Book Title: Jina pujadhikar Mimansa
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Natharang Gandhi Mumbai

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Page 367
________________ अर्थ-जिस इन्द्र के स्वर्ग तो किला है, देव नौकर चाकर हैं, वज्र हथियार है, और ऐरावत हाथी है, उसको भी कोई शरण नहीं है । अर्थात् रक्षा करनेकी ऐसी श्रेष्ठ सामग्रियोंके होते हुए भी उसे कोई नहीं बचा सकता है। फिर हे दीन पुरुषो ! तुम्हें कौन बचावंगा ? णवणिहि चउदहरयणं हयमत्तगइंदचाउरंगवलं । चकेसस्स ण सरणं पेच्छंतो कहिये काले ॥१०॥ नवनिधि. चतुर्दगरत्नं हयमत्तगजेन्द्र चतुरङ्गबलम् । चक्रेशम्य न शरणं पश्यत कर्दित कालेन ॥ १० ॥ अर्थ-हे भव्यजनो ! देखो, इसी तरह कालके आ दवानेपर ना निधियां, चौदह रत्न, घोड़ा-मतवाले हाथी, और चतुरंगिनी सेना आदि रक्षा करनेवाली सामग्री चक्रवर्तीको भी शरण नहीं होती है । अर्थात् जब मात आती है, तब चक्रवतीको भी जाना पड़ता है। उसका अपार वैभव उसे नहीं बचा मकता है। जाइजरमरणरोगभयदो रक्खेदि अप्पणो अप्पा। तम्हा आदा सरणं बंधोदयसत्तकम्मवदिरित्तो॥११॥ जानिजरामरणरोगभयतः रक्षति आत्मनः आत्मा । ___ तम्मादात्मा शरणं बन्धोदयसत्त्वकर्मव्यतिरिक्तः ॥ ११ ॥ अर्थ-जन्म, जरा, मरण. रोग और भय आदिसे आत्मा ही अपनी रक्षा करता है। इसलिये वास्तवमें (निश्चयनयसे) जो कर्मोकी बंध, उदय और सत्ता अवस्थासे जुदा है, वह आत्मा ही इस संसारमें शरण है। अर्थात्

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