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कर्मप्रकृति
वाला विपाक जिन प्रकृतियों का होता है, वे क्षेत्रविपाकिनी कहलाती हैं । नरकानुपूर्वी आदि चारों आनुपूर्वी नामकर्म क्षेत्रविपाकिनी प्रकृतियां हैं। ये प्रकृतियां पूर्व गति से दूसरी गति में जाने वाले जीव के अपान्तराल में उदय में आती हैं, शेषकाल में नहीं। यद्यपि अपने योग्य क्षेत्र को छोड़कर अन्यत्र भी इनका सक्रमोदय संभव है. तथापि क्षेत्रहेतुक स्वविपाकोदय से जैसा इनका प्रादुर्भाव होता है, वैसा अन्य प्रकृतियों का नहीं होता है। दूसरी प्रकृतियों द्वारा स्पर्श नहीं किये जाने वाले असाधारण
क्षेत्र के निमित्त से इनका विपाकोदय होता है, अतः इनको क्षेत्रविपाकिनी कहा जाता है। । १६. जीवविपाकिनी प्रकृतियां
... जीवे जीवगते ज्ञानादिलक्षणे स्वरूप विपाकस्तदनुग्रहोपघातादिसंपादनाभिमुख्यलक्षणो यासां ताः जीवविपाकिन्यः --जीव में अर्थात् जीवगत (असाधारण लक्षण रूप) ज्ञानादि स्वरूप में जिन प्रकृत्तियों का अनुग्रह और उपघात आदि संपादन की अभिमुखता लक्षण वाला विपाक होता है, वे जीवविपाकिनी कहलाती हैं । वे इस प्रकार हैं-ज्ञानावरणपंचक, दर्शनावरणनवक, साताअसातावेदनीय, सम्यक्त्व और सम्यमिथ्यात्व को छोड़कर मोहनीय की छब्बीस प्रकृतियां, अन्तरायपंचक, गतिचतुष्क, जातिपंचक, विहायोगतिहिक, वसत्रिक, स्थावरत्रिक, सुस्वर, दुःस्वर, सुभग, दुर्भग, आदेय, अनादेय, यशःकीति, अयशःकीर्ति, तीर्थंकरनाम, उच्छ्वासनाम, नीचगोत्र और उच्चगोत्र--ये छिहत्तर प्रकृतियां बंधयोग्यता की अपेक्षा पंचसंग्रह में जीवविपाकिनी कही गई हैं। अन्य ग्रंथों में तो उदययोग्य की विवक्षा से सम्यक्त्व और सम्यगमिथ्यात्व को भी ग्रहण कर अठहत्तर प्रकृतियां जीवविपाकिनी कही हैं। ये प्रकृतियां जीव में ही अपना विपाक दिखलाती हैं, अन्यत्र नहीं। जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है-- ... ज्ञानावरण की पांचों प्रकृतियां जीव के ज्ञान गुण का घात करती हैं। दर्शनावरणनवक प्रकृतियां आत्मा के दर्शन गुण को, मिथ्यात्व मोहनीय सम्यक्त्व गुण को, चारित्र मोहनीय की प्रकृतियां चारित्र गुण को और दानान्तराय आदि अन्तरायकर्म की प्रकृतियां दानादि लब्धि को घातती हैं। सातावेदनीय, असातावेदनीय सुख-दुःख का अनुभव कराती हैं और गतिचतुष्क आदि नामकर्म की प्रकृतियां गति आदि जीव की विविध पर्यायों को उत्पन्न करती हैं।
शंका-भवविपाकी आदि प्रकृतियां भी वस्तुतः जीवविपाकी ही हैं, क्योंकि आयुकर्म की सभी प्रकृतियां अपने योग्य भव में विपाक दिखाती हैं और वह विपाक उस भव को धारण करने रूप लक्षण वाला है एवं वह भव जीव के ही होता है। उससे भिन्न दूसरे के नहीं । इसी प्रकार चारों आनुपूवियां भी विग्रहगति रूप क्षेत्र में विपाक को दिखलाती हुई जीव के अनुश्रेणिगमन विषयक स्वभाव को धारण करती हैं तथा उदय को प्राप्त हुईं आतप, संस्थान नाम आदि पुद्गलविपाकिनी प्रकृतियां भी उस प्रकार की शक्ति को जीव में उत्पन्न करती हैं कि जिसके द्वारा वह जीव उसी प्रकार के पुद्गलों को ग्रहण करता है और गृहीत पुद्गलों की तथारूप ही रचनाविशेष करता है। इसलिये ये सभी प्रकृतियां जीवविपाकिनी ही माननी चाहिये।
समाधान आपका यह सपन सत्य है, किन्तु केवल स्वादि की प्रशन्य विक्षा के दिपक से भिन्न होने के कारण पूर्वोक्त प्रकृतियों को जीवविपाकी कहा गया है।