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पापा।
जब मिट्टी कुंभकार के हाथों में आ जाती है, तब कुंभकार उसे पानी में मिलाकर रौंदता है, चाक पर चढ़ाकर घुमाता है, हाथ के द्वारा घट का आकार बना देता है। तदनन्तर अग्नि में तपाकर पूर्ण परिपक्व बना देता है। वही मिट्टी, मिट्टी की पर्याय को छोड़कर घट के रूप में आ जाती है और महिलाओं के मस्तक पर चढ़ जाती है।
इसी प्रकार आपश्री ने जब अपना जीवन योग्य गुरु के हाथों में समर्पित कर दिया तो गुरु ने उसे तरीके से घडा कि ज्ञान में विशद्धता, आचरण में सतर्कता, जीवन में पवित्रता, प्रतिभा में प्रखरता निरन्तर निखरती ही चली गई। शास्त्रों के गढ़ अध्ययन के साथ ही आपश्री ने जैनेतर धर्मों के सिद्धान्तों का भी ज्ञान किया । संस्कृत, प्राकृत न्याय, व्याकरण, दर्शन आदि पर भी अधिकार प्राप्त किया।
नाम ही 'नाना' है, अतः नाना गुणों का आप में समावेश होने लगा। गुरु ने शिष्य की योग्यता को परखा और वीरों की नगरी उदयपुर में वि. सं. २०१९, आश्विन शुक्ला द्वितीया को अपनी धवल चादर प्रदान कर संघ का उत्तराधिकारी घोषित कर दिया। आप हुक्मगच्छ के अष्टमाचार्य के रूप में युग के सामने आए। विश्वशांति का उपाय--समतादर्शन .. विश्व में सर्वत्र विषमता की आग धू-धू करके जल रही है। भौतिकता के सुनहले जाल में फंसकर मानव अपने जीवन को क्षत-विक्षत कर रहा है। सुख व शान्ति के स्थान पर और अधिक दुखित हो रहा है। विश्व की इस दयनीय अवस्था को देखकर आपश्री का मन दयार्द्र हो उठा। विश्व में व्याप्त विषमता को हटाकर शांति का प्रसार करने के लिये आपश्री चिन्तन की अतल गहराइयों में उतरे। परिणामस्वरूप विश्वशान्ति का अमोघ उपाय 'समता-दर्शन' जनता के समक्ष रखा। इसे चार विभागों में विभक्त किया-सिद्धान्तदर्शन, जीवनदर्शन, आत्मदर्शन और परमात्मदर्शन। समतावादी, समताधारी, समतादर्शी के रूप में आचरण की विधि प्रस्तुत की। प्रारंभिक भूमिका के रूप में जीवन-निर्माणकारी २१ सूत्र, ५ सूत्र भी प्रस्तुत किये।
इन विचारों का जनमानस पर गहरा असर हुआ । सामान्य जनता ही नहीं अपितु विद्वद्वर्ग ने भी इसे अपनाया और यह माना कि समतासिद्धान्त के आधार पर अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर व्यवस्था की जाये तो विश्व में सुख और शान्ति का प्रसार होने में देरी नहीं लगेगी।
प्रखरप्रतिभा-आपश्री की प्रतिभा का बहुमुखी विकास हुआ है। जयपुर वर्षावास में एक भाई ने आपश्री से प्रश्न किया-'कि जीवनम्' जीवन क्या है ? ।
आपश्री ने सूत्ररचना के नियमों को लक्ष्य में रखते हुए जीवन का समग्र रूप अल्प शब्दों में व्यक्त कर दिया। यथा-"सम्यकनिर्णायक समतामयञ्च यत् तज्जीवनम्" अर्थात् जो सम्यक् निर्णायक और समतामय है, वही जीवन है।
जीवन क्या है ? इस प्रश्न पर अनेक विद्वानों ने चिन्तन किया था। अपने-अपने दृष्टिकोण के साथ उसका समाधान भी प्रस्तुत किया। पूर्ववर्ती एक महान् आचार्य ने 'कि जीवनम्' की परिभाषा “दोषवजितं यत् तज्जीवनम्" के रूप में प्रस्तुत की थी। किन्तु यह परिभाषा निषेधपरक है, इससे जीवन का समग्ररूप स्पष्ट नहीं होता। जीवन वही हो सकता है जो सम्यक् निर्णायक और समतामय हो। योग की परिभाषा
पातंजल योगदर्शन में महर्षि पतंजलि ने योग की परिभाषा 'योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः' के रूप में की है। जैनदर्शन के एक महान् आचार्य ने उसकी परिभाषा “योगश्दुश्चित्तवृत्तिनिरोधः" के रूप में प्रस्तुत की है। आचार्य१. 'समता : दर्शन और व्यवहार' नामक पुस्तक में एतद् विषयक सविस्तृत विवेचन मिलता है । २. जयपुर वर्षावास के सारे प्रवचन इसी सूत्र पर हुए थे। जो 'पावस प्रवचन' के कई भागों में प्रकाशित हो चके हैं।