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कर्मप्रकृति
उच्छ्वास, आतप, उद्योत, निर्माण और तीर्थंकर नामकर्म के भेद से आठ प्रकार की हैं । उनके लक्षण इस प्रकार हैं-
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१. यदुदयात्प्राणिनां शरीराणि न गुरूणि न लघूनि नापि गुरुलघूनि कित्वगुरुलघुपरिणामपरिणतानि भवन्ति तदगुरुलघुनाम-जिसके उदय से प्राणियों के शरीर न तो भारी हों और न लघु हों और न गुरुलघु ही हों किन्तु यथायोग्य अगुरुलघु परिणाम से परिणत होते हैं, उसे अगुरुलघु नामकर्म कहते हैं ।
२. यदुदयात्स्वशरीरावयवैरेव प्रतिजिह्वागलवृन्दलंबकचौरदन्तादिभिर्जन्तु रुपहन्यते स्वयंकृतोद्बन्धनभैरवप्रपातादिभिर्वा तदुपघातनाम --जिसके उदय से प्रतिजिह्वा ( पड़जीभ), गलवृन्द, लंबक, चौदन्त आदि के द्वारा प्राणी उपघात को प्राप्त हो, अथवा स्वयंकृत बंधन, ( फांसी), भैरवप्रपात अर्थात् भयंकर पर्वत आदि से गिरने आदि द्वारा मारा जाये, उसे उपघात नामकर्म कहते हैं ।
१३. यदुदयादोजस्वी दर्शनमात्रेण वाक्सौष्ठवेन वा महासभागतः सभ्यानामपि श्रासमुत्पादयति प्रतिवादिनश्च प्रतिभां प्रतिहन्ति तत्पराधातनाम --जिसके उदय से जीव ऐसा ओजस्वी हो कि जिसके दर्शन से अथवा वचन - सौष्ठवता से बड़ी सभा में जाने पर जो सभासदों को भी त्रास उत्पन्न करे और प्रतिवादी की प्रतिभा का घात करे, उसे पराघात नामकर्म कहते हैं ।
४. यदुदयादुच्छ, वासनिःश्वासलब्धिरुपजायते तदुच्छ्वासनाम — जिसके उदय से उच्छ्वास और निःश्वास रूप लब्धि उत्पन्न होती है, वह उच्छ्वास नामकर्म है ।
५. यदुदयाज्जन्तुशरीराणि स्वरूपेणानुष्णान्यप्युष्णप्रकाशलक्षण मातपं कुर्वन्ति तदातपनाम -- जिसके उदय से प्राणियों के शरीर मूल स्वरूप से तो अनुष्ण ( उष्णता रहित, शीतल) होते हुए भी उष्ण प्रकाशरूप ताप करते हैं, वह आतप नामकर्म है। इस कर्म का विपाक सूर्यमंडलगत पृथ्वीकायिक जीवों में ही होता है, अग्नि में नहीं । अग्नि में आतप नामकर्म के उदय का प्रवचन में निषेध किया गया है । किन्तु अग्नि में उष्णता उष्णस्पर्श नामकर्म के उदय से एवं उत्कट लोहित वर्ण नामकर्म के उदय से प्रकाशपना कहा गया है ।
६. यदुदयाज्जन्तुशरीराण्यनुष्णप्रकाशरूपमुद्योतं कुर्वन्ति यथा यतिदेवोत्तरवक्रियचन्द्रग्रहनक्षत्रतारा विमानरत्नोषधयस्तदुद्योतनाम --जिसके उदय से प्राणियों के शरीर अनुष्ण (शीतल) प्रकाश रूप उद्योत करते हैं, जैसे - साधु और देव के उत्तर वैक्रियशरीर में से तथा चन्द्र, ग्रह, नक्षत्र और ताराओं के विमानों, रत्नों और औषधिविशेषों में से शीतल प्रकाश निकलता है, वह उद्योत नामकर्म है ।
७. यदुदयाज्जन्तुशरीरेष्वङ्गप्रत्यङ्गानां प्रतिनियतस्थानवत्तता भवति तन्निर्माणनाम सूत्रधारकल्पं -- जिसके उदय से प्राणियों के शरीरों में अंगों और प्रत्यंगों की अपने-अपने नियत स्थान पर रचना होती है, वह सूत्रधार के समान निर्माण नामकर्म है ।
इस कर्म का अभाव मानने पर भूतक ( सेवक ) सदृश अंगोपांग आदि नामकर्म के द्वारा शिर, उर, उदर आदि की रचना होने पर भी नियत स्थान पर उनके होने का नियम नहीं रहेगा ।