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कर्मप्रकृति
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यद्यपि केवलज्ञानावरणकर्म ज्ञान लक्षण वाले आत्मा के गुण को संपूर्ण रूप से घात करने में प्रवृत्त होता है, तथापि उसके द्वारा यह गुण सम्पूर्णघात (उच्छेद) नहीं किया जा सकता है, क्योंकि ऐसा स्वभाव है ।' जैसे सूर्य और चन्द्र की किरणों के आवरण करने के लिये प्रवर्तमान भी विशाल घनपटल के द्वारा उनकी प्रभा पूर्णरूप से आच्छादित नहीं की जाती है । यदि ऐसा न माना जाये तो दिन और रात के विभाग का अनुभव (परिज्ञान) नहीं हो सकेगा । इसलिये केवलज्ञानावरण के द्वारा केवलज्ञान का संपूर्ण रूप आवरण करने पर भी जो तद्गत ( ज्ञान सम्बन्धी ) मंद, विशिष्ट और विशिष्टतर प्रकाशरूप मतिज्ञानादि संज्ञा वाला ज्ञान का एकदेश विद्यमान रहता है, उसे यथायोग्य मतिज्ञानावरण, श्रुतज्ञानावरण, अवधिज्ञानावरण और मन:पर्ययज्ञानावरण कर्म घातते हैं, इसलिये वे देशघाति कर्म हैं ।
इसी प्रकार केवलदर्शनावरणकर्म के द्वारा केवलदर्शन के सम्पूर्ण रूप से आवरण करने पर भी जो तद्गत मंद, मंदतर, विशिष्ट और विशिष्टतर आदि रूप वाली प्रभा शेष रहती है और जिसकी चक्षुदर्शन आदि संज्ञा है, उसे यथायोग्य चक्षुदर्शनावरण, अचक्षुदर्शनावरण और अवधिदर्शनावरण कर्म आवृत्त करते हैं। इसलिये दर्शन गुण के एकदेश का घात करने से ये देशघाति कर्म कहलाते हैं ।
निद्रादिक पांचों दर्शनावरण कर्म की प्रकृतियां यद्यपि केवलदर्शनावरण कर्म के द्वारा आवृत्त केवलदर्शन सम्बन्धी प्रभामात्र दर्शनगुण के एकदेश का घात करती हैं, तथापि वे चक्षुदर्शनावरणादि कर्मों के क्षयोपशम से उत्पन्न हुई दर्शनलब्धि को जड़मूल से घात करती हैं, इसलिये उन्हें सर्वघातिनी कहा गया है।
संज्वलन कषायचतुष्क और नव नोकषाय अनन्तानुबंधीचतुष्क आदि बारह कषायों के क्षयोपशम से उत्पन्न हुई चारित्रलब्धि को एकदेश से घात करती हैं, इसलिये वे देशघातिनी प्रकृतियां हैं । क्योंकि चारित्रगुण में केवल अतिचारों को उत्पन्न करना ही इनका कार्य है । जैसा कि कहा है -- चारित्र के सभी अतिचार संज्वलन कषायों के उदय से होते हैं और बारह कषायों के उदय से चारित्र का मूलछेद होता है तथा घाति कर्मों के क्षयोपशम से जीव के जो सम्यक्त्व, चारित्र
१. ज्ञानावरण कर्म का कैसा भी गाढ़ आवरण हो जाये, लेकिन आत्मा को कुछ न कुछ ज्ञान अवश्य रहता है। क्योंकि ज्ञान आत्मा का गुण, स्वभाव है और स्वभाव का कभी नाश नहीं होता है। अतः ज्ञानावरण कर्म ज्ञान गुण को आच्छादित तो कर सकता है, समूलोच्छेद नहीं कर सकता है, केवलज्ञान का अनन्तवां भाग तो नित्य अनादरित ही रहता है। यदि आवरण का अर्थ ज्ञान का समूलोच्छेद माना जाये तो फिर जोव, जीव ही नहीं रहे, जीव अजीव का कोई भेद न रहे तथा तब ज्ञान आत्मा का स्वभाव नहीं माना जा सकता है-
सव्वी वाणं पिणं अक्खरस्स अनंतभागो णिच्चुग्घाडियो हवई, जइ पुण सोवि आवरिज्जा, तेणं जीवो अजीवत्तं पावेज्जा । - नन्दीसूत्र ७५
२. सब्वेऽवि य अडयारा संजलणाणं तु उदयओ होंति ।
मूलच्छेज्जं पुण होई वारसहं कसायाणं ॥
-पंचाशक
यहां मूलछेद का तात्पर्य सर्वचारित्र की अपेक्षा से समझना चाहिये । प्रत्याख्यानावरण के उदय में देशचारित्र होता है, किन्तु सर्वचारित्र नहीं होता है ।