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कर्मप्रकृति
- 'सिद्धं'-सिद्ध, सिद्धदशा को प्राप्त यानी अनादि काल से वद्ध संसार के कारणभूत ज्ञानावरण आदि अष्ट प्रकार के कर्मों का क्षय करके 'सिद्धावस्था पूर्ण कृतकृत्यता को प्राप्त ।'
इसी बात को और अधिक स्पष्ट करने के लिये पुनः दूसरा विशेषण दिया है-निधौ तसर्वकर्ममलंअर्थात् जिन्होंने नि-नितराम्-निःशेष रूप से, पूर्णतया यानी पुनः प्रादुर्भाव न हो सके, इस तरह सम्यग्ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप रूप जल के द्वारा समस्त कर्ममल को धो डाला है, उसका प्रक्षालन कर दिया है। ऐसे सिद्धार्थसुतं-सिद्धार्थ राजा के सुपुत्र-श्रमण भगवान महावीर, वर्धमान स्वामी को वंदिय-वंदन करके ।
यदि यहाँ तर्क प्रस्तुत किया जाये कि 'सिद्धं' और 'निधौ तसर्वकर्ममलं' यह दोनों तो समानार्थक पद हैं । दोनों से एक ही आशय ध्वनित होता है। अतः इन दोनों पदों में से किसी एक पद का प्रयोग करना चाहिये था। तो इसका समाधान यह है कि भले ही उक्त दोनों पद समानार्थक समझे जायें, फिर भी सिद्धं पद का प्रयोग करने के वाद ‘निधौ तसर्वकर्ममलं' पद का प्रयोग विशिष्ट अभिप्राय को स्पष्ट करने के लिये किया है। जैसे कि--
१. कोषकारों ने सिद्ध शब्द के अनेक अर्थ बतलाये हैं, यथा-अच्छी तरह तैयार किया हुआ, विधिपूर्वक सम्पन्न, सफलता प्राप्त, निश्चित, प्रमाणित, निष्णात, दक्ष, विशेषज्ञ, जिसने सिद्धि प्राप्त की हो, मुक्त इत्यादि । जिनका यथाप्रसग अभिप्रायानसार लोकव्यवहार और शास्त्र में प्रयोग किया जाता है । लेकिन प्रस्तुत प्रसंग में उन अनेक अर्थों में से सिद्ध शब्द का वास्तविक अर्थ स्पष्ट करने एवं भावतः सिद्ध कौन हो सकता है ? बतलाने के लिये ही सिद्ध पद के अनन्तर पुनः 'निधौ तसर्वकर्मभलं' पद का प्रयोग किया गया है कि संपूर्ण कर्मावरण का क्षय होने पर ही सिद्धावस्था प्राप्त होती है।
२. सिद्ध नामक किसी व्यक्ति अथवा लौकिक विद्याओं में दक्षता प्राप्त करने वाले व्यक्तिविशेष का व्यवच्छेद करने के लिये सिद्धं के अतिरिक्त निधौ तसर्वकर्ममल' विशेषण दिया है कि यहां उन्हीं सिद्धों को नमस्कार किया गया है जो निःशेष रूप से कर्ममल को धोकर अपुनर्भव अवस्था प्राप्त कर चुके हैं, जिनका जन्म-मरण रूप संसार सदा सर्वदा के लिये नष्ट हो चुका है ।
३. सिद्धं पद के अतिरिक्त निधौ तसर्वकर्ममलं पद देकर जैनदशन की मान्यता का मंडन और एकान्तवादी अन्य दार्शनिकों की दृष्टि का निरसन किया गया है । जैसे कि वेदान्त व सांख्य दर्शन ब्रह्म, पुरुष को अनादि शुद्ध मानने वाले एवं नैयायिक-वैशेषिक शुद्ध आत्मा का पुनर्जन्म मानने वाले दार्शनिक हैं । लेकिन जैनदर्शन का यह मंतव्य है कि अनादि से कोई भी जीव शुद्ध नहीं है, १. सितं बद्धं ध्मातं भस्मीकृतमष्टप्रकारं कर्म येन स सिद्धः।
-कर्मप्र. मलय. टी., पृ. १ २. नि-नितरामपुनर्भावेन धौतः सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रतपःसलिलप्रभावेणापगमितः सर्व एव कर्मवाष्टप्रकार
जीवमालिन्यहेतुत्वात् मल इव मलो येन स तथा तं। ३. सिद्धार्थसुतं सिद्धार्थस्य सिद्धार्थनरेन्द्रस्य, सुतमपत्यं वर्धमानस्वामिनमित्यर्थः। कर्मप्र., मलय. टी., प.१ ४. स च नामतोऽपि कश्चिद्भवति, विद्यासिद्धादिर्वा सिद्ध इति लोके प्रतीतस्ततस्तव्यवच्छेदार्थ यथोक्तान्वयंसूचकमेव ___ विशेषणमाह-निधौ तसर्वकर्ममलं।
___ -कर्मप्र., मलय. टी., प.१ ५. अनेनानादिशुद्धपुरुषप्रवादप्रतिक्षेप आवेदितो दृष्टव्यः ।
---कर्मप्र., मलय. टी., प..
प्रकारं कर्म येन स सिद्धःप सलिलप्रभावेणापगमितः कर्मप्रकृति, मलय. टोक, प..
४. स च नामता
सर्वकर्ममलं।