________________
बंधनकरण
की विषमता है, इसलिये उसमें कोई दोष नहीं है । अतः आगम के अनुसार इस तरह वीर्य की विषमता को जानना चाहिये ।'
___इस प्रकार वीर्य (योग) का प्रतिपादन करके अब इसके ही जघन्यत्व, अजघन्यत्व, उत्कृष्टत्व और अनुत्कृष्टत्व का बोध कराने वाली प्ररूपणा के इच्छुक ग्रंथकार वक्ष्यमाण अर्थाधिकारों का नामोल्लेख करते हैं। वीर्यप्ररूपणा के अधिकारों के नाम
अविभाग वग्ग फड्डग अन्तर ठाणं अणंतरोवणिहा।
जोगे परम्परा बुढिढ समय जीवप्पबहुगं च ॥५॥ शब्दार्थ--अविभाग-अविभागप्ररूपणा, वग्ग-वर्गणाप्ररूपणा, फड्डग स्पर्धकप्ररूपणा, अंतरअन्तरप्ररूपणा, ठाणं-स्थानप्ररूपणा, अणंतरोवणिहा-अनन्तरोपनिधाप्ररूपणा, जोगे-जोग में, परम्परापरंपरोपनिधाप्ररूपणा, वुढिढ-वृद्धिप्ररूपणा, समय-समयप्ररूपणा, जीवप्पबहुगं-जीव सम्वन्धी अल्पवहुत्वप्ररूपणा, च-और ।
गाथार्थ--योग के विषय में सर्वप्रथम अविभाग-प्ररूपणा, तदनन्तर क्रमशः वर्गणा-प्ररूपणा, स्पर्धक-प्ररूपणा, अन्तर-प्ररूपणा, स्थान-प्ररूपणा, अनन्तरोपनिधा-प्ररूपणा, परम्परोपनिधा-प्ररूपणा, वृद्धि-प्ररूपणा, समय-प्ररूपणा और अन्त में जीवों के अल्पवहुत्व की प्ररूपणा करना चाहिये।
विशेषार्थ--गाथा में सलेश्य जीव की वीर्यशक्ति (योग) के विचार को सरलता से समझने के लिये क्रम को स्पष्ट किया है। उनमें पहले अधिकार का नाम अविभाग-प्ररूपणा है और अंतिम अधिकार का नाम है जीवों के योग का अल्पबहुत्व । इन अधिकारों का एक के बाद दूसरा, दूसरे के बाद तीसरा, इस क्रम से विवार करना चाहिये, किन्तु व्युत्क्रम से विचार नहीं करना चाहिये। १. अविभाग-प्ररूपणा
एक जीवप्रदेश में जघन्यतः वीर्य के अविभाज्य अंश कितने होते हैं ? इस वात को वतलाने के लिये सर्व प्रथम ग्रंथकार अविभाग-प्ररूपणा करते हैं
पण्णाछेयणछिन्ना, लोगासंखेज्जगप्पएससमा।
अविभागा एक्कक्के, होति पएसे जहन्नेणं ॥६॥ १. प्रस्तुत शंका-समाधान का आधार परिस्पन्दन रूप वीर्य की दृष्टि है। सलेश्यवीर्य तीन प्रकार का है
१. आवृतवीर्य--कर्म द्वारा आच्छादित, २. लब्धिवीर्य--वीर्यान्तरायकर्म के क्षयोपशम अथवा क्षय से प्रकट हुआ वीर्य, ३. परिस्पन्दनवीर्य-लब्धिवीर्य में से जितना वीर्य मन, वचन और काय योग द्वारा प्रगट, प्रवर्तित होता है, वह। यहां वीर्य की हीनाधिकता परिस्पन्दन वीर्य की अपेक्षा समझना चाहिये । क्योंकि यहां उसकी विवक्षा है और वह परिस्पन्दन वीर्य में सम्भव है, लब्धिवीर्य तो यथास्थान सर्व आत्मप्रदेशों में एक सरीखा
ही होता है। २. सबसे अल्पवीर्य को जघन्य, जघन्य वीर्य से एकादि अंश यावत उत्कृष्ट तक के सर्व वीर्याविभागों को अजघन्य,
सर्वोत्कृष्ट वीर्य को उत्कृष्ट और वीर्य के एकादि अंशहीन जघन्य तक के सर्व वीर्याविभागों को अनुत्कृष्ट कहते - हैं। उत्कृष्ट विभाग भी अजघन्य और जघन्य वीर्य भी अनुत्कृष्ट कहलाता है।