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कर्मप्रकृति
और उच्चगोत्र का सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान के अंतिम समय में बंधविच्छेद होता है, किन्तु इन बारह प्रकृतियों का उदयविच्छेद अयोगि जिन के चरम समय में होता है तथा स्थावर, एकेन्द्रियजाति, द्वीन्द्रियजाति, त्रीन्द्रियजाति, चतुरिन्द्रियजाति, नरकत्रिक, अन्तिम संहनन और नपुंसकवेद का बंधविच्छेद मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में होता है, किन्तु इनका उदयविच्छेद यथाक्रम से सासादन, अविरत, अप्रमत्तविरत और अनिवृत्तिवादर गुणस्थान में होता है । जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है--स्थावर, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जाति का उदयविच्छेद सासादन गुणस्थान में, नरकत्रिक का उदयविच्छेद अविरति गुणस्थान में, अंतिम संहनन का उदयविच्छेद अप्रमत्त गुणस्थान में और नपुंसकवेद का उदयविच्छेद अनिवृत्तिवादर गुणस्थान में होता है तथा स्त्रीवेद का बंधविच्छेद सासादन गणस्थान में और उदयविच्छेद अनिवत्तिबादर गणस्थान में होता है। तिर्यंचानपूर्वी, दुर्भग, अनादेय, तिर्यंचगति, तिर्यंचायु, उद्योत, नीचगोत्र, स्त्यानद्धित्रिक, चतुर्थ और पंचम संहनन, दूसरा और तीसरा संहनन, इनका बंधव्यवच्छेद सासादन गुणस्थान में होता है, किन्तु उदयव्यवच्छेद अविरत, देशविरत, प्रमत्तविरत, अप्रमत्तविरत और उपशांतमोह गुणस्थानों में होता है । जो इस प्रकार जानना चाहिये कि तिर्यंचानुपूर्वी, दुर्भग और अनादेय का उदयव्यवच्छेद अविरत गुणस्थान में होता है । तिर्यंचगति, तिर्यंचायु, उद्योत और नीचगोत्र का उदयविच्छेद देशविरत गुणस्थान में होता है । स्त्यानद्धित्रिक का उदयविच्छेद प्रमत्त गुणस्थान में होता है। चौथे एवं पांचवें संहनन का अप्रमत्त गुणस्थान में
और दूसरे व तीसरे संहनन का उपशान्तमोह गुणस्थान में उद्रयविच्छेद होता है तथा अरति और शोक का बंधविच्छेद प्रमत्त गुणस्थान में होता है और उदयव्यवच्छेद अपूर्वकरण गुणस्थान में होता है । संज्वलन लोभ का बंधविच्छेद अनिवृत्तिबादर गुणस्थान के चरम समय में होता है और उदयव्यवच्छेद सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान के अंतिम समय में होता है। इस प्रकार ये छियासी प्रकृतियां क्रमव्यवच्छिद्यमानबंधोदया हैं। २२. उत्क्रमव्यवच्छिद्यमानबन्धोदया प्रकृतियां
.: पूर्वमुदयः पश्चाबन्ध इत्येवमुत्क्रमेण व्यवच्छिद्यमानौ बन्धोदयौ यासां ताः उत्क्रमव्यवच्छिद्यमानबंधोदया:--जिन प्रकृतियों का पहले उदय विच्छेद और पीछे बंध विच्छेद को प्राप्त होता है, वे उत्क्रमव्यवच्छिद्यमानबंधोदया प्रकृति कहलाती हैं । ऐसी प्रकृतियां आठ हैं, यथा--अयशःकीति, सुरत्रिक, वैक्रियद्विक, आहारकद्विक। इनमें से अयशःकीर्ति नाम का प्रमत्त गुणस्थान में, देवायु का अप्रमत्त गुणस्थान में, देवद्विक और वैक्रियद्विक का अपूर्वकरण गुणस्थान में बंधव्यवच्छेद होता है किन्तु इन छहों प्रकृतियों का उदयविच्छेद अविरत गुणस्थान में होता है। आहारकद्विक का बंधव्यवच्छेद अपूर्वकरण गुणस्थान में होता है और उदयव्यवच्छेद प्रमत्तसंयत गुणस्थान में होता है।' १. उपाध्याय यशोविजयजी ने कर्मप्रकृति टीका में आहारकद्विक का उदयविच्छेद सातवें अप्रमत्तसंयत गुणस्थान
में बतलाया है। जो कर्मग्रांथिकों के मत से अपेक्षाकृत भिन्न है। कर्मशास्त्रियों का मत है कि कोई चतुर्दशपूर्वधारी .. मुनि जब अपने संशय आदि के निवारणार्थ आहारकलब्धि का प्रयोग करते हैं, उस समय लब्धि का प्रयोग वाले होने से प्रमादो भी हो सकते हैं । क्योंकि कुछ लब्धियां ऐसी हैं कि प्रयोगकर्ता उत्सुक हो सकता है और उत्सुकता हुई तो उस उत्सुकता में कदाचित् स्थिरता या एकाग्रता का भंग संभव है। छठे गुणस्थान तक ही प्रमाद का सद्भाव है। उसके आगे प्रमाद का अभाव हो जाने से आहारकद्विक का उदयविच्छेद छठे गुणस्थान के चरम समय में हो जाता है। उपाध्यायजी ने सातवें गुणस्थान में जो आहारकद्विक का उदयविच्छेद बतलाया है, वह भी अपेक्षाविशेष से ठीक है। क्योंकि कोई मुनि विशुद्ध परिणाम से आहारक शरीरवान होने पर भी सातवें गुणस्थान को पा सकते हैं। परन्तु ऐसा क्वचित्, कदाचित् बहुत ही अल्पकाल के लिये होता है। अतएव इस क्वचित्, कदाचित् अल्प सामर्थिक स्थिति की अपेक्षा से विचार किया जाये तो सातवें अप्रमत्त गुणस्थान में भी आहारकद्विक का उदयविच्छेद मानना ठीक है। यह एक विशेषस्थिति है। सामान्य से तो छठे गुणस्थान में ही आहारकद्विक का उदयविच्छेद हो जाता है।