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बंधनकरण
८.
यदुदयादष्टमहाप्रातिहार्याद्यतिशयाः प्रादुर्भवन्ति तत्तीर्थकरनाम - जिसके उदय से अष्ट महाप्रातिहार्य' आदि अतिशय प्रगट होते हैं, वह तीर्थंकर नामकर्म है ।
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इस प्रकार अप्रतिपक्षा प्रत्येक प्रकृतियों का स्वरूप है । अव सप्रतिपक्षा प्रकृतियों स्वरूप का कथन करते हैं ।
सप्रतिपक्षा प्रत्येक प्रकृतियां
त्रसदशक और स्थावरदशक के भेद से सप्रतिपक्षा प्रकृतियां बीस हैं । उनमें से तसदशक के नाम इस प्रकार हैं--तस वादर, पर्याप्त, प्रत्येक शरीर, स्थिर, शुभ, सुस्वर, सुभग, आंदेय और यश: कीर्ति तथा स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण शरीर, अस्थिर, अशुभ, दुःस्वर, दुभंग, अनादेय और अयश कीर्ति, ये स्थावरदशक हैं ।
प्रतिपक्ष प्रकृति सहित इनके लक्षण इस प्रकार हैं-
त्रस-स्थावर-
- त्रसन्त्युष्णाद्यभितप्ताः स्थानान्तरं गच्छन्तीति त्रसा द्वीन्द्रियादयः तद्विपाकवेद्या कर्मप्रकृतिरपि त्रसनाम । तद्विपरीतं स्थावरनाम, यदुदयादुष्णाद्यभितापेऽपि स्थानंपरिहारासमर्थाः पृथिव्यादय: स्थावरा भवन्ति--जो उद्वेग को प्राप्त होते हैं और उष्णता आदि से संतप्त होकर एक स्थान से दूसरे स्थान को जाते हैं, ऐसे द्वीन्द्रिय आदि जीव तस कहलाते हैं । इस प्रकार की विपाकवेद्य कर्मप्रकृति भी तस नामकर्म कहलाती है । इसके विपरीत स्थावर नामकर्म है कि जिसके उदय से उष्णता आदि से संतप्त होने पर भी जो अपने स्थान का परिहार करने में असमर्थ होते हैं, ऐसे पृथ्वी आदि जीव स्थावर हैं ।
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बाबर-सूक्ष्म -- यदुदयाज्जीवानां चक्षुर्ब्राह्मसरीरत्वलक्षणं बावरत्वं भवति तद्वादरनाथ-जिसके उदय से जीव का शरीर नेत्रों से ग्रहण करने योग्य होता है, वह बादर नामकर्म है । पृथ्वी आदि का एक-एक शरीर नेत्रों द्वारा ग्रहण करने योग्य नहीं होने पर भी बादरत्व के परिणामविशेष से अनेक शरीरों का समुदाय होने पर उनके शरीरों का नेत्र से ग्रहण होता ही है। तद्विपरीतं सूक्ष्मनाम, यदुदयाद् बहूनां समुदितानामपि जन्तुशरीराणां चक्षुर्ग्राह्यता न भवति — बादर नामकर्म से विपरीत सूक्ष्म नामकर्म है, जिसके उदय से समुदाय को प्राप्त भी बहुत से प्राणियों नेत्रों के द्वारा ग्रहण करने योग्य नहीं होते हैं ।
“शरीर
पर्याप्त अपर्याप्त - - यदुदयात् स्वयोग्यपर्याप्तिनिर्वर्तनसमर्थो भवति तत्पर्याप्तनाम, तद्विपरीतपर्याप्तनाम, यदुदयात्स्वयोग्य पर्याप्तिनिर्वर्तनसमर्थो न भवति -जिसके उदय से जीव अपने योग्य १. आठ महाप्रतिहार्यों के नाम इस प्रकार हैं-'
अशोकवृक्षः सुरपुष्पवृष्टिविव्यध्वनिश्चामरमासनं च । भामण्डलं दुन्दुभिरातपत्रं सत्प्रातिहार्याणि जिनेश्वराणाम् ॥
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२. बादर और सूक्ष्म नामकर्म का विशेष स्पष्टीकरण परिशिष्ट में देखिये ।
३. पर्याप्त और अपर्याप्त नामकर्म का स्पष्टीकरण परिशिष्ट में देखिये ।
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१. अशोकवृक्ष, २. सुरपुष्पवृष्टि, ३. दिव्यध्वनि, ४ चामर, ५ आसन, ६. भामण्डल, ७. दुन्दुभि और ८. आतपत्र ( छत्र ) ।