________________
णमो सिद्धाणं श्रीमद् शिवशर्मसूरि प्रणीत-- कम्मपयडी (कर्मप्रकृति)
मंगलाचरण
सिद्धं सिद्धत्थसुयं, वंदिय निद्धोयसव्वकम्ममलं ।
कम्मट्ठगस्स करण?मुदयसंताणि वोच्छामि ॥१॥ शब्दार्थ--सिद्ध-सिद्ध, सिद्धावस्था को प्राप्त, सिद्धत्थसुयं-सिद्धार्थ राजा के पुत्र--श्रमण भगवान महावीर को, वंदिय-वंदना करके, निद्धोयसव्वकम्ममलं-निःशेष रूप से जिन्होंने समस्त कर्ममल को धो डाला है, कम्मट्ठगस्स-आठ कर्मों के, करणटुं-आठ करणों को, उदयसंताणि-उदय और सत्ता को, वोच्छामि-कहूंगा ।
गाथार्थ--निःशेष रूप से जिन्होंने समस्त कर्ममल को धो डाला है और सिद्धावस्था को प्राप्त, ऐसे सिद्धार्थ राजा के सुपुत्र-श्रमण भगवान महावीर को वंदन करके आठ कर्मों के आठ करणों और उदय एवं सत्ता को कहूंगा ।
विशेषार्थ--सफलता प्राप्त करने एवं निविघ्न रूप से कार्य के सम्पन्न होने को आकांक्षा से प्रारम्भ में व्यक्त-शब्दात्मक और अव्यक्त--भावात्मक रूप से मंगलकारी महापुरुषों का स्मरण करना और उसके बाद अपने अभिधेय--वाच्य आदि की रूपरेखा बतलाना भारतीय साहित्य की परम्परा है। तदनुसार ग्रंथकार ने गाथा के पूर्वार्द्ध में अभीष्ट प्रयोजन में सफलता प्राप्त करने के लिये मंगलरूप महापुरुषों का स्मरण किया है और उत्तरार्द्ध में ग्रंथ के वर्ण्यविषय, प्रयोजन आदि को बताया है।' मंगलाचरणात्मक पदों की व्याख्या
'सिद्धं . . . . . 'सव्वकम्ममलं' गाथा का पूर्वार्ध मंगलाचरणात्मक है । इसमें श्रमण भगवान महावीर को नमस्कार करने के साथ-साथ सिद्ध भगवन्तों आदि की भी वंदना की है।
श्रमण भगवान महावीर को नमस्कार करने रूप व्याख्या इस प्रकार है--
'सिद्धत्थसुयं' यह पद श्रमण भगवान महावीर जिनेन्द्र के नाम एवं उनकी विशेषताओं का बोध कराने वाला होने से विशेष्य और विशेषण पद है तथा 'सिद्धं' और 'निद्धोयसव्वकम्ममलं' यह दोनों विशेषण पद हैं । जिनसे यह अर्थ फलित होता है कि१. इह पूर्वाधनेष्टदेवतानमस्कारस्याभिधानं, उत्तरार्धेन तु प्रयोज़नादीना। --कर्मप्रकृति, मलय, टी.,प..