के द्वारा औदारिक आदि शरीर प्रायोग्य पुद्गलों को प्रथम ग्रहण करता है और ग्रहण करके औदारिकादि शरीर रूप परिणामाता है। इसी प्रकार श्वासोच्छ्वास, भाषा और मनोयोग्य पुद्गलों को प्रथम ग्रहण करता है और श्वासोच्छवासादि रूप में परिणमाता है और परिणमाकर उसके विसर्जन करने में हेतुभूत सामर्थ्य को उत्पन्न करने के लिये उच्छ्वासादि पुद्गलों का आलंबन लेता है और उसके बाद उन उच्छ्वासादि पुद्गलों को विसर्जित करता है। अतः परिणाम, आलंबन और ग्रहण इन तीनों में योग रूप बीर्य साधन है।
किसी वस्तु को ग्रहण करने आदि के लिये संसारी जीव के पास तीन साधन हैं- शरीर, वचन एवं मन। इन
साधनों के माध्यम से उसका वस्तु ग्रहण आदि के लिये परिस्पन्दन होने से साधनों के नामानुरूप योग के भी तीन नाम हैं- काययोग, वचनयोग, मनोयोग । शरीर (काय) के द्वारा जो योग प्रवर्तित होता है, उसे काययोग, वचन के द्वारा जो योग प्रवर्तित होता है, उसे वचनयोग और मन के द्वारा जो योग प्रवर्तित होता है, उसे मनोयोग कहते हैं ।