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कर्मप्रकृति
अर्थात् कषायों के साथ रहने से अथवा कषायों को प्रेरणा देने स भी हास्यादि नौ प्रकृतियों को नोकषाय कहा गया है ।
इन नव नोकषायों के नाम हैं१--वेदत्रिक और हास्यादिषट्क । इनमें से वेदत्रिक-स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद हैं । वेदत्रिक के लक्षण इस प्रकार हैं
१. यदुदये स्त्रियाः पुंस्यभिलाषः पित्तोदये मधुराभिलाषवत्स स्त्रीवेद:--जिसके उदय होने पर स्त्री की पुरुष में अभिलाषा उत्पन्न हो, वह स्त्रीवेद है । जैसे पित्त के उदय होने पर मधुररस की अभिलाषा होती है।
२. यदुदयात्पुंसः स्त्रियामभिलाषः श्लेष्मोदयादम्लाभिलाषवत्स पुरुषवेद:--जिसके उदय से पुरुष की स्त्री में अभिलाषा हो, वह पुरुषवेद है । जैसे-श्लेष्म (कफ) के उदय से आम्लरस की अभिलाषा होती है।
३. यदुदयात्स्त्रीपुंसयोरुपर्यभिलाषः पित्तश्लेष्मोदये मज्जिकाभिलाषवत्स नपुंसकवेदः--जिसके उदय से स्त्री और पुरुष दोनों के ऊपर अभिलाषा हो, वह नपुंसकवेद है। जैसे पित्त और कफ का उदय होने पर खटमिट्टे रस की अभिलाषा होती है।
हास्यादिषट्क हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा रूप है। हास्यादि इन छहों का स्वरूप इस प्रकार है--
१. यदुदयात्सनिमित्तमनिमित्तं वा हसति तद्धास्यमोहनीयं--जिसके उदय से निमित्त मिलने पर या निमित्त नहीं मिलने पर भी जीव हंसता है, वह हास्यमोहनीय है ।
२. यदुदयाबाह्याभ्यन्तरेषु वस्तुषु प्रीतिस्तद्रतिमोहनीयं--जिसके उदय से वाह्य और आभ्यन्तर वस्तुओं में प्रीति हो, वह रतिमोहनीय है ।
३. यदुदयात्तेष्वप्रीतिस्तदरतिमोहनीयं--जिसके उदय से वाह्य और आभ्यन्तर वस्तुओं में अप्रीति हो, वह अरतिमोहनीय है ।
शंका--वाह्य और आभ्यन्तर वस्तुओं पर जो प्रीति और अप्रीति होती है, वह साता और असाता रूप ही है । इस कारण वेदनीयकर्म के द्वारा इनकी अन्यथासिद्धि है, तो फिर रति और अरति मोहनीय को पृथक् रूप से क्यों कहा है ?
१ उत्तराध्ययन सूत्र ३३/११ में जो-'सत्तविहं णवविहं वा कम्मं च णोकसायज' नोकषाय मोहनीय के सात या नो
भेदों का संकेत किया है, उसका कारण यह है कि जब वेद के स्त्री, पुरुष और नपुंसक ये तीन भेद नहीं करके सामान्य से वेद को गिनते हैं तब हास्यादि छह और वेद, कुल मिलाकर सात भेद होते हैं और जब वेद के स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद, ये तीन भेद पृथक्-पृथक् लिये जाते हैं तो नी भेद होते हैं। सामान्यतया नोकषाय मोहनीय के नौ भेद प्रसिद्ध है। अतः यहां भी नौ भेदों के नाम गिनाये गये हैं।