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श्रीजी के चिन्तन ने भी इस विषय में प्रवेश किया। आपश्री ने योग की परिभाषा--"योगश्चित्तवृत्तिसंशोधः" के रूप में जनता के समक्ष प्रस्तुत की । वास्तव में चित्तवत्तियों का निरोध नहीं किया जा सकता, उन्हें संशोधित ही किया जा सकता है।
ध्यान-साधना के क्षेत्र में भी आपश्री की प्रखर प्रतिभा ने अभिनव ध्यानप्रत्रिया 'समीक्षणध्यान' के रूप में जनता के समक्ष प्रस्तुत की है।
उपर्युक्त कुछएक दृष्टिकोणों से ही जाना जा सकता है कि आचार्यश्री की प्रतिभा का विकास किस रूप में विकसित हुआ है। एक महान कार्य---दलितोद्धार
___आचार्यपद को सुशोभित करते हुए आपश्री का मालवक्षेत्र में विचरण हो रहा था। वहां का दलितवर्ग जो समाज से तिरस्कृत था, जो लोग अछूत समझे जाते थे । वे गौरक्षक के स्थान पर गौभक्षक बन रहे थे। उनके जीवन की यह दयनीय अवस्था आचार्यश्रीजी से देखी नहीं गई, आप उनके बीच में पहुँचे । स्थान-स्थान पर दुर्लभ मानवजीवन की उपादेयता पर मार्मिक प्रवचन दिया। आचार्यश्री के एक-एक प्रवचन से पीढ़ियों से व्यसनग्रस्त हजारों लोगों ने सदा-सदा के लिये सप्त कुव्यसनों का त्याग कर दिया। सदाचारी एवं नैतिकता के साथ अपना जीवन निर्वहन करने के लिये कटिबद्ध हो गये । जिन्हें आचार्यश्री ने 'धर्मपाल' की संज्ञा से संबोधित किया । आज उनकी संख्या लगभग एक लाख तक पहुंच गई है। जिन लोगों को व्यसनमुक्त करने के लिये आर्यसमाज की एक विशाल संस्था काम कर रही थी, सरकार भी व्यसनमुक्ति के लिये अनेकों अध्यादेश निकाल चकी है, फिर भी जनमानस में कोई विशेष परिवर्तन नहीं आ पाया, जबकि आचार्यश्री के प्रवचनों से लोगों का आमलचल जीवन ही परिवर्तित हो गया।
सत्य है महायोगी, तप-तेजपुंज का प्रभाव अवश्य पड़ता है।
भागवती दीक्षाएं--आपश्री के सान्निध्य में चतुर्विधसंघ अहनिश विकास कर रहा है। अभी तक लगभग १७१ भव्य आत्माओं ने इस बढ़ते हए भौतिक यग में धन-दौलत, परिवार, सगे-संबंधी सब का परित्याग कर सर्वतोभावेन आपश्री के चरणों में समर्पित होकर भागवती दीक्षा अंगीकार की है।
संकोचवश आचार्यश्री के जीवन की आंशिक झलक ही प्रस्तुत कर रहा है। क्योंकि कोई व्यक्ति यह न मान बैठे कि गरू की प्रशंसा शिष्य ही कर रहा है । यह प्रशंसा नहीं अपितु यथार्थता की एक झलक मात्र है।
___मैंने भी 'कर्मप्रकृति' का एक नहीं अनेक बार चिन्तन-मनन के साथ भध्ययन-अध्यापन किया है किन्तु यह लिखने में संकोच नहीं होता कि आचार्यश्री ने प्रस्तुत ग्रन्थ में जिन विषयों का मार्मिक विश्लेषण किया है, उसकी उपलब्धि नहीं हो पाई।
___मैं यह विश्वास के साथ लिख रहा हूँ कि कर्मसिद्धान्त के अध्येताबों को आचार्यश्री के तत्त्वावधान में किया गया प्रस्तुत ग्रन्थ का हिन्दी अनुवाद व संपादन बह-उपयोगी सिद्ध होगा।
अपने परमात्मस्वरूप को उजागर करने वाली भव्यात्माएं कर्मसिद्धान्त का ज्ञानार्जन करें। कर्म ही आत्मा के परमात्मभाव के अवरोधक हैं। उनका ज्ञान होने पर आचरण की विशुद्धता के द्वारा उन्हें हटाकर आत्मा का परमात्मस्वरूप उजागर किया जा सकता है। भगवान महावीर का यही संदेश है
"अप्पा सो परमप्पा" -आत्मा ही परमात्मा है । उदयपुर (हिरणमगरी, सेक्टर नं. ११)
-- ज्ञानमुनि सोमवार, दिनांक ३०-११-८१