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बंधनकरण
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स्थिति स्वबंध से प्राप्त नहीं होती है, किन्तु संक्रम से प्राप्त होती है। संक्रम से उत्कृष्ट स्थिति तव पाई जाती है जब इनकी विपक्ष रूप प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थितियों को बांधकर उसके उत्तर काल में पुनः इन्हीं के वांधे जाने पर उनमें पूर्ववद्ध विपक्षी प्रकृतियों के दलिकों का संक्रमण होता है। उक्त तेरह प्रकृतियों की विपक्षभूत जो प्रकृतियां हैं, उनकी उत्कृष्ट स्थिति को वांधने वाला प्रायः मिथ्यादृष्टि आदि मनुष्य होता है, किन्तु उस समय इन प्रकृतियों का उदय नहीं होता है। इसलिये ये अनुदयसंक्रमोत्कृष्टा कहलाती हैं। २८-२९. उदयबंधोत्कृष्टा, अनुदयबंधोत्कृष्टा प्रकृतियां
___यासां प्रकृतीनां विपाकोदये सति बंधादुत्कृष्टं स्थितिसत्कर्मावाप्यते ताः उदयबंधोत्कृष्टाः, यासां तु विपाकोदयाभावे बंधादुत्कृष्टस्थितिसत्कर्मावाप्तिस्ताः अनुदयबंधोत्कृष्टा:--जिन प्रकृतियों का विधाकोदय होने पर बंध से उत्कृष्ट स्थितिसत्व पाया जाता है, वे उदयबंधोत्कृष्टा प्रकृतियां और जिन प्रकृतियों का विधाकोदय के अभाव में बंध से उत्कृष्ट स्थितिसत्व पाया जाता है, वे अनुदयबंधोत्कृष्टा प्रकृतियां कहलाती है।
इनमें नरकद्विक, तिर्यंचद्विक, औदारिकद्विक, सेवार्तसंहनन, एकेन्द्रियजाति, स्थावरनाम, आतपनाम और पांचों निद्रायें, ये पन्द्रह प्रकृतियां अनुदयबंधोत्कृष्टा हैं और आयुचतुष्क से रहित शेष पंचेन्द्रियजाति, वैक्रियद्विक, हुण्डसंस्थान, पराघात, उच्छ्वास, उद्योत, अप्रशस्तविहायोगति, अगुरुलघु, तेजस, कार्मण, निर्माण, उपघात, वर्णचतुष्क, स्थिरषट्क, त्रसादिचतुष्क, असातावेदनीय, नीचगोत्र, सोलह कषाय, मिथ्यात्व, ज्ञानावरणपंचक, अन्तरायपंचक और दर्शनावरणचतुष्क ये साठ प्रकृतियां उदयबंधोत्कृष्टा हैं । क्योंकि उदय को प्राप्त इन प्रकृतियों की स्ववन्ध से उत्कृष्ट स्थिति पाई जाती है। चारों आयु कर्म का परस्पर संक्रम नहीं होता है और बध्यमान आयु के दलिक पूर्वबद्ध आयु के उपचय (प्रदेशवृद्धि) के लिये समर्थ नहीं होते हैं। इसलिये तिर्यंच और मनुष्यायु की उत्कृष्ट स्थिति किसी भी प्रकार सम्भव नहीं है । अतः ये प्रकृतियां अनुदयबंधोत्कृष्टा आदि चारों संज्ञाओं से रहित हैं। देवायु और नरकायु को अनुदयबंधोत्कृष्टा होने पर भी प्रयोजन के अभाव से पूर्वाचार्यों ने उन्हें उदयबंधोत्कृष्टा आदि चारों संज्ञाओं से अतीत विवक्षित किया है। ३०-३१. अनुदयवती, उदयवती प्रकृतियां
यासां प्रकृतीनां दलिकं चरमसमयेऽन्यासु प्रकृतिषु स्तिबुकसंक्रमेण संक्रमय्यान्यप्रकृतिव्यपदेशेनानुभवेत्, न स्वोदयेन, ताः अनुदयवतीसंज्ञाः, यासां च दलिकं चरमसमये स्वविपाकेन वेदयते ताः उदयवत्यः--जिन प्रकृतियों के दलिक चरम समय में अन्य प्रकृतियों में स्तिबुकसंक्रमण से संक्रमित होकर अन्य प्रकृति के रूप में अनुभव किये जायें, स्वोदय से नहीं, उन प्रकृतियों की अनुदयवती संज्ञा है और जिन, प्रकृतियों के दलिक चरम समय में अपने विपाक से वेदन किये जायें, उनकी उदयवती संज्ञा है। १. उदयसंक्रमोत्कृष्टा, अनुदयसंक्रमोत्कृष्टा, उदयबंधोत्कृष्टा, अनुदयबंधोत्कृष्टा। २. समान जातीय जिस किसी विवक्षित एक प्रकृति के उदय आने पर अनुदय प्राप्त शेष प्रकृतियों का जो उसी प्रकृति
में संक्रमण होकर उदय आता है, उसे स्तिबुक संक्रमण कहते हैं। स्तिबुकसंक्रमण को प्रदेशोदय भी कहते हैं । जिसका स्पष्टीकरण संक्रमकरण में किया जा रहा है।