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कर्मप्रकृति के समान अति स्थूल सैकड़ों छिद्रों से व्याप्त और कोई रस चिकने वस्त्र क समान अति सूक्ष्म छिद्रों से युक्त अल्प स्नेहवाला, विमल और अपने विषयभूत गुण के एकदेश को घात करने से देशघाति होता है। किन्तु अघातिनी प्रकृतियों का रस उक्त दोनों प्रकार के रसों से विलक्षण होने के कारण अघाति कहलाता है। केवल घाति प्रकृतियों के सम्पर्क से अघातिनी प्रकृतियों का रस-विपाक देखा जाता है। जैसे--कोई स्वयं चोर नहीं है, किन्तु चोरों के सम्पर्क से चोरपना देखा जाता है। ९-१०. परावर्तमान, अपरावर्त्तमान प्रकृतियां
____याः प्रकृतयः प्रकृत्यन्तरस्य बंधमुदयं वा विनिवार्य बंधमुदयं वाऽगच्छन्ति ताः परावर्त्तमानाः, इतरा अपरावर्तमानाः--जो प्रकृतियां दूसरी प्रकृति के बंध या उदय को रोककर बंध या उदय को प्राप्त होती हैं, वे परावर्त्तमाना प्रकृतियां और इनके विपरीत प्रकृतियां अपरावर्त्तमाना प्रकृतियां कहलाती हैं।
.. इनमें ज्ञानावरणपंचक,, अन्तरायपंचक, दर्शनावरणचतुष्क, पराघात, तीर्थंकर, उच्छ्वास, मिथ्यात्व, भय, जुगुप्सा और नामकर्म की नौ ध्र वबंधिनी प्रकृतियां, ये उनतीस प्रकृतियां बंध और उदय के आश्रय से अपरावर्त्तमाना है। क्योंकि इन प्रकृतियों का बंध या उदय' बंधने वाली या वेद्यमान शेष प्रकृतियों के द्वारा घात नहीं किया जा सकता है। शेष इक्यानवै प्रकृतियां बंध की अपेक्षा परावर्त्तमाना हैं तथा उदय की उपेक्षा इन्हीं (इक्यानवै) में सम्यक्त्व और सम्यमिथ्यात्व इन दोनों को और मिला देने पर तेरानवै प्रकृतियां परावर्त्तमाना हैं। ११-१२. शुभ-अशुभ प्रकृतियां
__जीवप्रमोदहेतुरसोपेताः प्रकृतयः शुभाः, नास्ति शुभो रसो यासु ता अशुभाः--जो प्रकृतियां जीव के प्रमोद के कारणभूत रस से युक्त होती हैं, वे शुभ (पुण्य) प्रकृतियां कहलाती हैं और जिनमें शुभ रस नहीं होता है, वे अशुभ (पाप) प्रकृतियां कहलाती हैं। इनमें मनुष्यत्रिक, देवत्रिक, तियंचायु, उच्छ्वास नामकर्म, शरीरपंचक, अंगोपांगत्रिक, शुभविहायोगति, शुभवर्णादि चतुष्क, त्रसदशक, तीर्थंकर नाम, निर्माण, प्रथम संहनन, प्रथम संस्थान, आतप नाम, पराघात नाम, पंचेन्द्रिय जाति, अगुरुलघु, सातावेदनीय, उच्चगोत्र और उद्योत नामकर्म, ये वयालीस प्रकृतियां शुभ' हैं और शेष वयासी प्रकृतियां अशुभ हैं।
वर्णादि चतुष्क की संख्या शभ प्रकृतियों में भी ग्रहण की जाती है और अशुभ प्रकृतियों की संख्या में भी ग्रहण की जाती है। क्योंकि इनका शुभ-अशुभ रूप दोनों प्रकार होना सम्भव है।' १. यहां गिनाई गई बयालीस शुभ प्रकृतियां सर्वत्र शुभ प्रकृतियों के रूप में प्रसिद्ध हैं। लेकिन आचार्य उमास्वाति ने--
'सक्वंद्य सम्यक्त्व हास्यरति पुरुषवेद शुमायुर्नाम गोत्राणि पुण्यम् (सभाष्य तत्त्वार्थाधिगमसूत्र ८/२६ में) सम्यक्त्व, हास्य, रति और पुरुषवेद इन चार प्रकृतियों को भी शुभ (पुण्य) प्रकृति बतलाया है। ये चार प्रकृतियां दूसरे
किसी भी ग्रंथ में पुण्य रूप से वर्णन नहीं की गई हैं। इन चार प्रकृतियों को पुण्य रूप मानने वाला मतविशेष . प्राचीन है, क्योंकि भाष्यवृत्तिकार श्री सिद्धसेनगणि ने भी मतभेद को दर्शाने वाली कारिकायें दी हैं और लिखा है
कि इस मंतव्य का रहस्य सम्प्रदायविच्छेद होने से हमें मालूम नहीं हुआ। चौदह पूर्वधारी (बहुश्रुत) गम्य है।
इनको शुभ प्रकृति मानने के सम्बन्ध में एक संभव दृष्टिकोण परिशिष्ट में देखिये। २. वर्णचतुष्क को उभयभेदों में ग्रहण करने से शुभ और अशुभ प्रकृतियों की संख्या क्रमश: बयालीस और
बयासी बतलाई है। लेकिन वर्णचतुष्क को शुभ प्रकृतियों में ग्रहण करने पर अशुभ प्रकृतियों की संख्या अठहत्तर और शुभ प्रकृतियों की संख्या बयालीस होगी और वर्णचतुष्क को अशुभ प्रकृतियों में ग्रहण करने पर शुभ प्रकृतियां अड़तीस और अशुभ प्रकृतियां बयासी मानी जायेंगी।