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८. अन्तराय--जीवं दानादिकं चान्तरा व्यवधानापादनायति नन्छातीत्यस्तरावं--जो जीव को ज्ञानादिक की प्राप्ति में अन्तर अर्थात् व्यवधान प्राप्त (आपादन) करने के लिये आता है, उसे अन्तराय कर्म कहते हैं । .....
.. इन आठों कर्मों की यथाक्रम से पांच, नौ, दो, अट्ठाईस, चार, बयालीस, दो और पांच उत्तर प्रकृतियां हैं।' ज्ञानावरण कर्म को उत्तरप्रकृतियां - मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्याय और केवल ज्ञानावरण के भेद से ज्ञानावरण कर्म की पांच प्रकृतियां हैं । मति, श्रुत आदि का स्वरूप सुव्यक्त (अति स्पष्ट) है। दर्शनावरण कर्म को उत्तरप्रकृतियां
चक्षुदर्शनावरण, अचक्षुदर्शनावरण, अवधिदर्शनावरण, केवलदर्शनावरण, निद्रा, निद्रा-निद्रा, प्रचला, प्रवला-प्रथला और स्त्याद्धि के भेद से दर्शनावरण कर्म की नौ उत्तरप्रकृतियां हैं ।
१. चक्षुषा दर्शनं चक्षुर्दर्शनं, तदावरणं चक्षुर्दर्शनावरणं--चक्षु के द्वारा होने वाले दर्शन को चक्षुदर्शन कहते हैं और उसका आवरण करने वाला कर्म चक्षुदर्शनावरण है ।
२. शेषेन्द्रियमनोभिर्दर्शनमचक्षुर्दर्शनं, तदावरणमचक्षदर्शनावरणं--चक्षु के सिवाय शेष इन्द्रियों और मन के द्वारा होनेवाला दर्शन अचक्षुदर्शन कहलाता है और उसका आवरण करने वाला कर्म अपेक्षदर्शनावरण है। १. (क) पंचसंग्रह १२०, (ख)तत्वार्थसूत्र ८/६ । यद्यपि नामकर्म की समस्त उत्तर प्रकृतियों की संख्या तेरान या एक
सौ तीन है। लेकिन यहां १४ पिंडप्रकृति, ८ प्रत्येकप्रकृति, १० त्रसदशक, १० स्थावरदशक प्रकृतियों को मिलाकर बयालीस प्रकृतियों का संकेत किया है । पिंडप्रकृतियों के अवान्तर भेदों का ग्रहण नहीं
किया है। तेरानवै या एक सी तीन प्रकृति होने का स्पष्टीकरण यथास्थान आगे किया जा रहा है। २.. मति, श्रत, अवधि, मनःपर्याय और केवलज्ञान, ये ज्ञान के पांच भेद हैं । जिनके लक्षण इस प्रकार हैं-मन
और इन्द्रियों की सहायता से होने वाले पदार्थ के ज्ञान को मतिज्ञान कहते हैं। मतिज्ञान को आभिनिबोधिक ज्ञान भी कहते हैं । (२) शब्द को सुनकर जो अर्थ का ज्ञान होता है, उसे श्रुतज्ञान कहते हैं। अथवा मतिज्ञान
के अनन्तर होने वाला और शब्द तथा अर्थ की पर्यालोचना जिसमें हो, उसे श्रुतज्ञान कहते हैं। (३) मन • और इन्द्रियों की अपेक्षा न रखते हुए केवल आत्मा के द्वारा रूपी अर्थात् मूर्त द्रव्य का जो ज्ञान होता है,
उसे अवधिज्ञान कहते हैं। (४) मन और इन्द्रियों की अपेक्षा न रखते हुए मन के चिन्तनीय पर्यायों को जिस ज्ञान से प्रत्यक्ष किया जाता है, उसे मनःपर्यायज्ञान कहते हैं । जब मन किसी भी वस्तु का चिन्तन करता है तव चिन्तनीय वस्तु के भेदानुसार चिन्तन कार्य में प्रवृत्त मन भी तरह-तरह की आकृतियां धारण करता है, वे ' ही आकृतियां मन की पर्याय हैं। (५) सम्पूर्ण द्रव्यों को उनकी त्रिकाल में होने वाली समस्त पर्यायों सहित इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना आत्मा के द्वारा जानने वाले ज्ञान को केवलज्ञान कहते हैं । यह ज्ञान रूपी-अरूपी, मूर्त-अमूर्त सभी ज्ञेयों को हस्तामलक की तरह प्रत्यक्ष करने की शक्ति वाला है। इन ज्ञानों को आच्छादित करने वाले कर्मों के क्रमशः मतिज्ञानावरण, श्रुतज्ञानावरण, अवधिज्ञानावरम, मनःपर्यायज्ञानावरण और केवलज्ञानावरण, ये पांच भेद हैं। मतिज्ञान को आच्छादित करने वाले कर्म को मतिज्ञाना
वरण कहते हैं। इसी प्रकार श्रुतज्ञानावरण आदि शेष ज्ञानावरणों के लक्षण भी समझ लेना चाहिये। ३. पंचसंग्रह १२२. ..