________________
३६
होसकता । वह कोई ऐसा ही प्रभावशाली, माननीय, सर्वगुणसम्पन्न असाधारण व्यक्ति होना चाहिये।
इन सबके अतिरिक्त, पूजकाचार्य या प्रनिष्टाचार्यका जो स्वरूप, धर्मसंग्रहश्रावकाचार, पूजासार और प्रतिष्ठासारोद्धार आदिक जैनशास्त्रों में स्पष्टरूपसे वर्णन किया गया है उससे इस स्वरूपकी प्रायः सब बातें मिलती है । जिससे भलेप्रकार निश्चित होता है कि यह म्वरूर प्रतिष्टादिविधान करनेवाले पूजक अर्थात् प्रतिष्टाचार्य या पूजकाचार्य से ही सम्बन्ध रखता है । यद्यपि इस निबन्धमें पूजकाचार्य या प्रतिष्ठाचार्यका स्वरूप वि. वेचनीय नहीं है, तथापि प्रसंगवश यहापर उसका किंचित् दिग्दर्शन करादेना ज़रूरी है ताकि यह मालूम करके कि दूसरे शास्त्रोंमे भी प्रायः यही स्वरूप प्रतिष्टाचार्य या पूजकाचार्यका वर्णन किया है, इस विषयमें फिर कोई संदेह बाकी न रहे । सबसे प्रथम धमसंग्रहश्रावकाचारहीको लीजिये। इस ग्रंथके ९ वें अधिकारमे, नित्यपूजकका स्वरूप कथन करनेके अनन्तर, श्लोक नं. १४५ से १५२ तक आट श्लोकोंमे पूजकाचार्यका स्वरूप वर्णन किया है। वे श्लोक इस प्रकार है:"इदानीं पूजकाचार्यलक्षणं प्रतिपाद्यते। ब्राह्मणः क्षत्रियो वैश्यो नानालक्षणलक्षितः ॥१४५॥ कुलजात्यादिसंशुद्धः सदृष्टिदेशसंयमी ।। वेत्ता जिनागमस्याऽनालस्यः श्रुतबहुश्रुतः ॥ १४६ ॥ ऋजुर्वाग्मी प्रसन्नोऽपि गंभीरो विनयान्वितः । शौचाचमनसोत्साहो दानवान्कर्मकर्मठः ॥१४७॥ साङ्गोपाङ्गयुतः शुद्धो लक्ष्यलक्षणवित्सुधीः ।
खदारी ब्रह्मचारी वा नीरोगः सत्क्रियारतः ॥ १४८॥ वारिमंत्रत्रतस्त्रातः प्रोषधव्रतधारकः । निरभिमानी मौनी च त्रिसंध्यं देववन्दकः ॥ १४९ ॥ श्रावकाचारपूतात्मा दीक्षाशिक्षागुणान्वितः। क्रियाषोडशभिः पूतो ब्रह्मसूत्रादिसंस्कृतः ॥ १५ ॥