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यहाँ पर तीनों आचार्यों ने सिद्धचक्र की आराधना की । फलस्वरूप विमलेश्वर देव ने प्रकट होकर यथेप्सित वर माँगने के लिये कहा, तब हेमचन्द्राचार्य ने राजाओं को प्रतिबोधित करने का वर मांगा। देवेन्द्रसूरि ने कांतिनगर से प्रतिमा लाने का और आचार्य मलयगिरि ने यथाशक्ति आगम ग्रन्थों पर टीका लिखने का बर मांगा था। देव तथास्तु कहकर अन्तर्धान हो गया।
आचार्य मलयगिरि उसी दिन के बाद विशेषकर साहित्यसंघटना में लगे और समर्थ टीकाकार के रूप में यग के सामने आए।
उपर्यक्त प्रसंग से स्पष्ट होता है कि आचार्य मलयगिरि हेमचन्द्राचार्य के समकालीन थे। अत: आचार्य मलयगिरि का समय विक्रम की बारहवीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध या १३ वीं शताब्दी का पूर्वार्द्ध माना जाता है। द्वितीय टीकाकार--उपाध्याय यशोविजयजी
कर्मप्रकृति के द्वितीय टीकाकार न्यायविशारद उपाध्याय यशोविजयजी हैं। उनके भी जन्मस्थान आदि के विषय में स्पष्ट जानकारी उपलब्ध नहीं होती। फिर भी उपलब्ध प्रमाणों के आधार पर आपका समय विक्रम की १६ वीं शताब्दी माना गया है। न्याय के अन्दर आपकी अविरलगति होने से ऐसा कहा जाता है कि आपने न्यायसम्बन्धी १०८ ग्रन्थों का प्रणयन किया था। इसमें "ज्ञानबिन्दु" ग्रन्थ तो आपकी विद्वत्ता का मकूटमणि जैसा प्रतीत होता है। महामनीषी समताविभूति आचार्यश्री नानेश
गौर वर्ण, सौम्य चेहरा, उन्नत ललाट, प्रलम्ब बाहु, दृढ़ एवं विशाल वक्षस्थल, निर्विकार लोचन, मुखवस्त्रिका से शोभित मखमण्डल, श्वेत परिधान में ब्रह्मतेज से दमकती देह, श्री से संपन्न, श्रुत-शास्त्रपारंगत महामनीषी समताविभूति आचार्यश्री नानेश का जन्म वीर वसुन्धरा मेवाड़ के ग्रामीण अंचलों में विशालता को प्रकट करने वाले छोटे से गांव 'दांता' में विक्रम संवत् १९७७, ज्येष्ठ शुक्ला द्वितीया के दिन हुआ था।
द्वितीया के चन्द्र की तरह आपके शरीर की अभिवृद्धि होने के साथ ही ज्ञानकला में भी अहर्निश प्रगति होने लगी। माता शृंगारा ने बाल्यकाल में ही आपको नैतिकता, धीरता, वीरता स्पष्टता आदि अनेकों गुणों से शृंगारित कर दिया था। शैशवावस्था से ही आप में उन्मुक्त चिन्तन करने की क्षमता जागृत हो चुकी थी। अगणित प्राणियों की आधार विशाल पृथ्वी को देखकर सभी का आधारभूत बनने की और अनन्त आकाश को देखकर जीवन की अनन्तता को विकसित करने की उत्कट आकांक्षा उठने लगी। रंग-बिरंगे पुष्पों की प्रसरित सुवास ने आपके मन में विभिन्न गुणों की सौरभ भरने की भावना उत्पन्न कर दी।
जीवन के चरम सत्य को जानने की प्रबल जिज्ञासा से आप अनेकों संत-महात्माओं के सान्निध्य में पहुँचने लगे। किन्तु कहीं पर भी सत्य का शुद्ध नवनीत नहीं मिल सकने से आप हताश हो गये। संयोगवश एक सुज्ञ महानुभाव ने आपकी उन्नत भावना एवं प्रबल जिज्ञासा को समझ कर आपको शान्तक्रान्ति के जन्मदाता, हुक्मगच्छ के सप्तम आचार्य श्री गणेशलालजी म. सा. के सान्निध्य में पहुंचा दिया। ..
- आपने जब उन दिव्य महापुरुष के दर्शन किये और उनके विचारों को समझा, तब मन में यह दृढ़ विश्वास हो गया कि इनके सान्निध्य में रहने पर जीवन के चरम सत्य को पाने की जिज्ञासा शांत हो जाएगी। लगभग ३ वर्ष पर्यन्त विरक्ति की साधना की। उसमें अग्नि से निष्तप्त स्वर्ण की भांति खरे उतरे। इंगलिश शब्दों में एक पाश्चात्य दार्शनिक ने सत्य ही कहा है--
Pure Gold does not fear the flame. विक्रम संवत १९९६ में पौष शुक्ला अष्टमी को विरक्ति के महापथ पर जीवन के चरम सत्य को उद्घाटित करने के लिये आपने प्रयाण कर दिया अर्थात् श्री गणेशाचार्य के चरणों में सर्वतोभावेन समर्पित होकर भागवती दीक्षा अंगीकार कर ली।
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