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कर्मप्रकृति
इन प्रकृतियों को पिण्डप्रकृतियां कहा गया है । इनके लक्षण और गर्भित अवान्तर भेदों के नाम इस प्रकार हैं
१. गति-गम्यते तथाविधकर्मसचिव वैः प्राप्यत इति गतिः नारकत्वादिपर्यायपरिणतिःजो तथाविध (उस नाम वाले) कर्म की सहायता से जीवों द्वारा गम्य अर्थात् प्राप्त करने योग्य होती है, अथवा प्राप्त की जाती है, उसे गति कहते हैं । अर्थात् नारकत्व आदि पर्याय की परिणति होना गति कहलाती है । वह चार प्रकार की है-नरकगति, तिर्यंचगति, मनुष्यगति और देवगति । इन नारकादि के विपाक का वेदन कराने वाली कर्मप्रकृति भी उस नाम वाली गतिकर्म कहलाती है, अतः वह भी चार प्रकार की है।
२. जाति--एकेन्द्रियादीनामेकेन्द्रियादिशब्दप्रवृत्तिनिबन्धनं तथाविधसमानपरिणतिलक्षणं सामान्यं जाति:--एकेन्द्रिय आदि जीवों के लिये एकेन्द्रिय आदि शब्द की प्रवृत्ति के कारणभूत और उस प्रकार की समान परिणति लक्षण वाले सामान्य को जाति कहते हैं और उसके विपाक का वेदन कराने वाली कर्मप्रकृति भी जाति कहलाती है ।
जाति नामकर्म को पृथक् मानने के सम्बन्ध में पूर्वाचार्यों का यह अभिप्राय है-द्रव्यरूप इन्द्रियां तो अंगोपांग नामकर्म और इन्द्रियपर्याप्ति नामकर्म की सामर्थ्य से सिद्ध हैं और भावरूप इन्द्रियां स्पर्शन आदि इन्द्रियावरण कर्मों के क्षयोपशम की सामर्थ्य से सिद्ध होती हैं, क्योंकि 'क्षायोपशमिकानीन्द्रियाणीति वचनात' इन्द्रियां क्षायोपशमिक होती हैं-ऐसा आगमवचन है । किन्तु जो एकेन्द्रिय आदि शब्द की प्रवृत्ति का निमित्त रूप सामान्य है, वह जाति से भिन्न अन्य प्रकृति के द्वारा साध्य न होने से जाति नामकर्म के निमित्त से होता है । ___ शंका--शब्द की प्रवृत्ति के निमित्त से जाति की सिद्धि नहीं होती है। अन्यथा हरि आदि पद की प्रवृत्ति का निमित्त होने से हरित्व आदि रूप भी जाति सिद्ध होगी। अतएव एकेन्द्रिय आदि का व्यवहार उपाधिविषयक ही मानना चाहिए । तव जाति नामकर्म की आवश्यकता ही नहीं रहती है और यदि इस प्रकार एकेन्द्रिय आदि के व्यवहार से एकेन्द्रिय आदि जाति मानी जाती है, तव नारकत्वादि भी नारक आदि व्यवहार की निमित्तभूत पंचेन्द्रियत्व आदि में व्याप्त जाति ही मानना चाहिये। ऐसी स्थिति में गति नामकर्म की आवश्यकता नहीं रहती है।
समाधान--उक्त तर्क का समाधान यह है कि अपकृष्ट-अत्यल्प चैतन्य आदि के नियामक रूप से एकेन्द्रिय आदि जाति की सिद्धि होती है। वही एकेन्द्रिय आदि के व्यवहार का निमित्त है। अतः लाघव से (अल्पअक्षरों में, संक्षेप में कथन करने की दष्टि से) और एकेन्द्रिय आदि में उत्पन्न होने का कारण होने से जाति नामकर्म की पृथक् सिद्धि होती है । नारकत्व आदि जाति रूप नहीं हैं। अन्यथा तिर्यञ्चत्व का पंचेन्द्रियत्व आदि के साथ सांकर्य हो जायेगा। किन्तु सुख-दुःख विशेष के