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कर्मप्रकृति
पर्यायों सहित त्रिलोकवर्ती समस्त पदार्थों के ज्ञाता-दष्टा-सर्वज्ञ हैं तथा 'निधौ तसर्वकर्ममलं' सम्पूर्ण कर्ममल का क्षय कर देने वाले होने से संसारातीत हैं--कर्ममल से रहित हैं, इसीलिये वे भगवान वंदनीय हैं ।' सिद्ध भगवन्तों व श्रुत को नमस्कार
ग्रंथकार ने पूर्वोक्त पदों के द्वारा भगवान महावीर को नमस्कार करने के साथ-साथ सिद्धभगवन्तों को भी नमस्कार किया है । सिद्धों को वंदना करने के प्रसंग में सिद्धं यह विशेष्य पद है और सिद्धार्थश्रुतं' एवं 'निधो तसर्वकर्ममलं' यह दोनों विशेषण पद हैं। जिनका निरुक्त्यर्थ इस प्रकार है कि-सम्पूर्ण कर्ममल को पूर्णतया क्षय करने रूप अभीप्सित अर्थ को सिद्ध कर लेना जिनके लिये श्रुत-प्रसिद्ध है । अर्थात् उन्होंने जीवमात्र के इष्ट, अभीप्सित अर्थ-मोक्ष की प्राप्ति के लिये सम्पूर्ण कर्ममल का निःशेष रूप से क्षय कर दिया है, ऐसे सिद्ध भगवन्तों को नमस्कार करके ।
इन पदों के द्वारा श्रुत को भी नमस्कार किया है--श्रतं यह विशेष्य और सिद्धं, सिद्धार्थ विशेषणपद हैं। तव उनका यह अर्थ होगा कि सिद्ध-अनादिकाल से जिसका अस्तित्व सिद्ध है तथा सिद्धार्थजिसका अभिधेय प्रमाणसिद्ध है और वह अभिधेय है निधौ तसर्वकर्ममल-सम्पूर्ण कर्ममल को निःशेष रूप से धोना । इसका अर्थ यह हुआ कि सम्पूर्ण कर्ममल को क्षय करने के उपायों का विधिवत विज्ञान जिसमें समुपलब्ध है, ऐसे अनादि विशुद्ध आत्मीय शक्तिविशेष ज्ञानमय श्रुत को नमस्कार करके। - सारांश यह है कि ग्रंथकार ने श्रमण भगवान महावीर की वंदना करने के साथ ही प्रकारान्तर से सिद्ध भगवन्तों एवं ज्ञानमय श्रुत को भी नमस्कार किया है। इसके साथ ही इन्हीं पदों के द्वारा ग्रंथ की प्रमाणता और अपनी लघुता का भी संकेत कर दिया है कि मैं अपनी बौद्धिक कल्पना का आधार लेकर नहीं, किन्तु सम्पूर्ण कर्ममल को क्षय करने वाले श्रमण भगवान महावीर के श्रुत-प्रवचन के आशय के अनुसार ग्रंथरचना के लिये उद्यत हुआ हूँ तथा इसके वर्णनीय विषय का साक्षात् सम्बन्ध भगवान महावीर की वाणी से और परम्परागत सम्बन्ध पूर्ववर्ती आचार्यों द्वारा रचित इस वाणी से अविरुद्ध ग्रंथों से है। गाथा के उत्तरार्ध का विवेचन
___ इस प्रकार से गाथा के पूर्वार्ध में मंगलमय प्रभु महावीर आदि को वंदना करके ग्रंथकार ने उत्तरार्ध में ग्रंथ के वर्ण्यविषय आदि का उल्लेख किया है कि ग्रंथ में ज्ञानावरण आदि आठ कर्मों के बंध, संक्रम आदि के कारणभूत बंधन आदि आठ करणों (आत्मपरिणामों) एवं कर्मों की उदय और सत्ता अवस्थाओं का वर्णन करूंगा ।
। आठ करणों के नाम, उदय और सत्ता के लक्षण आदि का वर्णन यथाप्रसंग आगे किया जायेगा । लेकिन उसके पूर्व आठ कर्मों का स्वरूप जानना उपयोगी होने से भेद-प्रभेद सहित उनकी व्याख्या करत हैं। १. अतएव च भगवान् प्रेक्षावतां प्रणामार्हः।
-कर्मप्र., मलय. टी., पृ. १ २. प्रतिपादयिष्यामि कर्माष्टकस्य बन्धसंक्रमादिहेतुभूतं करणाष्टकं उदयसत्ते च। -कर्मप्र., मलय. टी., पृ. १