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उदयावस्था-यथास्थितिबद्ध कर्मपुद्गलों का अबाधांकाल को पूर्णता से या अपवर्तनाविकरणविशेष से उदयसमय में प्राप्त का अनुभवन करना उदय है।'
___ उदय और उदीरणा में प्रकृतियों की अपेक्षा से अन्तर है । उदय की व्याख्या भी प्रकृत्युदय, स्थित्युदय, अनुभागोदय, प्रदेशोदय के द्वारा की गई है।
मुख्यतया इसमें मूलोत्तर प्रकृतियों की साधनादिप्ररूपणा गुणश्रेणिस्वरूप, जघन्योत्कृष्टप्रदेशोदय तथा उनके स्वामित्व पर विचार किया गया है।
सत्तावस्था--जिन कर्मपुद्गलों का अवस्थान जिस रूप में आत्मा के साथ है, उनका उसी रूप में जब तक अवस्थान रहता है, उसे सत्ता कहते हैं।
सत्ता का भेद, साद्यादिप्ररूपणा और स्वामित्व द्वारा विचार किया गया है।
इस प्रकार कर्मप्रकृति में ग्रन्थकार ने करणाष्टक और उदय, सत्ता की व्याख्या करके अन्त में उपसंहार करते हुए इसका फल बतलाया है____ 'कर्मप्रकृति का ज्ञान करने के साथ तदनुरूप कर्मक्षय की पद्धति को अपनाने से अलौकिक सुख की प्राप्ति होती है।'
प्रस्तुत ग्रन्थ पर एक प्राकृत चूर्णि और दो टीकाओं का प्रणयन हुआ है। चूर्णिकार का नाम अज्ञात है। चणि का परिमाण सात हजार (७ हजार) श्लोक है। टीकाओं में एक सुप्रसिद्ध ख्यातिप्राप्त टीकाकार आचार्य मलयगिरि की है। उनकी टीका का प्रमाण आठ हजार (८ हजार) श्लोक प्रमाण है । दूसरे टीकाकार उपाध्याय यशोविजयजी हैं, इनकी टीका का प्रमाण (१३ हजार) तेरह हजार श्लोक प्रमाण है।।
कर्मविषयक विभिन्न ग्रंथों का पूर्व में दिग्दर्शन करा चुके हैं। उन सब ग्रन्थों के साथ कर्मप्रकृति ग्रन्थ का तुलनात्मक अध्ययन किया जाये तो ज्ञात होगा कि जिस सुन्दर तरीके से कर्मसिद्धान्त की गहन विवेचना इस ग्रन्थ में की गई है, उस तरह की विवेचना अन्य ग्रन्थों में देखने को नहीं मिलती है। इसमें कर्म विषयक समग्र स्वरूप का आद्योपान्त विवेचन किया गया है । एक दृष्टि से इसे कर्मसिद्धान्त के ग्रन्थों का चूड़ामणि भी कहा जाये तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। महान् रत्नाकर की तरह इस ग्रन्थ में सुगमता से प्रवेश करने के लिये पूर्व में षटकर्मग्रन्थों का अध्ययन आवश्यक है।
१. कर्मपुद्गलानां यथास्थितिबद्धानामबाधाकालक्षयेणापवर्तानादिकरणविशेषतो वा उदयसमयप्राप्तानामनुभवनमुदयः । २. निर्जरणसंक्रमकृतस्वरूपप्रच्यत्यभावे सति सद्भावः सत्ता।
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