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कर्मप्रकृति मिथ्यात्व और आदि की बारह कषायों से रहित शेष मोहनीय प्रकृतियों के प्रदेशोदय में अथवा विपाकोदय में क्षयोपशम अविरुद्ध है, क्योंकि वे देशघातिनी हैं । परन्तु वे प्रकृतियां अध वोदया हैं, इसलिये उनके विपाकोदय के अभाव में और क्षायोपशमिक भाव के विज़म्भमाण होने पर (उत्तरोत्तर प्रवर्धमान होने पर) प्रदेशोदय वाली भी वे प्रकृतियां मनागपि (किंचिन्मात्र भी, स्वल्पमात्र भी) देशघातिनी नहीं है, किन्तु विपाकोदय के प्रवर्तमान होने पर और क्षायोपशमिक भाव के सम्भव होने पर मनाक् (कुछ) मालिन्यमात्र के करने से वे देशघातिनी हैं । १७. स्वानुदयबंधिनी प्रकृतियां
स्वस्थानुदय एव बंधो यासां ताः स्वानुदयबंधिन्यः--अपने अनुदय में ही जिन प्रकृतियों का बंध होता है, वे स्वानुदयबंधिनी कहलाती हैं । ऐसी प्रकृतियां ग्यारह है-देवायु, नरकायु, देवगति, देवानुपूर्वी, नरकगति, नरकानुपूर्वी, वैक्रियशरीर, वैक्रियअंगोपांग, आहारकद्विक और तीर्थकर नामकर्म । जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है. देवगतित्रिक (देवगति, देवानुपूर्वी, देवायु) का देवगति में उदय होता है और नरकत्रिक का नरकगति में तथा वंक्रियद्विक का उभयत्र (देव और नरक गति दोनों में)। किन्तु देव और नारक इन प्रकृतियों को बांधते नहीं हैं । क्योंकि उनका ऐसा ही भवस्वभाव है । तीर्थकरनाम भी केवलज्ञान की प्राप्ति होने पर उदययोग्य होता है, किन्तु उस समय उसका बन्ध नहीं होता है। क्योंकि अपूर्वकरण गुणस्थान (आठवें गुणस्थान) में ही उसका बंधव्यवच्छेद हो जाता है। आहारकशरीर के प्रयोग करने के काल में लब्धि के उपयोगजनित प्रमाद से और उसके उत्तरकाल में मंद संयम वाले गुणस्थानवर्ती होने से आहारकद्विक के उदय में उनका वन्ध नहीं होता है । इस प्रकार ये सभी प्रकृतियां स्वानुदयबंधिनी हैं। १८. स्वोदयबंधिनी प्रकृतियां
__ स्वोदय एव बंधो यासां ताः स्वोदयबंधिन्यः-अपने उदय में ही जिनका बंध होता है, वे प्रकृतियां स्वोदयबंधिनी कहलाती हैं । उनके नाम इस प्रकार हैं--ज्ञानावरणपंचक, दर्शनावरणचतुष्क, अन्तरायपंचक, मिथ्यात्व, निर्माणनाम, तेजस, कार्मण, स्थिर, अस्थिर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, शुभनाम और अशुभनाम । ये सत्ताईस प्रकृतियां ध्रुवोदया हैं । इसलिये इनका उदयविच्छेद होने तक सर्वदा उदय पाया जाता है और उदय रहने तक इनका बंध होते रहने से ये स्वोदयबंधिनी कहलाती हैं ।' १९. उभयबंधिनी प्रकृतियां
उभयस्मिन्नुदयेऽनुदये वा बन्धो यासां ता: उभयबंधिन्य:--जिन प्रकृतियों का उदय अथवा अनुदय दोनों ही अवस्थाओं में बंध होता है, वे उभयबंधिनी कहलाती हैं । वे इस प्रकार हैं- निद्रापंचक, जातिपंचक, संस्थानषट्क, संहननषट्क, सोलह कषाय, नव नोकषाय, पराघात, उपघात, आतप, उद्योत, उच्छ्वास, साता-असातावेदनीय, उच्चगोत्र, नीचगोत्र, मनुष्यत्रिक, तिर्यचत्रिक, १. प्रत्येक गुणस्थान में उदय योग्य प्रकृतियों का विवरण परिशिष्ट में देखिए।