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THE FREE INDOLOGICAL
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-The TFIC Team.
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वीर सेवा मन्दिर
दिल्ली
___72114 सख्या
पता
खण्ड
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जुगलमिशन परबर
तर पुस्तकालय
जपा-१३३५.१३४
जिनपूजाधिकार-मीमांसा।
लेखक-जुगलकिशोर मुख्तार ।
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"प्रकाशककी ओरसे विनामूल्य वितरित।"
नमो जिनाय । जिनपूजाधिकार-मीमांसा।
लेखकबाबू जुगलकिशोर मुख्तार, देवबन्द जिला सहारनपुरनिवासी।
प्रकाशकसेठ नाथारंगजी गांधी, बम्बई।
श्रीवीरनि० संवत् २४३९
अप्रैल १९१३.
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Printed by R. Y. Shedge, at the N. S. Press, 23, Kolbhat Lanc, Kalbadevi Road, Bombay.
Published by Sheth Natharangij Gandhi, Dabara Lane, Mandvi, Bombay.
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| जो चाहता है अपना, कल्याण मित्र, करना। __ जगदेकबन्धु जिनकी, पूजा पवित्र करना । दिल खोल करके उसको, करने दो कोई भी हो। फलते हैं भाव सबके, कुल जाति कोइ भी हो ।
-जैनहितैषी।
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श्री अकलंकाय नमः । जिन-पूजाऽधिकार-मीमांसा ।
----- Docipc-~
उत्थानिका। जो मनुष्य जिम मतको मानता है-जिस धर्मका श्रद्धानी HALA और अनुयायी है, वह उर्मा मत वा धर्मके पूज्य और
(उपास्य देवताओंकी पूजा और उपासना करता है। परन्तु
. आजकलके कुछ नियोंका ग्वयाल इस सिद्धान्तके ५ विरुद्ध है। उनकी समझमे प्रत्येक जैनधर्मानुयायीको
(जनीको) जिनेंद्रदेवकी पूजा करनेका अधिकार नहीं है। उनकी कल्पनाके अनुसार बहुतसे लोग जिनेन्द्रदेवके पूजकोंकी श्रेणीमे अवस्थान नहीं पाते। चाहे वे लोग अन्यमतके देवी देवताओंकी पूजा और उपासना भले ही करें, पर जिनेन्द्रदेवकी पूजा और उपासनासे अपनेको कृतार्थ नहीं कर सकते । शायद उनका ऐसा श्रद्धान हो कि ऐसे लोगोके पूजन करनेस महान् पापका बन्ध होता है और वह पाप शास्त्रोक्त नियमोंका उल्लघन करक संक्रामक रोगकी तरह अडोमियों-पड़ोसियों, मिलने जुलनेवालों और खासकर सजातियोंको पिचलता फिरता है । परन्तु यह केवल उनका भ्रम है और आज इसी भ्रमको दृर करने अर्थात् श्रीजिनेंद्रदेवक पूजनका किस किसको अधिकार है, इस विषयकी मीमांसा और विवेचना करनेके लिये यह निबन्ध लिखा जाता है ।
ॐ इसी प्रकारके विचारोसे खातौलीके दस्सा और बीसा जैनियोके मुकद्दमेका जन्म हुआ और ऐसे ही प्रौढ विचारोसे सर्धना जिला मेरठके जिनमंदिरको करीब करीब तीनसालतक ताला लगा रहा ।
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पूजन-सिद्धान्त । जैनधर्मका यह सिद्धान्त है कि यह आत्मा जो अनादि कर्ममलसे मलिन हो रहा है और विभावपरिणतिरूप परिणम रहा है, वही उन्नति करते करते कर्ममलको दर करके परमात्मा बन जाता है, आत्मास भिन्न
और पृथक् कोई एक ईश्वर या परमात्मा नहीं है। आत्माकी परमविशुद्ध अवस्थाका नाम ही परमात्मा है-अरहंत, जिनेन्द्र, जिनदेव तीर्थकर, सिद्ध, सार्व, सर्वज्ञ, वीतराग, परमेष्टि, परमज्योति, शुद्ध, बुद्ध, निरंजन, निर्विकार, आप्त, ईश्वर, परब्रह्म, इत्यादि उसी परमात्मा या परमात्मपदके नामान्तर है-या दृमर शब्दोंमे यों कहिये कि परमात्मा आत्मीय अनन्तगुणोंका समुदाय है । उसके अनन्त गुणोंकी अपेक्षा उसके अनन्त नाम हैं। वह परमात्मा परम वीतरागी और शान्तस्वरूप है, उसको किसीसे राग या द्वेप नहीं है, किमीकी स्तुनि, भक्ति और पूजास वह प्रसन्न नहीं होता और न किमीकी निन्दा, अवज्ञा या कद शब्दोसे अप्रसन्न होताः धनिक श्रीमानों, विद्वानों और उच्च श्रेणी या वर्णक मनुप्योको वह प्रेमकी दृष्टिसे नहीं देखना आर न निर्धन कगालों. मृर्वो और निम्नश्रेणीके मनुप्योंको घृणाकी दृष्टिसं अवलोकन करता, न सम्यग्दृष्टि उसके कृपापात्र हैं और न मिथ्यादृष्टि उसके कोपभाजन, वह परमानदमय और कृतकृत्य है, सांसारिक झगडोंसे उसका कोई प्रयोजन नही । इसलिये जैनियोंकी उपासना, भक्ति और पूजा, हिन्द मुसलमान और ईसाइयोंकी तरह, परमात्माको प्रसन्न करने के लिये नहीं होती । उसका एक दृप्सरा ही उद्देश्य है जिसके कारण वे ऐसा करना अपना कर्तव्य समझते है और वह संक्षिप्तरूपस यह है कि.
यह जीवात्मा स्वभावसे ही अनन्त दर्शन. अनन्त ज्ञान, अनन्त सुख और अनन्त वीर्यादि अनन्त शक्तियोंका आधार है । परन्तु अनादि कर्म मलसे मलिन होनेके कारण इसकी वे समम्न शक्तियां आच्छादित है-कमौके पटलसे वेष्टित है और यह आत्मा संसारम इतना लिप्त और मोहजालमें इतना फेसा हुआ है कि उन शक्तियोंका विकाश होना तो दूर रहा, उनका स्मरणतक भी इसको नहीं होता । कर्मके किंचित् क्षयोपशमसे जो
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कुछ थोड़ा बहुत ज्ञानादि लाभ होता है, यह जीव उत्तनेहीमे सन्तुष्ट होकर उसीको अपना स्वरूप समझने लगता है । इन्हीं संसारी जीवोंमसे जो जीव, अपनी आत्मनिधिकी सुधि पाकर धातुभेदीके सदृश प्रशस्त ध्यानाऽग्निके बलस, इस समस्त कर्ममलको दूर कर देता है, उसमें आत्माकी वे सम्पूर्ण स्वाभाविक शक्तियों सर्वतोभावसे विकसित हो जाती है और नब वह आत्मा म्वच्छ और निर्मल होकर परमात्मदशाको प्राप्त हो जाता है नथा परमात्मा कहलाता है । केवलज्ञान (सर्वज्ञता) की प्राप्ति होने के पश्चात जबतक देहका सम्बन्ध वाक़ी रहता है, तबतक उस परमात्माको सकलपरमात्मा (जीवन्मुक्त) या अरहंत कहते हैं और जब देहका सम्बन्ध भी छूट जाता है और मुक्तिकी प्राप्ति हो जाती है तब वही सकल परमात्मा निकलपरमात्मा (विटहमुक्त) या सिद्ध नामसे विभूपित होता है । इस प्रकार अवस्था दसे परमात्माके दो भेद कहे जाते है । वह परमात्मा अपनी जीवन्मुनावम्याम अपनी दिव्यवाणीके द्वारा संसारी जीवोंको उनकी आमाका म्वरूप और जम्मकी प्राप्तिका उपाय बनलाता है अर्थात उनकी आत्मनिधि क्या है, कहां है, किम किस प्रकारके कर्मपटलोंसे आच्छादित है, किस किस उपायस वे कर्मपटल इस आत्मासे जुदा हो सकते है, संसारक अन्य समम्त पदार्थोस इस आत्माका क्या सम्बन्ध है, दुःखका, मुग्वका और मंसारका म्वरूप क्या है, कैसे दुःखकी निवृत्ति और मुम्बकी प्रापि हो सकती है-इत्यादि समम्न बातोंका विस्नारके माध सम्यकप्रकार निरूपण करता है, जिसस अनादि अविद्याग्रसित संसारी जीवोको अपने कल्याणका मार्ग सूझता है और अपना हित साधन करनेम उनकी प्रवृत्ति होती है । इस प्रकार परमात्माके द्वारा जगतका नि सीम उपकार होता है । इसी कारण परमात्माके सार्व, परमहितोपदेशक, परमहितैपी और निर्निमित्तवन्धु इत्यादि भी नाम हैं । इस महोपकारके बदलेम हम ( मंसारी जीव) परमात्माके प्रति जितना आदर सत्कार प्रदर्शित कर और जो कुछ भी कृतज्ञता प्रगट करें वह सब तुच्छ है । दृसरे जब आत्माकी परम स्वच्छ और निर्मल अवस्थाका नाम ही परमात्मा है और उस अवस्थाको प्राप्त करना अर्थात् परमात्मा बनना सब आत्माओंका अभीष्ट है, तब आत्मस्वरूपकी या दूसरे
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शब्दों में परमात्मस्वरूपकी प्राप्तिके लिये परमात्माकी पूजा, भक्ति और उपासना करना हमारा परम कर्त्तव्य है । परमात्माका ध्यान, परमात्मा के अलौकिक चरित्रका विचार और परमात्माकी ध्यानावस्थाका चिन्तवन ही हमको अपनी आत्माकी याद दिलाता है - अपनी भूली हुई निधिस्मृति कराता है परमात्माका भजन और स्नवन ही हमारे लिये अपनी आत्माका अनुभवन है । आत्मोन्ननिमे अग्रसर होनेके लिये परमात्मा ही हमारा आदर्श है । आत्मीय गुणोंकी प्राप्तिके लिये हम उसी आदर्शको अपने सन्मुख रखकर अपने चरित्रका गठन करते है । अपने आदर्शपुरुषके गुणों भक्ति और अनुरागका होना स्वाभाविक और जरूरी है | बिना अनुरागके किसी भी गुणकी प्राप्ति नहीं हो सकती । जो जिस गुणका आदर सत्कार करता है अथवा जिस गुणसे प्रम रखता है; वह उस गुणगुणीका भी अवश्य आदरसत्कार करता है और उससे प्रेम रखता हैं। क्योंकि गुणीके आश्रय विना कहीं भी गुण नहीं होता । आदरसत्काररूप प्रवर्त्तनका नाम ही पूजन है । इस लिये परमात्मा, इन्हीं समस्त कारणोंसे हमारा परमपूज्य उपास्य देव है और द्रव्यदृष्टिसे समस्त आत्माओंके परस्पर समान होनेके कारण वह परमात्मा सभी संसारी जीवोंको समान भावसे पूज्य है । यही कारण है कि परमात्मा के त्रैलोक्यपूज्य और जगत्पूज्य इत्यादि नाम भी कहे जाते है परमात्माका पूजन करने, परमात्मा के गुणोंमे अनुराग बढाने और परमामाका भजन और चिन्तवन करनेसे इस जीवान्साको पापोंसे बचने के साथ साथ महत्पुण्योपार्जन होता है । जो जीव परमात्माकी पूजा, भक्ति और उपासना नहीं करता, वह अपने आत्मीय गुणों से पराङ्मुख और अपने
1
१ इन्हीं कारण से अन्य वीतरागी साधु और महात्मा भी जिनमें आत्माकी कुछ शक्तिया विकसित हुई है और जिन्होंने अपने उपदेश, आचरण और शास्त्रनिर्माणसे हमारा उपकार किया है, वे सब हमारे पूज्य है 1
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आत्मलाभसे वंचित रहता है-इतना ही नहीं, किन्तु वह कृतघ्नताके दोषसे भी दृषित होता है।
अतः परमान्माकी पूजा, भक्ति और उपासना करना सबके लिये उपादेय और ज़रूरी है।
परमात्मा अपनी जीवन्मुक्तावस्था अर्थात अरहन अवस्थाम सदा और सर्वत्र विद्यमान नहीं रहता, इस कारण परमात्माके स्मरणार्थ और परमात्माके प्रति आदर सत्काररूप प्रवर्तनके आलम्बनस्वम्प उसकी अग्हंत अवस्थाकी मूर्ति बनाई जाती है। वह मूर्ति परमात्माके वीतगगता, शान्तता और ध्यानमुद्रा आदि गुणोंका प्रतिबिम्ब होतो है। उसमें स्थापनानिक्षपसे मंत्रोंद्वारा परमात्माकी प्रनिष्टा की जाती है। उसके पूजनेका भी समम्त वही उद्देश्य है, जो ऊपर वर्णन किया गया है. क्योंकि मृत्तिके पूजनसे धातु पापाणका पूजना अभिप्रेत (इष्ट) नहीं है. बल्कि मृनिके द्वारा परमान्माहीकी पूजा, भक्ति और उपासनाकी जाती है । इमी लिय इस मत्तिजनक जिनपृजन, देवार्चन, जिनार्चा, देवपूजा इत्यादि नाम कर जाते है और इसीलिये इस पूजनको माक्षात जिनदेवके पृजननुल्य वर्णन किया है । यथा.---
"भक्त्याऽहत्प्रतिमा पूज्या कृत्रिमाकृत्रिमा सदा। यतम्तद्गुणसंकल्पात्प्रत्यक्षं पूजितो जिनः ॥"
___ - नमसग्रहश्रावकाचार अ० १, रोब ४६ परमात्माकी इस परमशान्त और चीतरागमूर्तिके पृजनमें एक बडी भारी ग्बी और महत्त्वकी बात यह है कि जो संसारी जीव संसारक मायाजाल और गृहीक प्रपंचमे अधिक फंसे हुए है, जिनक चित्त अनि चंचल है और जिनका आन्मा इनना बलाढ्य नहीं है कि जो केवल
१ अहसान फरामोशा--किये हुए उपकारको भूल जाना या कृतघ्नता । "अभिमतफल सिद्धग्भ्युपाय सुवोध , प्रभवति रा च शास्त्रात्तस्य चोत्पत्तिगप्तात् । इति भवति स पृज्यस्तत्प्रसादात्प्रबुद्धन हि कृतमुपकारं साधवो विस्मरन्ति ॥"
-गोम्मटसार-टीका।
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शास्त्रों में परमात्माका वर्णन सुनकर एकदम बिना किसी नक्शेके परमात्मस्वरूपका नकशा (चित्र ) अपने हृदय में खींच सके या परमात्मस्वरूपका ध्यान कर सके, वे ही उस मूर्तिके द्वारा परमात्मस्वरूपका कुछ ध्यान और चिन्तवन करने में समर्थ हो जाते हैं और उसीसे आगामी दुःखों और पापोंकी निवृत्तिपूर्वक अपने आत्मस्वरूपकी प्राप्तिमे अग्रसर होते हैं ।
जब कोई चित्रकार चित्र खींचनेका अभ्यास करता है तब वह सबसे प्रथम सुगम और सादा चित्रोंपरसे, उनको देखदेखकर, अपना चित्र खींचनेका अभ्यास बढ़ाता है, एकदम किसी कठिन, गहन और गम्भीर चित्रको नहीं खींच सकता । जब उसका अभ्यास बढ जाता है, तब कठिन, गहन और रंगीन चित्रों को भी सुन्दरताके साथ बनाने लगता है और छोटे चित्रको बड़ा और बड़ेको छोटा भी करने लगता है । आगे जब अभ्यास करते करते वह चित्रविद्यामें पूरी तौरसे निपुण और निष्णात हो जाता है, तब वह चलती, फिरती, दौडती, भागती वस्तुओं का भी चित्र बड़ी सफ़ाईके साथ बातकी बातमें खींचकर रख देता है और चित्र-नायaar न देखकर, केवल व्यवस्था और हाल ही मालूम करके, उसका साक्षान् जीता जागता चित्र भी अंकित कर देता है । इसी प्रकार यह संसारी जीव भी एकदम परमात्मस्वरूपका ध्यान नहीं कर सकता अर्थात् परमात्माका फोटू अपने हृदयपर नहीं खींच सकता, वह परमात्मा की परम वीतराग और शान्त मूर्त्तिपरसे ही अपने अभ्यासको बढाता है । मृत्तिके निरन्तर दर्शनादि अभ्याससे जब उस मूर्तिकी वीतरागछवि और ध्यानमुद्रासे वह परिचित हो जाता है. तब शनैः शनैः एकान्त में बैठकर उस मृर्तिका फोटू अपने हृदय में खींचने लगता है और फिर कुछ दस्तक उसको स्थिर के लिये भी समर्थ होने लगता है। ऐसा करनेपर उसका मनोबल और आत्मबल बद जाता है और वह फिर इस योग्य हो जाता है कि उस मूत्तिके मृर्तिमान् श्रीअरहंतदेवका समवमरणादि विभूति सहित साक्षात् चित्र अपने हृदयमं खींचने लगता है । इस प्रकारके ध्यानका नाम रूपस्थध्यान है और यह ध्यान प्रायः मुनि अवस्थाही होता है ।
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आत्मीय बलके इतने उन्नत हो जानेकी अवस्थामें फिर उसको धातु पाषाणकी मूर्त्तिके पूजनादिकी वा दूसरे शब्दोंमे यों कहिये कि परमात्माके ध्यानादिके लिये मूर्त्तिका अवलम्बन लेनेकी ज़रूरत बाकी नहीं रहती; बल्कि वह रूपस्थध्यानके अभ्यास में परिपक्क होकर और अधिक उन्नति करता है और साक्षात् सिद्धोंका चित्र भी खींचने लगता है जिसको रुपातीतध्यान कहते हैं । इसप्रकार ध्यानके बलसे वह अपनी आत्मासे कर्ममलको छांटता रहता है और फिर उन्नतिके सोपानपर चढ़ता हुआ शुक्लध्यान लगाकर समस्त कर्मोंको क्षय कर देता है और इस प्रकार आत्मको प्राप्त कर लेता है । अभिप्राय इसका यह है कि मूर्तिपूजन आत्मदर्शनका प्रथम सोपान है और उसकी आवश्यकता प्रथमावस्था (गृहस्थावस्था ) हीमें होती है | बल्कि दूसरे शब्दों में यों कहना चाहिये कि जितना जितना कोई नीचे दर्जेमें है, उतना उतना ही जियादा उसको मूर्त्तिपूजनकी या मूर्त्तिका अवलम्बन लेने की जरूरत है । यही कारण है कि हमारे आचायने गृहस्थोंके लिये इसकी खास जरूरत रक्खी है और नित्यपूजन करना गृहस्थोंका मुख्य धर्म वर्णन किया है ।
सर्वसाधारणाधिकार ।
भगवज्जिनसेनाचार्यने श्री आदिपुराण ( महापुराण ) मे लिखा है कि"दानं पूजा च शीलं च दिने पर्वण्युपोषितम् । धर्मश्वतुर्विधः सोऽयमानातो गृहमेधिनाम् ||"
- पर्व ४१, लोक १०४।
अर्थात्-दान, पूजन, व्रतोंका पालन ( व्रतानुपालनं शीलं ) और पर्व के दिन उपवास करना, यह चार प्रकारका गृहस्थोंका धर्म है ।
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अमितगतिश्रावकाचारमें श्रीअमितगति आचार्यने भी ऐसा ही वर्णन किया है । यथाः
"दानं पूजा जिनैः शीलमुपवासश्चतुर्विधः। श्रावकाणां मतो धर्मः संसारारण्यपावकः ।।"
-अ० ९, श्लो० १ । श्रीपद्मनन्दि आचार्य पमनन्दिपंचविंशतिकामें श्रावकधर्मका वर्णन करते हुए लिखते हैं कि
"देवपूजा गुरूपास्तिः स्वाध्यायः संयमस्तपः । दानं चेति गृहस्थानां षट्कर्माणि दिने दिने ।।"
~अ० ६, श्लो० ७ । अर्थात्-देवपूजा, गुरुसेवा, स्वाध्याय, संयम, तप और दान, ये षट्कर्म गृहस्थोंको प्रतिदिन करने योग्य है-भावार्थ, धार्मिकदृष्टिसे गृहस्थोंके ये सर्वसाधारण नित्य कर्म हैं। श्री सोमदेवसूरि भी यशस्तिलकमे वर्णित उपासकाध्ययनम इन्हीं पटकौका, प्रायः इन्हीं (उपर्युल्लिखित ) शब्दोंमे गृहस्थोंको उपदेश देते हैं। यथाः
"देवसेवा गुरूपास्तिः स्वाध्यायः संयमस्तपः । दानं चेति गृहस्थानां षट्कर्माणि दिने दिने ॥"
-कल्प ४६, ० ७॥ गृहस्थोंके लिये पूजनकी अत्यन्त आवश्यताको प्रगट करते हुए श्रीपद्मनन्दि आचार्य फिर लिखते हैं कि
"ये जिनेन्द्रं न पश्यन्ति पूजयन्ति स्तुवन्ति न । निष्फलं जीवितं तेषां तेषां धिक् च गृहाश्रमम् ॥"
~-अ० ६, श्लो० १५ । अर्थात्-जो जिनेन्द्रका दर्शन, पूजन और स्तवन नहीं करते हैं, उनका जीवन निष्फल है और उनके गृहस्थाश्रमको धिक्कार है । इसी आवश्यक
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ताको अनुभव करते हुए श्रीसकलकीर्ति आचार्य सुभाषितवलीमें यहांतक लिखते हैं किः
"पूजां विना न कुर्येत भोगसौख्यादिकं कदा" । अर्थात्-गृहस्थोंको विना पूजनके कदापि भोग और उपभोगादिक नहीं करना चाहिये । सबसे पहले पूजन करके फिर अन्य कार्य करना चाहिये । श्रीधर्मसंग्रहश्रावकाचारमें गृहस्थाश्रमका स्वरूप वर्णन करते हुए लिखा है कि:
"इज्या वार्ता तपो दानं स्वाध्यायः संयमस्तथा । ये षट्कर्माणि कुर्वन्त्यन्वहं ते गृहिणो मताः ॥"
-अ० १, श्लो० २६। अर्थात्-इज्या (पूजन), वार्ता (कृषिवाणिज्यादि जीवनोपाय), तप, दान, स्वाध्याय, और संयम, इन छह कर्मोको जो प्रतिदिन करते हैं, वे गृहस्थ कहलाते हैं । भावार्थ-धार्मिक और लौकिक, उभयदृष्टिले ये गृहस्थोंके छह नित्यकर्म हैं। गुरूपास्ति जो ऊपर वर्णन की गई है, वह इज्याके अन्तर्गत होनेसे यहां पृथक् नहीं कही गई।
भगवजिनसेनाचार्य आदिपुराणके पर्व ३८ मे निम्नलिखित श्लोकों द्वारा यह सूचित करते है कि ये इज्या, वार्ता आदि कर्म उपासक सूत्रके अनुसार गृहस्थोंके षट्कर्म है । आर्यषटकर्मरूप प्रवर्त्तना ही गृहस्थोंकी कुलचर्या है और इसीको गृहस्थोंका कुलधर्म भी कहते हैं:"इज्यां वार्ता च दत्तिं च स्वाध्यायं संयमं तपः। श्रुतोपासकसूत्रत्वात् स तेभ्यः समुपादिशत् ॥ २४ ॥ विशुद्धा वृत्तिरस्यार्यषट्कर्मानुप्रवर्त्तनम् ।। गृहिणां कुलचर्येष्टा कुलधर्मोऽप्यसौ मतः ॥ १४४ ॥" महाराजा चामुण्डरायने चारित्रसारमें और विद्वद्वर पं० आशाधरजीने सागरधर्मामृतमें भी इन्हीं षट्कर्मोंका वर्णन किया है । इन
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पदकम दान और पूजन, ये दो कर्म सबसे मुख्य हैं। इस विषय में पं० आशाधरजी सागरधर्मामृतमें लिखते है कि :
" दानयजनप्रधानो ज्ञानसुधां श्रावकः पिपासुः स्यात् ।"
- अ० १, श्लो० १५ ।
अर्थात् - दान और पूजन, ये दो कर्म जिसके मुख्य हैं और ज्ञानामृका पान करनेके लिये जो निरन्तर उत्सुक रहता है वह श्रावक है । भा वार्थ - श्रावक वह है जो कृषिवाणिज्यादिको गौण करके दान और पूजन, इन दो कर्मो नित्य सम्पादन करता है और शास्त्राऽध्ययन भी करता है ।
स्वामी कुंदकुंदाचार्य, रयणसार ग्रंथ में; इससे भी बढ़कर साफ़ तौरपर यहांतक लिखते है कि बिना दान और पूजनके कोई श्रावक हो ही नहीं सकता या दूसरे शब्दों में यों कहिये कि ऐसा कोई श्रावक ही नहीं हो सकता जिसको दान और पूजन न करना चाहिये । यथाः -
" दाणं पूजा मुक्रवं सावयधम्मो ण सावगो तेण विणा । झणझणं मुक्रवं जइ धम्मो तं विणा सोवि ॥ १० ॥"
अर्थात् - दान देना और पूजन करना, यह श्रावकका मुख्य धर्म है इसके विना कोई श्रावक नहीं कहला सकता और ध्यानाऽध्ययन करना यह मुनिका मुख्य धर्म है । जो इससे रहित है, वह मुनि ही नहीं है । भावार्थ-मुनियोंके ध्यानाऽध्ययनकी तरह, दान देना और पूजन करना ये दो कर्म श्रावकों के सर्व साधारण मुख्य धर्म और नित्यके कर्त्तव्य कर्म हैं ।
ऊपरके वाक्योंसे भी जब यह स्पष्ट है कि पूजन करना गृहस्थका धर्म तथा face और आवश्यक कर्म है विना पूजनके मनुष्यजन्म निष्फल और गृहस्थाश्रम धिक्कारका पात्र है और विना पूजनके कोई गृहस्थ या श्रावक नाम ही नहीं पा सकता. तब प्रत्येक गृहस्थ जैनीको नियमपूर्वक अवश्य ही नित्यपूजन करना चाहिये, चाहे वह अग्रवाल हो, खंडेलवाल हो, या परवार आदि अन्य किसी जातिका; चाहे स्त्री हो या पुरुष; चाहे व्रती हो या अवती;
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चाहे बीसा हो या दस्सा और चाहे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य हो या शूद, सबको पूजन करना चाहिये। सभी गृहस्थ जैनी है, सभी श्रावक हैं, अत:सभी पूजनके अधिकारी हैं।
श्रीतीर्थकर भगवानके अर्थात् जिस अरहंत परमात्माकी मूर्ति बनाकर हम पूजते हैं उसके समवसरणमें भी, क्या स्त्री, क्या पुरुष, क्या व्रती, क्या अवती, क्या ऊंच और क्या नीच, सभी प्रकारके मनुष्य जाकर साक्षात् भगवानका पूजन करते हैं। और मनुष्य ही नहीं, समवसरणमें पंचेन्द्रिय तिथंच तक भी जाते है-समवसरणकी बारह सभाओं में उनकी भी एक सभा होती है-वे भी अपनी शक्तिके अनुसार जिनदेवका पूजन करते हैं। पूजनफलप्राप्तिके विषयमें एक मेडककी कथा सर्वत्र जैनशास्त्रोंमें प्रसिद्ध है। पुण्यास्रवकथाकोश, महावीरपुराण, धर्मसंग्रहश्रावकाचार आदि अनेक ग्रंथोंमे यह कथा विस्तारके साथ लिखी है और बहुतसे ग्रंथोंमें इसका निम्नलिखित प्रकारसे उल्लेख मात्र किया है । यथाःरत्नकरण्डश्रावकाचारमें, "अर्हच्चरणसपर्या महानुभावं महात्मनामवदत् ।
भेकः प्रमोदमत्तः कुसुमेनैकेन राजगृहे ॥" १२० ॥ सागरधर्मामृनमें,
"यथाशक्ति यजेताहद्देवं नित्यमहादिभिः ।
मंकल्पतोऽर्पितं यष्टा भेकवत्स्वमहीयते ॥"२-२४ ॥ कथाका सारांश यह है कि जिस समय राजगृह नगरमें विपुलाचल पर्वतपर हमारे अन्तिम तीर्थंकर श्रीमहावीर स्वामीका समवसरण आया
और उसके सुसमाचारसे हर्षोल्लसित होकर महाराजा श्रेणिक आनंदभेरी बजवाते हुए परिजन और पुरजन सहित श्रीवीरजिनेन्द्रकी पूजा और वन्दनाको चले, उससमय एक मेडक भी, जो नागदत्त श्रेष्ठीकी बावडीमें रहता था और जिसको अपनी पूर्वजन्मकी स्त्री भवदत्ताको देखकर जा
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तिसरण होगया था, श्रीजिनेंद्रदेवकी पूजाके लिये मुखमें एक कमल दबाकर उछलता और कूदता हुआ नगरके लोगोंके साथ समवसरणकी
ओर चल दिया। मार्गमें महाराजा श्रेणिकके हाथीके पैरतले आकर वह मेंडक मर गया और पूजनके इस संकल्प और उधमके प्रभावसे, मरकर सौधर्म स्वर्गमें महर्द्धिक देव हुआ। फिर वह देव समवसरणमें आया और श्रीगणधरदेवके द्वारा उसका चरित्र लोगोंको मालूम हुआ। इससे प्रगट है कि समवसरणादिमें जाकर तिर्यंच भी पूजन करते और पूजनके उत्तम फलको प्राप्त होते हैं।
समवसरणको छोड़कर और भी बहुतसे स्थानोंपर तिर्यंचोंके पूजन करनेका कथन पाया जाना है । पुण्यास्त्रव और आराधनासारकथाकोशमं लिखा है कि धाराशिव नगरमें ए. बँबी थी जिसमें श्रीपार्श्वनाथ स्वामीकी रत्नमयी प्रतिमा एक मंजूषेमें रक्खी हुई थी। एक हाथी, जिसको जातिस्मरण होगया था, प्रतिदिन तालाबसे अपनी सूंडमें पानी भरकर लाता और उस बेबीकी तीन प्रदक्षिणा देकर वह पानी उस. पर छोड़ता और फिर एक कमलका फूल चढाकर पूजन करता और मस्तक नबाता था। इस प्रकार वह हाथी श्रावकधर्मको पालता हुआ प्रतिदिन उस प्रतिमाका पूजन करता था। जब राजा करकंडुको यह समाचार मालूम हुआ, तब उसने उस बेबीको खुदवाया और उसमेसे वह प्रतिमा निकली। प्रतिमाके निकलनेपर हाथीने सन्यास धारण किया और अन्तमे वह हाथी मरकर सहस्रारस्वर्गमे देव हुआ । इसीप्रकार तिर्यंचोंके पूजनसंबंधमें और भी अनेक कथाएँ है । जब तिथंच भी पूजन करते और पूजनके उत्तम फलको प्राप्त होते हैं, तब ऐसा कौन मनुष्य होसकता है कि जिसको पूजन न करना चाहिये और जो भावपूर्वक जिनेंद्रदेवका पूजन करके उत्तम फलको प्राप्त न हो ? अभिप्राय यह कि, आत्महितचिन्तक सभी प्राणियोंके लिये पूजन करना श्रेयस्कर है । इसलिये गृहस्थोंको अपना कर्तव्य समझकर अवश्य ही नित्यपूजन करना चाहिये।
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पूजनके भेद । पूजन कई प्रकारका होता है । आदिपुराण, सागरधर्मामृत, धर्मसंग्रहश्रावकाचार, चारित्रसार आदि ग्रन्थोंमें नित्य, अष्टोन्हिक, ऐन्द्रध्वज, चतुर्मुख, और कल्पद्रुम, इस प्रकार पूजनके पांच भेद वर्णन किये हैं। वसुनन्दिश्रावकाचार और धर्मसंग्रहश्रावकाचार. ------- -- - - १ नित्यपूजनका स्वरूप आगे विस्तारके साथ वर्णन किया गया है। २-३, "जिनार्चा क्रियते भव्यैर्या नन्दीश्वरपर्वणि ।
अष्टाह्निकोऽसौ सेन्द्राद्यैः साध्या बैन्द्रवजो महः॥"-सागरधर्मा। अर्थात्-नन्दीश्वर पर्वमें ( आषाढ़, कार्तिक और फाल्गुण इन तीन महीनोंके अन्तिम आठ आठ दिनोमे )जो पूजन किया जाता है, उसको अष्टाह्निक पूजन कहते है और इन्द्रादिक देव मिलकर जो पूजन करते है, उसको ऐन्द्रध्वज पूजन कहते है। ४ “महामुकुटबद्धैस्तु क्रियमाणो महामहः ।
चतुर्मुख. स विज्ञेयः सर्वतोभद्र इत्यपि ॥"-आदिपुराण । "भक्त्या मुकुटबद्धैर्या जिनपूजा विधीयते
तदाख्याः सर्वतोभद्रचतुर्मुखमहामहाः ॥-सागारध० । अर्थात्-मुकुटबद्ध ( माडलिक ) राजाओके द्वारा जो पूजन किया जाता है, उसको चतुर्मुख पूजन कहते है । इसीका नाम सर्वतोभद्र और महामह भी है। ___ "दत्वा किमिच्छुकं दानं सम्राभिर्यः प्रवर्त्यते ।
कल्पवृक्षमहः सोऽयं जगदाशाप्रपूरणः ॥"-आदिपुराण । "किमिच्छ केन दानेन जगदाशाः प्रपूर्य यः।
चक्रिभिः क्रियते सोऽहंद्यज्ञः कल्पद्रुमो मतः ॥"-सागारध० । अर्थात्-याचकोको उनकी इच्छानुसार दान देकर जगतकी आशाको पूर्ण करते हुए चक्रवर्ति सम्राटद्वारा जो जिनेंद्रका पूजन किया जाता है, उसको कल्पद्रुम पूजन कहते हैं।
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में प्रकारान्तरसे नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, कॉल और भर्भाव, ऐसे १ "उच्चारिऊण णामं, अरुहाईणं विसुद्धदेसम्मि। पुफ्फाईणि खिविजंति विष्णया णामपूजा सा॥"
-वमुनन्दिश्रा०। अर्थात्-अहंतादिकका नाम उच्चारण करके किसी शुद्ध स्थानमे जो पुष्पा. दिकक्षेपण किये जाते है, उसको नामपूजन कहते है।
२ तदाकार वा अतदाकार वस्तुमें जिनेन्द्रादिके गुणोंका आरोपण और संकल्प करके जो पूजन किया जाता है, उसको स्थापनापूजन कहते हैं। स्थापनाके दो भेद है-१ सद्भावस्थापना और २ असद्भावस्थापना । अरहंतोंकी प्रतिष्ठाविधिको सद्भावस्थापना कहते है । ( स्थापनापूज. नका विशेष वर्णन जानने के लिये देखो वसुनन्दिश्रावकाचार आदि ग्रंथ ।)। ३ "दव्वेण य दवस्स य, जा पूजा जाण दव्वपूजा सा ।
दव्वेग गंधसलिलाइपुव्वभणिएण कायव्वा ॥ तिविहा दव्वे पूजा सचित्ताचितमिस्सभएण । पच्चक्खजिणाईणं सचित्तपूजा जहाजोग्गं ॥ तेसि च सरीराणं दव्वसुदस्सवि अचित्तपूजा सा । जा पुण दोण्हं कीरइ णायव्वा मिस्सपूजा सा॥
-वसुनन्दिधाव। अर्थात्-द्रव्यसे और द्रव्यकी जो पूजाकी जाती है, उसको द्रव्यपूजन कहते है । जलचंदनादिकसे पूजन करनको द्रव्यसे पूजन करना कहते है
और द्रव्यकी पूजा सचित्त, अचित्त और मिश्रके भेदसे तीन प्रकार है । साक्षात् श्रीजिनेंद्रादिके पूजनको सचित्त द्रव्यपूजन कहते है । उन जिनेंद्रादिके शरीरो तथा द्रव्यश्रुतके पूजनको अचित्त द्रव्यपूजन कहते है और दोनोंके एक साथ पूजन करनेको मिश्रद्रव्यपूजन कहते है । द्रव्यपूजनके आगमद्रव्य और नोआगमद्रव्य आदिके भेदसे और भी अनेक भेद है । ४ “जिणजणमणिक्खवणणाणुप्पत्तिमोक्खसंपत्ति ।
णिसिही सुखेत्तपूजा पुत्वविहाणेण कायव्वा ॥-वसुनंदि श्रा० । अर्थात्-जिन क्षेत्रोमें जिनेंद्र भगवानके जन्म-तप-ज्ञान-निर्वाण कल्याणक हुए है, उन क्षेत्रोमें जलचंदनादिकसे पूजन करनेको क्षेत्रपूजन कहते हैं।
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छह प्रकारका पूजन भी वर्णन किया है। परन्तु संक्षेपसे पूजनके, नित्य
और नैमित्तिक, ऐसे दो भेद हैं। अन्य समस्त भेदोंका इन्हीं में अन्तभांव है । अष्टान्हिक आदिक चार प्रकारका पूजन नैमित्तिक पूजन कहलाता है और नामादिक छह प्रकारके पूजनोंमें कुछ नित्य नैमित्तिक
और कुछ दोनों प्रकारके होते हैं । प्रतिष्ठा भी नैमित्तिक पूजनका ही एक प्रधान भेद है । तथापि नैमित्तिक पूजनोंमें बहुतसे ऐसे भी भेद हैं जिनमें पूजनकी विधि प्रायः नित्यपूजनके ही समान होती है और दोनोंके पूजकमें
"गर्भादि पंचकल्याणमर्हता यद्दिनेऽभवत् । तथा नन्दीश्वरे रत्नत्रयपर्वणि चाऽर्चनम् ॥ स्नपनं क्रियते नाना रसैरिक्षुघृतादिभिः । तत्र गीतादिमागल्यं कालपूजा भवदियम् ॥"
-धर्मसंग्रहश्रा० । अर्थात्-जिन तिथियोमे अरहंतोके गर्भ, जन्मादिक कल्याणक हुए है, उनमें तथा नंदीश्वर, दशलक्षण और रत्नत्रयादिक पोंमें जिनेंद्रदेवका पूजन, इक्षुरस आर दुग्ध-घृतादिकसे अभिषेक तथा गीत, नृत्य और जागरणादि मांगलिक कार्य करनेको कालपूजन कहते है। ___"यदनन्तचतुष्काचैविधाय गुणकीर्तनम् ।
त्रिकालं क्रियते देववन्दना भावपूजनम् ॥ परमेष्ठिपदैर्जापः क्रियते यत्स्वशक्ति तः। अथवाऽहंद्गुणस्तोत्रं साप्यर्चा भावपूर्विका ॥ पिडस्थं च पदस्थं च रूपस्थं रूपवर्जितम् । ध्यायते यत्र तद्विद्धि भावार्चनमनुत्तरम् ॥"
-धर्मसंग्रहश्रा। अर्थात्-जिनेंद्र के अनंत दर्शन, अनंत ज्ञान, अनंत सुख और अनंत वीर्यादि गुणोकी भक्तिपूर्वक स्तुति करके जो त्रिकाल देववन्दना की जाती है, उसको तथा शक्तिपूर्वक पंच परमेष्टिके जाप वा स्तवनको और पिंडस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत ध्यानको भावपूजन कहते है । पिडस्थादिक ध्यानोंका स्वरूप ज्ञानार्णवादिक ग्रंथोंमें विस्तारके साथ वर्णन किया है, वहांसे जानना चाहिये।
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भी कोई भेद नहीं होता, जैसे अष्टान्हिक पूजन और काल पूजनादिक; इस लिये पूजनकी विधि आदिकी मुख्यतासे पूजनके नित्यपूजन और प्रतिष्ठादिविधान, ऐसे भी दो भेद कहे जाते हैं और इन्हीं दोनों मेदोंकी प्रधानतासे पूजकके भी दो ही भेद वर्णन किये गये हैंएक नित्य पूजन करनेवाला जिसको पूजक कहते हैं और दूसरा प्रतिष्ठा आदि विधान करनेवाला जिसको पूजकाचार्य कहते हैं । जैसा कि पूजासार और धर्मसंग्रहश्रावकाचारके निम्नलिखित श्लोकोंसे प्रगट है:"पूजकः पूजकाचार्य इति द्वेधा स पूजकः । आद्यो नित्यार्चकोऽन्यस्तु प्रतिष्ठादिविधायकः ॥१६॥"
-पूजासार । "नित्यपूजा-विधायी यः पूजकः स हि कथ्यते । द्वितीयः पूजकाचार्यः प्रतिष्ठादिविधानकृत् ॥ ९-१४२ ॥
-धर्ममग्रहश्रा० । चतुर्मुखादिक पूजन तथा प्रतिष्ठादि विधान सदाकाल नहीं बन सकते और न सब गृहस्थ जैनियोंसे इनका अनुष्ठान हो सकता है क्योंकि कल्पदुम पूजन चक्रवर्ति ही कर सकता है; चतुर्मूख पूजन मुकुटबद्ध राजा ही कर सकते हैं; ऐन्द्रध्वज पूजाको इन्द्रादिक देव ही रचा सकते हैं; इसी प्रकार प्रतिष्ठादि विधान भी खास खास मनुष्य ही सम्पादन करसकते हैं-इस लिये सर्व साधारण जैनियोंके वास्ते नित्यपूजनहीकी मुख्यता है । ऊपर उल्लेख किये हुए आचार्यों आदिके वाक्योंमें 'दिने दिने'
और 'अन्वहं' इत्यादि शब्दों द्वारा नित्यपूजनका ही उपदेश दिया गया है। इसी नित्यपूजनपर मनुष्य, तिथंच, स्त्री, पुरुष, नीच, ऊंच, धनी, निर्धनी, व्रती, अवती, राजा, महाराजा, चक्रवर्ति और देवता, सबका समानअधिकार है अर्थात् सभी नित्यपूजन कर सकते हैं। नित्यपूजनको नित्यमह, नित्याऽर्चन और सदार्चन इत्यादि भी कहते हैं।
नित्यपूजनका मुख्य स्वरूप भगवजिनसेनाचार्यने आदिपुराणमें इसप्रकार वर्णन किया है:
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" तत्र नित्यमहो नाम शश्वजिनगृहं प्रति । स्वगृहानीयमानाच गन्धपुष्पाक्षतादिका ॥"
-- अ. ३८, ० २७ ।
अर्थात- प्रतिदिन अपने घरसे जिनमंदिरको गंध, पुष्प, अक्षतादिक पूजनकी सामग्री ले जाकर जो जिनेन्द्रदेव की पूजा करना है उसको नित्य - पूजन कहते हैं । धर्मसंग्रहश्रावकाचार में भी नित्यपूजनका यही स्वरूप वर्णित है । यथा:
“जलाद्यै धौतपूताङ्गैर्गृहानीतैर्जिनालयम् । यदन्ते जिना युक्त्या नित्यपूजाऽभ्यधायि सा ॥”
९-२७।
प्रतिदिन क्या स्त्री, क्या पुरुष, क्या बालक, क्या बालिका - सभी गृहस्थ जन अपने अपने घरोंसे जो बादाम, छुहारा, लौग, इलायची या अक्षत (चावल) आदिक लेकर जिनमंदिरको जाते हैं और वहां उस द्रव्यको, जिनेन्द्रदेवादिकी स्तुतिपूर्वक नामादि उच्चारण करके, जिनप्रतिमाके सन्मुख चढ़ाते हैं, वह सब नित्यपूजन कहलाता है । नित्यपूजनके लिये यह कोई नियम नहीं है कि वह अष्टद्रव्यसे ही किया जावे या कोई खास द्रव्यसे या किसी खास संख्यातक पूजाएँ की जावे, बल्कि यह सब अपनी श्रद्धा, शक्ति और रुचिपर निर्भर है- कोई एक द्रव्यसे पूजन करता है, कोई दोसे और कोई आठोंसे; कोई थोड़ा पूजन करता और थोड़ा समय लगाता है, कोई अधिक पूजन करता और अधिक समय लगाता है; एक समय जो एक द्रव्यसे थोड़ा पूजन करता है दूसरे समय वही अष्टद्रव्यसे पूजन करने लगता है और बहुतसा समय लगाकर अधिक पूजन करता है - इसी प्रकार यह भी कोई नियम नहीं है कि मंदिरजीके उपकरणोंमें और मंदिरजीमें रक्खे हुए वस्त्रोंको पहिनकर ही नित्यपूजन किया जावे | हम अपने घरसे शुद्ध वस्त्र पहनकर और शुद्ध वर्तनोंमें सामग्री बनाकर मंदिरजीमें ला सकतेहैं और खुशीके साथ पूजन कर सकते हैं। जो लोग ऐसा करनेके लिये जि० पू० २
पूजन करता है वा
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असमर्थ है या कभी किसी कारणसे ऐसा नहीं कर सकते हैं, वे मंदिरजीके उपकरण आदिसे अपना काम निकाल सकते हैं, इसीलिये मंदिरोंमें उनका प्रबंध रहता है। बहुतस स्थानोंपर श्रावकोंके घर विद्यमान होते हुए भी, कमसे कम दो चार पूजाओंके यथासंभव नित्य किये जानेके लिये, मंदिरों में पूजन सामग्रीके रक्खे जानेकी जो प्रथा जारी है, उसको भी आज कलके जैनियोंके प्रमाद, शक्तिन्यूनता और उत्साहाभाव आदिके कारण एक प्रकारका जातीय प्रबंध कह सकते हैं, अन्यथा, शास्त्रोंमे इस प्रकारके पूजन सम्बन्धमें, आमतौरपर अपने घरसे सामग्री लेजाकर पूजन करनेका ही विधान पाया जाता है-जैसा कि ब्रह्मसूरिकृत् त्रिवर्णाचारके निम्नलिखित वाक्यसे भी प्रगट है:
"ततश्चैत्यालयं गच्छेत्सर्वभव्यप्रपूजितम् । जिनादिपूजायोग्यानि द्रव्याण्यादाय भक्तितः ॥"
-अ. ४-१९०। अर्थात्-संध्यावन्दनादिके पश्चात् गृहस्थ, भक्तिपूर्वक जिनेन्द्रादिके पूजन योग्य द्रव्योंको लेकर, समस्त भव्यजीवों द्वारा पूजित जो जिनमंदिर तहां जावे । भावार्थ-गृहस्थोंको जिनमंदिरमें पूजनके लिये पूजनोचित द्रव्य लेकर जाना चाहिये । परन्तु इसका अभिप्राय यह नहीं है कि विना द्रव्यके मंदिरजीमें जाना ही निषिद्ध है, जाना निषिद्ध नहीं है । क्योंकि यदि किसी अवस्थामें द्रव्य उपलब्ध नहीं है तो केवल भावपूजन भी हो सकता है। तथापि गृहस्थोंके लिये द्रव्यसे पूजन करनेकी अधिक मुख्यता है। इसीलिये नित्यपूजनका ऐसा मुख्य स्वरूप वर्णन किया है।
अपर नित्यपूजनका जो प्रधान स्वरूप वर्णन किया गया है, उसके अतिरिक्त, "जिनबिम्ब और जिनालय बनवाना, जिनमन्दिरके खर्चके लिये दानपत्र द्वारा ग्राम गृहादिकका मंदिरजीके नाम करदेना तथा दान देते समय मुनीश्वरोंका पूजन करना, यह सब भी नित्यपूजनमें ही दाखिल (परिगृहीत) है।" जैसा कि आदिपुराण पर्व ३८ के निम्नलिखित वाक्योंसे प्रगट है:
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“चैत्यंचैत्यालयादीनां भक्त्या निर्मापणं च यत् । शासनीकृत्य दानं च ग्रामादीनां सदाऽर्च्चनम् ॥ २८ ॥ या च पूजा मुनीन्द्राणां नित्यदानानुषङ्गिणी । स च नित्यमहो ज्ञेयो यथाशक्त्युपकल्पितः ॥ २९ ॥"
श्रीसागारधर्मामृत में भी नित्यपूजनके सम्बंध में समग्र ऐसा ही वर्णन पाया जाता है, बल्कि इतना विशेष और मिलता है कि अपने घरपर या मंदिरजी में त्रिकौल देववन्दना - अरहंतदेवकी आराधना करनेको भी नित्यपूजन कहते हैं । यथाः
"प्रोक्तो नित्यमहोऽन्वहं निजगृहानीतेन गन्धादिना । पूजा चैत्यगृहेऽर्हतः स्वविभवाच्चैत्यादिनिर्मापणम् ॥ भक्त्या ग्रामगृहादिशासनविधादानं त्रिसंध्याश्रया । सेवा स्वेऽपि गृहेऽचनं च यमिनां नित्यप्रदानानुगम् ॥२- २५ " धर्मसंग्रहश्रावकाचारमें भी “त्रिसंध्यं देववन्दनम् ” इस पदके द्वारा ९ वें अधिकारके श्लोक नं. २९ में, त्रिकाल देववन्दनाको नित्यपूजन वर्णन किया है । और त्रिकाल देववन्दना ही क्या, "बलि, अभिषेक (हवन), गीत, नृत्य, वादित्र, आरती और रथयात्रादिक जो कुछ भी नित्य और नैमित्तिकपूजनके विशेष हैं और जिनको भक्तपुरुष सम्पादन करते हैं, उन सबका नित्यादि पंच प्रकारके पूजनमें अन्तर्भाव निर्दिष्ट होनेसे, उनमें से, जो नित्य किये जाते है या नित्य किये जानेको है, वे
१ इन दोनों श्लोकोका आशय वही है जो ऊपर अतिरिक्त शब्द के अन" दिया गया है ।
"
न्तर
२ आदिपुराणके श्लोक नं. २७,२८,२९ के अनुसार ।
३ आदिपुराण में पूजन के अन्य चार नं. ३३ मे त्रिकाल देववन्दनाका वर्णन द्वारा किया है ।
भेदोका वर्णन करनेके अनन्तर श्लोक “त्रिसंध्या सेवया समम्” इस पद के
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भी नित्यपूजनमें समाविष्ट हैं ।" जैसा कि निम्नलिखित प्रमाणोंसे प्रगट है:
“बलिस्नपननाट्यादि नित्यं नैमित्तिकं च यत् । भक्ताः कुर्वन्ति तेष्वेव तद्यथास्वं विकल्पयेत् ॥”
— सागारधर्मा० अ० २ ० २९ ।
“बलिस्नपनमित्यन्यत्रिसंध्यासेवया समम् । उक्तेष्वेव विकल्पेषु ज्ञेयमन्यच्च तादृशम् ॥”
- आदिपुराण० अ० ३८, लो० ३३ । ऊपरके इस कथनसे यह भी स्पष्टरूपसे प्रमाणित होता है कि अपने पूज्यके प्रति आदर सत्काररूप प्रवर्त्तनेका नाम ही पूजन है । पूजा, भक्ति, उपासना और सेवा इत्यादि शब्द भी प्रायः एकार्थवाची हैं और उसी एक आशय और भावके द्योतक हैं । इसप्रकार पूजनका स्वरूप समझकर किसी भी गृहस्थको नित्यपूजन करनेसे नहीं चूकना चाहिये । सबको आनंद और भक्तिके साथ नित्यपूजन अवश्य करना चाहिये ।
शूद्राऽधिकार |
यहांपर, जिनके हृदय में यह आशंका हो कि, शूद्र भी पूजन कर सकते हैं या नहीं ? उनको समझना चाहिये कि जब तिर्यंच भी पूजनके अधिकारी वर्णन किये गये हैं तब शूद्र, जो कि मनुष्य हैं और तिर्यंचोंसे ऊंचा दर्जा रखते हैं, कैसे पूजनके अधिकारी नहीं हैं ? क्या शूद्र जैनी नहीं हो सकते ? या श्रावकके व्रत धारण नहीं कर सकते ? जब शूद्रोंको यह सब कुछ अधिकार प्राप्त है और वे श्रावकके बारह व्रतोंको धारणकर ऊंचे दर्जेके श्रावक बन सकते हैं और हमेशासे शुद्र लोग जैनी ही नहीं; किन्तु ऊंचे दर्जेके श्रावक ( क्षुल्लकतक ) होते आये हैं, तब उनके लिये पूजनका निषेध कैसे हो सकता है ? श्रीकुन्दकुन्द मुनिराजके वचनानुसार, जब विना पूजनके कोई श्रावक हो ही नहीं सकता, और
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शूद्र लोग भी श्रावक जरूर होते हैं, तब उनको पूजनका अधि. कार स्वतः सिद्ध है।
भगवानके समवसरणमें, जहां तिर्यंच भी जाकर पूजन करते हैं, वहां जिसप्रकार अन्य मनुष्य जाते हैं, उसी प्रकार शुद्रलोग भी जाते हैं और अपनी शक्तिके अनुसार भगवानका पूजन करते हैं । श्रीजिनसेनाचार्यकृत हरिवंशपुराणमें, महावीरस्वामीके समवसरणका वर्णन करते हुए, लिखा है-समवसरणमे जब श्रीमहावीरस्वामीने मुनिधर्म और श्रावकधर्मका उपदेश दिया, तो उसको सुनकर बहुतसे ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य लोग मुनि होगये और चारों वर्गों के स्त्रीपुरुषोंने अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय वैश्य और शूद्रोंने, श्रावकके बारह व्रत धारण किये । इतना ही नहीं, किन्तु उनकी पवित्रवाणीका यहांतक प्रभाव पड़ा कि कुछ तिर्यंचोंने भी श्रावक व्रत धारण किये । इससे, पूजा-वन्दना और धर्मश्रवणके लिये शूद्रोंका समवसरणमें जाना प्रगट है । शूद्रोंके पूजन सम्बंधर्म बहुतसी कथाएँ प्रसिद्ध है । पुण्यानवकथाकोशमे लिखा है कि एक माली (शूद्र) की दो कन्याएं, जिनका नाम कुसुमावती और पुप्पवती था, प्रतिदिन एक एक पुप्प जिनमंदिरकी देहलीपर चढ़ाया करती थीं। एक दिन वनसे पुष्प लाते समय उनको सर्पने काट खाया
और वे दोनों कन्याएँ मरकर, इस पूजनके फलसे सौधर्मस्वर्गमें देवी हुई।" इसी शास्त्रमें एक-पशुचरानेवाले नीच कुली ग्वालेकी भी कथा लिखी है, जिसने सहस्रकूट चैत्यालयमें जाकर, चुपकेसे नहीं किन्तु राजा, सेठ और सुगुप्ति नामा मुनिराजकी उपस्थिति (मौजूदगी) में एक बृहत् कमल श्रीजिनदेवके चरणों में चढ़ाया और इस पूजनके प्रभावसे अगले ही जन्ममें महाप्रतापी राजा करकुंड हुआ। यह कथा श्रीआराधनासारकथाकोशमे भी लिखी है। इस ग्रंथमें ग्वालेकी पूजन-विधिका वर्णन इसप्रकार किया है:
"तदा गोपालकः सोऽपि स्थित्वा श्रीमजिनाग्रतः । 'भोः सर्वोत्कृष्ट ! मे पनं ग्रहाणेदमिति' स्फुटम् ॥१५॥
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उक्त्वा जिनेंद्रपादाब्जोपरि क्षिप्वाशु पंकजम् । गतो, मुग्धजनानां च भवेत्सत्कर्म शर्मदम् ॥ १६॥"
करकुडुकथा अर्थात्-जब सुगुप्तिमुनिके द्वारा ग्वालेको यह मालूम होगया कि, सबसे उत्कृष्ट जिनदेव ही हैं-तब उस ग्वालेने, श्रीजिनेंद्रदेवके सन्मुख खड़े होकर और यह कहकर कि 'हे सर्वोत्कृष्ट मेरे इस कमलको स्वीकार करो' वह कमल श्रीजिनदेवके चरणोंपर चढा दिया और इसके पश्चात् वह ग्वाला मंदिरसे चला गया । ग्रन्थकार कहते हैं कि, भला काम (सत्कर्म) मूर्ख मनुष्योंको भी सुखका देनेवाला होता है । इसीप्रकार शद्रोंके पूजन सम्बंधमें और भी बहुतसी कथाएं हैं। __ कथाओंको छोड़कर जब वर्तमान समयकी ओर देखा जाता है, तब भी यही मालूम होता है कि, आज कल भी बहुनसे स्थानोंपर शूद्रलोग पूजन करते हैं । जो जैनी शूद्र हैं वा शूद्रोंका कर्म करते हुए जिनको पीढ़ियाँ बीत गई, वे तो पूजन करते ही हैं; परन्तु बहुतसे ऐसे भी शूद्र हैं जो प्रगटपने वा व्यवहारमे जैनी न होने वा न कहलाते हुए भी, किसी प्रतिमा वा तीर्थस्थानके अतिशय ( चमत्कार ) पर मोहित होनेके कारण, उन स्थानोंपर बराबर पूजन करते है-चांदनपुर (महावीरजी), केसरियानाथ आदिक अतिशय क्षेत्रों और श्रीसम्मेदशिखर, गिरनार आदि तीर्थस्थानोंपर ऐसे शूद्रपूजकोंकी कमी नहीं है। ऐसे स्थानोंपर नीच ऊंच सभी जातियाँ पूजनको आती और पूजन करती हुई देखी जाती हैं। जिन लोगोंको चैतके मेलेपर चांदनपुर जानेका सुअवसर प्राप्त हुआ है, उन्होंने प्रत्यक्ष देखा होगा अथवा जिनको ऐसा अवसर नहीं मिला वे जाकर देख सकते हैं कि चैत्रशुक्ला चतुर्दशीसे लेकर तीन चार दिनतक कैसी कैसी नीच जातियोंके मनुष्य और कितने शूद्र, अपनी अपनी भाषाओं में अनेक प्रकारकी जय बोलते, आनंदमें उछलते और कूदते, मंदिरके श्रीमंडपमें घुस जाते हैं और वहांपर अपने घरसे लाये हुए द्रव्यको चढ़ाकर तथा प्रदक्षिणा देकर मंदिरसे बाहर निकलते हैं । बल्कि वहां तो रथोत्सवके समय यहांतक होता है कि मंदिरका व्यासमाली,
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जो चढ़ी हुई सामग्री लेनेवाला और निर्मास्य भक्षण करनेवाला ह, स्वयं वीरभगवानकी प्रतिमाको उठाकर रथमें विराजमान करता है। __यदि शूद्रोंका पूजन करना असत्कर्म (बुरा काम) होता और उससे उनको पाप बन्ध हुआ करता, तो पशुचरानेवाले नीचकुली ग्वालेको कमलके फूलसे भगवानकी पूजा करनेपर उत्तम फलकी प्राप्ति न होनी और मालीकी लड़कियोंको पूजन करनेसे स्वर्ग न मिलता। इसीप्रका यूद्रोंसे भी नीचापद धारण करनेवाले मेडक जैसे तियंच (जानवर) को पूजनके संकल्प और उद्यम मात्रसे देवगतिकी प्राप्ति न होती [ क्योंकि जो काम बुरा है उसका संकल्प और उद्यम भी बुरा ही होता है अच्छा नहीं हो सकता] और हाथीको, अपनी सूंडमें पानी भरकर अभिषेक करने और कमलका फूल चढाकर बॉबी में स्थित प्रतिमाका नित्यपूजन करनेसे, अगले ही जन्ममे मनुष्यभवके साथ साथ राज्यपद और राज्य न मिलता। इससे प्रगट है कि शूद्रोंका पूजन करना असत्कर्म नहीं हो सकता, बल्कि वह सत्कर्म है । आराधनासारकथाकोशमें भी ग्वालेके इस पूजन कर्मको सत्कर्म ही लिखा है, जैसा कि ऊपर उल्लेख किये हुए श्लोक नं. १६ के चतुर्थ पदसे प्रगट है।
इन सब बातोंके अतिरिक्त जनशास्त्रोंमें शूद्रोंके पूजनके लिये स्पष्ट आज्ञा भी पाई जाती है । श्रीधर्मसंग्रहश्रावकाचारके ९ वें अधिकारमें लिखा है कि
“यजनं याजनं कर्माऽध्ययनाऽध्यापने तथा । दानं प्रतिग्रहश्चेति षट्कर्माणि द्विजन्मनाम् ॥ २२५ ॥ यजनाऽध्ययने दानं परेषां त्रीणि ते पुनः ।
जातितीर्थप्रभेदेन द्विधा ते ब्राह्मणादयः ॥ २२६ ॥" अर्थात्-ब्राह्मणोंके-पूजन करना, पूजन कराना, पढ़ना, पढ़ाना, दान देना, और दान लेना-ये छह कर्म हैं । शेष क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र, इन तीन वर्गों के पूजन करना, पढ़ना और दान देना-ये तीन कर्म हैं । और वे ब्राह्मणादिक जाति और तीर्थके भेदसे दो प्रकार हैं। इससे साफ प्रगट है
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२४ कि पूजन करना जिसप्रकार ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्योंका धार्मिक कर्म है उसीप्रकार वह शूद्रोंका भी धार्मिक कर्म है।
इसी धर्मसंग्रहश्रावकाचारके ९ वें अधिकारके श्लोक नं. १४२ में, जैसा कि ऊपर उल्लेख किया गया है, श्रीजिनेन्द्रदेवकी पूजा करनेवालेके दो भेद वर्णन किये हैं-एक नित्यपूजन करनेवाला, जिसको पूजक कहते हैं । और दूसरा प्रतिष्ठादि विधान करनेवाला, जिसको पूजकाचार्य कहते हैं। इसके पश्चात् दो श्लोकोंमें, ऊंचे दर्जेके नित्यपूजकको लक्ष्य करके, प्रथम भेद अर्थात् पूजकका स्वरूप इसप्रकार वर्णन किया है:"ब्राह्मणादिचतुर्वर्ण्य आद्यः शीलवतान्वितः । सत्यशोचढाचारो हिंसाद्यव्रतदूरगः ॥ १४३ ॥ जात्या कुलेन पूतात्मा शुचिर्वन्धुसुहजनैः ।
गुरूपदिष्टमंत्रेण युक्तः स्यादेष पूजकः ॥ १४४ ॥" अर्थात्-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र, इन चारों वर्गों से किसी भी वर्णका धारक, जो-दिग्विरति, देशविरति, अनर्थदंडविरति, सामायिक, प्रोषधोपवास), भोगोपभोगपरिमाण और अतिथिमंविभाग, इसप्रकार सप्तशील व्रतकर सहित हो, सत्य और शौचका दृढ़तापूर्वक (निरतिचार ) आचरण करनेवाला हो, मत्यवान् शौचवान् और दृढाचारी हो, हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह, इन पांच अव्रतों (पापों) से रहित हो, जाति और कुलसे पवित्र हो, बन्धु मित्रादिकसे शुद्ध हो और गुरु उपदेशित मंत्रसे युक्त हो वा ऐसे मंत्रसे जिसका संस्कार हुआ हो; वह उत्तम पूजक कहलाता है । इसीप्रकार पूजासार ग्रंथमें भी पूजकके उपर्युक्त दोनों भेदोंका कथन करके, निम्न लिखित दो श्लोकोंमें निर:पूजकका, उत्कृष्टापेक्षा, प्रायः समस्त यही स्वरूप वर्णन किया है। यथाः
"ब्राह्मणः क्षत्रियो वैश्यः शूद्रो वाऽऽद्यः सुशीलवान् । दृढव्रतो दृढाचारः सत्यशौचसमन्वितः॥१७॥
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२५ कुलेन जात्या संशुद्धो मित्रबन्थ्वादिभिः शुचिः।
गुरूपदिष्टमंत्राढ्यः प्राणिवाधादिदूरगः ॥१८॥" उपरके इन दोनों ग्रंथोंके प्रमाणोंसे भली भांति स्पष्ट है कि, शूद्रोंको भी श्रीजिनेंद्रदेवके पूजनका अधिकार प्राप्त है और वे भी नित्यपूजक होते हैं। साथ ही इसके यह भी प्रगट है कि शूद्र लोग साधारण पूजक ही नहीं, बल्कि ऊंचे दर्जेके नित्यपूजक भी होते हैं।
यहांपर यह प्रश्न उठ सकता है कि, उपर जो पूजकका स्वरूप वर्णन कियागया है वह पूजक मात्रका स्वरूप न होकर, ऊंचे दर्जेके नित्यपूजकका ही स्वरूप है वा उत्कृष्टकी अपेक्षा कथन किया गया है, यह सब, किस आधारपर माना जावे? इसका उत्तर यह है कि -धर्मसंग्रहश्रावकाचारके श्लोक नं. १४४ में जो “एष" शब्द आया है वह उत्तमताका वाचक है। यह शब्द "एतद" शब्दका रूप न होकर एक पृथक् ही शब्द है । वामन शिवराम आपटे कृत कोशमें इस शब्दका अर्थ अंग्रेजीमें desirable और to be desired किया है। संस्कृतमें इसका अर्थ प्रशस्त, प्रशंसनीय और उत्तम होता है । इसीप्रकार पूजासार ग्रंथके श्लोक नं. २८ में जहांपर पूजक और पूजकाचार्यका स्वरूप समाप्त किया है .हांपर, अन्तिम वाक्य यह लिखा है कि, "एवं लक्षणवानार्यो जिनपूजासु शस्यते।" (अर्थात् ऐसे लक्षणोंसे लक्षित आर्यपुरुष जिनेन्द्रदेवकी पूजामें प्रशंसनीय कहा जाता है।) इस वाक्यका अन्तिम शब्द "शस्यते" साफ बतला रहा है कि ऊपर जो स्वरूप वर्णन किया है वह प्रशस्त और उत्तम पूजकका ही स्वरूप है। दोनों ग्रंथोंमे इन दोनों शब्दोंसे साफ़ प्रकट है कि यह स्वरूप उत्तम पूजकका ही वर्णन किया गया है । परन्तु यदि ये दोनों शब्द (एप और शस्यते) दोनों ग्रंथों में न भी होते, या थोड़ी देरके लिये इनको गौण किया जाय तब भी, ऊपर कथन किये हुए पूजनसिद्धान्त, आचार्योंके वाक्य और नित्यपूजनके स्वरूपपर विचार करवसे, यही नतीजा निकलता है कि, यह स्वरूप ऊंचे दर्जेक नित्यपूजककों लक्ष्य करके ही लिखा गया है। लक्षणसे इसका कुछ सम्बंध नहीं है। क्योंकि लक्षण लक्षके सर्व देशमें व्यापक होता है । अपरका स्वरूप ऐसा नहीं है जो साधारणसे
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साधारण पूजकमें भी पाया जावे, इसलिये वह कदापि पूजकका लक्षण नहीं हो सकता । यदि ऐसा न माना जावे अर्थात् - इसको ऊंचे दर्जेके नित्य - पूजकका स्वरूप स्वीकार न किया जावे बल्कि, नित्य पूजक मात्रका स्वरूप वा दूसरे शब्दों में पूजकका लक्षण माना जावे तो इससे आज कलके प्रायः किसी भी जैनीको पूजनका अधिकार नहीं रहता। क्योंकि सप्त शीलव्रत और हिंसादिक पंच पापोंके त्याग रूप पंच अणुव्रत, इसप्रकार श्रावकके बारह व्रतोंका पूर्णतया पालन दूसरी (व्रत) प्रतिमामें ही होता है और वर्त्तमान जैनियोंमें इस प्रतिमा के धारक, दो चार त्यागियोंको छोड़कर, शायद कोई विरले ही निकलें ! इसके सिवाय जैनसिद्धान्तोंसे बडा भारी विरोध आता है । क्योंकि जैनशास्त्रों में मुख्यरूपसे श्रावकके तीन भेद वर्णन किये हैं
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१ पाक्षिक, २ नैष्टिक और ३ साधक । श्रावकधर्म, जिसका पक्ष और प्रतिज्ञाका विषय है अर्थात् श्रावकधर्मको जिसने स्वीकार कर रक्खा है और उसपर आचरण करना भी प्रारंभ कर दिया है, परन्तु उस धर्मका निर्वाह जिससे यथेष्ट नहीं होता, उस प्रारब्ध देग संयमीको पाक्षिक कहते हैं । जो निरतिचार श्रावकधर्मका निर्वाह करनेमे तत्पर है उसको नैष्ठिक कहते हैं और जो आत्मध्यानमें तत्पर हुआ समाधिपूर्वक मरण साधन करता है उसको साधक कहते हैं । नैष्टिकश्रावकके दर्शनिक, व्रतिक आदि ११ भेद हैं जिनको ११ प्रतिमा भी कहते है । व्रतिक श्रावक अर्थात् - दूसरी प्रतिमावालेसे पहली प्रतिमावाला, और पहली प्रतिमावालेसे पाक्षिक श्रावक, नीचे दर्जेपर होता है । दूसरे शब्दोंमे यों कहिये कि पाक्षिकश्रावक, मूल भेदोंकी अपेक्षा, दर्शनिकसे एक और व्रतिकसे दो दर्जे नीचे होता है अथवा उसको सबसे घटिया दर्जेका श्रावक कहते हैं । परन्तु शास्त्रों में व्रतिक के समान, दर्शनिकहीको नहीं किन्तु, पाक्षिकको भी पूजनका अधिकारी वर्णन किया है, जैसा कि धर्मसंग्रहश्रावका
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"पाक्षिकादिभिदा वा श्रावकस्तत्र पाक्षिकः । तद्धर्मगृह्यस्तन्निष्टो नैष्ठिकः साधकः स्वयुक ॥ २० ॥
- सागारधर्मामृते ।
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चार ( अ० ५ ) में निम्नलिखित श्लोकों द्वारा उनके स्वरूप कथनसे प्रगट है:
" सम्यग्दृष्टिः सातिचारमूलाणुप्रतिपालकः । अर्चादिनिरतस्त्वग्रपदं कांक्षी हि पाक्षिकः ॥ ४ ॥" "पाक्षिकाचारसम्पत्या निर्मलीकृतदर्शनः । विरक्तो भवभोगाभ्यामर्हदादिपदाचकः ॥ १४ ॥ मलान्मूलगुणानां निर्मूलयन्नग्रिमोत्सुकः । न्यायां वार्त्ती वपुः स्थित्यै दधद्दर्शनिको मतः ।। १५ ।।
ऊपरके श्लोकोंमें, “अर्चादिनिरतः ” ( पूजनादिमें तत्पर ) इस पदसे, पाक्षिकश्रावकके लिये पूजन करना जरूरी रक्खा है । और "अर्हदादिपदाऽकः " (अर्हन्तादिकके चरणोंका पूजनेवाला) इस पदसे, दर्शनिक श्रावक के लिये पूजन करना आवश्यक कर्म बतलाया है । सागारधर्मामृतके दूसरे अध्याय में, जिसका अन्तिम काव्य, "सैषः प्राथमकल्पिकः..." इत्यादि है, पाक्षिक श्रावकका सदाचारवर्णन किया है । उसमें भी, "यजेत देवं सेवेत गुरून्...” इत्यादि श्लोकों द्वारा, पाक्षिकश्रावकके लिये नित्यपूजन करनेका विधान किया है । भगवज्जिन्न सेनाचार्य भी आदिपुराण मे निम्न लिखित श्लोक द्वारा सूचित करते है कि, पूजन करना प्राथमकल्पिकी ( पाक्षिकी) वृत्ति अर्थात् पाक्षिकश्रावकका कर्म वा श्रावक मात्रका प्रथम कर्म है । यथा:
" एवं विधविधानेन या महेज्या जिनेशिनाम् । विधिज्ञास्तामुशन्तीज्यां वृत्तिं प्राथमकल्पिकीम् ||"
प. ३८-३४
यह तो हुई पाक्षिकश्रावककी बात, अब अविरतसम्यग्दृष्टिको लीजिये अर्थात् - ऐसे सम्यग्दृष्टिको लीजिये, जिसके किसी प्रकारका कोई व्रत होना तो दूर रहा, व्रत वा संयमका आवरण भी अभीतक जिसने प्रारंभ नहीं किया | जैनशास्त्रों में ऐसे अवतीको भी पूजनका अधिकारी
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वर्णन किया है । प्रथमानुयोगके ग्रंथोंसे प्रगट है कि, स्वर्गादिकके प्रायः सभी देव, देवांगना सहित, समवसरणादिमें जाकर साक्षात् श्रीजिनेंद्रदेवका पूजन करते हैं, नंदीश्वर द्वीपादिकमें जाकर जिनबिम्बोंका अर्चन करते हैं और अपने विमानोंके चैत्यालयों में नित्यपूजन करते हैं । जगह जगह शास्त्रों में नियमपूर्वक उनके पूजनका विधान पाया जाता है । परन्तु वे सब अवती ही होते हैं - उनके किसी प्रकारका कोई व्रत नहीं होता । देवोंको छोड़कर अती मनुष्योंके पूजनका भी कथन शास्त्रोंमें स्थान स्थान - पर पाया जाता है । समवसरणमें अवती मनुष्य भी जाते हैं और जिनवाणीको सुनकर उनमें से बहुतसे व्रत ग्रहण करते हैं, जैसा कि ऊपर उल्लेख किये हुए हरिवंशपुराणके कथनसे प्रगट है । महाराजा श्रेणिक भी अती ही थे, जो निरन्तर श्रीवीरजिनेंद्र के समवसरण में जाकर भगवानका साक्षात् पूजन किया करते थे । और जिन्होंने अपनी राजधानीमें, स्थान स्थानपर अनेक जिनमंदिर बनवाये थे, जिसका कथन हरिवंशपुराणादिकमें मौजूद है । सागारधर्मामृतमें पूजनके फलका वर्णन करते हुए साफ़ लिखा है कि :
“दृक्पूतमपि यष्टारमर्हतोऽभ्युदयश्रियः ।
श्रयन्त्यहं पूर्विकया किं पुनर्वतभूषितम् ।। ३२ ।।”
अर्थात् - अर्हतका पूजन करनेवाले अविरतसम्यग्दृष्टिको भी, पूजा, धन, आज्ञा, ऐश्वर्य, बल और परिजनादिक सम्पदाएँ- मैं पहले, ऐसी शीघ्रता करती हुईं प्राप्त होती हैं । और जो व्रतसे भूषित है उसका कहना ही क्या ? उसको वे सम्पदाएँ और भी विशेषता के साथ प्राप्त होती हैं ।
इससे यही सिद्ध हुआ कि - धर्मसंग्रहश्रावकाचार और पूजासारमें वर्णित पूजकके उपर्युक्त स्वरूपको पूजकका लक्षण माननेसे, जो व्रती श्रावक दूसरी प्रतिमाके धारक ही पूजनके अधिकारी ठहरते थे, उसका आगमसे विरोध आता है । इसलिये वह स्वरूप पूजक मात्रका स्वरूप नहीं है किन्तु ऊंचे दर्जेके नित्य पूजकका ही स्वरूप है । और इसलिये शूद्र भी ऊंचे दर्जेका नित्यपूजक हो सकता है ।
यहांपर इतना और भी प्रगट कर देना जरूरी है कि, जैन शास्त्रों में आच
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रण सम्बंधी कथनशैलीका लक्ष्य प्रायः उत्कृष्ट ही रक्खा गया मालूम होता है । प्रत्येक ग्रंथमें उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्यरूप समस्त भेदोंका वर्णन नहीं किया गया है । किसी किसी ग्रंथमें ही यह विशेष मिलता है । अन्यथा जहां तहां सामान्यरूपसे उत्कृष्टका ही कथन पाया जाता है । इसके कार
पर जहांतक विचार किया जाता है तो यही मालूम होता है कि, प्रथम तो उत्कृष्ट आचरणकी प्रधानता है । दूसरे समस्त भेद-प्रभेदोंका वर्णन करनेसे ग्रंथका विस्तार बहुत ज्यादह बढ़ता है और इस ग्रंथ-विस्तारका भय हमेशा ग्रंथकर्त्ताओंको रहता है । क्योंकि विस्तृत ग्रंथके सम्बंध में पाठकोंमें एक प्रकारकी अरुचिका प्रादुर्भाव हो जाता है और सर्व साधार
की प्रवृत्ति उसके पठन-पाठनमें नहीं होती । तथा ऐसे ग्रंथका रचना भी कोई आसान काम नहीं है - समस्तविषयोंका एक ग्रंथ में समावेश करना बढी दुःसाध्य कार्य है । इसके लिये अधिक काल, अधिक अनुभव और अधिक परिश्रमकी सविशेषरूपसे आवश्यक्ता है। तीसरे ग्रंथोंकी रचना प्रायः ग्रंथकारोंकी रुचिपर ही निर्भर होती है कोई ग्रंथकार संक्षेपप्रिय होते हैं और कोई विस्तारप्रिय- उनकी इच्छा है कि वे चाहे, अपने ग्रंथमें, जिस विषयको मुख्य रक्खें और चाहे, जिस विषयको गौण । जिस विषयको ग्रंथकार अपने ग्रंथमें मुख्य रखता है उसका प्रायः विस्तारके साथ वर्णन करता है । और जिस विषयको गौण रखता है उसका सामान्यरूपसे उत्कृष्टकी अपेक्षा कथन कर देता है । यही कारण है कि कोई विषय एक ग्रंथ में विस्तारके साथ मिलता है और कोई दूसरे ग्रंथमे । बल्कि एक विषयकी भी कोई बात किसी ग्रंथ में मिलती है और कोई किसी ग्रंथमें । दृष्टान्तके तौरपर पूजनके विषयहीको लीजिये - स्वामी समन्तभद्राचार्यने, रत्नकरंडश्रावकाचारमें, देवाधिदेव चरणे..." तथा "अर्हश्च्चरणसपर्या ..." इन, पूजनके प्रेरक और पूजन - फल प्रतिपादक, दो लोकोंके सिवाय इस विषयका कुछ भी वर्णन नहीं किया । श्रीपद्मनन्दि आचार्यने, पद्मनंदिपंचविंशतिकामे, गृहस्थियोंके लिये पूजनकी खास जरूरत वर्णन की है और उसपर जोर दिया है । परन्तु पूजन और पूजकके भेदोंका कुछ वर्णन नहीं किया । बसुनन्दि आचार्यने, बसुनन्दिश्रावकाचारमें, भगवजिनसेनाचार्यने आदिपुराणमें, इसका कुछ कुछ विशेष वर्णन
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किया है । इसीप्रकार सागारधर्मामृत, धर्मसंग्रहश्रावकाचार और पूजासार वगैरह ग्रंथो में भी इसका कुछ कुछ विशेष वर्णन पाया जाता है; परन्तु पूरा कथन किसी भी एक ग्रंथमें नहीं मिलता । कोई बात किसीमें अधिक है और कोई किसीमें । इसीप्रकार ग्यारह प्रतिमाओंके कथनको लीजिये - बहुतसे ग्रंथोंमें इनका कुछ भी वर्णन नहीं किया, केवल नाम मात्र कथन कर दिया वा प्रतिमाका भेद न कहकर सामान्य रूपसे श्रावक १२ व्रतका वर्णन कर दिया है। रत्नकरंडश्रावकाचार में इनका बहुत सामान्यरूपसे कथन किया गया है । वसुनन्दिश्रावकाचार में उससे कुछ अधिक वर्णन किया गया है । परन्तु सागारधर्मामृतमें, अपेक्षाकृत, प्रायः अच्छां खुलासा मिलता है । ऐसी ही अवस्था अन्य और भी विषयोंकी समझ लेनी चाहिए । अब यहांपर यह प्रश्न उठ सकता है कि, ग्रंथकार जिस विषयको गौण करके उसका सामान्य कथन करता है वह उसका उत्कृष्टकी अपेक्षासे क्यों कथन करता है, जघन्यकी अपेक्षासे क्यों नहीं करता? इसका उत्तर यह है कि, प्रथमतो उत्कृष्ट आचरणकी प्रधानता है । जबतक उत्कृष्ट दर्जेके आचरणमे अनुराग नहीं होता तबतक नीचे दर्जेके आचरणको आचरण ही नही कहते, + इससे उसके लिये साधन अवश्य चाहिये। दूसरे ऊंचे दर्जेके आचरणमे किंचित् भी स्खलित होनेसे स्वतः ही नीचे दर्जेका आचरण हो जाता है । संसारीजीवोंकी प्रवृत्ति और उनके संस्कार ही प्रायः उनको नीचेकी और ले जाते हैं, उसके लिये नियमित रूपसे किसी विशेष उपदेशकी जरूरत नहीं। तीसरे ऊंचे दर्जेको
+ सागारधर्मामृत के प्रथम लोककी टीकामे लिखा है, "यतिधर्मानुरागरहिताना मागारिणां देशविरतेरप्यसम्यक्रूपत्वात् । सर्व विरतिलालसः खलु देशविरतिपरिणामः ।" अर्थात् यतिधर्ममे अनुराग रहित गृहस्थियोका 'देशव्रत' भी मिथ्या है । सकलविरतिमे जिसकी लालसा है वही देशविरति के परिणामका धारक हो सकता है । इससे भी यही नतीजा निकलता है कि, जघन्य चारित्रका धारक भी कोई तब ही कहलाया जा सकता है जब वह ऊंचे दर्जेके आचरणका अनुरागी हो और शक्ति आदिकी न्यूनतासे उसको धारण न कर सकता हो ।
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छोड़कर अमरूपसे नीचे दर्जेका ही उपदेश देनेवालेको जैनशासनमें दुर्बुद्ध और दण्डनीय कहा है, जैसा कि स्वामी अमृतचंद्र आचार्यके निम्न लिखित वाक्योंसे ध्वनित है:"यो मुनिधर्ममकथयनुपदिशति गृहस्थधर्ममल्पमतिः । तस्य भगवत्प्रवचने प्रदर्शितं निग्रहस्थानम् ॥ १८ ॥ अक्रमकथनेन यतः प्रोत्सहमानोऽतिदूरमपि शिष्यः । अपदेऽपि संप्रतप्तः प्रतारितो भवति तेन दुर्मतिना ॥१९॥"
__-पुरुषार्थसिद्धयुपायः । यह शासन दंड भी संक्षेप और सामान्य लिखनेवालोंको उत्कृष्टकी अपेक्षासे कथन करनेमें कुछ कम प्रेरक नहीं है । इन्हीं समस्त कारणोंसे आचरण सम्बंधी कथनशैलीका प्रायः उत्कृष्टाऽपेक्षासे होना पाया जाता है। किसी किसी ग्रंथम तो यह उत्कृष्टता यहांतक बढ़ी हुई है कि साधारण पूजकका खरूप वर्णन करना तो दूर रहा, ऊंचे दर्जेके नित्यपूजकका भी स्वरूप वर्णन नहीं किया है । बल्कि पूजकाचार्यका ही स्वरूप लिखा है । जैसा कि बसुनन्दिश्रावकाचारमें, नित्यपूजकका स्वरूप न लिखकर, पूजकाचार्य (प्रतिष्ठाचार्य) का ही स्वरूप लिखा है । इसीप्रकार एकसंधिभट्टारककृत जिनसंहितामें पूजकाचार्यका ही स्वरूप वर्णन किया है। परन्तु इस संहितामें इतनी विशिष्टता और है कि, पूजक शब्दकर ही पूजकाचार्यका कथन किया है । यद्यपि 'पूजक' शब्दकर पूजक (नित्यपूजक) और पूजकाचार्य (प्रतिष्ठादिविधान करनेवाला पूजक) दोनोंका ग्रहण होता है-जैसा कि ऊपर उल्लेख किये हुए पूजासार ग्रंथके, "पूजकः पूजकाचार्यः इति द्वेधा स पूजकः," इस वाक्यसे प्रगट है तथापि साधारण ज्ञानवाले मनुष्योंको इससे भ्रम होना संभव है। अतः यहांपर यह बतला देना ज़रूरी है कि उक्त जिनसंहितामें जो पूजकका स्वरूप वर्णन किया है वह वास्तवमें पूजकाचार्यका ही स्वरूप है। वह स्वरूप इस संहिताके तीसरे परिच्छेदमें इसप्रकार लिखा है !
"अथ वक्ष्यामि भूपाल ! शृणु पूजकलक्षणम् । लक्षितं भगवद्दिव्यवचस्खखिलगोचरे ॥१॥
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त्रैवर्णिकोऽभिरूपाङ्गः सम्यग्दृष्टिरणुव्रती । चतुरः शौचवान्विद्वान योग्यः स्याजिनपूजने ॥२॥ न शूद्रः स्यान्नदुईष्टिर्न पापाचारपण्डितः। न निकृष्टक्रियावृत्तिातंकपरिदृषितः ॥३॥ नाधिकाङ्गो न हीनाङ्गो नातिदीर्घो न वामनः । नाऽविदग्धो न तन्द्रालु ऽतिवृद्धो न बालकः ॥ ४ ॥ नातिलुब्धो न दुष्टात्मा नाऽतिमानी न मायिकः । नाऽशुचिर्न विरूपाङ्गो नाऽजानन जिनसंहिताम् ॥५॥ निषिद्धः पुरुषो देवं यद्यर्चेत् त्रिजग प्रभुम् । राजराष्ट्रविनाशः स्यात्कर्तृकारकयोरपि ॥६॥ तसाद्यनेन गृह्णीयात्पूजकं त्रिजगद्गुरोः । उक्तलक्षणनेवायः कदाचिदपि नाऽपरम् ॥ ७॥ "यदीन्द्रवृन्दार्चितपादपंकजं जिनेश्वरं प्रोक्तगुणः समर्चयेत् । नृपश्च राष्ट्रं च सुखास्पदं भवेत्
तथैव कर्ता च जनश्च कारकः ॥८॥ भावार्थ इसका यह है कि, “हे राजन् , मैं अब श्रीजिनभगवानके वचनानुसार पूजकका लक्षण कहता हूं, उसको तुम सुनो । “जो तीनों वर्णो मेंसे किसी वर्णका धारक हो, रूपवान हो, सम्यग्दृष्टि हो, पंच अणुव्रतका पालन करनेवाला हो, चतुर हो, शौचवान् हो और विद्वान् हो वह जिनदेवकी पूजा करनेके योग्य होता है । (परन्तु) शूद्र, मिथ्यादृष्टि, पापाचारमें प्रवीण, नीचक्रिया तथा नीचकर्म करके आजीविका करनेवाला, रोगी, अधिक अंगवाला, अंगहीन, अधिक लम्बेकदका, बहुत छोटेकदका (वामना), भोला वा मूर्ख, निद्रालु वा आलसी, अतिवृद्ध, बालक,
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अतिलोभी, दुष्टात्मा, अतिमानी, मायाचारी, अपवित्र, कुरूप और जिनसंहिताको न जाननेवाला पूजन करनेके योग्य नहीं होता है । यदि निषिद्ध पुरुष भगवानका पूजन करे तो राजा और देशका तथा पूजन करनेवाले और करानेवाले दोनोंका नाश होता है । इसलिये पूजन करानेवालेकोयत्नके साथ जिनेंद्रदेवका पूजक ऊपर कहे हुए लक्षणोंवाला ही ग्रहण करना चाहिये-दृसरा नहीं। यदि ऊपर कहे हुए गुणोंवाला पूजक, इन्द्र समूहकर वंदित श्रीजिनदेवके चरणकमलकी पूजा करे, तो राजा और देश तथा पूजन करनेवाला और करानेवाला सब सुखके भागी होते है।" ___ अब यहांपर विचारणीय यह है कि, यह उपर्युक्त स्वरूप साधारणनित्यपूजकका है या ऊंचे दर्जेक नित्यपूजकका अथवा यह स्वरूप पूजकाचार्यका है । साधारण नित्यपूजकका स्वरूप हो नहीं सकता । क्योंकि ऐसा माननेपर आगमसे विरोधादिक समस्त वही दोष यहां भी पूर्ण रूपसे घटित होते हैं, जो कि धर्मसंग्रहश्रावकाचार
और पूजासारमें वर्णन किये हुए ऊंचे दर्जे के नित्य पूजकके स्वरूपको नित्यपूजक मात्रका स्वरूप स्वीकार करने पर विस्तारक साथ ऊपर दिखलाये गये हैं । बल्कि इस स्वरूपम कुछ बातें उससे भी अधिक हैं, जिनसे
और भी अनेक प्रकारकी बाधाएं उपस्थित होती हैं और जो विस्तार भयसे यहां नहीं लिग्वीं जाती। इस स्वरूपके अनुसार जो जैनी रूपवान् नहीं है, विद्वान् नहीं है, चतुर नहीं है अर्थात् भोला वा मूर्ख है, जो जिनसंहिताको नहीं जानता, जिसका कद अधिक लम्बा या छोटा है, जो बालक है या अतिवृद्ध है, जो पापके काम करना जानता है और जो अतिमानी, मायाचारी और लोभी है, वह भी पूजनका अधिकारी नहीं ठहरता। इसको साधारण नित्यपूजकका स्वरूप माननेसे पूजनका मार्ग
और भी अधिक इतना तंग (संकीर्ण) हो जाता है कि वर्तमान १३ लाख जैनियों में शायद कोई बिरला ही जैनी ऐसा निकले जो इन समस्त लक्षणोंसे सुसम्पन्न हो और जो जिनदेवका पूजन करनेके योग्य समझा जावे । वास्तवमे भक्तिपूर्वक जो नित्यपूजन किया जाता है उसके लिये इन बहुतसे विशेषणोंकी आवश्यकता नहीं है, यह ऊपर कहे हुए नित्यपूजनके स्वरूपसे ही प्रगट है । अतः आगमसे विरोध आने तथा पूजन
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सिद्धान्त और नित्यपूजनके स्वरूपसे विरुद्ध पड़नेके कारण यह स्वरूप साधारण नित्य पूजकका नहीं हो सकता । इसी प्रकार यह स्वरूप अंचे दर्जेके नित्य पूजकका भी नहीं हो सकता। क्योंकि ऊंचे दर्जेके नित्यपूजकका जो स्वरूप धर्मसंग्रहश्रावकाचार और पूजासार ग्रंथोंमें वर्णन किया है और जिसका कथन ऊपर आचुका है, उससे इस स्वरूपमें बहुत कुछ विलक्षणता पाई जाती है। यहांपर अन्य बातोंके सिवा त्रैवर्णिकको ही पूजनका अधिकारी वर्णन किया है; परन्तु ऊपर अनेक प्रमाणोंसे यह सिद्ध किया जाचुका है कि ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र, चारों ही वर्णके मनुष्य पूजन कर सकते हैं और ऊंचे दर्जेके नित्यपूजक होसकते हैं। इसलिये यह स्वरूप ऊंचे दर्जेके नित्यपूजकतक ही पर्याप्त नहीं होता, बल्कि उसकी सीमासे बहुत आगे बढ जाता है।
दूसरे यह बात भी ध्यान रखने योग्य है कि ऊंचा दर्जा हमेशा नीचे दर्जेकी और नीचा दर्जा ऊंचे दर्जेकी अपेक्षासे ही कहा जाता है। जब एक दर्जेका मुख्य रूपसे कथन किया जाता है तब दूसरा दर्जा गौण होता है, परन्तु उसका सर्वथा निषेध नहीं किया जाता । जैसा कि सकलचारित्र (महाव्रत) का वर्णन करते हुए देशचारित्र (अणुव्रत) और देशचारित्रका कथन करते समय सकलचारित्र गौण होता है; परन्तु उसका सर्वथा निवेध नहीं किया जाता अर्थात् यह नहीं कहा जाता कि जिसमें महाव्रतीके लक्षण नहीं वह व्रती ही नहीं हो सकता । व्रती वह ज़रूर हो सकता है; परन्तु महाव्रती नहीं कहला सकता। इससे यह सिद्ध होता है कि यदि ग्रंथकार महोदयके लक्ष्य में यह स्वरूप ऊंचे दर्जे के नित्य पूजकका ही होता, तो वे कदापि साधारण (नीचे दर्जेके) नित्य पूजकका सर्वथा निषेध न करते-अर्थात् , यह न कहते कि इन लक्षणोंसे रहित दूसरा कोई पूजक होनेके योग्य ही नहीं या पूजन करनेका अधिकारी नहीं। क्योंकि दूसरा नीचे दर्जेवाला भी पूजक होता है और वह नित्यपूजन कर सकता है। यह दूसरी बात है कि वह कोई विशेष नैमित्तिक पूजन न कर सकता हो । परन्तु ग्रंथकार महोदय, “उक्तलक्षणामेवार्यः कदाचिदपि नाऽपरम्" इस सप्तम श्लोकके उत्तरार्धद्वारा स्पष्टरूपसे उक्त लक्षण रहित दूसरे मनुप्यके पूजकपनेका निषेध करते हैं, बल्कि छठे श्लोकमें यहांतक लिखते हैं
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कि यदि निषिद्ध ( उक्तलक्षण रहित ) पुरुष पूजन कर ले, तो राजा, देश, पूजन करनेवाला, और करानेवाला सब नाशको प्राप्त हो जावेंगे । इससे प्रगट है कि उन्होंने यह स्वरूप ऊंचे दर्जेके नित्यपूजकको भी लक्ष्य करके नहीं लिखा है । भावार्थ, इस स्वरूपका किसी भी प्रकारके नित्यपूजकके साथ नियमित सम्बन्ध ( लजूम) न होनेसे, यह किसी भी प्रकारके नित्य पूजकका स्वरूप या लक्षण नहीं है। बल्कि उस नैमित्तिक पूजनविधानके कर्तासे सम्बन्ध रखता है जिस पूजनविधानमें पूजन करनेवाला और होता है और उसका करानेवाला अर्थात् उस पूजनविधानके लिये द्रव्यादि खर्च करानेवाला दूसरा होता है। क्योंकि स्वयं उपर्युक्त श्लोकोंमें आये हुए, “कर्तृकारकयोः" "गृह्णीयात्" और "तथैव कर्ता च जनश्च कारकः” इन प. दोंसे भी यह बात पाई जाती है । “यत्नेन गृहीयात् पूजकं," "उक्तलक्षणमेवार्यः,” ये पद साफ बतला रहे हैं कि यदि यह वर्णन नित्य पूजकका होता तो यह कहने वा प्रेरणा करनेकी ज़रूरत नहीं थी कि पूजनविधान करानेवालेको तलाश करके उक्त लक्षणोंवाला ही पूजक (पूजनविधान करनेवाला ) ग्रहण करना चाहिये, दूसरा नहीं । इसीप्रकार पूजनफलवर्णनमें, "कर्तृकारकयोः" इत्यादि पदोंद्वारा पूजन करनेवाले और करानेवाले दोनोंका भिन्न भिन्न निर्देश करनेकी भी कोई ज़रूरत नहीं थी; परन्तु चूंकि ऐसा किया गया है, इससे स्वयं ग्रंथकारके वाक्योंसे भी प्रगट है कि यह नित्यपूजकका स्वरूप या लक्षण नहीं है । तब यह स्त्ररूप किसका है ? इस प्रश्नके उत्तरमें यही कहना पड़ता है कि पूजकके जो मुख्य दो भेद वर्णन किये गये हैं-१ एक नित्यपूजन करनेवाला और २ दूसरा प्रतिष्ठादि विधान करनेवाला-उनमेंसे यह स्वरूप प्रतिष्ठादिविधान करनेवाले पूजकका ही होसकता है, जिसको प्रतिष्ठाचार्य, पूजकाचार्य और इन्द्र भी कहते हैं । प्रतिष्ठादि विधानमें ही प्रायः ऐसा होता है कि विधानका करनेवाला तो और होता है और उसका करानेवाला दूसरा । तथा ऐसे ही विधानोंका शुभाशुभ असर कथंचित् राजा, देश, नगर और करानेवाले आदिपर पड़ता है। प्रतिष्ठाविधानमें प्रतिमाओंमें मंत्रद्वारा अ. हंतादिककी प्रतिष्ठा की जाती है । अतः जिस मनुष्यके मंत्रसामर्थ्यसे प्रतिमाएँ प्रतिष्ठित होकर पूजने योग्य होती हैं वह कोई साधारण व्यक्ति नहीं
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होसकता । वह कोई ऐसा ही प्रभावशाली, माननीय, सर्वगुणसम्पन्न असाधारण व्यक्ति होना चाहिये।
इन सबके अतिरिक्त, पूजकाचार्य या प्रनिष्टाचार्यका जो स्वरूप, धर्मसंग्रहश्रावकाचार, पूजासार और प्रतिष्ठासारोद्धार आदिक जैनशास्त्रों में स्पष्टरूपसे वर्णन किया गया है उससे इस स्वरूपकी प्रायः सब बातें मिलती है । जिससे भलेप्रकार निश्चित होता है कि यह म्वरूर प्रतिष्टादिविधान करनेवाले पूजक अर्थात् प्रतिष्टाचार्य या पूजकाचार्य से ही सम्बन्ध रखता है । यद्यपि इस निबन्धमें पूजकाचार्य या प्रतिष्ठाचार्यका स्वरूप वि. वेचनीय नहीं है, तथापि प्रसंगवश यहापर उसका किंचित् दिग्दर्शन करादेना ज़रूरी है ताकि यह मालूम करके कि दूसरे शास्त्रोंमे भी प्रायः यही स्वरूप प्रतिष्टाचार्य या पूजकाचार्यका वर्णन किया है, इस विषयमें फिर कोई संदेह बाकी न रहे । सबसे प्रथम धमसंग्रहश्रावकाचारहीको लीजिये। इस ग्रंथके ९ वें अधिकारमे, नित्यपूजकका स्वरूप कथन करनेके अनन्तर, श्लोक नं. १४५ से १५२ तक आट श्लोकोंमे पूजकाचार्यका स्वरूप वर्णन किया है। वे श्लोक इस प्रकार है:"इदानीं पूजकाचार्यलक्षणं प्रतिपाद्यते। ब्राह्मणः क्षत्रियो वैश्यो नानालक्षणलक्षितः ॥१४५॥ कुलजात्यादिसंशुद्धः सदृष्टिदेशसंयमी ।। वेत्ता जिनागमस्याऽनालस्यः श्रुतबहुश्रुतः ॥ १४६ ॥ ऋजुर्वाग्मी प्रसन्नोऽपि गंभीरो विनयान्वितः । शौचाचमनसोत्साहो दानवान्कर्मकर्मठः ॥१४७॥ साङ्गोपाङ्गयुतः शुद्धो लक्ष्यलक्षणवित्सुधीः ।
खदारी ब्रह्मचारी वा नीरोगः सत्क्रियारतः ॥ १४८॥ वारिमंत्रत्रतस्त्रातः प्रोषधव्रतधारकः । निरभिमानी मौनी च त्रिसंध्यं देववन्दकः ॥ १४९ ॥ श्रावकाचारपूतात्मा दीक्षाशिक्षागुणान्वितः। क्रियाषोडशभिः पूतो ब्रह्मसूत्रादिसंस्कृतः ॥ १५ ॥
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न हीनाङ्गो नाऽधिकाङ्गो न प्रलम्बो न वामनः । न कुरूपी न मूढात्मा न वृद्धो नातिबालकः ॥ १५१ ॥ न क्रोधादिकषायाढ्यो नार्थार्थी व्यसनी न च । नान्त्यास्त्रयो न तावाद्यौ श्रावकेषु न संयमी ॥ १५२॥" इन उपर्युक्त पूजकाचार्यस्वरूपप्रतिपादक श्लोकोंमें जो-"ब्राह्मण(ब्राह्मण हो), क्षत्रियः (क्षत्रिय हो), वैश्यः (वश्य हो), नानालक्षणलक्षितः (शीरसे सुन्दर हो), सद्दष्टिः (सम्यग्दृष्टि हो), देशसंयमी ( अणुव्रती हो), जिनागमस्य वेत्ता ( जिनसंहिता आदि जैनशास्त्रोंका जाननेवाला हो). अनालस्यः (आलस्य बा तन्द्रारहित हो), वाग्मी (चतुर हो), विनयान्वितः (मानकपायके अभावरूप विनयसहित हो), शौचाचमनसोत्साहः (शौच और आचमन करनेमें उत्साहवान् हो), साङ्गोपाङ्गयुतः (ठीक अङ्गोपाङ्गका धारक हो), शुद्धः (पवित्र हो), लक्ष्यलक्षणवित्सुधीः (लक्ष्य और लक्षणका जाननेवाला बुद्धिमान् हो). स्वदारी ब्रह्मचारी वा ( नदारसंतोषी हो या अपनी स्त्रीका भी त्यागी हो अर्थात् ब्रह्मचर्याणुव्रतके जो दो भेद हैं उसमेंसे किमी भेदका धारकहो), नीरोगः (रोगरहित हो), सक्रियारतः (नीची क्रियाके प्रनिकूल ऊची और श्रेष्ठ क्रिया करनेवाला हो), वारिमंत्रवतस्त्रातः (जलसान, मंत्रस्नान और व्रतस्नानकर पवित्र हो), निरभिमानी ( अभिमानरहित हो), न हीनाङ्गः ( अंगहीन न हो), नाऽधिकाङ्गः (अधिक अंगका धारक न हो), न प्रलम्बः (लम्बे कदका न हो), न वामनः(छोटेकदका न हो), न कुरूपी (बदसूरत न हो), न मूढात्मा (मूर्ख न हो), न वृद्धः(बृढ़ा न हो), नाऽतिबालकः (अति बालक न हो), न क्रोधादिकषायाढ्यः (क्रोध, मान, माया, लोभ, इन कषायोंमेंसे किसी कषायका धारक न हो), नार्थार्थी (धनका लोभी तथा धन लेकर पूजन करनेवाला न हो), न च व्यसनी (और पापाचारी न हो),"इत्यादि विशेषणपद आये हैं, उनसे प्रगट है कि उपर्युक्त जिनसंहितामें जो विशेषण पूजकके दिये है वे सब यहांपर साफ तौरसे पूजकाचार्यके वर्णन किये हैं । बल्कि श्लो० नं. १५१ तो जिनसंहिताके श्लोक नं ४
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से प्रायः यहांतक मिलता जुलता है कि एकको दूसरेका रूपान्तर कहना चाहिये । इसीप्रकार निम्नलिखित तीन श्लोकोंमें जो ऐसे पूजकके द्वारा कियेहुए पूजनका फल वर्णन किया है वह भी जिनसंहिताके श्लोक नं. ६ और 6 से बिलकुल मिलता जुलता है । यथाः"ईदृग्दोषभृदाचार्यः प्रतिष्ठां कुरुतेन चेत् । तदा राष्ट्र पुरं राज्यं राजादिः प्रलयं व्रजेत् ॥ १५३ ॥ कर्ता फलं न चाप्नोति नैव कारयिता ध्रुवम् । ततस्तल्लक्षणश्रेष्ठः पूजकाचार्य इष्यते ॥ १५४ ॥ पूर्वोक्तलक्षणैः पूर्णः पूजयेत्परमेश्वरम् । तदा दाता पुरं देशं वयं राजा च वर्द्धते ॥ १५५ ॥ अर्थात्-यदि इन दोपोंका धारक पूजकाचार्य कहींपर प्रतिष्ठा करावे, तो समझो कि देश, पुर, राज्य तथा राजादिक नाशको प्राप्त होते हैं और प्रतिष्ठा करनेवाला तथा करानेवाला ही अच्छे फलको प्राप्त दोनों नहीं होते इस लिये उपयुक्त उत्तम उत्तम लक्षणोंसे विभूपित ही पूजकाचार्य (प्रतिष्ठाचार्य ) कहा जाता है । ऊपर जो जो पूजकाचार्यके लक्षण कह आये हैं, यदि उन लक्षणोंसे युक्त पूजक परमेश्वरका पूजन (प्रतिष्ठादि विधान) करे, तो उस समय धनका खर्च करनेवाला दाता, पुर, देश तथा राजा ये सब दिनोंदिन वृद्धिको प्राप्त होते हैं।
पूजासार ग्रंथमें भी, नित्य पूजकका स्वरूप कथन करनेके अनन्तर, श्लोक नं० १९ से २८ तक पूजकाचार्यका स्वरूप वर्णन किया गया है। इस स्वरूपमें भी पूजकाचार्यके प्रायः वही सब विशेषण दिये गये हैं जो कि धर्म. संग्रहश्रावकाचारमें वर्णित हैं और जिनका उल्लेख ऊपर किया गया है । यथाः
"लक्षणोद्भासी,जिनागमविशारदः, सम्यग्दर्शनसम्पन्नः, देशसंयमभूषितः, वाग्मी, श्रुतबहुग्रन्थः, अनालस्यः, ऋजुः,विनयसंयुतः, पूतात्मा, पूतवाग्वृत्तिः,
१ शरीरसे सुन्दर हो. २ पापाचारी न हो. ३ सच बोलनेवाला हो तथा नीच क्रिया करके आजीविका करनेवाला न हो.
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शौचाचमनतत्परः, साङ्गोपाङ्गेन संशुद्धः, लक्षणलक्ष्यचित्, नीरोगी, ब्रह्मचारी व स्वदारारतिकोऽपि वा, जलमंत्रव्रतस्त्रातः, निरभिमानी, विचक्षणः, सुरूपी, सक्रियः, वैश्यादिषु समुद्भवः, इत्यादि । "
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इसी प्रकार प्रतिष्ठासारोद्धार ग्रंथके प्रथम परिच्छेदमें, लोक नं० १० से १६ तक, जो प्रतिष्ठाचार्यका स्वरूप दिया गया है, उसमें भी“कल्याणाङ्गः, रुजा हीनः, सकलेन्द्रियः, शुभलक्षणसम्पन्नः, सौम्यरूपः, सुदर्शनः, विप्रो वा क्षत्रियो वैश्यः, विकर्मकरणोऽज्झितः, ब्रह्मचारी गृहस्थो वा, सम्यग्दृष्टिः, निः कषायः, प्रशान्तात्मा, वेश्यादिव्यसनोज्झितः दृष्टसृष्टक्रियः, विनयान्वितः शुचिः, प्रतिष्ठाविधिवित्सुधीः, महापुराणशास्त्रज्ञः, न चार्थार्थी, न च द्वेष्टि – "
इत्यादि विशेषण पदोंसे प्रतिष्ठाचार्यके प्रायः वे ही समस्त विशेषण वर्णन किये गये हैं, जो कि जिनसंहितामें पूजकके और धर्मसंग्रहश्रावकाचार तथा पूजासार ग्रंथों में पूजकाचार्यके वर्णन किये हैं ।
यह दूसरी बात है कि किसीने किसी विशेषणको संक्षेपसे वर्णन किया और किसीने विस्तार से; किसीने एकशब्दमें वर्णन किया और किसीने अनेक शब्दों में; अथवा किसीने सामान्यतया एकरूपमें वर्णन किया और किसीने उसी विशेषणको शिष्योंको अच्छीतरह समझानेके लिये अनेक विशेषणों में वर्णन कर दिया परन्तु आशय सबका एक है, अतः सिद्ध है कि जिनसंहितामें जो पूजकका स्वरूप वर्णन किया है वह वास्तवमें प्रतिष्ठादिविधान करनेवाले पूजक अर्थात् पूजकाचार्य या प्रतिष्ठाचार्यका ही है । इस प्रकार यह संक्षिप्त रूपसे, आचरण सम्बधी कथनशैलीका रहस्य है । धर्मसंग्रहश्रावकाचार और पूजासार ग्रन्थमें जो साधारणनित्यपूजकका स्वरूप न लिखकर ऊंचे दर्जेके नित्यपूजकका ही स्वरूप लिखा गया है, उसका भी यही कारण
है
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यद्यपि ऊपर यह दिखलाया गया है कि उक्त दोनों ग्रंथोंमें जो पूजकका स्वरूप वर्णन किया गया है वह ऊंचे दर्जेके नित्य पूजकका स्वरूप होनेसे और उसमें शूद्रको भी स्थान दिये जानेसे, शुद्ध भी ऊंचे दर्जेका नित्य पूजक हो सकता है । तथापि इतना और समझ
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लेना चाहिये कि शूद्र भी उन समस्त गुणोंका पात्र है जो कि, नित्य पूजक स्वरूपमे वर्णन किये गये हैं और वह ११ वीं प्रतिमाको धारण करके ऊंचे दर्जेका श्रावक भी होसकता है, अतः उसके ऊंचे दर्जेके नित्य पूजक हो सकने में कोई बाधक भी प्रतीत नहीं होता । वह पूर्ण रूपसे नित्य पूजनका अधिकारी है । अब जिन लोगोंका ऐसा ख़याल है कि शूद्रोंका उपनीति (यज्ञोपवीत धारण ) संस्कार नहीं होता और इस लिये वे पूजनके अधिकरी नहीं हो सकने; उनको समझना चाहिये कि पूजनके किसी खास भेदको छोड़कर आमतौरपर पूजनके लिये यज्ञोपवीत ( ब्रह्मसूत्र जनेऊ ) का होना ज़रूरी नहीं है । स्वर्गादिकके देव और देवांगनायें प्रायः सभी जिनेद्रदेवका नित्यपूजन करते है और खास तौरसे पूजन करके अधिकारी वर्णन किये गये ह; परन्तु उनका यज्ञोपवीत संस्कार नहीं होता । ऐसी ही अवस्था मनुष्यस्त्रियोंकी है । वे भी जगह जगह शास्त्रोंम पूजनकी अधिकारिणी वर्णन की गई है। स्त्रियोंकी पूजनसम्बधिनी असंख्य कथाओंसे जैन साहित्य भरपूर है। उनका भी यज्ञोपवीत संस्कार नहीं होता | ऊपर उल्लेख की हुई कथाओंम जिन गज- ग्वाल आदिने जिनेन्द्रदेवका पूजन किया है, वे भी यज्ञोपवीत संस्कारसे संस्कृत ( जनेऊ के धारक ) नहीं थे । इससे प्रगट है कि नित्य पूजक के लिये यज्ञोपवीत संस्कारसे संस्कृत होना लाज़मी और ज़रूरी नहीं है और न यज्ञोपवीत पूजनका चिन्ह है। बल्कि वह द्विजोंके व्रतका चिन्ह हैं । जैसा कि आदिपुराण पर्व ३८-३९-४१ मे, भगवजिनसेनाचार्य के निम्नलिखित वाक्योसे प्रगट है:
I
"व्रतचिह्नं दधत्सूत्रम्..
व्रतसिद्ध्यर्थमेवाऽहमुपनीतोऽस्मि साम्प्रतम्...
"
१"
6
" व्रतचिह्नं भवेदस्य सूत्रं मंत्रपुरःतरम्....” " व्रतचिह्नं च नः सूत्रं पवित्रं सूत्रदर्शितम् ।” " व्रतचिह्नानि सूत्राणि गुणभूमिविभागतः ।” वर्त्तमान प्रवृत्ति ( रिवाज़ ) की ओर देखनेसे भी यही मालूम होता है कि नित्यपूजनके लिये जनेऊका होना ज़रूरी नहीं समझा जाता । क्योंकि स्थान स्थान पर नित्यपूजन करनेवाले तो बहुत हैं परंतु यज्ञोपवीत संस्कारसे
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संस्कृत ( जनेऊधारक ) बिरले ही जैनी देखने में आते हैं । और उनमें भी बहुत से ऐसे पाये जाते हैं जिन्होंने नाममात्र कन्धेपर सूत्र ( तागा ) डाल लिया है, वैसे यज्ञोपवीतसंबधी क्रियाकर्मसे वे कोसों दूर हैं | दक्षिण देशको छोड़कर अन्य देशोंमें तथा खासकर पश्चिमोत्तर प्रदेश अर्थात् युक्तप्रांत और पंजाब देशमें तो यज्ञोपवीत संस्कारकी प्रथा ही, एक प्रकारसे, जैनियो से उठ गई है; परन्तु नित्यपूजन सर्वत्र बराबर होता है । इससे भी प्रगट है कि नित्यपूजनके लिये जनेऊका होना आवश्यक कर्म नहीं है और इस लिये जनेऊका न होना शूद्रोंको नित्यपूजन करने में किसी प्रकार भी बाधक नहीं हो सकता । उनको नित्यपूजनका पूरा पूरा अधिकार प्राप्त है ।
यह दूसरी बात है कि कोई अस्पृश्य शूद्र, अपनी अस्पृश्यता के कारण, किसी मंदिरमे प्रवेश न कर सके और मूर्तिको न छू सके; परन्तु इससे उसका पूजनाधिकार खंडित नहीं होजाता । वह अपने घरपर त्रिकाल देववन्दना कर सकता है, जो नित्यपूजनमें दाखिल है । तथा तीर्थस्थानों, अतिशय क्षेत्रों और अन्य ऐसे पर्वतोपर - जहां खुले मैदान मे जिनप्रतिमाएँ विराजमान हैं और जहां भील, चाण्डाल और म्लेच्छतक भी विना रोकटोक जाते है - जाकर दर्शन और पूजन कर सकता है । इसी कार वह बाहरसे ही मंदिरके शिखरादिकमें स्थित प्रतिमाओंका दर्शन और पूजन कर सकता है । प्राचीन समय में प्रायः जो जिनमन्दिर बनवाये जाते थे, उनके शिखर या द्वार आदिक अन्य किसी ऐसे उच्च स्थानपर, जहां सर्व साधार
की दृष्टि पड़ सके, कमसेकम एक जिनप्रतिमा ज़रूर विराजमान की जाती थी, ताकि ( जिससे ) वे जातियां भी जो अस्पृश्य होनेके कारण, मंदिरमें प्रवेश नहीं कर सकतीं, बाहरसे ही दर्शनादिक कर सके । यद्यपि आजकल ऐसे मंदिरोंके बनवानेकी वह प्रशंसनीय प्रथा जाती रही है जिसका प्रधान कारण जैनियोंका क्रमसे ह्रास और इनमेसें राजसत्ताका सर्वथा लोप हो जाना ही कहा जा सकता है - तथापि दक्षिण देशमें, जहाँपर अन्तमें जैनियोंका बहुत कुछ चमत्कार रह चुका है और जहांसे जैनियोंका राज्य उठेहुए बहुत अधिक समय भी नहीं हुआ है, इस समय भी ऐसे जिनमंदिर विद्यमान हैं जिनके शिखरादिक में जिनप्रतिमाएँ अंकित हैं ।
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इस प्रकार ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र, चारों ही वर्णके सब मनुष्य नित्य पूजनके अधिकारी हैं और खुशीसे नित्यपूजन कर सकते हैं। नित्यपूजनमें उनके लिये यह नियम नहीं है कि वे पूजकके उन समस्त गुणोंको प्राप्त करके ही पूजन कर सकते हो, जो कि धर्मसंग्रहश्रावकाचार
और पूजासार ग्रंथों में वर्णन किये हैं। बल्कि उनके विना भी वे पूजन करसकते हैं और करते हैं। क्योंकि पूजकका जो स्वरूप उक्त ग्रंथोंमें वर्णन किया है वह ऊंचे दर्जेके नित्यपूजकका स्वरूप है और जब वह स्वरूप ऊंचे दर्जेके नित्यपूजकका है तब यह स्वतःसिद्ध है कि उस स्वरूपमें वर्णन किये हुए गुणों से यदि कोई गुण किसीमें न भी होवे तो भी वह पूजनका अधिकारी और नित्यपूजक हो सकता है-दूसरे शब्दों में यों कहिये कि जिनके हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील (परस्त्रीसेवन)-परिग्रह-इन पंच पापों या इनमेंसे किसी पापका त्याग नहीं है, जो दिग्विरतिआदि सप्तशीलवत या उनमेंसे किसी शीलवतके धारक नहीं हैं अथवा जिनका कुल और जाति शुद्ध नहीं है या इसी प्रकार और भी किसी गुणसे जो रहित हैं, वे भी नित्यपूजन कर सकते हैं और उनको नित्यपूजनका अधिकार प्राप्त है।
यह दूसरी बात है कि गुणोंकी अपेक्षा उनका दर्जा क्या होगा ? अथवा फलप्राप्तिमें अपने अपने भावोंकी अपेक्षा उनके क्या कुछ न्यूनाधिक्यता (कमीवेशी) होगी ? और वह यहांपर विवेचनीय नहीं है।
यद्यपि आजकल अधिकांश ऐसे ही गृहस्थ जैनी पूजन करते हुए देखे जाते हैं जो हिंसादिक पांच पापोंके त्यागरूप पंचअणुव्रत या दिग्विरति आदि सप्तशीलवतके धारक नहीं है; तथापि प्रथमानुयोगके ग्रंथोंको देखनेसे मालूम होता है कि, ऐसे लोगोंका यह (पूजनका) अधिकार अर्वाचीन नहीं बल्कि प्राचीन समयसे ही उनको प्राप्त है। जहां तहां जैनशास्त्रोंमे दियेहुए अनेक उदाहरणोंसे इसकी भले प्रकार पुष्टि होती है:
लंकाधीश महाराज रावण परस्त्रीसेवनका त्यागी नहीं था, प्रत्युत वह परस्त्रीलम्पट विख्यात है । इसी दुर्वासनासे प्रेरित होकर ही उसने प्रसिद्ध सती सीताका हरण किया था। इसविषयमें उसकी जो कुछ भी
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प्रतिज्ञा थी वह एतावन्मान (केवल इतनी) थी कि, "जो कोई भी परस्त्री मुझको नहीं इच्छेगी, मैं उससे बलात्कार नहीं करूंगा।" नहीं कह सकते कि उसने कितनी परस्त्रियोंका जो किसी भी कारणसे उससे रजामन्द (सहमत) होगई हों-सतीत्वमंग किया होगा अथवा उक्त प्रतिज्ञासे पूर्व कितनी परदाराओंसे बलात्कार भी किया होगा । इस परस्त्रीसेवनके अतिरिक्त वह हिंसादिक अन्य पापोंका भी त्यागी नहीं था। दिग्विरति आदि सप्तशील व्रतोंके पालनकी तो वहां बात ही कहां ? परन्तु यह सब कुछ होते हुए भी, रविषेणाचार्यकृत पद्मपुराणमें अनेक स्थानोंपर ऐसा वर्णन मिलता है कि "महाराजा रावणने बड़ी भक्तिपूर्वक श्रीजिनेंद्रदेवका पूजन किया। रावणने अनेक जिनमंदिर बनवाये । वह राजधानीमें रहतेहुए अपने राजमन्दिरोंके मध्यमें स्थित श्रीशांतिनाथके सुविशाल चैत्यालयमें पूजन किया करता था । बहुरूपिणी विद्याको सिद्ध करनेके लिये बैठनेसे पूर्व तो उसने इस चैत्यालयमें बड़े ही उत्सवके साथ पूजन किया था और अपनी समस्त प्रजाको पूजन करनेकी आज्ञा दी थी। सुदर्शन मेरु और कैलाश पर्वत आदिके जिनमंदिरोंका उसने पूजन किया और साक्षात् केवली भगवानका भी पूजन किया।
कौशांबी नगरीका राजा सुमुख भी परस्त्रीसेवनका त्यागी नहीं था। उसने बीरक सेठकी स्त्री वनमालाको अपने घरमें डाल लिया था। फिर भी उसने महातपस्वी वरधर्म नामके मुनिराजको वनमालासहित आहार दिया और पूजन किया। यह कथा जिनसेनाचार्यकृत तथा जिनदास ब्रह्मचारीकृत दोनों हरिवंश पुराणोंमें लिखी है।
इसी प्रकार और भी सैकड़ों प्राचीन कथाएँ विद्यमान हैं, जिनमें पापियों तथा अव्रतियोंका पापाचरण कहीं भी उनके पूजनका प्रतिबन्धक नहीं हुआ और न किसी स्थानपर ऐसे लोगोंके इस पूजन कर्मको असत्कर्म बतलाया गया। वास्तवमें, यदि विचार किया जाय तो मालूम होगा कि जिनेंद्रदेवका भावपूर्वक पूजन स्वयं पापोंका नाश करनेवाला है, शास्त्रोंमें उसे अनेक जन्मोंके संचित पापोंको भी क्षणमात्रमें भमकर देनेवाला वर्णन
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किया है । इसीसे पापोंकी निवृत्तिपूर्वक इष्ट सिद्धि के लिये लोग जिनदेवका पूजन करते हैं । फिर पापाचरणीयोंके लिये उसका निषेध कैसे हो सकता है ? उनके लिये तो ऐसी अवस्थामें, पूजनकी और भी अधिक आवश्यकता प्रतीत होती है। पूजासार ग्रथमें माफ ही लिखा है किः
"ब्रह्मनोऽथवा गोनो वा तस्करः सर्वपापकृत ।
जिनाशिगंधसम्पर्कान्मुक्तो भवति तत्क्षणम् ॥" अर्थात्-जो ब्रह्महत्या या गोहत्या कियेहुए हो, दूसरोंका माल चुरानेवाला चोर हो अथवा इससे भी अधिक सम्पूर्ण पापोंका करनेवाला भी क्यों न हो, वह भी जिनेंद्र भगवान के चरणोंका, भक्तिभावपूर्वक, चंदनादि सुगंध द्रव्योंसे पूजन करनेपर तत्क्षण उन पापोंसे छुटकारा पानेमें समर्थ होजाता है । इससे साफ तौर पर प्रगट है कि पीसे पापी और कलंकीसे कलंकी मनुष्य भी श्रीजिनंद्रदेवका पूजन कर सकता है और भक्ति भावसे जिनदेवका पूजन करके अपने आत्माके कल्याणकी ओर अग्रसर हो सकता है । इस लिये जिस प्रकार भी बन सके सबको निन्यपूजन करना चाहिये। सभी नित्यपूजनके अधिकारी है और इसी लिये ऊपर यह कहा गया था कि इस नित्यपूजनपर मनुष्य, तियंच, स्त्री, पुरुष, नीच, ऊंच, धनी, निर्धनी, व्रती, अवती, राजा, महाराजा, चक्रवर्ती और देवता सबका समानाऽधिकार है । समानाधिकारसे, यहां, कोई यह अर्थ न समझ लेवे कि सब एकसाथ मिलकर, एक थालीमें, एक संदली या चौकीपर अथवा एक ही स्थानपर पूजनकरनेके अधिकारी हैं किन्तु इसका अर्थ केवल यह है कि सभी पूजनके अधिकारी हैं । वे, एक रसोई या भिअभिन्न रसोईयोंसे भोजन करनेके समान, आगे पीछे, बाहर भीतर, अलग और शामिल, जैमा अवसर हो और जसी उनकी योग्यता उनको इजाजत (आज्ञा) दे, पूजन कर सकते हैं।
* जिनपूजा कृता हन्ति पापं नानाभवोद्भवम् । बहुकालचितं काष्ठराशि वह्नि मिवाखिलम् ॥ ९-१०३ ॥
-धर्मसंग्रहश्रावकाचार।
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दस्साधिकार |
यद्यपि अब कोई ऐसा मनुष्य या जाति विशेष नहीं रही जिसके पूजaishaarat मीमांसा की जाय - जैनधर्ममें श्रद्धा और भक्ति रखनेवाले, ऊंच नीच सभी प्रकारके, मनुष्योंको नित्यपूजनका अधिकार प्राप्त है - तथापि इतनेपर भी जिनके हृदय में इस प्रकारकी कुछ शंका अवशेष हो कि दस्से ( गाटे ) जैनी भी पूजन कर सकते हैं या कि नहीं, उनको इतना और समझ लेना चाहिये कि जैनधर्म में 'दस्से' और 'बीसे' का कोई भेद नहीं है; न कहीं पर जैनशास्त्रों में 'दस्से' और 'बीसे' शका प्रयोग किया गया है ।
जिस प्रकार ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र, इन चारों वर्णोंसे बाह्य ( बाहर ) बीसोंका कोई पांचवा वर्ण नहीं है, उसी प्रकार दस्सोंका भी कोई भिन्न वर्ण नहीं है । चारों वर्णोंमे ही उनका भी अन्तर्भाव है । चारो ही वर्णके सभी मनुष्यों को पूजनका अधिकार प्राप्त होनेसे उनको भी वह अधिकार प्राप्त है । वैश्य जातिके दस्सोंका वर्ण वैश्य ही होता है । वे वैश्य होने के कारण शूद्रोसे ऊचा दर्जा रखते है और शूद्र लोग मनुष्य होनेके कारण तिर्यत्रोंसे ऊंचा दर्जा रखते है । जब शूद्र तो शूद्र, तिर्यंच भी पूजनके अधिकारी वर्णन किये गये है और तिर्यच भी कैसे ? मेंडक जैसे ! तब वैश्य जातिके दस्से पूजनके अधिकारी कैसे नहीं ? क्या वे जैनगृहस्थ या श्रावक नहीं होते ? अथवा श्रावकके बारह व्रतोंको धारण नहीं करसकते ? जब दस्से लोग यह सब कुछ होते है और यह सब कुछ अधिकार उनको प्राप्त है, तब वे पूजनके अधिकारसे कैसे वंचित रक्खे जा सकते हैं ? पूजन करना गृहस्थ जैनियोंका परमावश्यक कर्म है। उसके साथ अग्रवाल, खंडेलवाल या परवार आदि जातियोंका कोई बन्धन नहीं है-सबक लिये समान उपदेश है - जैसा कि ऊपर उल्लेख किये हुए आचार्योंके वाक्योंसे प्रगट है । परमोपकारी आचार्योंने तो ऐसे मनुष्यों को भी पूजनाऽधिकार से वंचित नहीं रक्खा, जो आकण्ठ पाप मन हैं और पापीसे पापी कहलाते हैं । फिर
१ वैश्यजातिके दस्सोको छोटीसरण ( श्रेणि) या छोटीसेन के बनिये अथवा विनैकया भी कहते है ।
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वैश्य जातिके दस्सोंकी तो बात ही क्या होसकती है ? श्रीकुन्दकुन्द मुनिराजका तो वचन ही यह है कि विना पूजनके कोई श्रावक हो ही नहीं सकता । दस्से लोग श्रावक होते ही हैं, इससे उनको पूजनका अधिकार स्वतःसिद्ध है और वे बराबर पूजनके अधिकारी हैं।
शोलापुरमें दस्से जैनियोंके बनाये हुए तीन शिखरबन्द मंदिर और अनेक चैत्यालय मौजूद हैं । ग्वालियरमें भी दस्सोंका एक मंदिर है। सिवनीकी तरफ़ दस्से भाईयोंके बहुतसे जैनमंदिर हैं । श्रीसम्मेद शिखर, शत्रुजय, मांगीतुंगी और कुन्थलगिरि तीर्थोपर शोलापुरवाले प्रसिद्ध धनिक श्रीमान् हरिभाई देवकरणजी दस्साके बनायेहुए जिनमंदिर हैं । इन समस्त मंदिर और चैत्यालयोंमें दस्सा, बीसा, सभीलोग बराबर पूजन करते है।
शोलापुरके प्रसिद्ध विद्वान् सेठ हीराचंद नेमिचंदजी आनरेरी मजिष्ट्रेट दस्सा जैनी हैं । उनके घरमें एक चैत्यालय है जिसमें वे और अन्य भाई सभी पूजन करते हैं। इसी प्रकार अन्य स्थानोंपर भी दस्सा जैनियोंके मन्दिर हैं जिनमें सब लोग पूजन करते हैं। जहां उनके पृथक् मंदिर नहीं हैं वहां वे प्रायः बीसोंके मंदिरमें ही दर्शन पूजन करते हैं। ___ यह दूसरी बात है कि कोई एक द्रव्य या दो द्रव्यसे पूजन करनेको अ. थवा मंदिरके वस्त्रों और मंदिरके उपकरणोंमें पूजन न करके अन्य वस्त्रादिकोंमें पूजन करनेको पूजन ही न समझता हो और इसी अभिप्रायके अनुसार कहीं कहींके बीसे अपने मंदिरोंमें दस्सोंको मंदिरके वस्त्र पहनकर
और मंदिरके उपकरणोंको लेकर अष्ट द्रव्यसे पूजन न करने देते हों, परन्तु इसको केवल उनकी कल्पना ही कह सकते हैं-शास्त्र में इसका कोई आधार और प्रमाण नहीं है। पूजन सिद्धान्त और नित्यपूजनके स्वरूपके अनुसार वह पूजन अवश्य है । तीर्थस्थानों और अतिशय क्षेत्रोंकी पूजा वन्दनाको-दस्से बीसे-सभी जाते हैं और सभी अष्टद्रव्यसे पूजन करते हैं।
श्रीतारंगाजी तीर्थपर नानचंद पदमसी नामके एक मुनीम हैं जो दस्सा जैनी हैं। वे उक्त तीर्थपर बीसोंके मंदिरमें-मन्दिरके वस्त्रोंको पहन कर और मंदिरके उपकरणोंको लेकर ही-नित्य अष्ट द्रव्यसे पूजन करते हैं। अन्य स्थानोंपर भी-जहांके बीसोमें इस प्रकारकी कल्पना नहीं है-दस्सा
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जैन बीसोंके मंदिर में उसी प्रकार अष्ट द्रव्यादिसे पूजन करते हैं जिस प्रकार कि वे अपने मंदिरों में करते हैं। जिनको ऐसा देखनेका अवसर न मिला हो वे दक्षिण देशकी ओर जाकर स्वयं देख सकते हैं । उधर जानेपर उनको ऐसी जैनजातियां भी आम तौरपर पूजन करती हुई मिलेंगी जिनमें पुनर्वि वाहकी प्रथा भी जारी है ।
इसके अतिरिक्त दस्सा जैनियोंने अनेक प्रतिष्ठाएँ भी कराई हैं । एक प्रतिष्ठा शोलापुरके सेठ रावजी नानचंदने कराई थी। पिछले साल भी दस्सा जैनियों की दो प्रतिष्ठाएँ हो चुकी हैं । प्रतिष्ठा करानेवाले भगवानकी प्रतिमा के साथ रथादिकमें बैठते हैं और स्वयं भगवानका अष्ट द्रव्यसे पूजन करते है । इसप्रकार प्रवृत्ति भी दस्सोंके पूजनाऽधिकारका भले प्रकार समर्थन करती है । इसलिये दस्सोंको बीसोंके समान ही पूजनका अधिकार प्राप्त है। किसी किसीका कहना है कि अपध्वंसज अर्थात् व्यभिचारजातको ही दस्सा कहते हैं और व्यभिचारजात पूजनके अधिकारी नहीं होते; परन्तु ऐसा कहने में कोई प्रमाण नहीं है । जब प्रवृत्तिकी ओर देखते हैं तो वह भी इसके विरुद्ध पाई जाती है- जो मनुष्य किसी वि. धवा स्त्रीको प्रगट रूपसे अपने घर में डाल लेता है अर्थात् उसके साथ कराओ ( धरेजा ) कर लेता है वह स्वयं व्यभिचारजात (व्यभिचारसे पैदा हुआ मनुष्य) न होते हुए भी दस्सा समझा जाता है । यदि कोई बीसा किसी नीच जाति ( शूद्रादिक ) की कन्यासे विवाह कर लेता है तो वह भी आजकल जातिसे च्युत किया जाकर दस्सा या गाटा बनादिया जाता है और उसकी संतान भी दस्सों में ही परिगणित होती है । इसीप्रकार यदि विधवाके साथ कराओ कर लेनेसे कोई पुत्र पैदा हो और उसका विवाह विधवासे न होकर किसी कन्यासे हो तो विधवा-पुत्रकी संतान व्यभिचारजात न होते हुए भी दस्सा ही कहलाती है । बहुधा वह संतान जो भर्तार के जीवित रहते हुए जारसे उत्पन्न होती है, वह व्यभिचारजात होते हुए भी दस्सों में शामिल नहीं की जाती । कहीं कहींपर दस्सेकी कन्यासे विवाह कर लेनेवाले बीसेको भी जाति से खारिज (च्युत) करके दस्सोंमें शामिल कर देते हैं; परन्तु बम्बई और दक्षिण प्रान्तादि बहुतसे स्थानोंमें यह प्रथा नहीं है । वहांपर दस्सों और बीसो में परस्पर
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विवाह संबंध होने से कोई जातिच्युत नहीं किया जाता । हमारी भारतवर्षीय दिगम्बर जैन महासभा के सभापति, जैनकुलभूषण श्रीमान सेठ माणिकचंदजी जे. पी. बम्बईके भाई पानाचंदजीका विवाह भी एक दुस्सकी कन्या से हुआ था; परन्तु इससे उनपर कोई कलंक नहीं आया और कलंक आने की कोई बात भी न थी । प्राचीन और समीचीन प्रवृत्ति भी, शास्त्रोंम, ऐसी ही देखी जाती है जिससे ऐसे विवाह सम्बन्धोंपर कोई दोषारोपण नहीं हो सकता । अधिक दूर जानेकी ज़रूरत नहीं है । श्रीनेमिनाथ तीर्थकरके चचा वसुदेवजीको ही लीजिये । उन्होंने एक व्यभिचारजातकी पुत्रीसे, जिसका नाम प्रियंगुसुंदरी था, विवाह किया था । प्रियंगु सुंदरी के पिताका अर्थात् उस व्यभिचारजातका नाम एणीपुत्र था । वह एक तापसी की कन्या ऋषिदत्तासे, जिससे श्रा वस्ती नगरीके राजा शीलायुधने व्यभिचार किया था और उस व्यभिचारसे उक्त कन्याको गर्भ रह गया था, उत्पन्न हुआ था । यह कथा श्रीजिनसेनाचार्यकृत हरिवंशपुराणमें लिखी है। इस विवाह से वसुदेवजीपर, जो बड़े भारी जैनधर्मी थे कोई कलंक नहीं आया । न कहींपर वे पूजनाधिकारसं वंचित रखे गये | बल्कि उन्होंने श्रीनेमिनाथजी के समवसरणमे जाकर साक्षात् श्रीजिनेंद्रदेवका पूजन किया है और उनकी उक्त प्रियंगु सुंदरी राणीने जिनदीक्षा धारण की है। इससे प्रगट है कि व्यभिचारजातंहीका नाम दस्सा नहीं है और न कोई व्यभिचारजात ( अपध्वंसज ) पूजनाऽधिकारसे वंचित है । "शूद्राणां तु सधर्माणः सर्वेऽपध्वंसजाः स्मृताः" अर्थात् समस्त अपध्वंसज ( व्यभिचार से उत्पन्न हुए मनुष्य ) शूद्रोंके समानधर्मी हैं, यह वाक्य यद्यपि मनुस्मृतिका है; परन्तु यदि इस वाक्यको सत्य भी मान लिया जाय और अपध्वंसजोहीको दस्से समझ लिया जाय, तो भी वे पूजनाधिकार से वंचित नहीं हो सकते । क्योंकि शूद्रोंको साफ तौरसे पूजनका अधिकार दिया गया है, जिसका कथन ऊपर विस्तारके साथ आचुका है । जब शूद्रोंको पूजनका अधिकार प्राप्त है, तब उनके समानधर्मियोंको उस अधिकारका प्राप्त होना स्वतः सिद्ध है। 1
१ व्यभिचारजात भी दस्सा होता है ऐसा कह सकते हैं ।
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I
और पूजनका अधिकार ही क्या ? जैनशास्त्रोंके देखनेसे तो मालूम होता है कि अपध्वंसज लोग जिनदीक्षातक धारण कर सकते हैं, जिसकी अधि कार प्राप्ति शूत्रों को भी नहीं कही जाती । उदाहरणके तौरपर राजा कर्णहीको लीजिये । राजा कर्ण एक कुँवारी कन्यासे व्यभिचारद्वारा उत्पन्न हुआ था और इस लिये वह अपध्वंसज और कानीन कहलाता है। श्रीजिनलेनाचार्यकृत हरिवंशपुराणमें लिखा है कि महाराजा जरासिंधके मारे जानेपर राजा कर्ण ने सुदर्शन नामके उद्यानमें जाकर दमवर नामके दिगम्बर मुनिके निकट जिनेश्वरी दीक्षा धारण की। श्रीजिनदास झ चारीकृत हरिवंशपुराण में भी ऐसा ही लिखा है, जैसा कि उसके निम्नलिखित लोकसे प्रगट है:
―――
“विजितोऽप्यरिभिः कर्णो निर्विण्णो मोक्षसौख्यदाम् । दीक्षां सुदर्शनोयाग्रहीद्दमवरान्तिके ।। २६-२०८ ॥"
अर्थात् — शत्रुओंसे विजित होनेपर राजा कर्णको वैराग्य उत्पन्न होगया और तब उन्होंने सुदर्शन नामके उद्यानमें जाकर श्रीदमवर नामके " मुनिके निकट, मोक्षका सुख प्राप्त करानेवाली, जिनदीक्षा धारण की ।
इससे यह भी प्रगट हुआ कि अपध्वंसज लोग अपने वर्णको छोड़कर शूद्र नहीं हो जाते; बल्कि वे शूद्रोंसे कथंचित् ऊंचा दर्जा रखते हैं और इसीलिये दीक्षा धारण कर सकते हैं। ऐसी अवस्थामें उनका पूजना - faare और भी निर्विवाद होता है ।
यदि थोड़ी देरके लिये व्यभिचारजातको पूजनाऽधिकारसे वंचित रक्खा जावे तो कुंड, गोलक, कानीन और सहोढादिक सभी प्रकारके व्यभिचारजात पूजनाऽधिकारसे वंचित रहेंगे-भतरके जीवित रहनेपर जो संतान जारसे उत्पन्न होती है; वह कुंड कहलाती है । भर्त्तारके मरे पीछे जो संतान जारसे उत्पन्न होती है उसको गोलक कहते हैं । अपनी माताके घर रहनेवाली कुँवारी कन्यासे व्यभिचारद्वारा जो संतान उत्पन्न होती है वह कानीन कही जाती है और जो संतान ऐसी कुँवारी कन्याको गर्भ रह जानेके पश्चात् उसका विवाह हो जानेपर उत्पन्न होती है, उसको सहोढ कहते हैं- इन चारों भेदोंमेंसे गोलक और कानीनकी परीक्षा जि०
० पू० ४
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(पचान) तथा प्रायः सहोढकी परीक्षा भी आसानीसे ले सकती है। परन्तु कुंडसंतानकी परीक्षाका और खासकर ऐसी कुंडसंतानकी परीक्षाका, कोई साधन नहीं है, जो भर्तारके बारहों महीने निकट रहते हुए (अर्थात् परदेशमें न होते हुए) उत्पन्न हो । कुंडकी माताके सिवा और किसीको यह रहस्य मालूम नहीं हो सकता । बल्कि कभी कभी तो उसको भी इसमें प्रम होना संभव है-वह भी ठीक ठीक नहीं कह सकती कि यह संतान जारसे उत्पन्न हुई या असली भर्तारसे । व्यभिचारजातको पूजनाऽधिकारसे वंचित करनेपर कुंडसंतान भी पूजन नहीं कर सकती,
और कुंड संतानकी परीक्षा न हो सकनेसे संदिग्धावस्था उत्पन्न होती है। संदिग्धाऽवस्थामें किसीको भी पूजन करनेका अधिकार नहीं होसकता। इससे पूजन करनेका ही अभाव सिद्ध हो जायगा, यही बड़ी भारी हानि होगी। अतः कोई व्यभिचारजात पूजनाऽधिकारसे वंचित नहीं होसकता । दूसरे जब पापीसे पापी मनुष्य भी नित्यपूजन कर सकते हैं तो फिर कोरे व्यभिचारजातकी तो बात ही क्या हो सकती है ? वे अवश्य पूजन कर सकते हैं।
वास्तवमें, यदि विचार किया जाय तो, जैनमतके पूजनसिद्धान्त और नित्यपूजनके स्वरूपाऽनुसार, कोई भी मनुष्य नित्यपूजनके अधिकारसे वंचित नहीं रह सकता । जिन लोगोंने परमात्माको रागी, द्वेषी माना हैपूजन और भजनसे परमात्मा प्रसन्न होता है, ऐसा जिनका सिद्धान्त है और जो आत्मासे परमात्मा बनना नहीं मानते, यदि वे लोग शूद्रोंको या अन्य नीच मनुष्योंको पूजनके अधिकारसे वंचित रक्खें तो कुछ आश्चर्य नहीं क्योंकि उनको यह भय हो सकता है कि कहीं नीचे दर्जेके मनुष्योंके पूजन कर लेनेसे या उनको पूजन करने देनेसे परमात्मा कुपित न हो जावे और उन सभीको फिर उसके कोपका प्रसाद न चखना पड़े । परन्तु जैनियोंका ऐसा सिद्धान्त नहीं है । जैनी लोग परमात्माको परमवीतरागी, शान्तस्वरूप और कर्ममलसे रहित मानते हैं । उनके इष्ट परमात्मामें राग, द्वेष, मोह और काम, क्रोधादिक दोषोंका सर्वथा अभाव है। किसीकी निन्दा-स्तुतिसे उस परमात्मामें कोई विकार उत्पन्न नहीं होता और न उसकी वीतराग्ता या शान्ततामें किसी भी कारणसे कोई बाधा उपस्थित
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हो सकती है । इसलिये किसी क्षुद्र या नीचे दर्जेके मनुष्यके पूजन कर लेनेसे परमात्मा की आत्मामें कुछ मलिनता आ जायगी, उसकी प्रतिमा अपूज्य हो जायगी, अथवा पूजन करनेवालेको कुछ पाप बन्ध हो जायगा, इस प्रकारका कोई भय ज्ञानवान् जैनियोंके हृदयमें उत्पन्न नहीं हो सकता । जैनियोंके यहां इस समय भी चांदनपुर ( महावीरजी ) आदि अनेक स्थानोंपर ऐसी प्रतिमाओंके प्रत्यक्ष दृष्टान्त मौजूद हैं, जो शूत्र या बहुत नीचे दर्जेके मनुष्योंद्वारा भूगर्भसे निकाली गईं-स्पर्शी गई-पूजी गई और पूजी जाती हैं, परन्तु इससे उनके स्वरूपमें कोई परिवर्तन नहीं हुआ, न उनकी पूज्यतामें कोई फर्क ( भेद ) पड़ा और न जैनसमाजको ही उसके कारण किसी अनिष्टका सामना करना पड़ा; प्रत्युत वे बराबर जैनियोंहीसे नहीं किन्तु अजैनियोंसे भी पूजी जाती है और उनके द्वारा सभी पूजकों का हितसाधन होनेके साथ साथ धर्मकी भी अच्छी प्रभावना होती है । अतः जैन सिद्धान्तके अनुसार किसी भी मनुष्यके लिये नित्यपूजनका निषेध नहीं हो सकता । दस्सा, अपध्वंसज या व्यभिचारजात सबको इस पूजनको पूर्ण अधिकार प्राप्त है । यह दूसरी बात है कि – अपने आन्तरिक द्वेष, आपसी वैमनस्य, धार्मिक भावोंके अभाव और हृदयकी संकीर्णता आदि कारणोंसे - एक जैनी किसी दूसरे जैनीको अपने घरू या अपने अधिकृत मंदिरमे ही न आने दे अथवा आने तो दे किन्तु उसके पूजन कार्य में किसी न किसी प्रकारसे वाधक हो जावे । ऐसी बातोंसे किसी व्यक्तिके पूजनाऽधिकारपर कोई असर नहीं पड़ सकता । वह व्यक्ति खुशीसे उस मंदिर में नहीं तो, अन्यत्र पूजन कर सकता है । अथवा स्वयं समर्थ और इस योग्य होनेपर अपना दूसरा नवीन मंदिर भी बनवा सकता है । अनेक स्थानोंपर ऐसे भी नवीन मंदिरोंकी सृष्टिका होना पाया जाता है ।
यहांपर यदि यह कहा जावे कि आगम और सिद्धान्तसे तो दस्सों को पूजनका अधिकार सिद्ध है और अधिकतर स्थानोंपर वे बराबर पूजन करते भी हैं; परन्तु कहीं कहीं पर दस्सोंको जो पूजनका निषेध किया जाता है वह किसी जातीय अपराधके कारण एक प्रकारका तत्रस्थ जातीय दंड है; तो कहना होगा कि शास्त्रोंकी आज्ञाको उल्लंघन करके धर्मगुरुओंके उद्देश्य विरुद्ध ऐसा दंड विधान करना कदापि न्यायसंगत और माननीय नहीं हो सकता
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और न किसी सभ्य जातिकी ओरसे एसी आज्ञाका प्रचारित किया जाना समुचित प्रतीत होता है कि अमुक मनुष्य धर्मसेवनसे वंचित किया गया और उसकी संतानपरम्परा भी धर्मसेवनसे वंचित रहेगी।
सांसारिक विषयवासनाओंमें फंसे हुए मनुष्य वैसे ही धर्म कार्यों में शिथिल रहते हैं, उलटा उनको दंड भी ऐसा ही दिया जावे कि वे धर्मके कार्य न करने पावें, यह कहांकी बुद्धिमानी, वत्सलता और जातिहितैषिता हो सकती है ? सुदूरदर्शी विद्वानोंकी दृष्टिमें ऐसा दंड कदापि आदरणीय नहीं हो सकता । ऐसे मनुष्योंके किसी अपराधके उपलक्षमें तो वही दंड प्रशंसनीय हो सकता है जिससे धर्मसाधन और अपने आत्म-सुधारका और अधिक अवसर मिले और उसके द्वारा वे अपने पापोंका शमन या संशोधन कर सकें। न यह कि डूबतेको और धक्का दिया जावे! बिरादरी या जातिका यह कर्तव्य नहीं है कि वह किसीसे धर्मके कार्य छुड़ाकर उसको पापकार्योंके करनेका अवसर देवे । __ इसके सिवा जो धर्माऽधिकार किसीको स्वाभाविक रीतिसे प्राप्त है उसके छीन लेनेका किसी बिरादरी या पंचायतको अधिकार ही क्या है ? बिरादरीके किसी भाईसे यदि बिरादरीके किसी नियमका उल्लंघन हो जावे या कोई अपराध बन जावे तो उसके लिये बिरादरीका केवल इतना ही कर्तव्य हो सकता है कि वह उस भाईपर कुछ आर्थिक दंड कर देवे या उसको अपने अपराधका प्रायश्चित्त लेनेके लिये बाधित करे और जबतक वह अपने अपराधका योग्य प्रायश्चित्त न ले ले तबतक बिरादरी उसको बिरादरीके कामोंमें अर्थात् विवाह शादी आदिक लौकिक कार्योंम शामिल न करे और न बिरादारी उसके यहां ऐसे कार्यों में सम्मिलित हो । इसीप्रकार वह उससे खाने पीने लेने देने और रिश्तेनातेका सम्बध भी छोड़ सकती है। परन्तु, इससे अधिक, धर्ममें हस्तक्षेप करना बिरादरीके अधिकारसे बाह्य है और किसी बिरादरीके द्वारा ऐसा किये जानेका फलितार्थ यही हो सकता है कि वह बिरादरी, एक प्रकारसे, अपने पूज्य धर्मगुरुओंकी अवज्ञा करती है।
जिन लोगों (जैनियों) के हृदयमें ऐसे दंडविधानका विकल्प उत्पन्न हो उनको यह भी समझना चाहिये कि किसीके धर्मसाधनमें विघ्न
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करना बड़ा भारी पाप है । अंजनासुंदरीने अपने पूर्वजन्ममें थोड़े ही कालके लिये, जिनप्रतिमाको छिपाकर, अपनी सौतनके दर्शन पूजनमें अंतराय डाला था। जिसका परिणाम यहांतक कटुक हुआ कि उसको अपने इस जन्ममें २२ वर्षतक पतिका दुःसह वियोग सहना पड़ा और अनेक संकट और आपदाओंका सामना करना पड़ा, जिनका पूर्ण विवरण श्रीपद्मपुराणके देखनेसे मालूम हो सकता है
1
कुष्ट,
रयणसार ग्रंथ में श्री कुन्दकुन्द मुनिराजने लिखा है कि "दूसरोंके पूजन और दानमें अन्तराय ( विघ्न) करनेसे जन्मजन्मान्तरमें क्षय, शूल, रक्तविकार, भगंदर, जलोदर, नेत्रपीड़ा, शिरोवेदना आदिक रोग तथा शीत उष्णके आताप और ( कुयोनियोंम ) परिभ्रमण आदि अनेक दुःखोंकी प्राप्ति होती है ।" यथा:
“खयकुट्टसूलमूलो लोयभगंदरजलोदरक्खिसि । सीदुहबझराइ पूजादाणंतरायकम्मफलं ।। ३३ ।।”
इसलिये पापोंसे डरना चाहिये और किसीको दंडादिक देकर पूजनसे वंचित करना तो दूर रहो, भूल कर भी ऐसा कार्य नहीं करना चाहिये जिससे दूसरोंके पूजनादिक धर्मकार्यों में किसी प्रकार से कोई बाधा उपस्थित हो । बल्कि ---
उपसंहार |
उचित तो यह है कि, दूसरोंको हरतरहसे धर्मसाधनका अवसर दिया - जाय और दूसरोंकी हितकामनासे ऐसे अनेक साधन तैयार किये जाँय जिनसे सभी मनुष्य जिनेन्द्रदेवके शरणागत हो सकें और जैनधर्ममें श्रद्धा और भक्ति रखते हुए खुशीसे जिनेन्द्रदेवका नित्यपूजनादि करके अपनी आत्माका कल्याण कर सकें ।
इसके लिये जैनियोंको अपने हृदयकी संकीर्णता दूरकर उसको बहुत कुछ उदार बनानेकी ज़रूरत है । अपने पूर्वजोंके उदार चरितोंकों पढ़कर, जैनियोंको, उनसे तद्विषयक शिक्षा ग्रहण करनी चाहिये और उनके अनुकरणद्वारा अपना और जगतके अन्य जीवोंका हितसाधन करना चाहिये ।
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भगवजिनसेनाचार्यप्रणीत आदिपुराणको देखनेसे मालूम होता है कि आदीश्वर भगवानके सुपुत्र भरतमहाराज, प्रथम चक्रवर्तीने अपनी राजधानी अयोध्यामें रत्नखचित जिनबिम्बोंसे अलंकृत चौबीस चौबीस घंटे तय्यार कराकर उनको, नगरके बाहरी दरवाजों और राजमहलोंके तोरणद्वारों तथा अन्य महाद्वारोंपर, सोनेकी जंजीरोंमें बांधकर प्रलम्बित किया था। जिससमय भरतजी इन द्वारोंमेंसे होकर बाहर निकलते थे या इनमें प्रवेश करते थे उससमय वे तुरन्त अर्हन्तोंका स्मरण करके, इन घंटोंमें स्थित अर्हत्प्रतिमाओंकी वन्दना और उनका पूजन करते थे। नगरके लोगों तथा अन्य प्रजाजनने भरतजीके इस कृत्यको बहुत पसंद किया, वे सब उन घंटोंका आदर सत्कार करने लगे और उसके पश्चात् पुरजनोंने भी अपनी अपनी शक्ति और विभवके अनुसार उसी प्रकारके घंटे अपने अपने घरोंके तोरणद्वारोंपर लटकाये*। भरतजी. का यह उदारचरित बड़ा ही चित्तको आकर्षित करनेवाला है और इस (प्रकृत) विषयकी बहुत कुछ शिक्षाप्रदान करनेवाला है । उनके अन्य
* उपर्युक्त आशयको प्रगट करनेवाले आदिपुराण (पर्व ४१) के वे आर्षवाक्य इसप्रकार है:
"निर्मापितास्ततो घंटा जिनबिम्बैरलंकृताः। परार्ध्यरत्ननिर्माणाः सम्बद्धा हेमरज्जुभिः ॥ ८७ ॥ लम्बिताश्च बहिर्वारि ताश्चतुर्विशतिप्रमाः। राजवेश्ममहाद्वारगोपुरेष्वप्यनुक्रमात् ॥ ८८ ॥ यदा किल विनिर्याति प्रविशत्यप्ययं प्रभुः। तदा मौलाग्रलग्नाभिरस्य स्थादर्हतां स्मृतिः ॥ ८९ ॥ स्मृत्वा ततोऽहंदर्चानां भक्त्या कृत्वाभिवन्दनाम्।। पूजयत्यभिनिष्क्रामन् प्रविशंश्च स पुण्यधीः ॥९० ॥ रत्नतोरणविन्यासे स्थापितास्ता निधीशिना । दृष्वाऽईद्वन्दनाहेतोलोकोऽप्यासीत्कृतादरः॥९३ ॥ पौरैर्जनैरतः स्वेषु वेश्मतोरणदामसु । यथाविभवमाबद्धा घंटास्ताः सपरिच्छदाः ॥ ९४ ॥
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उदार गुणों और चरितोंका बहुत कुछ परिचय आदिपुराणके देखनेसे मिल सकता है। इसीप्रकार और भी सैकड़ों और हजारों महात्माओंका नामोल्लेख किया जा सकता है । जैनसाहित्यमें उदारचरित महात्माओंकी कमी नहीं है । आज कल भी जो अनेक पर्वतोंपर खुले मैदानमें तथा गुफाओंमें जिनप्रतिमाएँ विराजमान है और दक्षिणादिदेशोंमें कहीं कहींपर जिनप्रतिमाओंसहित मानस्तंभादिक पाये जाते हैं, वे सब जैन पूर्वजोंकी उदार चित्तवृत्तिके ज्वलन्त दृष्टान्त हैं । उदारचरित महात्माओंके आश्रित रहनेसे ही यह जैनधर्म अनेकबार विश्वव्यापी हो चुका है । अब भी यदि राष्ट्रधर्मका सेहरा किसी धर्मके सिर बंध सकता है तो वह यही धर्म है जो प्राणीमात्रका शुभचिन्तक है । ऐसे धर्मको पाकर भी हृदयमें इतनी संकीर्णता और स्वार्थपरताका होना, कि एक भाई तो पूजन कर सके और दूसरा भाई पूजन न करने पावे, जैनियोंके लिये बड़ी भारी लज्जाकी बात है। जिन जैनियोंका, “वसुधैव कुटुम्बकम्," यह खास सिद्धान्त था; क्या वे उसको यहांतक भुला बैठे कि अपने सहधर्मियोंमें भी उसका पालन और वर्ताव न करें! जातिभेद या वर्णभेदके कारण आपसमें ईर्षा द्वेष रखना, एक दूसरेको घृणाकी दृष्टि से अवलोकन करना और अपने लौकिक कार्योंसंबंधी कपायको धार्मिक कार्यों में निकालना, ये सब जैनियोंके आत्म-गौरवको नष्ट करनेवाले कार्य हैं । जैनियोंको इनसे बचना चाहिये और समझना चाहिये कि ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ये चारों वर्ण अपनी अपनी क्रियाओं (वृत्ति) के भेदकी अपेक्षा वर्णन किये गये हैं। वास्तवमें चारों ही वर्ण जैनधर्मको धारण करने एवं जिनेंद्रदेवकी पूजा उपासना करनेके योग्य हैं और इस सम्बन्धसे जैनधर्मको पालन करते हुए सब आपसमें भाई भाईके समान हैं * । इसलिये, हृदयकी संकीर्णताको त्यागकर धार्मिक कार्योंके अनुष्ठानमें सब जैनियोंको परस्पर
१ समस्त भूमंडल अपना कुटुम्ब है । *"विप्रक्षत्रियविट्शूद्राः प्रोक्ताः क्रियाविशेषतः । जैनधर्मे पराः शक्तास्ते सर्वे बान्धवोपमाः ॥"
-सोमसेनाचार्य।
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बन्धुताका बर्ताव करना चाहिये और आपसमें प्रेम रखते हुए एक दूसरेके धर्मकाय में सहायक होना चाहिये । इसीप्रकार जो लोग जैनधर्म की शरणमें आवें या आना चाहें, ऐसे नवीन जैनियों या आत्महितैषियोंका सच्चे दिलसे अभिनन्दन करते हुए, उनको सब प्रकारसे धर्मसाधनमें सहायता देनी चाहिये ।
आशा है कि हमारे विचारशील निष्पक्ष विद्वान् और परोपकारी भाई इस मीमांसाको पढ़कर सत्यासत्यके निर्णय में दृढता धारण करेंगे और अपने कर्त्तव्यको समझकर जहां कहीं, सुशिक्षाके अभाव और संसर्गदोषके कारण, आगम और धर्मगुरुभोंके उद्देश्यविरुद्ध प्रवृत्ति पाई जावे उसको उठाने और उसके स्थानमें शास्त्रसम्मत समीचीन रीतिका प्रचार करनेमें दत्तचित्त और यनशील होंगे । इत्यलं विज्ञेषु ।
निष्पक्ष विद्वानोंका चरणसेवकजुगलकिशोर जैन, मुखतार
समाप्त.
देवबन्द जि० सहारनपुर ।
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श्रीपरमात्मने नम
REPunmandu
श्रुतावतारकथा
श्रुनस्कन्धविधानादि.
जिसको चावली (आगग) निवासी
लालाराम जैनन मंग्रह करके अनुवादित व मंशोधन किया ।
मुम्बयीस्थ-जैनहि लैपी कार्यालयने 'पार्वतीवरदा प्रपमें छपाकर
प्रकाशित किया.
वीनिर्माण संवन २४३४. ईस्वी सन् १९०८. मबार २१०० प्रति ) नं. ४. (मृन्य ३ आने
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भूमिका।
" जिस जातिमें अपने पूर्व पुरुषोंके गौरवका अभिमान नहीं है, जो अपने जातीय त्योहारोंका अनादर करती है, वह जाति बहुत शीघ्र नष्ट होजाती है, उसकी गणना जीवित जातियोंमें नहीं हो सकती।" विचारशील विद्वानोंक उपर्युक्त वाक्योंकी ओर हम अपने जैनसमाजका चित्त आकर्षित करते हैं और प्रेरणा करते हैं कि, वह अपने इस अधःपतनके समयमें एक बार एकान्तमें बैठकर विचार करै कि, हमारे हृदयम पूर्व पुरुखाओंका कितना गौरव है ? हम ऐसे कितने महात्माओंके नाम जानते है, जिन्होंने हमारे लिये अनंत परिश्रम किया है, हमारे जातीय त्योहार कौन २ हैं, और उनमेंसे हम किन २ का आदर करते हैं. तथा अपनी जातीयताकी रक्षा करनेके लिये हमारे पास इस समय क्या २ साधन हैं । आशा है कि इन विषयोंका अनुशीलन करनेसे समाजमें अपने खोये हुए गौरवको प्राप्त करनेके लिये उत्सुकता उत्पन्न हुए बिना नहीं रहेगी।
पाठक महाशय : आज जो यह छोटासा किन्तु अनन्त उपकारी ग्रन्थ आपके समक्ष है. एक जातीय प्राचीन पर्वका स्मरण कराने के लिये, उसका गौरव प्रगट करने के लिये और उसका लुप्त हुआ प्रचार पुनः प्रचलित करने के लिये प्रकाशित किया जाता है । इसमें जैनागमका अवतार संसार में किस प्रकारसे हुआ इस विषयका इतिहास है।
जुलुस __ आपको स्मरण होगा कि श्रुतपंचमी पर्वका उत्सव प्रचलित कानावें । लिये अनेक वर्षों से आन्दोलन किया जा रहा है. परन्तु उसका शास्त्री
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इतिहास तथा अभिप्राय सर्व साधारणपर प्रगट नहीं है, इसलिये आन्दोलनकी जैसी चाहिये, वैसी सफलता नहीं हुई । यह देखकर हमने यह ग्रन्थ सरस्वनीसेवक पन्नालालजी बाकलीवालके अनुरोधसे अनुवादित गया किया है। आशा है कि, इसके एक बार पाठ करनेसे प्रत्येक मनुष्य इस पर्वके करने के लिये उत्सुक होगा । ___ पाठक देखेंगे कि, हमारे पवित्र धर्ममें पहले कैसे २ ऋषिमहर्षि होगये हैं और उन्होंने कैसे २ महान् ग्रन्थ निर्माण किये थे। हमारे प्रमादसे आज उन ग्रन्योंकी प्राप्ति तो कहां, उनके नाम जाननेवाले भी संसारमें न रहे । हाय ! जिन सिद्धान्तोंकी रक्षाके लिये संसारत्यागी निर्ममत्व महात्मा धरसेन जीको अतिशय आकुलता हुई थी, उनकी खोज करनेके लिये-शक्ति रहते भी उनका उद्धार करनेके लिये-हमारी प्रवृत्ति नहीं होती. जिनशास्त्रों के प्रभावसे आजतक संसारमें हमारे धर्मका अस्तित्व है, अन्यान्य धर्मवाले उदंड विद्वान, जिनके पाठसे गर्वगलित होजाते थे और मुक्तकंठसे जैनधर्मकी प्रशंसा करके उसके अनुयायी हो जाते थे, उन्हीं ग्रन्थों की आज ऐसी दुर्दशा है कि, देखकर रोना आता है । आज ये ही अपूर्व ग्रन्थ किसी दूसरी जीवित जातिके हाथमें होते तो वह संसारमें जैनधर्मकी धूम मचा देती। ___ अवश्य ही हम लोगोंके हृदयसे जिनवाणी माताका गौरव नष्ट हो गया है । अपने आचार्योंकी वृत्तिका अभिमान विलुप्त होगया है। नहीं तो उदारशील कहलाकर प्रतिवर्ष करोड़ों रुपये धर्ममें लगाकर भी हमारी जाति का एक पैसा ग्रन्थजीर्णोद्धारके नहीं लगता. यह बात कब संभव होसकती थी ? आज एक का लाल ऐसा नहीं दिखता है, जिसने किसी एक विलुप्त
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हुए नामशेष ग्रन्थका किसी प्रकारसे भी जीर्णोद्धार कराया हो। यह कितनी लज्जाकी बात है, कि लाखों प्राचीन ग्रन्थों के स्वामी होकर भी जैनी लोग एक ऐसा सरस्वतीभंडार स्थापित नहीं कर सकते हैं, जिसमें हजार दोहजार ग्रंथोंका संग्रह हो । श्रुतावतारका पाठ करके-श्रुतपंचमीके भूलेहुए पर्वको पुनः प्रचलित करके-हमको आशा है कि जैनियोंमें शास्त्रोंके जीर्णोद्धारकी चर्चा होने लगेगी. और थोडे ही दिनोंमें हमको एक दो बडे २ भारी सरस्वतीभंडारोंको स्थापित देखने का सौभाग्य प्राप्त हो जावेगा। __पूर्वकालमें हमारे यहां सर्वत्र इस पर्वका उत्सव मनाया जाता था. और इसीसे उत्तेजित होकर लोग ग्रन्थों के संग्रह करनेमेंजीर्णोद्धार कराने में लाखों रुपये खर्च करते थे। ईडर, जैसलमेर, कामा, कारंजा, नागौर, सौनागिरजी, आमेर, जयपुर, कोल्हापुर, आदि स्थानों के भंडार; जिनमें दो २ तीन २ हजार ग्रन्थ संग्रहीत हैं इस विषयके प्रत्यक्ष जीवित उदाहरण है । वे लोग धन्य हैं, जिनकी सच्ची उदारतासे सरम्वती माताकी भक्तिसे आज हमको इस बात के कहने का साहस होता है कि, लाखों ग्रन्थों के नष्ट होजानेपर भी जैनियोंमें अभी इतने ग्रन्थ मौजूद हैं कि, दश पांच लाख रुपये लगाने पर भी उनका उद्धार करना कठिन है । ___ हम अपनी जाति के विद्वानोंसे मुखियोंसे प्रार्थना करते हैं कि, वे इस वर्ष प्रयत्न करके प्रत्येक नगर और ग्राममें इस पर्वको प्रचलित करें । श्रुतपंचमी के दिन प्रत्येक मंदिरमें जिनवाणी माताकी विधिपूर्वक पूजा करें, स्तुति करें, अन्यविस्तार करके जुलूस निकालें, और इस श्रुतावतारकी पवित्र कथा को पढ़कर सुनावे । उस दिन प्रत्येक भाई को प्रत्येक मंदिरके तथा अपने गृहके शास्त्रों
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को खोलकर धूप दिखाना चाहिये. यदि वेष्टन जीर्ण बदलकर नये बांधना चाहिये । इसके सिवाय उस शक्ति के अनुसार नवीन ग्रन्थ लिखवाकर अथवा छपे हुए • मंगाकर मंदिरजीको तीथोंको, गृहत्यागियोंको विद्यार्थियोंको तथा असमर्थ श्रावक श्राविकाओंको भेंट करना चाहिये क्योंकि शास्त्रदान के समान संसार में कोई भी दान नहीं है ।
यह ग्रन्थ श्रीइन्द्रनंदि आचार्यकृत मूलग्रन्थका अनुवाद है । हम चाहते थे कि, इसको विस्तृत ऐतिहासिक टिप्पणियोंसे अलंकृत करके प्रकाशित करें. जिससे हमारा सच्चा इतिहासका सर्व साधारण में प्रचार हो | परन्तु श्रुतपंचमी बहुत समीप आगई हैं. इसकारण अवकाशके और उपयुक्त साधनों के अभाव से हमारी उक्त इच्छा पूर्ण नहीं हुई । यदि समाजने हमारे इस छोटेसे परिश्रमका सत्कार किया और श्रुतपंचमीका पर्व प्रचलित होगया तो बहुत शीघ्र हम विस्तृत रूप से इस ग्रन्थको प्रकाशित करने का उद्यम करेंगे।
होगये हों तो
दिन अपनी
अन्तमें सरस्वतीजनक श्रीजिनेन्द्रदेव से यह प्रार्थना करके हम इस भूमिकाको समाप्त करते हैं कि इसके द्वारा हमारे समाज में जिनवाणी माता की भक्तिका प्रवाह बढ़े और उसमें पड़कर हम लोग भगवान भट्टाकलंक समन्तभद्रादि महात्माओं के स्मारक बनाने तथा उनकी जयन्तियां मनानेके लिये तत्पर हो जावें । समाजमें ऐसी बुद्धि उत्पन्न हो जावे कि, हमारी उन्नति तब ही होगी. जब कि हम जिनवाणी माताकी सच्ची सेवा करेंगे, और अपने ऋषि महर्षियोंके परिश्रमका सत्कार करना सखेिंगे ।
सरस्वतीसेवक
बम्बई.
अक्षयतृतीया श्रीवीर नि० संवत् २४३४
}
चावली ( आग्रा ) निवासी श्री लालाराम गुप्त ।
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ॐ नम सिद्धेभ्यः ।
अथ श्रुतावतारकथा लिख्यते ।
मंगलाचरण |
सर्वनाकीन्द्रवन्दितकल्याणपरं परं देवम् । प्रणिपत्यवर्धमानं श्रुतस्य वक्ष्येऽहंमवतारम् ॥ १ ॥ यद्यपि श्रुत अनादि निधन है । अर्थात् अनादिकाल से है और अनन्तकाल तक रहैगा परन्तु यहां पर कालके आश्रयसे जो उसका अनेक बार उत्पाद और विनाश हुआ है, उसका वर्णन करते हैं || २ || इस भरतक्षेत्रमें अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी नामके दो काल प्रवर्तते रहते हैं जिनमें कि निरन्तर जीवोंके शरीर की उंचाई और आयुमें न्यूनाधिकता हुआ करती है || ३ || अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी कालकी स्थिति पृथक् २ दश कोड़ाकोडी सागरकी है । दोनों की स्थिति के कालको कल्पकाल कहते हैं ॥ ४ ॥ इस समय अवसर्पिणी काल प्रवर्तमान हो रहा है । कालके भेद जाननेवाले गणधरदेवने इसके छह भेद बतलाये हैं; सुषमसुषमा, सुषमा, सुषमदुःषमा, दुःषमसुषमा, दुषमा और दुःषमदुःषमा । इनमें से पहला चार कोड़ाकोडी सागरका, दूसरा तीन कोड़ा कोडी सागरका, तीसरा दो कोड़ा कोड़ीका, चौथा व्यालीस हजार वर्ष न्यून एक कोड़ाकोडी सागरका, पांचवां इक्कीस हजार वर्षका और छट्ठा इक्कीस हजार वर्षका ॥ ९ ॥ पहले कालमें मनुष्यों की उंचाई छह हजार धनुष, दूसरेमें चार हजार धनुष, हजार धनुष, चौथेमें पांचसौ धनुष पांचवेमें सात हाथ और छठेमें
तीसरेमें दो
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अरनिप्रमाण होती है और उन मनुष्योंकी आयु पहले कालमें तीन पल्य, दूसरेमें दो पल्य, तीसरेमें एक पल्य, चौथेमें एक करोड़ वर्ष पूर्व पांचवेमें एकसौ वीस वर्ष और छठेमें बीस वर्ष होती है ॥ १० ॥ ११॥
पहले दो काल बीत जानेपर और तीसरे कालमें पत्यका आठवाँ भाग शेष रहजानेपर प्रतिश्रुति, सन्मति, क्षेमकर, क्षेमंधर, सीमंकर, सीमंधर, विमल वाहन, चक्षुप्मान, यशम्बान, अभिचन्द्र, चन्द्राभ, मरुदेव, प्रसेनजित और नाभिराय इन चौदह कुलकरोंकी उत्पत्ति हुई। इन्होंने अपने प्रतापसे हा ! मा : धिक् ! इन शब्दोंसे ही पृथ्वीका शासन किया अर्थात् उन्हें यदि कभी दंड देनेकी आवश्यकता होती थी, तो इन शब्दोंका व्यवहार कर. ते थे । पहले पांच कुलकरोंने ' हा शब्दसे दूसरे पांचने हा! मा:
और अन्तके पांच कुलकरोंने हा ! मा ! और विक शब्दोंसे राज्य शासन किया था ॥ १६॥
पहले कुलकरने सूर्यचन्द्रमाके प्रकाशसे जो लोग भयभीत हुए थे उनका भय निवारण किया। दूसरेने तारागणके प्रकाशसे भयभीत लोकोंका भय निवारण किया। तीसरेने सिंह सदिकसे जो लोग भयभीत हुए थे उनका भय निवारण किया। चौथेने अन्धकारके भयको दीपक जलाने की शिक्षासे दूर किया। पांचवेने कल्पवृक्षोंके स्वत्वकी मर्यादा बांधी। छठेने अपनी नियमित सीमामें शासन कर
१ कनिष्टिकाविहीन मुठी बंधे हुए हाथके मापको अरलि कहते है । यह प्रमाण हाथसे कुछेक छोटा होता है ।
२ श्रीवृषभदेवको भी पन्द्रहवां कुलकर माना है.
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'ला
ना सिखलाया । सातवेंने घोडे रथ हाथी आदि सवारियोंपर चढना सिखलाया। आठवें कुलकरने जो लोग अपने पुत्रका मुख देखनेसे भयभीत हुए थे उनका भय निवारण किया। नौवें कुलकरने पुत्रपुत्रियोंके नामकरणकी विधि बतलाई । दशवेने चन्द्रमाको दिखलाकर बच्चोंको क्रीडा करना सिखलाया । ग्यारहवेने पितापुत्रके व्यवहारका प्रचार किया अर्थात् लोगोंको सिखलाया कि यह तुम्हारा पुत्र है तुम इसके पिता हो । बारहवेंने नदी समुद्रादिकमें नाव जहाज आदिके द्वारा पारजाना तैरना आदि सिखलाया । तेरहवेंने गर्भ, मलके शुद्ध करने का अर्थात् स्नानादिकर्मका उपदेश दिया। चौदहवेने नाल काटनेकी विधि बतलाई। __ पश्चात् चौदहवें कुलकर श्रीनाभिगयकी मरुदेवी महाराणीके गर्भसे आदितीर्थकर श्रीवृषभनाथ भगवान उत्पन्न हुए और भरतक्षेत्रमें उन्होंने अपने तीर्थकी प्रवत्ति की। उनके निर्वाण होनेपर पचासलाख कोटिसागर वर्षतक सम्पूर्ण श्रुतज्ञान अविच्छिन्न रूपसे प्रकाशित रहा। अनन्तर दूसरे तीर्थकर श्रीअजितनाथ भगवानने अवतार लिया और वे भी अपने शिष्योंको भलीभांति उपदेश करते हुए मोक्ष पधारे । उनके पश्चात् भी श्रुतज्ञान अस्खलित गतिसे चलता रहा।
श्रीअजितनाथके निर्वाण हो जानेके तीसलाखकोटि सागर पीछे शम्भवनाथजी, उनसे दशलाखकोटि सागर पीछे श्रीअभिनन्दन उनसे नौलाख कोटि सागर पाछे श्रीसुमतिनाथ नव्वेहजार कोटिसागर पीछे पद्मनाथ नौ हजार कोटिसागर पीछे श्रीसुपार्श्वनाथ, नौसेकोटिसागर पीछे श्रीचन्द्रप्रभ और चन्द्रप्रभसे नव्वेकोटिसा
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गर पीछे श्रीपुष्पदन्त हुए। यहांतक समस्त श्रुते अव्यवहित प्रकाशित रहा और इसके आगे श्रीपुष्पदन्तके तीर्थके नौ कोटिसागर पूर्ण होनेमें जब चौथाई पत्य शेष रहा था तबतक श्रुतका प्रकाश रहा । इसके पश्चात् चौथाई पत्यतक श्रुतका विच्छेद रहा । अनन्तर श्रीशीतलनाथ अवतरित हुए. इन्होंने फिर श्रुतका प्रकाश किया और यह ६६२६००० वर्ष घाट ९९९९९०० सागरमें
आघापल्य शेष रहा था तबतक रहा. इसके पश्चात् आधा पल्यतक विच्छेद रहा । अनन्तर श्रेयान् तीर्थकरने फिर श्रुतका प्रकाश किया। इनके निर्वाणके पश्चात् ५४ सागरमें पौनपल्य शेष रहा था तब फिर श्रुनका विच्छेद हुआ और वह पौनपल्यतक रहा । तदनन्तर श्रीवासुपूज्य तीर्थकर हुए । इन्होंने फिर श्रुतका प्रकाश किया । इनके निर्वाणानन्तर ३० सागरमें जब एक पल्य रहगया तब फिर श्रुतविच्छेद हुआ और वह एक पल्यतक रहा । अनन्तर श्रीविमलनाथ हुए । इन्होंने फिर श्रुतका प्रकाश किया । इनके तीर्थके ९ सागरमें जब एक पल्य रहा तब फिर श्रुतका विच्छेद हुआ
और वह एकपल्यतक रहा। तत्पश्चात् श्रीअनन्तनाथ भगवानने फिर श्रुतकाप्रकाश किया। इनके निर्वाणके पश्चात् चार सागरमें पौनपल्य शेष रहनेपर पौनपल्यतक फिर श्रुतका विच्छेद रहा । अनन्तर श्रीधर्मनाथने फिर प्रकाश किया । इनके निर्वाणके पश्चात् पौनपत्यकम तीनसागरमें जब आधापल्य शेष रहगया तब फिर श्रुतका विच्छेद हुआ और वह आधा पल्यपर्यन्त रहा । अनन्तर श्रीशान्तिनाथतीर्थकर हुए । इन्होंने फिर श्रुतका प्रकाश किया । इनके पश्चात् आधा पल्य बीतनेपर श्रीकुन्थुनाथ, हजारकोटि वर्षघाट पाव
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पल्य बीतनेपर श्रीअरनाथ, हजारकोटि वर्ष वीतनेपर श्रीमल्लिनाथ, ५४ लाखवर्ष बीतनेपर श्रीमुनिसुव्रत, छहलाख वर्ष बीतनेपर श्रीनमिनाथ, पांच लाख वर्ष वीतने पर श्रीनेमिनाथ, पौने चौरासी हजार वर्ष वीतनेपर श्रीपार्श्वनाथ तीर्थकर, और २५० वर्ष बीतने पर श्री वर्द्धमान तीर्थंकर हुए । श्रीशान्तिनाथसे वर्द्धमानतीर्थकर पर्यन्त श्रुतका विच्छेद नहीं हुआ । कुशाग्रबुद्धि यतिवरों द्वारा ज्योंका त्यों प्रकाशित रहा। __ श्रीपार्श्वनाथ भगवानके तीर्थक अन्तमें कुन्दनपुरके राजा सिद्धार्थकी प्रियकारिणी ( त्रिसला) रानीके गर्भसे अन्तिम तीर्थकर श्रीमहावीरका जन्म हुआ। उन्होंने तीस वर्षकी आयुमं कुमारावस्थामें ही जिनदीक्षा लेली और घोर तपस्या करके बारह वर्षमें केवलज्ञान लक्ष्मी प्राप्त करली । उनके केवलज्ञान सूर्यके उदय होनेपर इन्द्रकी आज्ञासे कुवेरने समवसरण नामक सभाकी रचना की । उस महासभा देव, मनुष्य, मुनि आदि सबका समूह एकत्रित था, तो भी त्रिजगद्गुरु भगवानकी दिव्यध्वनि ६६ दिनतक निःसृत नहीं हुई । यह देखकर इन्द्रने जब विचार किया, तो उसे विदित हुआ कि, गणधरदेवका अभाव ही दिव्यध्वनि न होनेका कारण है। अतएव गणधरकी शोध करनेके लिये वह इंद्र गौतम प्रामको गया । वहां एक ब्राह्मणशालामें इन्द्रभूति नामका पंडित अपने पांचसौ शिष्यों के सन्मुख व्याख्यान दे रहा था । इन्द्रभूति अखिल वेदवेदांगशास्त्रोंका विद्वान था और विद्याके मदमें चूर हो रहा था।
१ यह स्थान मगध देशमें पावापुरके समीप अब भी इसी नामसे प्रसिद्ध है। २ इन्द्रभूतिके गोत्रका नाम गौतम था । अनेक इतिहासकारोंने भ्रममें पड़कर गौतम गणधरको गौतम बुद्ध लिख मारा है।
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इन्द्र छात्रका वेष धारण करके उस पाठशालामें एक ओर जाकर खड़े होगये और उसके व्याख्यानको सुनने लगे । इन्द्रभूतिने थोड़ी देरमें विराम लेते हुए जब कहा कि, “ क्यों तुम्हारी समझमें आया ? " और छात्र वृन्द जब कहने लगे कि, “ हां आया." तब इन्द्रने नासिकाका अग्रभाग सिकोड़कर इस प्रकारसे अरुचि प्रगट की कि, वह छात्रों की दृष्टिमें आगई। उन्होंने तत्काल ही उस भावका गुरु महाराजसे निवेदन करदिया । तब इन्द्रभूति ब्राह्मण इस अपूर्व छात्रसे बोला कि, " समस्त शास्त्रोंको मैं हथेलीपर रक्खे हुए आंवलेके समान देखता हूं और अन्यान्य वादी गणोंका दुष्ट मद मेरे सन्मुख आते ही नष्ट होजाता है। फिर कहो, किस कारणसे मेरा व्याख्यान तुम्हें रुचिकर नहीं हुआ । " इन्द्रने उत्तर दिया, " यदि आप सम्पूर्ण शास्त्रोंका तत्त्व जानते हैं. तो मेरी इस आर्याका अर्थ लगा दीजिये ! " और यह आर्या उसी समय पढ़के सुनाई
पद्रव्यनवपदार्थत्रिकालपश्चास्तिकायषदकायान् । विदुषां वरः स एव हि यो जानाति प्रमाणनयैः ॥१॥
इस अश्रुतपूर्व और अत्यन्त विषम अर्थवाली आर्याको सुनकर इन्द्रभृति कुछ भी नहीं समझा । इसलिये वह बोला, तुम किसके विद्यार्थी हो। इन्द्रने उत्तर दिया “ मैं जगद्गुरु श्रीवर्धमान भट्टा
१ छह द्रव्य, नव पदार्थ, तीन काल, पंचअस्तिकाय और छह कायोंको प्रमाणनयपूर्वक जानता है. वही पुरुष विद्वानोंमें श्रेष्ठ है।
२ आर्याके शब्दोंका अर्थ कुछ कठिन नहीं है किन्तु उसमें जिन पदा. योकी संख्या बतलाई है, वह किसी भी दर्शनमें नहीं मानी गई है। इसीलिये इन्द्रभूति उसका अभिप्राय प्रगट नहीं कर सका था।
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रकका छात्र हूं।” तब इन्द्रभूतिने कहा. "ओह ! क्या तुम उसी सिद्धार्थनन्दनके छात्र हो, जो महा इन्द्रजालविद्याका जाननेवाला है. और जो लोगोंको आकाशमार्गमें देवोंको आते हुए दिखलाता है' ? अच्छा तो मैं उसीके साथ शास्त्रार्थ करूंगा | तेरे साथ क्या करूं । तुम्हारे जैसे छात्रों के साथ विवाद करने से गौरवकी हानि होती है। चलो चलें, उससे शास्त्रार्थ करने के लिये ।" ऐसा कहकर इन्द्रभूति इन्द्रको आगे करके अपने भाई अग्निभूति और वायुभूतिके साथ समवसरणकी ओर चला । वहां पहुंचनेपर ज्यों ही मानस्तम्भके दर्शन हुए त्यों ही उन तीनोंका गर्व गलित हो गया । पश्चात् जिनेन्द्र भगवान को देखकर इनके हृदयमें भक्तिका संचार हुआ । इसलिये उन्होंने तीन प्रदक्षिणा देकर नमस्कार किया. स्तुतिपाठ पढ़ा और उसी समय समस्त परिग्रहका त्याग करके जिनदीक्षा ले ली । इन्द्रभूतिको तत्काल ही सप्तऋद्धियां प्राप्त होगई और आखिर में वे भगवान् के चार ज्ञानके धारी प्रथम गणधर हो गये । समवसरण में उन इन्द्रभूति गणधरने भगवान् से " जीव अस्तिरूप है. अथवा नास्तिरूप है ! उसके क्यार लक्षण हैं; वह कैसा है." इत्यादि साठ हजार प्रश्न किये । उत्तरमें " जीव अस्तिरूप है, अनादिनिधन है. शुभाशुभरूप कर्मोंका कर्ताभोक्ता है. प्राप्त हुए शरीरके आकार है, उपसंहरणविसर्पणधर्मवाला और ज्ञानादि गुणोंकरके युक्त है. उत्पाद, व्यय, प्रौव्य लक्षणविशिष्ट है, स्वसंवेदन ग्राह्य है. अनादिप्राप्त कर्मो के सम्बन्धसे नोकर्म-कर्मरूप पुद्गलोंको ग्रहण करता हुआ,
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१ भगवान् के कल्याणकोमे जब देवोका आगमन होता था. तब मिथ्याती लोग समझते थे कि यह कोई इन्द्रजालिया है, जो अपनी विद्यासे यह असंभव दृश्य दिखलाता है। 1
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छोडता हुआ भवभवमें भ्रमण करनेवाला और उक्त कर्मोंके क्षय होनेसे मुक्त होनेवाला है" इस प्रकारसे अनेक भेदोंसे जीवादि वस्तुओंका सद्भाव भगवानने दिव्य ध्वनिके द्वारा प्रस्फुटित किया ।
पश्चात् श्रावणमासकी प्रतिपदाको सूर्योदयके समय रौद्रमुहूर्तमें जब कि चन्द्रमा अभिजित नक्षत्र पर था. गुरुके तीर्थकी (दिव्यध्वनिकी अथवा दिव्यध्वानद्वारा संसारसमुद्रसे तिरनेमें कारणभूत यथार्थ मोक्षमार्गके उपदेशकी ) उत्पत्ति हुई । श्रीइन्द्रभूति गणधरने भगवानकी वाणीको तत्त्वपूर्वक जानकर उसी दिन सायंकालको अंग और पूर्वोकी रचना युगपत् की और फिर उसे अपने सहधर्मी मुधर्मा स्वामीको पढ़ाया । इसके अनन्तर सुधर्माचार्यने अपने सधर्मी जम्बृस्वामीको और उन्होंने अन्य मुनिवरोंको वह श्रुत पढ़ाया।
पश्चात् जगत्पूज्य श्रीसन्मतिनाथ अनेक निकट भव्यरूपी सस्योंको (धान्यको) धर्मामृतरूपी वर्षाके सिंचनसे परमानन्दित करते हुए तीसवर्षतक अनेक देशोमें विहार करते हुए कमलोंके वनसे अतिशय शोभायमान पावापुरके उद्यानमें पहुँचे। और वहांसे जब तीन वर्ष साढ़ेआठ महीने चतुर्थ कालके शेष रह गये, तब कार्तिक कृष्णा चतुर्दशीको मोक्ष पधारे । भगवानके निर्वाण होने के साथ ही श्रीइन्द्रभूति गणधरको केवलज्ञान उत्पन्न हुवा और वे बारहवर्ष विहार करके मोक्षको प्राप्त हुए। उनके
१ इसी दिन दीपमालिकाका उत्सव मनाया जाता है। निर्वाण कल्याणका रूपान्तर ही दीपमालिकाका उत्सव है. इसी दिनसे वीरनिर्वाणसंवत् चला है जिसका इससमय २४३४ वां वर्ष चलता है. गुजरात वगेरह अनेक प्रांतोंमें वर्तमानमें इसी दिन से ही नवे वर्षका प्रारभ होता है ।
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निर्वाण होते ही सुधर्माचार्यको केवलज्ञानका उदय हुआ । सो उन्होंने भी बारहवर्ष विहारकरके अन्तिमगति पाई और तत्काल ही जम्बूस्वामीको केवलज्ञान हुआ । उन्होंने ३८ वर्ष विहार करके भव्य जीवोंको धर्मोपदेश दिया और अन्त में मोक्षमहलको पयान किया । इन तीनों मुनियोंने परम केवल विभूतिको पाई तबतक केवल दिवाकरका उदय निरन्तर बना रहा परन्तु उनके पश्चात् ही उसका अस्त होगया ।
जम्बूस्वामी मुक्तिके पीछे श्रीविष्णुमुनि सम्पूर्ण श्रुतज्ञानके पारगामी श्रुतकेवली ( द्वादशांग के धारक ) हुए और इसीप्रकार से नन्दिमित्र, अपराजित, गोवर्द्धन और भद्रबाहु ये चार महामुनि भी अशेषश्रुतसागर के पारगामी हुए । उक्त पांचों श्रुतकेवली १०० वर्ष के अन्तराल में हुए अर्थात् भगवानकी मुक्तिके पश्चात् १२ वर्ष में ३ केवली हुए और फिर १०० वर्ष में ५ श्रुतकेवली हुए देखते २ श्रुतकेवल सूर्य भी अस्त होगये. तब ग्यारह अंग और दश पूर्व के धारण करनेवाले ग्यारह महात्मा हुए । विशाखदत्त, प्रोटिल, क्षत्रिय, जयसेन, नागसेन, सिद्धार्थ, धृतिषेण, विजयसेन, बुद्धिमान, गंगदेव और धर्मसेन | इतनेमें १८३ वर्षका समय व्यतीत होगया । पश्चात् दो सौ वीस वर्षमें नक्षत्र, जयपाल, पाण्डु, डुमसेन और कंसाचार्य ये पांच
१ वीर निर्वाणके पश्चात् ६२ वर्षतक केवलज्ञानका अस्तित्व भरतक्षेत्रमें रहा । २ सुप्रसिद्ध ज्योतिषी और अष्टाग निमित्त ज्ञानके ज्ञाता भद्रबाहु इनसे भिन्न हैं। वे इनस बहुत पीछे हुए हैं । ३ विशाखदत्तको किसी २ ने विशाखाचार्य भी लिखा है । ४ एक प ठमें धर्मसेनके स्थान मे ' दत्त ' लिखा है । ५ अन्यान्य ग्रन्थोंमें धुवसेन लिखा है ।
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मुनि ग्यारह अंगके ज्ञाता हुए । पश्चात् एकसौ अठारह वर्षमें मुभद्र, अभयभद्र, जयबाहु और लोहाचार्य ये चार मुनीश्वर
चारांग शास्त्र के परम विद्वान् हुए। यहांतक अर्थात् श्रीवीरनि र्वाणके १८३ वर्ष पीछेतक अंगज्ञानकी प्रवृत्ति रही, अनन्तर कालदोषसे वह भी लुप्त होगयी।
लोहाचार्यके पश्चात् विनयधर, श्रीदत्त, शिवदत्त, और अईदत्त ये चार आरातीय मुनि अंगपूर्वदशके अर्थात् अंगपूर्व ज्ञानके कुछ भागके ज्ञाता हुए । और फिर पूर्वदेशके पुण्बर्द्धनपुरमें श्रीअर्हदलि मुनि अवतीर्ण हुए । जो अंगपूर्वदेशके भी एकदेश ( भाग ) के जाननेवाले थे, प्रसारणा धारणा विशुद्धि आदि उत्तम क्रियाओंमें निरन्तर तत्पर थे, अष्टांगनिमित्त ज्ञानके ज्ञाता थे, और मुनिसंघका निग्रहअनुग्रहपूर्वक शासन करनेमें समर्थ थे। इसके सिवाय वे प्रत्येक पाच वर्षके अन्तमें सौ योजन क्षेत्रमें निवास करनेवाले मुनियोंके समूहको एकत्र करके युग-प्रतिक्रमण कराते थे। एकवार उक्त भगवान् अर्हदलि आचार्यने युगप्रतिक्रमणके समय मुनिजनों के समूहसे पूछा कि, “ सब यति आगये ?" उत्तरमें उन मुनियोंने कहा कि, " भगवन् ! हम सब अपने २ संघसहित आगये ।" इस वाक्यमें अपने २ संघके प्रति मुनियोंकी निजत्व बुद्धि (पक्षबुद्धि) प्रगट होती थी. इसलिये तत्काल ही आचार्य भगवान्ने निश्चय कर. लिया कि, इस कलिकाल में अब आगे यह जैनधर्म भिन्न २ गणोंके पक्षपातसे ठहर सकेगा, उदासीन भावसे नहीं।
१पचास्तिकायकी टीकामें अभयभद्रके स्थानमे यशोधर जयबाहुके स्थानमे महायश लिखा है। जान पड़ता है ये उक्त आचार्योंके नामान्तर होंग ।
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अर्थात् आगेके मुनि अपने २ संघका-गणका गच्छका पक्ष धारण करेंगे, सबको एकरूप समझकर मार्गकी प्रवृत्ति नहीं कर सकेंगे। इस प्रकार विचार करके उन्होंने जो मुनिगण गुफामेंसे आये थे, उनमेंसे किसी २ की नंदि और किसी २ की वीर संज्ञा रक्खी । नो अशोकवाटसे आये थे उनमेंसे किसीकी अपराजित और कि. सीकी देव संज्ञा रक्खी । जो पंचस्तृपोंका निवास छोड़कर आये थे, उनमें से किसीको सेन और किसीको भद्र बना दिया। जो महाशाल्मली (सेंवर ) वृक्षोंके नीचेसे आये थे, उन से किसीकी गुणधर
और किसीकी गुप्त संज्ञा रक्खी और जो खंडकेसर ( बकुल) वृक्षांकेनीचेमें आये थे उनसे किसीकी सिंह और किसीकी चन्द्र संज्ञा रक्खी । * ___ अनेक आचार्योंका ऐसा मत है कि, गुहासे निकलनेवाले नन्दि,
अशोक वनसे निकलनेवाले देव, पचस्तूपोंसे आनेवाले सेन बने भारी शाल्मलिवृक्षक नीचे निवास करनेवाले वीर और खंडकेसर वृक्षके नीचे रहनेवाले भद्र संज्ञासे प्रसिद्ध किये गये थे । *
इस प्रकारसे मुनिजनोंके संघ प्रवर्तन करनेवाले उक्त श्रीअई. हलि आचार्यके वे सब मुनीन्द्र शिप्य कहलाये। उनके पश्चात् *उक्त च--आयाती सन्धिवीरौ प्रकटगिरिगुहावासतोऽशोकवाटा
देवाश्चान्योऽपराादर्जित इति यतिपा सेनभद्राहयौ च । पञ्चस्तूप्यात्सगुप्ती गुणधरवृपभः शाल्मलीवृक्षमूला
निर्याता सिंहचन्द्रौ प्रथित गुणगणो केसरात्खण्डपूर्वात् ॥ १॥ तथा-गुहाया वासितो ज्येष्टा द्वितीयोऽशोकवाटिकात् । निर्याता नन्दिदेवाभिधानावाद्यानुक्रमात् ॥ १ ॥ पचस्तूप्यास्तु सेनानां वीराणा शाल्मलिद्रुमः । खण्डकसरनामा च भद्रः स (घ) स्य सम्मतः ॥२॥
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एक श्रीमाघनन्दि नामक मुनिपुंगव हुए और वे भी अंगपूर्व-देशका भलीभांति प्रकाश करके स्वर्गलोकको पधारे । तदनन्तर सु. राष्ट्र ( सोरठ ) देशके गिरिनगरके समीप अर्जयन्तगिरि (गिरनार ) की चन्द्रगुफामें निवास करनेवाले महातपस्वी श्रीधरसेन आचार्य हुए। इन्हें अग्रायणीपूर्वके अन्तर्गत पंचमवस्तुके चतुर्थ महाकर्मप्राभृतका ज्ञान था।अपने निर्मल ज्ञानमें जब उन्हें यह भासमान हुआ कि, अब मेरी आयु थोडी शेष रह गई है और अब मुझे जो शास्त्रका ज्ञान है. वही संसारमें अलम् होगा । अर्थात् इससे अधिक शास्त्रज्ञ आगे कोई नहीं होगा । और यदि कोई प्रयत्न नहीं किया जावेगा तो श्रुतका विच्छेद होजावेगा । ऐसा विचारकर निपुणमति श्रीधरसेन महर्षिने देशेन्द्रदेशके बेणातटाकपुरमें निवास करनेवाले महामहिमाशाली मुनियों के निकट एक ब्रह्मचारीके द्वारा पत्र भेजा । ब्रह्मचारीने पत्र ले जाकर उक्त मुनियोंके हाथमें दिया। उन्होंने बंधन खोलकर वांचा । उसमें लिखा हुआ था कि, “ स्व. स्तिश्री बेणाकतटवासी यतिवरोंको उर्जयन्ततटनिकटस्थ चन्द्रगुहानिवासी धरसेनगणि अभिवन्दना करके यह कार्य सूचित करते हैं कि, मेरी आयु अत्यन्त स्वल्प रहगई है । जिससे मेरे हृदयस्थ शास्त्रकी व्युच्छिति होजाने की संभावना है, अतएव उसकी रक्षा करने के लिये आप लोग दो ऐसे यतीश्वरोंको भेज दीजिये जो शास्त्रज्ञानके ग्रहण-धारण करने में समर्थ और तीक्ष्ण बुद्धि हों। " इन समाचारोंका आशय भलीभांति समझकर उन मुनियोंने भी दो बुद्धिशाली मुनियोंको अन्वेषण करके तत्काल ही भेज दिये।
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जिस दिन वे मुनि ऊर्जयन्तगिरिपर पहुंचे उसकी पहली रात्रिको श्रीधरसेन मुनिने स्वप्नमें दो श्वेत बैलोंको अपने चरणों में पड़ते हुए देखा । स्वप्नके पश्चात् ज्यों ही वे " जयतु श्री. देवता " ऐसा कहते हुए जागके खड़े हुए त्यों ही उन्होंने देखा कि, वेणातटाकपुरसे आये हुए दो मुनि सन्मुख खड़े हैं।
और अपने आगमनका कारण निवेदन कर रहे हैं । __ श्रीधरसेनाचार्यने आदरपूर्वक उनका अतिथि-सत्कार ( प्रापूर्णिक विधान) किया और फिर मार्गपरिश्रम शमन करनेके लिये तीन दिनतक विश्राम करने दिया। तत्पश्चात् यह सोचकर कि “सुपरीक्षा चित्तको शान्ति देनेवाली होती है " अर्थात् जिस विषयकी भली. भांनि परीक्षा कर ली जाती है, उसमें फिर किसी प्रकारकी शंका नहीं रहती है, उन्होंने उन दोनोंको दो विद्यायें साधन करनेके लिये दी, जिनमेंसे एक विद्यामें अक्षर कम थे और दूसरीमें आधिक थे । __ उक्त मुनियोंने श्रीनेमिनाथतीर्थंकरकी सिद्धाशलापर (निर्वाण भूमिपर ) जाकर विधिपूर्वक विद्याओंका साधन किया। परन्तु जो अक्षरहीन विद्या साध रहा था. उसके आगे एकआंखवाली देवी
और अधिक अक्षर साधनेवालेके सम्मुख बड़ेदांतवाली देवी आकर खड़ी हो गई । यह देखकर मुनियोंने सोचा कि, देवताओंका यह स्वभाव नहीं है-यह असली स्वरूप नहीं है । अवश्य ही हमारी साधनामें कोई भूल हुई है। तब उन्होंने मंत्र व्याकरणकी विधिसे न्यूनाधिक वर्षों के क्षेपने और अपचय करनेके विधानसे मंत्रोकों
१ वेणातटकपुर भी कहते हैं।
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शुद्ध करके फिर चिन्तवन किया । जिससे कि उन देवियोंने केयूर ( भुजापर पहरनेका आभरण ) हार, नूपुर ( बिछुए ), कटक ( कंकण ) और कटिसूत्र ( करधनी ) से सुसज्जित दिव्यरूप वारण करके दर्शन दिया और समक्ष उपस्थित होकर कहा कि, कहिये - किस कार्य के लिये हमको आज्ञा होती है " यह सुनकर मुनियोंने कहा कि हमारा ऐहिक पारलौकिक ऐसा कोई भी कार्य नहीं है जिसे तुम सिद्ध कर सको। हमने तो केवल गुरु देवकी आज्ञा से मंत्रोंकी सिद्धि की है । मुनियोंका अभीष्ट सुनकर वे देवियां उसी समय अपने स्थानको चली गई ।
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इसप्रकार से विद्यासाघन करके संतुष्ट होकर उन दोनों मुनियोंने गुरुदेव के समीप जाकर अपना सारा वृत्तान्त निवेदन किया उसे सुनकर श्रीधरसेनाचार्यने उन्हें अतिशय योग्य समझकर शुभ तिथि, शुभनक्षत्र और शुभ समय में ग्रन्थका व्याख्यान करना प्रारंभ कर दिया और वे मुनि भी आलस्य छोड़कर गुरुविनय तथा ज्ञानविनयकी पालना करते हुए अध्ययन करने लगे ।
कुछ दिन के पश्चात् आषाढ शुक्ला १९ को विधिपूर्वक ग्रन्थ समाप्त हुआ | उसदिन देवोंने प्रसन्न होकर प्रथम मुनिकी दंतपंक्तिको - जो कि विषमरूप थी, कुन्दके पुष्पोंसरीखी कर दी । और उनका पुष्पदन्त ऐसा सार्थक नाम रख दिया । इसी प्रकारसे भूत जातिके देवोंने द्वितीय मुनिकी तूर्यनाद - जयघोष तथा गन्धमाल्य धूपादिकसे पूजा करके उनका भी सार्थक नाम भूतपति रख दिया ।
दूसरे दिन गुरुने यह सोचकर कि, मेरी मृत्यु सन्निकट है, यदि ये समीप रहेंगे, तो दुःखी होंगे, उन दोनोंको कुरीश्वर भेज
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दिया । तब वे ९दिन चलकर उस नगरमें पहुंच गये। वहां आषाढ कृष्ण ५ को योग ग्रहण करके उन्होंने वर्षाकाल समाप्त किया।
और पश्चात् दक्षिणकी ओरको विहार किया। कुछ दिनके पश्चात् वे दोनों महान्मा करहाट नगरमें पहुंचे । वहां श्रीपुष्पदन्त मुनिने अपने जिनपालित नामक भानजेको देखा और उसे जिनदीक्षा देकर वे अपने साथ ले वनवास देशमें जा पहुंचे । इधर भूतबलि द्रविडदेशके मथुरा नगरमें पहुंचकर ठहर गये । करहाट नगरसे उक्त दोनों मुनियों का साथ छूट गया ।
श्रीपुष्पदन्त मुनिने जिमपालितको पढानेके लिये विचार किया कि, कर्मप्रकृति प्राभृतकी छहखंडोंमें उपसंहार करके ग्रन्थरूप रचना करनी चाहिये और इसलिये उन्होंने प्रथम ही जीवस्थानाधिकारकी जिसमें कि गुणस्थान, जीवसमासादि बीस प्ररूपणाओंका वर्णन है, बहुत उत्तमताके साथ रचना की। फिर उस शिप्यको सौ सूत्र पढ़ाकर श्रीभूतबलिमुनिके पास उनका अभिप्राय ज्ञान करनेके लिये अर्थात् यह जाननेके लिये कि वे इस कार्यके करनेमें सहमत हैं, अथवा नहीं हैं, और हैं तो जिसरूपमें रचना हुई है. उसके विषयमें क्या सम्मति देते है, भेज दिया । उसने भूतबलि महपिके समीप जाकर वे प्ररूपणासूत्र सुना दिये। जिन्हें सुनकर उन्होंने श्रीपुष्पदन्त मुनिका षट्खंडरूप आगमरचनाका अभिप्राय जानलिया और अब लोग दिनपर दिन अल्पायु और अल्पमति होते जाते हैं, ऐसा विचार करके उन्होंने स्वयं पांच खंडोंमें पूर्व सूत्रोंके सहित छह हजार श्लोकावीशष्ट द्रव्यप्ररूपणाद्यधिकारकी
१ दक्षिण देशमें पहिले शुक्ल पक्ष पाछे कृष्ण पक्ष आता है।
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रचना की और उसके पश्चात् महाबन्ध नामक छठेखंडको तीस हजार सूत्रों में समाप्त किया । पहले पांच खंडोके नाम ये हैं, जीवस्थान, क्षुल्लकबन्ध, बन्धस्वामित्व, भाववेदना और
वर्गणा ।
श्रीभूतबलि मुनिने इसप्रकार षट्खंडागमकी रचना करके उसे असद्भाव स्थापनाके द्वारा पुस्तकों में आरोपण किया अर्थात् लिपि बद्ध किया और उसकी ज्येष्ट शुका पंचमीको चतुर्विधि संघके सहित वेष्टनादि उपकरणोंके द्वारा क्रियापूर्वक पूजा की । उसी दिनसे यह ज्येष्ट शुक्रा पंचमी संसार में श्रुतपंचमीके नामसे प्रख्यात हो गई । इस दिन श्रुतका अवतार हुआ है. इसलिये आजपर्यंत समस्त जैनी उक्त तिथिको श्रुतपूजा करते हैं ।
कुछ दिन के पश्चात् भूतबलि आचार्यने पटखंड आगमक: अध्ययन करके जिनपालित शिष्यको उक्त पुस्तक देकर श्रीपुष्पदन्त गुरुके समीप भेजदिया । जिनपालितके हाथमें षट्खंड आगम देखकर और अपना चिन्तवन किया हुआ कार्य पूर्ण होगया जानकर श्रीपुष्पदन्ताचार्यका समस्त शरीर प्रगाढ़ श्रुतानुरागमें तन्मय होगया और तब अतिशय आनन्दित होकर उन्होंने भी चतुर्विधि संघके साथ श्रुतपंचमीको गन्ध, अक्षत, माल्य, वस्त्र, वितान, घंटा, ध्वजादि द्रव्योंसे पूर्ववत् सिद्धान्तग्रंथकी महापूजा की ।
१ ऐसा जान पड़ता है कि तब तक आगमज्ञान गुरुपरपरासे कठस्थ ही चला आया था, लिपिबद्ध नहीं हुआ था । परन्तु इससे ऐसा नहीं समझ लेना चाहिये कि, इसके पहले लिखनेकी प्रणाली ही नही थी ।
२ यह दूसरे वर्षकी श्रुतपंचमी होगी।
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इस प्रकार षट्खंड आगमकी उत्पत्तिका वर्णन करके अब कषायमाभृत सूत्रोंकी उत्पत्तिका कथन करते हैं ।
( बहुत करके श्रीधरसेनाचार्य के समय में ) एक श्रीगुणधर नामके आचार्य हुए । उन्हें पांचवें ज्ञानप्रवाद पूर्वके दशमवस्तुके तृतीय कषायप्राभृतका ज्ञान था । श्रीगुणधर और श्रीधरसेनाचार्य की पूर्वापर गुरु परंपराका क्रम हमको ज्ञात नहीं है. क्योंकि उनकी परिपाठी के बतलानेवाले ग्रन्थों और मुनिजनों का अभाव है । इसलिये इस विषय में कुछ नहीं कहा जासकता । अस्तु श्रीगुणधर मुनिने भी वर्तमान पुरुषोंकी शक्तिका विचार करके कषायप्राभृत आगमको जिसे कि दोषप्राभृत भी कहते हैं. एकसौ तिरासी १८३ मूल गाथा और ५३ तिरेपन विवरणरूप गाथाओं में बनाया । फिर १५ महाअधिकारों में विभाजित करके श्रीनागहस्ति और आर्यमक्षु मुनियोंके लिये उसका व्याख्यान किया । पश्चात् उक्त दोनों मुनियों के समीप शास्त्रनिपुण श्रीयतिवृषभ नामक सुनिने दोषप्राभृतके उक्त सूत्रोंका अध्ययन करके पीछे उनकी सूत्ररूप चूर्णिवृत्ति छह हजार लोक प्रमाण बनाई । अनन्तर उन सूत्रोंका भलीभांति अध्ययन करके श्रीउच्चारणाचार्यने १२००० लोक प्रमाण उच्चारणवृत्ति नामकी टीका बनाई। इसप्रकार से गुणधर, यति - वृषभ और उच्चारणाचार्यने कषायप्राभृतका गाथा - चूर्णि और उच्चारणवृत्ति में उपसंहार किया ।
इसप्रकार से उक्त दोनों कर्मप्राभृत और कषायप्राभृत सिद्धा
१ यथा मूल पुस्तके - गुणधरधरसेनान्वयगुर्वोः पूर्वापरक्रमोऽस्माभिः ।
न ज्ञायते तदन्वयकथकागममुनिजनाभावात् ॥ १५० ॥
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का ज्ञान द्रव्यभावरूप पुस्तकोंसे और गुरुपरंपरासे कुण्डकुन्द - पुर में ग्रन्थपरिकर्म ( चूलिका - सूत्र ) के कर्चा श्रीपद्ममुनिको प्राप्त हुआ सो उन्होंने भी छह खंडों में से पहले तीन खंडोंकी बारह हजार श्लोकप्रमाण टीका रची।
कुछ काल बीतने पर श्रीश्यामकुण्ड आचार्यने सम्पूर्ण दोनों आगमोंको पढ़कर केवल एक छठे महाबन्ध खंडको छोड़कर शेष दोनों ही प्राभृतोंकी बारह हजार श्लोक प्रमाण टीका बनाई । इन्हीं आचार्यने प्राकृत संस्कृत और कर्णाटक भाषाकी उत्कृष्ट पद्धति ( ग्रन्थपरिशिष्ट ) की रचना की ।
इसके कुछ समय पश्चात् तुम्बुलूर ग्राममें एक तुम्बुलूर नामके आचार्य हुए और उन्होंने भी छटे महाबन्ध खंडको छोड़कर शेषदोनों आगमोंकी कर्णाटकीय भाषा में ८४ हजार श्लोक प्रमित चूड़ामणि नामकी व्याख्या रची | पश्चात् उन्होंने छठे खंडपर भी सात हजार श्लोक प्रमाण पंजिका टीका की रचना की ।
कालान्तर में तार्किकसूर्य श्रीसमन्तभद्र स्वामीका उदय हुआ ।
१ लिखित ताडपत्र अथवा कागज आदिकी पुस्तकांको द्रव्य पुस्तक और उसके कथनको भाव पुस्तक कहते है.
२ हेमकोषमे पद्धतिका अर्थ ग्रन्थपरिशिष्ट लिखा है । जान पडता है उक्त आचार्यने उक्तभाषाओंके व्याकरण विषयक परिशिष्ट ग्रन्थ बनाये है. और यह पद्धति शब्द उन्ही ग्रन्थोसे सम्बंध रखता है इतिहासकारोंका भी ऐसा मत है कि कर्णाटक भाषाका व्याकरण जैनऋषियोंने ही बनाया है | ३ मूल पुस्तकमे सन्ध्यापलरि इस प्रकारका पद पड़ा हुआ है परन्तु ठीक २ नही पढ़ा जाता है वह किसी नगर वा ग्रामका नाम है जहां समन्तभद्र स्वामी हुए थे
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तब उन्होंने भी दोनों प्राभृतोंका अध्ययन करके प्रथम पांच खंडोंकी अड़तालीस हजार श्लोक परिमित टीका अतिशय सुन्दर सुकोमल संस्कृत भाषा में बनाई । पीछे से उन्होंने द्वितीय सिद्धान्तकी व्याख्या लिखना भी प्रारंभ की थी, परन्तु द्रव्यादि शुद्धिकर- प्रयत्नों के अभाव से उनके एक सघर्मी (मुनि ) ने निषेध कर दिया । * जिससे वह नहीं लिखी गई ।
इसप्रकार व्याख्यानक्रम ( टीकादि ) से तथा गुरु परंपरा से उक्त दोनों सिद्धान्तों का बोध अतिशय तीक्ष्णबुद्धिशाली श्री शुभनन्दि और रविनन्दि मुनिको प्राप्त हुआ । ये दोनों महामुनि भीमरथ और कृष्णमेणा नदियों के मध्य में बसे हुए रमणीय - उ कलिका ग्रामके समीप सुप्रसिद्ध अगणबल्ली ग्राम में स्थित थे । उनके समीप रहकर श्रीवपदेवगुरुने दोनों सिद्धान्तोंका श्रवण किया और फिर तज्जन्यज्ञानसे उन्होंने महाबन्ध खंडको छोड़कर शेष पांच खंडोंपर व्याख्याप्रज्ञाप्ति नामकी व्याख्या बनाई । उसमें महाबन्धका संक्षेप भी सम्मिलित कर दिया । पश्चात् कषाय प्राभृतपर प्राकृतभाषामें साठ हजार और केवल महाबन्ध खण्डपर आट हजार पांच श्लोक प्रमाण, दो व्याख्यायें रचीं ।
कुछ समय पीछे चित्रकूटपुर निवासी श्रीमान् एलाचार्य
* यथा मूल पुस्तके - विलिखन् द्वितीयसिद्धान्तस्य व्याख्यां सधर्मणा स्वेन । द्रव्यादिशुद्धिकरणप्रयत्नविरहात्प्रतिनिषिद्धम् ॥ १६९ ॥
१ श्री कुन्दकुन्दाचार्यका भी अपर नाम एलाचार्य प्रसिद्ध है । क्या ये ८४ प्राभृतग्रन्थोंके कर्त्ता कुन्दकुन्दाचार्य से भिन्न है ?
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सिद्धान्त तत्त्वोंके ज्ञाता हुए। उनके समीप वीरसेनाचार्य ने समस्त सिद्धान्तका अध्ययन किया और उपरितम ( प्रथम ) निबंधनादि आठ अधिकारों को लिखा । पश्चात् गुरु भगवानकी आज्ञासे चित्रकूट छोड़कर वे वाट ग्राममें पहुंचे। वहां आनतेन्द्र के बनाये हुए जिनमन्दिर में बैठकर उन्होंने व्याख्याप्रज्ञप्ति देखकर पूर्वके छह खंडों में से उपरिम बन्धनादिक अठारह अधिकारोंमें सत्कर्म नामका ग्रन्थ बनाया और फिर छहों खंडोंपर ७२००० श्लोकों संस्कृत प्राकृत भाषा मिश्र धवल नामकी टीका बनाई । और फिर कषाय प्राभृतकी चारों विभक्तियों (भेदों ) ? पर जयधवल नामकी २० हजार लोक प्रमाण टीका लिखकर स्वर्गलोकको पधारे। उनके पश्चात् उनके प्रिय शिष्य श्रीजयसेन गुरुने चालीस हजार श्लोक और बनाकर जयधवल टीकाको पूर्ण की. जयधवल टीका सब मिलकर ६० हजार श्लोकों में पूर्ण हुई ।
इस प्रकार से श्रीइन्द्रनन्दियतिपतिने भव्यजनों के लिये श्रुतपंचमी के दिन ऋषियोंद्वारा व्याख्यान करने योग्य इस श्रुतावतारका निरूपण किया । इसमें यदि मुझ अल्पबुद्धिने आगमके विरुद्ध कुछ लिखा हो, तो उसे आगम तत्त्व जाननेवाले पुरुषोंको संशोधन कर लेना चाहिये । इस प्रकार दो अनुष्टुप् एक शार्दूलवृत्त और १८१ आर्यावृत्तों के द्वारा २०७ श्लोक संख्या में यह ग्रन्थ पूर्ण किया है |
इति श्रुतावतार कथा समाप्ता ।
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अथ श्रुतस्कन्धविधानं लिख्यते ।
शार्दूलविक्रीडितम् ।
अर्हत्सिद्धगुरुप्रपाठक महासाधून्समाराध्य सद्वारत्युत्तमपादपद्मयुगलं मूर्ध्ना प्रणम्य त्रिधा । विद्यानन्द्यकलङ्कपूज्यचरणत्रैविद्यविद्यास्पदश्रीमत्स्वामि समन्तभद्रमवतार्यार्चे श्रुतस्कन्धकम् १ इति श्रुतस्कन्धपूजाप्रतिज्ञानाय श्रुतस्कन्धोपरि पुप्पाञ्जलिंक्षिपेत् । आर्या.
मतिमूलं लब्ध्यक्षरमुख प्रकाण्डं सदङ्गशाखाद्यम् । शब्ददलं चार्थफलं प्रशमच्छायं श्रये श्रुतस्कन्धम् || ओं ह्रीं स्कन्धस्वामिन्नत्र एहि एहि । संवौषट् । -हीं श्रुतस्कन्धस्वामिन्नत्र तिष्ठ तिष्ठ । ठः ठः । ओं नहीं श्रुतस्कन्धस्वामिन्मम सन्निहितो भव भव वषट् ॥ . ( इति आह्वाननस्थापनसन्निघापनम् । )
अथ साधुचरणकथकं सहस्रमष्टादशाहतं सुदयम् । सुपदामाचाराङ्गं सदङ्गमर्चाम्युदकमुख्यैः ॥ ३ ॥ ओं =हीं आचाराङ्गाय जलं निर्वपामीति स्वाहा | ओं -हीं आचाराङ्गाय गन्धं निर्वपामीति स्वाहा ।
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ओं ही आचाराङ्गाय अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा । ओं ही आचाराङ्गाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा । ओं ही आचाराङ्गाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा । ओं ह्रीं आचारागाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा । ओं ह्रीं आचाराङ्गाय धृपं निर्वपामीति स्वाहा । ओं हीं आचाराङ्गाय फलं निर्वपामीति स्वाहा । ओं ही आचाराङ्गाय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा । सम्यग्ज्ञानसुविनयच्छेदोपस्थापनाक्रियावरदम्। सूत्रकृतं षट्त्रिंशत्सहस्रपदमर्चयामि गन्धायः॥४॥ ओं ही मूत्रकृताङ्गाय जलं निर्वपामीति स्वाहा ।
( इसीप्रकार चंदनादि सात द्रव्य भी चढाना) षड्द्रव्यैकाद्युत्तरस्थानव्याख्यानकारकं स्थानम् । द्वाचत्वारिंशत्पदसहस्रमर्चामि वारिमुखैः॥५॥ ओं ह्रीं स्थानाङ्गाय जलं निर्वपामीति स्वाहा ।
(इसीप्रकार चंदनादि सात द्रव्यमी चढाना) धर्माधर्मजगत्खं जीवं चैकं विनान्त्यमाद्यमिमम् । दीपं सर्वार्थकरं विमानमपि वापिका सुविस्ताराम् नान्दीश्वरी च कालं भवं च भावं निरूपयदिशदम् समवायाङ्गं चार्चे लक्षचतुःषष्ठिमित्सहस्रपदम् ॥७॥ ओ हीं समवायाजाय जल निर्वपामाीत स्वाहा ।
( इसीप्रकार चंदनादि ७ द्रव्यभी चढाना )
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जीवोsस्ति वेति सूरिप्रश्नसहस्रं प्रवक्ति षष्टिगुणम् । लक्षद्धयाटविंशति सहस्रपदपद्धतिर्यत्र ॥ ८ ॥ व्याख्या प्रज्ञप्तिरिमां यजामि जलचन्दनाक्षतप्रसवैः चरुदीपधूपसुफलैर्विमुक्तिफलहेतवे सततम् ॥ ९ ॥ ओं ह्रीं व्याख्यामज्ञप्तये जलं निर्वपामीति स्वाहा | ( इसीप्रकार चंदनादि ७ द्रव्य भी चढाना )
जिनपतिगणपतिसुकथज्ञातृकथापञ्चलक्षपदसहिता षट्पञ्चाशत्सत्पदसहस्रसमिता च पूज्यते सुबुधैः ॥ ओं ह्रीं ज्ञातुकथाङ्गाय जलं निर्वपामीति स्वाहा । ( इसीप्रकार चंदनादि भी चढाना ) लक्षैकादशसप्ततिसहस्रपदसंयुतं यजामि सदा । आह्निकसद्व्रतकथकं विनयेनोपासकाध्ययनम् ॥ ११ ॥ ओं ह्रीं उपासकाध्ययनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा । ( इसीप्रकार चंदनादि चढाना )
शून्यत्रयाष्टनेत्रत्रिनेत्रमर्चामि चान्तकृद्दशकम् । उपसर्गादाप्तशिवं प्रतितीर्थं चान्तकृद्द चकम् ॥ १२॥ा ओं नहीं अन्तकृद्दशाङ्गाय जलं निर्वपामीति स्वाहा | ( इसीप्रकार चंदनादि चढाना )
द्विनवतिलक्षचतुर्युतचत्वारिंशत्सहस्रपदसहितम् तद्वदनुत्तरपददं यजाम्यनुत्तरजनुर्दशकम् ॥ १३ ॥
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ओ हीं अनुत्तरोपपादकदशाङ्गाय जलं निर्वपामीति स्वाहा । ( इसीप्रकार चंदनादि चढाना )
लक्षत्रिनवतिषोडशसहस्रपदसत्पदं जलप्रमुखैः । नष्टमुष्ट्यादिकथकं प्रश्नव्याकरणमिदमर्चे ॥ १४ ॥ ओं ह्रीं प्रश्नव्याकरणाङ्गाय जलं निर्वपामीति स्वाहा । ( इसीप्रकार चंदनादि चढाना )
उदयोदीरणसत्ताविचारकं कर्मणां यजामि मुदा । नित्यं विपाकसूत्रं कोटिपदं चतुरशीतिलक्षपदम् ॥ ओं -हीं विपाकसूत्राङ्गाय जलं निर्वपामीति स्वाहा । ( इसीप्रकार चंदनादि चढाना )
इत्येकादशसर्ववित्प्रकथितान्यङ्गानि यः पूजयेद्रव्यो भूरि सुगन्धपुष्पनिचयैर्भक्त्या जिनोक्तौ रतः स स्यात्कर्मकलङ्कपङ्करहितो भव्याब्जसम्बोधने हंसः शंसित एव कर्मकुरिपुध्वंसै कशूरोजिनः ||१६|| ओं ह्रीं एकादशाङ्गेभ्यः पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा । ( इसीप्रकार चंदनादि चढाना )
अथ दृष्टिवादनामधेयं द्वादशमङ्गं पञ्च प्रकारं पूज्यते । तत्र प्रथमप्रकारे पञ्चप्रकाराः पूज्यन्ते । चन्द्रायुर्गतिविभवप्ररूपिका पञ्चपदसहस्रयुता ॥
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पदत्रिशलक्षपदा चन्द्रप्रज्ञप्तिरिज्येत ॥ १७ ॥ ॐ ह्रीं चन्द्रये जलं निर्वपामीति स्वाहा । ( इसीप्रकार चंदनादि चढाना )
त्रिसहसलक्षपञ्चकपदकलिताललितशब्दसुविचित्रा सूर्यायुरादिकथिका सूर्यप्रज्ञप्तिरच्र्येत ॥ १८ ॥ ओं ह्रीं सूर्यप्रज्ञप्तये जलं निर्वपामीति स्वाहा । ( इसीप्रकार चंदनादि चढाना ) लक्षत्रयं सपादं सुपदानां यत्र जिनवरोद्दिष्टम् । तदर्णनाच जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिरर्खेत ॥ १९ ॥ ओ ह्रीं जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तये जलं निर्वपामीति स्वाहा | ( इसीप्रकार चंदनादि चढाना )
द्वापञ्चाशलक्षा पत्रिंशत्पदसहस्रयुक्तियुता । सर्वपाधिगता प्रज्ञप्तिद्वैपसागरीज्या मे ॥ २० ॥ ओं ह्रीं द्वीपसागरप्रज्ञप्तये जलं निर्वपामीति स्वाहा । ( इसीप्रकार चंदनादि चढाना )
पदचतुरशीतिलक्षा पट्त्रिंशत्पदसहस्रसम्मिलिता । षड्द्रव्यरूपिताद्या व्याख्याप्रज्ञप्तिरिह पूज्या ||२१|| ओं ह्रीं व्याख्याप्रज्ञप्तये जलं निर्वपामीति स्वाहा । ( इसीप्रकार चंदनादि चढाना )
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इत्येवं परिकर्म शर्मकरणं भव्यात्मनां पञ्चधा व्याख्यातं च समर्चितं च विनयादिज्ञानरत्नास्पदम्। अस्मै योऽय॑मनर्घमर्पयति ना पूर्ण जलाद्यष्टभिद्रव्यैर्नव्यवधूमिवाश्रयति संशूरः स मुक्तिश्रियम् ॥ ओं हीं पञ्चपकाराय परिकर्मणे महायं निर्वपामीति स्वाहा । कर्तृत्वादि विधानं भूतोद्भवनादिनिन्दनं सूत्रम्। लक्षाष्टाशीतिपदं जीवस्यार्चामि गन्धायैः।।२३।। ओं ही सूत्राय जलं निर्वपामीति स्वाहा ।
(इसीप्रकार चंदनादि चढाना ) श्रीमन्महापुराणं त्रिषष्ठिसत्पुरुषचारुचरितकथम्। बोधिसमाधिनिधानं पदपञ्चसहस्रमर्चेऽहम् ॥ ओं ही प्रथमानुयोगाय जलं निर्वपामीति स्वाहा ।
(इसीप्रकार चंदनादि चहाना ) अथ पूर्वगते भेदे प्रथमं पूर्वं भवेच्च कोटिपदम् । वस्तूत्पादादिकथं नानोत्पादं समर्हामि ॥२५॥ ओं ही उत्पादपूर्वाय जलं निर्वपामीति स्वाहा ।
( इसीप्रकार चंदनादि चढाना ) षण्णवतिलक्षसुपदं मुनिमानसरत्नकाञ्चनाभर णम् । अङ्गाग्रार्थनिरूपकमर्थ्य चाग्रायणीयमिदम्।।
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ओं ही अग्रायगीयपूर्वाय जलं निर्वपामीति स्वाहा ।
(इसीप्रकार चंदनादि चढाना ) पदसप्ततिलक्षपदं श्रीमतीर्थकरान्तबलकथकम् । महयामि मलयजाद्यैः पुरुषीर्यानुप्रवादमिदम् ।। ओं ही वीर्यानुभवादपूर्वाय जलं निर्वपामीति स्वाहा ।
( इसीप्रकार चंदनादि चढाना ) वस्त्वस्तिनास्तिचेति प्ररूपकं षष्ठिलक्षपदविशदम्। अञ्चामि वञ्चितापत्तदस्तिनास्तिप्रवादमिदम् ॥ ओं -ही अस्तिनास्तिप्रवादपूर्वाय जलं निर्वपामीति स्वाहा ।
(इसीप्रकार चंदनादि चढाना ) अष्टज्ञानतदुद्गमहेत्वाधारप्ररूपकं प्रयजे । ज्ञानप्रवादपूर्व कोटिपदं हीनमेकेन ॥२९॥ ओं ही ज्ञानप्रवादपूर्वाय जलं निर्वपामीति स्वाहा ।
(इसीप्रकार चंदनादि चढाना ) वर्णस्थान दिख मुखजन्तुवचोगुप्तिसंस्कृतिप्रकटम्। सत्यप्रवादमर्चे षट्पदयुतकोटिपदसुमितम्॥३०॥ ओं न्हीं सत्यमवादपूर्वाय जलं निर्वपामीति स्वाहा ॥
(इसीप्रकार चंदनादि चढाना ) ज्ञानाद्यात्मककर्तृत्वादियुतात्मस्वरूपकथकमिमम्। आत्मप्रवादमर्चे पारातिकोटपदसुपदम् ॥३१॥
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आ ही आत्मप्रवादपूर्वाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
( इसीप्रकार चंदनादि चढ़ाना ) बन्धोदयोपशमनोदीरणनिर्जरणमपि च कर्मततेः। कर्मप्रवादमर्चे अशीतिलक्षाग्रकोटिपदम् ॥ ३२ ॥ ओं ही कर्मप्रवादपूर्वाय जलं निर्वपार्माति स्वाहा ।
( इसीप्रकार चंदनादि चढाना ) प्रत्याख्यानं द्रव्ये पर्याये चापि यत्र निश्चलनम् । प्रत्याख्यानमिहार्वे तत्सततं चतुरशीतिलक्षपदम् ।। ओं न्हीं प्रत्याख्यानपूर्वाय जलं निर्वपामीति स्वाहा ।
(इसीप्रकार चंदनादि चढाना ) पञ्च च सप्त च गुरवः क्षुद्रा विद्याश्च यत्र शतसंख्याः दशलक्षपदं कोट्या महविद्यानुप्रवादमिदम् ॥ ओं ही विधानुमवादपूर्वाय जलं निवेषामीति स्वाहा ।
(इमीप्रकार चंदनादि चढाना ) अर्हच्चत्रयादिशुभव्यावर्णनमत्र यत्र पूज्यमिदम् । षड्डिशतिकोटिपदं कल्याणं नाम तत्सुधियाम् ॥ ओं ही कल्याणपूर्वाय जलं निर्वपामीति स्वाहा ।
(इसीप्रकार चंदनादि चढाना) अष्टाङ्गवैद्यविद्या गारुडविद्या च मन्त्रतन्त्रगता। प्राणावायं च यजे दशकोटिपदं त्रिकोटिपदम् ॥
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ओं ही प्राणाबायपूर्वाय जलं निपामीति स्वाहा ।
( इसीप्रकार चंदनादि चढाना) छन्दोऽलङ्कारकलामहास्पदंसकलविन्मुखादुदितमा क्रियाविशालं चालं नवकोटिपदं सदैव यजे॥३७॥ ओं ही क्रियाविशालपूर्वाय जलं निर्वपामीति स्वाहा ।
(इसीप्रकार चंदनादि चढाना) सार्द्धदादशकोटीपदप्रमाणं गणन्ति यतिवृषभाः। तल्लोकविन्दुसारं लोकायसुखप्रदं प्रयजे ॥३८॥ ओं ही लोकविन्दुसारपूर्वाय अलं निर्वपामीति स्वाहा ।
(इसीप्रकार चंदनादि चढाना)
शार्दूलविक्रीडितम् । पूर्वाण्यत्र चतुर्दशेति गदितान्यहद्भिरागश्च्युतैरिष्ट्वा यो विधिपूर्वकं बुधजनश्वार्पण संयोजयेत् । स श्रीपालउदारसारसुकृतस्त्रैलोक्यपूज्यं पदं लब्ध्वा सिद्धिपदं लभेत दुरघं दूरं च शूरो यजेत् ॥ ओं ही चतुर्दशपूर्वेभ्या महायँ निर्वपामीति स्वाहा॥ ३९ ॥ खखनेत्ररन्ध्रवसुनवखनेत्रपदसंयुता मता महताम् । स्याच्चूलिकाजलगता जलादिभिः पूज्यतेसततम्।। ओं ही जलगतायै चूलिकायै जलं निर्वपामीति स्वाहा ॥४०॥
(इसीप्रकार चंदनादि चढाना)
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तदिवपदमानसहितासुचूलिकास्थलगतासुमन्त्रायः स्थलगमनकार्यसारा समय॑ते गन्धतोयाद्यैः॥ ओंनी स्थलगतायै चूलकायै जलं निर्वपामीति स्वाहा ॥४१॥ . (इसीप्रकार चंदनादि चढाना) इन्द्रजालादिमन्त्रा मायाश्रितचूलिका चमत्कृतिका पूर्वोक्तपदसमाना जलदलतान्तादिभिः पूज्या ॥ ओं ही मायागतायै चूलिकायै जलं निर्वपामीति स्वाहा।।४२॥
(इसीप्रकार चंदनादि चढानः) । गगनगमनादिमन्त्राकाशगताचूलिकापितावतिका भुवनवरचन्दनायैःसमय॑तेचतुरनरनिकरैः॥४३॥ ओं ही आकाशगतायै चूलिकायै जलं निर्वपामीति स्वाहा ।
(इसीप्रकार चंदनादि चढाना) दीपिदिपनरसुवररूपविधात्री सुमन्त्रतन्त्राद्यैः। उपरिपरिकथितमाना रूपगताचूलिका चा॥ ओं ही रूपगतायै चूलिकायै जलं निर्वपामीति स्वाहा ।।४४॥
(इसीप्रकार चंदनादि चढाना)
शार्दूलविक्रीडितम् । इत्येवं घनपुष्पचन्दनलसच्छालीयसत्तण्डुलैः सौरभ्याधिकपुष्पचारुचरुसद्दीपौघधूपैः फलैः। दुर्वास्वस्तिकपूर्वकैश्च रचितं रक्षोनभूषं ददे
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चूलाभ्योऽर्थ्यमनर्घसम्पदिशुभश्रीपालजैनालये ॥ ओं ही जलस्थलमायाकाशरूपगताभ्यश्चलिकाभ्यो महार्य
निर्वपामीति स्वाहा ॥४५॥ सत्सामायिकसंस्तवौ जिनवरे स्यादन्दनाच प्रतिक्रान्तिर्वैनयिकं यथार्थमुदितं दीक्षादिसत्कर्मणः। वक्तस्यात्कृतिकर्म च द्रुमसुमादीनां दशानां मिदां स्याकालिकमेतदादियतिनामाचारशेषाश्रयम् ॥ भिषणामुपसर्गतत्फलकथं शास्त्रं प्रकीर्णाष्टमं । ना. नाभाणि तदुत्तराध्ययनकं योग्यान्यया शोधनम् । तत्कल्पव्यवहारमाहतयतित्रातस्य पुण्यास्पद कल्पाकल्पमयोग्ययोग्यकथकंकालाद्विवालिङ्गिनां। दीक्षाशिक्षणभावनात्मविलसत्संस्कारवर्यार्थवत् साधूनां गणपोषणादिच महाकल्पं ब्रीतिध्रुवम् । देवत्वाप्ति च पुण्डरीकममरेतत्कामिनीकृन्महा शब्दार्ग किल पुण्डरीकमुदिता चाशीतिकाशोधन।। तग्रन्थः खलु पञ्चविंशतिगुणं लक्षं सहस्रत्रयं त्रीण्येवात्रशतान्यशीतिसहितानित्रिश्च स्वाक्षः। शास्त्रं चैतदिहप्रकीर्णकमिति द्विःसप्तसंख्यं ददे
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तस्मै चार्य्यमनमुक्तिपदवीदीपायसिद्धिश्रिये॥ ओं ही चतुर्दशप्रकीर्णकेभ्यो जलं निर्वपामीति स्वाहा ॥४९।।
( इसीप्रकार चंदनादि चढाना)
अथ जयमाला। गुणरत्ननिधानं कृतिसन्मानं सकलविमलकेवल सदृशम् । श्रुतममलमुदारं त्रिभुवनसारं संस्तवीमि
विनयादनिशम् ॥ जिनेन्द्रस्य वार्जातसंजातमर्थ
समुद्योतयन्तं समुद्घ समर्थम् । समेयाक्षरं चाप्यमेयार्थभारं _श्रुतस्कन्धर्माडे त्रिलोकैकसारम् ॥ २॥ फलं सद्रतानां तपःसन्ततीनां
सुनिषणं भूषणं हृद्यतीनाम् । महातीर्थभूतं प्रपूतावतारं
श्रुतस्कन्धमीडे त्रिलोकैकसारम् ॥३॥ महाश्वभ्रपाते करालम्बदानं
सतां केवलज्ञानसम्पनिदानम् । विमुक्त्यङ्गनाकण्ठशृङ्गारहारं
श्रुतस्कन्धडे त्रिलोकैकसारम् ॥ ४॥
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३७
सुविद्धजनानां सुराधीशमान
समस्त शुभ वस्तु नैतत्समानम् । चिदानन्दशुद्धात्मसद्धधानतारं
श्रुतस्कन्धमीडे त्रिलोकेकसारम् ॥५॥ अमुष्यार्चया शत्रवो यान्ति नाशं
समाप्रोति चानन्तमत्रापि ना शम् । किमन्येन वाग्जालवादेन वारं
श्रुतस्कन्धमीडे त्रिलोकैकसारम् ॥६॥ प्रचण्डापि किं डाकिनी शाकिनीयं
विधत्ते भयं ऋरकर्माविनेयम् । ग्रहः पीडयत्यत्र भक्तिप्रकार
श्रुतस्कन्धमीडे त्रिलोकैकसारम् ॥७॥ सुक्न्ध्यापि नारी लभेतात्मजातं
न दुर्भिक्षमारीतिकोपात्मघातम् । निरीक्षेत जन्तुः स्मृतेरस्य चारं
श्रुतस्कन्धमीडे त्रिलोकैकसारम् ॥ ८॥ निमजोज्वले स्वधुनीनां जले त्वं
किमेषि त्रिनेत्रादिकेष्ट्या महत्त्वम् ।
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३८
विनैतं न चानोषि संसारपारं श्रुतस्कन्धमीडे त्रिलोकैकसारम् ॥ ९ ॥
अघार्कप्रतापेन चेत्पीडितात्मा फलार्थी च पीयूषपानेच्छुकात्मा । अरे दुर्मते मुञ्च मिथ्याविचारं
श्रुतस्कन्धमीडे त्रिलोकैकसारम् ॥ १० ॥
सुदेवेन्द्रकीर्त्तिश्व विद्यादिनन्दी
गरीयान् गुरुर्मेऽर्हदादिप्रवन्दी | तयोर्विद्धि मां मूलसङ्के कुमारं श्रुतस्कन्धमीडे त्रिलोकेकसारम् ॥ ११ ॥
घत्ता ।
सम्यक्त्वसु रत्नंस द्वतयत्नं सकलजन्तुकरुणाकरणम् श्रुतसागरमेतं भजत समेतं निखिलजगत्परितः
शरणम् ।। १२ ।। ओं -हीं श्रीश्रुतस्कन्धाय प्रक्षीणकर्मबन्धाय महार्घ्यं निर्वपा मीति स्वाहा । ओं नहीं श्रीं वद वद वाग्वादिने भगवति सरस्वति -हीं नमः) ( अयं जाप्यमन्त्रः अष्टोत्तरशतं एकविंशतिर्वा नव वा जपेत् । )
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३९
पूजितोऽयं श्रुतस्कन्धो ददातु तव वाञ्छितम् । शान्तिरस्तु नृपादीनां चतुर्विधगणस्य च ॥ ( इत्याशीर्वादः । ) इतिश्रीश्रुतस्कन्धपूजाविधिः समासः ।
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अथ सरस्वतीपूजा भाषा लिख्यते ।
दोहा ।
जनम जरा मृति छय करे, हरे कुनय जडरीति । भवसागरसों ले तिरे, पूजें जिनवचप्रीति ॥ १ ॥
ॐ ह्रीं श्रीजिन मुखोद्भव सरस्वतिवाग्वादिनि ! अत्र अब - तर अवतर । संवौषट् । अत्र तिष्ठ तिष्ठ । ठः ठः । अत्र मम सन्निहिता भवभव । वषट् ।
त्रिभंगी ।
छीरोदधि गंगा, विमल तरंगा, सलिल अभंगा, सुखसंगा । भरि कंचनझारी, धार निकारी, तृषा निवारी, हित चंगा ॥ तीर्थंकरकी धुनि, गनधरने सुनि, अंग रचे चुनि, ज्ञानमई । सो जिनवरबानी, शिवसुखदानी, त्रिभुवन मानी पूज्य भई ॥ २ ॥
ॐ ह्रीं श्रीजिन मुखोद्भव सरस्वतीदेव्यै जलं निर्वपामीति स्वाहा ।
करपूर मंगाया, चन्दन आया, केशर लाया, रंग भरी । शारदपद बंदौं मन अभिनंदौं, पापनिकंदौं, दाह हरी ॥ तीर्थ० सो० ॥ २ ॥
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ॐनी श्रीजिनमुखोद्भवसरस्वतीदेव्यै चन्दनं निर्वपानीति स्वाहा।
सुखदासकमोदं, धारप्रमोदं, अतिअनुमोद, चंदसमं। बहुभक्ति बढ़ाई, कीरतिगाई, होहु सहाई, मात मम।। तीर्थ सो० ॥३॥ ॐन्हीं श्रीजिनमुखोद्भवसरस्वतीदेव्यै अक्षतान् निर्वपामि ।।
बहुफूलसुवासं, विमलप्रकाशं,आनंदरासं, लाय घरे । मम काम मिटायो, शीलबढ़ायो, सुखउपजायो, दोष हरे । तीर्थ सो०॥४॥
ॐ हीं श्रीजिनमुखोद्भवसरस्वतीदेव्यै पुष्पं निर्वामि ।।
पकवान बनाया, बहुघृत लाया. सरविधि भाया, मिष्ट महा । पूजू थुति गाऊं, प्रीति बढ़ाऊं, क्षुधा नशाऊं, हर्ष लहा ॥ तीर्थ सो०॥५॥ ॐ -ही श्रीजिनमुखोद्भवसरस्वतीदेव्यै नैवेद्य निषामि ॥
कार दीपक ज्योतं, तमय होतं, ज्योति उदोतं, तुमहिं चढ़े। तुम हो परकाशक, भरमविनाशक, हम घटभासक ज्ञान बढ़े।तीर्थसो०॥६॥
ॐ हीं श्रीजिनमुखोद्भवसरस्वतीदेव्यै दीपं निपामि ।। शुभगंध दशोंकर, पावकमें घर, धूप मनोहर.
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खेवत हैं। सब पाप जलावै, पुण्य कमावै, दास कहावें, सेवत हैं। तीर्थं० सो०॥७॥
ॐ ही श्रीजिनमुखोद्भवसरस्वतीदेव्यै धूपं निवपामि ।।
बादाम छुहारी, लोंग सुपारी, श्रीफलभारी, ल्यावत हैं। मनवांछित दाता, मेंट असाता, तुम गुन माता, गावत हैं। तीर्थ सो०॥ ८॥ __ ॐ हीं श्रीजिनमुखोद्भवसरस्वतीदेव्यै फलं निर्वपामि ।।
नयननसुखकारी, मृदुगुनधारी, उज्ज्वलभारीमोल धरै ।शुभगंधसम्हारा, वसननिहारा, तुमतरधारा, ज्ञानकरै । तीर्थ सो०॥९॥ ॐ हीं श्रीजिनमुखोद्भवसरस्वतीदव्य वस्त्रं निर्वपामि ।।
जलचंदन अच्छत, फूल चरोंचत, दीपधूप अति, फल लावें। पूजाको ठानत, जोतुम जानत, सो नर द्यानत, सुख पावै ।। तीर्थ० सो० ॥१०॥ ॐ ही श्रीजिनमुखोद्भवसरस्वतीदेव्यै अयं निर्वपामि ॥
अथ जयमाला।
सोरठा ओंकार धुनिसार. द्वादशांग वाणी विमल । नों भक्ति उरधार, ज्ञान करै जड़ता हरे॥१॥
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बेसरी। पहला आचारांग बखानो । पद अष्टादश सहस प्रमानो। दूजा सूत्रकृतं अभिलाषं। पद छत्तीस सहस गुरु भाष१॥ तीजा ठाना अंग सुजान। सहस बियालिस पदसरधानं । चौथो समवायांग निहारं । चौसठ सहस लाख इकधारं ॥२॥ पंचम व्याख्या प्रगपति दरशं । दोय लाख अठ्ठाइस सहसं । उट्ठा ज्ञातृकथा विसतारं । पांचलाख छप्पन्न हजारं ॥ ३ ॥ सप्तम उपासकाध्ययनंग। सत्तर सहस ग्यारलख भंग ॥ अष्टम अंतकृतं दस ईसं । सहस अठाइस लाख तेईसं ॥ ४ ॥ नवम अनुत्तर अग विशालोलाख बानवे सहस चवालं॥ दशम प्रश्नव्याकरण विचारं। लाख तिरानवें सोल हजारं ।। ५॥ ग्यारम सूत्रविपाक सो भाखं । एक कोड चौरासी लाखं ॥ चार कोडि अरु पन्द्रह लाख । दो हजार सब पद गुरुशाखं ॥६॥ द्वादश दृष्टिवाद पनभेदं । इकसौ आठ कोडि पद वेदं ॥ अठसठलाख सहस छप्पन हैं। सहित पंचपद मिथ्याहन हैं ॥७॥ इक सौ बारह कोड़ि ब
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खाने । लाख तिरापी ऊपर जाने ॥ अठावन सहसपंच अधिकाने। द्वादश अंगमात्र पद माने॥ इकायन कोड़ि आठ ही लाखे । सहस चुरासी छहसौ भाखं । साढे इकीस शिलोक बताये। एक एक पदके ये गाये ॥९॥
पत्ता । जा बानीके ज्ञानसों, सूझै लोक अलोक । 'द्यानत जगजयवंत हो, सदा देत हूं धोका॥१॥ ॐ हीं श्रीजिनमुखागतसरस्वत्यै देव्यै पूर्णाध्य निर्वपामि ।
इति सरस्वतीपूजा ममाप्ता ।। म्वर्गीय कविवर पं. बनारसीदास कृत
शारदाष्टक
वस्तुछंद। नमो केवल नमो केवलरूप भगवान । मुख ओंकार धुनि सुनि अर्थ गणधर विचार । रचि आगम उपदिशै भविक जीव संशय निवारै। सो सत्यारथ शारदा, तासु भक्ति उर आन । छंद भुजंगप्रयातमें अष्टक कहीं बखान ॥१॥
भुजंगप्रयात । जिनादेश जाता जिनेन्द्रा विख्याता । विशुद्ध
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प्रबुद्धा नमो लोकमाता ॥ दुराचार दुनैहरा शंकरानी । नमो देवि वागेश्वरी जैनबानी ॥२॥ सुधा धर्म संसाधनी धर्मशाला । सुधा तापनि शनी मेघमाला ॥ महामोहविध्वंसनी मोक्षदानी। नमो देवि वागेश्वरी जैनवानी ॥३॥ अखै वृक्ष शाखा व्यतीताभिलाखा । कथा संस्कृता प्राकृता देश भाखा ॥ चिदानंद भूपालकी राजधानी। नमो देवि वागेश्वरी जैनवानी॥४॥समाधान रूपा अनूपा अछुद्रा । अनेकान्तधा स्यादवादांकमुद्रा॥ विधासमधाद्वादशांगी बखानी।नमोदेविवागेश्वरी जैनवानी ॥५॥ अकोपा अमाना अदंभा अलोभा। श्रुतज्ञानरूपी मतिज्ञान शोभा ॥ महापावनी भावना भव्य मानी । नमो देवि वागेश्वरी जैन. बानी ॥ ६॥ अतीता अजीता सदा निर्विकारा। विषै वाटिका खंडिनी खडगधारा ॥ पुरापाप विक्षेपकर्तृ कृपानी । नमो देवि वागेश्वरी जैनवानी॥७॥अगाधा अबाधा निरंध्रा निराशा। अनंता अनादीश्वरी कर्मनाशा ॥ निशंका निरंका चिदंका भवानी । नमो देवि वागेश्वरी
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४६ जैनवानी ॥८॥अशोका मुदेका विवेका वि. धानी। जगजंतुमित्रा विचित्रावसानी। समस्ताचलोका निरस्ता निदानी । नमो देवि वागेश्वरी जैनवानी ॥ ९॥ वस्तुछंद ।
जैनवाणी जैनवाणी सुनहि जे जीव । जे आगमरुचि धेरै जे प्रतीति मनमाहि आनहि । अवधारहिं जे पुरुष समर्थ पद अर्थ जानहि ॥ जे हित हेतु बनारसी , देहिं धर्म उपदेश । ते सब पावहिं परम सुख, तज संसार कलेशा॥१०॥
इति शारदाष्टक । देवरी निवासी कवि-नाथूरामप्रेमीकृत. सरस्वतीस्तवन।
शिखरिणी। जगन्माता ख्याता जिनवरमुखांभोजउदिता। भवानी कल्याणी मुनिमनुजमानी प्रमुदिता ।। महादेवी दुर्गा दरनि दुखदाई दुरगती । अनेका एकाकी दययुतदशांगी जिनमती॥१॥ कहें मातः! तोकों यदपि सब ही नादिनिधना। कथंचित् तो भी तू उपजि विनशै यों विवरना॥ १ दु.खद ई दुगीतको नष्ट करनेवाली । २ द्वादशागी । ३ अनादिनिधन ।
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१७
धरे नाना जन्म प्रथमजिनके बाद अबलों । भयो त्यों विच्छेद-प्रचुर तुव लाखों बरपलों ॥२॥ महावीरस्वामी जब सकलज्ञानी मुनि भये। विडोजाके लाये समवसृतमें गौतम गये। तबै नौकारूपा भवजलधि माहीं अवतरी। अरूपा निर्वर्णा विगतभ्रम सांची सुख करी ॥३॥ करें जैसें मेघधनि मधुर त्यों ही निरखरी। खिरी प्यारी प्रानी ग्रहण निजभाषामहँ करी॥ गणेशोंने झेली बहुत दिन पाली मुनिवर। रही थी पै तौलों तिन हृदयमें ही घर करें ॥४॥ अवस्था कायाकी दिनदिन घटी दीखन लगी। तथा धीरे धीरे सुबुधि विनशी अंगश्रुतकी । तबै दो शिष्योंको सुगुरु धरसेनार्य मुनिने । पढ़ाया कर्म-प्राभूत सुखद जाना जगतने ।।५।। उन्होंने हे मातः लिखि लिपि करी अक्षरखती । सवारी ग्रन्थों में झुंततिथि मनाई सुखवती । सहारा देते जो नहिं तुमहिं वे यों तिहि समैं । १-२-३ इन अक्षरोंको सस्कृतकं नियमानुसार दीर्घ पढना चाहिये । ४केवल ज्ञानी । ५ इन्द्रके बुलाये हुए। ६ निरक्षरी-अक्षररहित । ७ गणधरोंने । ८-९ संस्कृतमें पादान्त्य दीर्घ होता है । १० श्रुतपचमीका पर्व ।
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श्रुतपंचमी क्रिया।
जिन महाशयोंको श्रुतपंचाके दिन बांचनेके लिये संस्कृत मूल श्रुतावतारकथा और श्रुतभक्ति तथा श्रुतपूजाकी जरूरत हो वे महाशय श्रीयुत पं. कलापा भरमापा, निटवे जैन मालिक जैनेन्द्रकापखाना कोल्हापुरसिटौके पास डांकखर्चसहित अ.. ढाई आनेकी टिकट भेजकर श्रुतपंचमी क्रिया नामकी संस्कृत पुस्तक मगालेवें.
जिनवाणी सेवक पन्नालाल बाकलीवाल.
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श्रीः मुनिशदीपिका।
मुलभग्रन्थमाला, द्वितीय पुष्प ।
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FORE-- MAHESTRAGRA-ORERATRA
नमो गुरुभ्यः।
सुलभ ग्रन्थमालाका द्विनीय पुष्प ।
है है
स्व० श्रीमती चिरौंजी- है है बाईके म्मरणार्थ ।
है
ear-MP.---2-STREEPEXPERIOTRAM
कांधलानिवासी स्वर्गीय यति श्रीनयन
सुखदासजी रचित मुनिवंश दीपिका
कविवर वृन्दावनजीकृत गुरुस्तुति गुर्वष्टक
आदि सहित ।
HTRARASTRA.OREEMA SARETRIOR TREA4
जिसे वम्बईस्थ श्रीजैनग्रन्धरत्नाकरकार्यालयने निर्णयसागरप्रेस बम्बईमें छपाकर प्रकाशित की।
श्रीवार नि० संवत् २४३७-दिगम्बर १९१०. प्रथमावृत्ति] [न्यो• आधा आना।
antaya-REKHA
H
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Published by Shri Nâthuram Premi, Proprietor Shri-Jain Grantha-Ratnakar, Hirabag, Bombay.
Printed by Balkrishna Ramchandra Ghanekar at the Nirnaya-sagar Press, House No. 23, Kolbhat Lane, Kalbadevi Road, Bombay.
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press
यति श्रीनयनसुखजी विरचित। मुनिवंशदीपिका।
दोहा। नमूं आप्त निग्रंथगुरु, अरु आगम निर्दोष । दरसि परसि उपदेश सुनि, पावत मन संतोष॥१॥ ज्ञान गुरुनतें होत है, गुरुजननै उपगार । गुरुजनौं जान्या परै, बंधमोक्षअधिकार ॥२॥ 'दृगसुख ' या संसारमें, गुरुसम हितू न कोय। सुपथ कुपथ बतला गये, जातै परहित होय ॥३॥ पंचम काल करालमैं, प्रोहण गुरुउपदेश । छोड़ि गये भवि जीव हो, तारन तरन विशेष ॥ ४ ॥ ऐसे सद्गुरु देवको, मत विसरौ उपगार । तुम भवसागरमैं पड़े, वे जिहाज करतार ॥५॥ तुमकौं सतगुरु नामकी, जो न होय सुधि वीर । गुणसमेत मुनिवंशकों, सुनि करो तृप्त शरीर ॥ ६॥ ककुंभांबर-अन्वयवि, जैनजती निर्ग्रथः।। यथा यथा ज्ञानी भये, सुन तिनको विरतंत ॥ ७॥
१बंध और मोक्षका अध्याय वा विषय । २ जहाज । ३ हे भव्यजीवो। ४ दिशारूपी जिनके वस्त्र है ऐसे दिगम्बर, उनकी आम्नायमे ।
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मुनिवंशदीपिका । महान् दिगम्बराचार्य।
सवैया इकतीसा ( मनहर )। वीरजिनराय जद पायौ है अकार्य-पद, केवली सु तीन ताके पीछे और भये हैं । गौतम सुधर्ममूरि फेरि जम्बू कर्म चूरि, बासठ वरसमाहिं तीनों शिव गये हैं। तीनौं भगवंत अरहंत हितू जान गुण, ज्ञानके निधान उपगार बड़े किये हैं । देकै पंथ सांचौ आप-सांचौ छोड़ि सांचे भए, ऐसे गुरुपाँय दास नैनसुग्न नये हैं॥ ८ ॥ जंबूस्वामीके पिछार सौ वरसकेमँझार, पांच श्रुतकेवलि जिनेन्द्र-च धरै हैं । संपूरन श्रुतज्ञान द्वादशांगके निधान, दुखी देखि जीवनपै दयाभाव करे हैं । जीव औ अजीवके दरव गुण परजाय, लोकथिति आदिके कथन अनुसरे है । ऐसे विष्णु दुजे नंदिमित्र और अप्राजित, गोवर्द्धन भद्रबाहुपाँय हम परे हैं ॥ ९ ॥ पीछे एकसौ तिरासी वर्षमाहिं ग्यारा साधु, भए ग्यारा अंग दशपूर्व विद्या पढ़ी है । प्रथम विशाखामूरि प्रोष्ठिल सुगुणभूरि, क्षत्रिय तृतीय जयसेन बुधि बढ़ी है । नागसेन सिहारथ धृतिषण विजैदेव, वुद्धिमान तथा गंगदेव गुण गढ़ी है। धर्मसेन आदि गुरुदेवकी सुजस-बेलि, देखौ भविजीव लोक-मंडपंप चढ़ी है ॥ १०॥ धर्मसेनदेवके पिछारी कालदोप पाय, द्वादशांगमाहिं एक अंग ज्ञान गयो है। वीस और दोयसौ वरसमाहिं पंच मुनि,
१ यदा-जब । २ सिद्धपद । ३ अपना सांचा अर्थात् शरीर छोड़कर । ४ अपराजितपरि । ५ बद्धिलिग भी नाम है।
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यति श्रीनयनसुखजी विरचित। ३ भए जिन एकादश अंग पार लयौ है। जयपाल महांतप पांडुदेव ध्रुवसेन, तथा कंसदेव नाम आचारज भयो है। जाके उपगारकी सुगंधते जगत सब, देखौ भविजीव अजौं महकाय रह्यौ है ॥ ११॥ फेर कंसरिके पिछार एकसौ अठार, वरसमँझार पांच गुरु जस लियौ है । निग्रंथ भए जैन पंथ पग दए एक, आचारांग अंगको उद्योत जिन कियौ है । गुरुने सुभद्र यशोभद्र भद्रबाहु तथा, महायश लोहसरि नामधेय दियौ है। पीछे भर्तभूमिमाहिं अंग ज्ञान रह्यौ नाहिं, नैनसुख तिनके पदाज प्रनमीयौ है । ॥ १२ ॥ सुनो भाई भव्य महावीरजीको मोक्ष गए, छस्सै पांच वरस वितीतेकी कहानी है। उज्जैन नरेश वीरविक्रमको शाको चल्यौ, अजौं वृद्धिरूप यह पुन्यकी निशानी है ॥ विक्रमको संवत अठत्तर वरतमान, तामैं अंगज्ञान गयो संतन बखानी है। पांचों अंक जोड़ लेहु छस्सैपै तिरासी देहु, लोहरि गुरुनै सन्यास विधि ठानी है ॥ १३ ॥
जिनवाणीकी परम्परा।
मनहरण । नीसरी अनंततीर्थराज हिमवंतन , गणधर मुखकुंडपरि
१ दूसरा नाम नक्षत्राचार्य है । २ भग्तक्षेत्रमे। ३ निर्वाणके ६०५ वर्ष पीछे उज्जैन नरेश विक्रमादित्य नही, किन्तु शक विक्रम अर्थात् शालिवाहन है, जिसका शक संवत् चलता है । कविवरका यह भ्रम है, जो संवत्कर्ता विक्रमको ६०५ वर्प पीछ लिखते है । ४ पहले कहे हुए ६२, १००, १८३, २२० और ११० वर्षको जोड़ दो-६८३ वर्ष । ५ अनन्ततीर्थकररूपीहिमालयोसे निकली।
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मुनिवशदीपिका। विसतरी है । स्याद्वाद जोरतें मिथ्यात नंग तोर फोर, धारा वही सदा ज्ञानसागरमैं परी है । करम भरम भेत निजानंदभूति देत, मुनिभिरुपोसित पवित्र सुरसरी है । विसराम भूमि जानि जीवनपै दया ठानि, उमास्वामी आदि सूत्र रचना सु करी है ॥ १४ ॥
___ छप्पय छंद । है अनादि जैवंत, मुक्तिपर्यंत तासु हैद । तारन शील सदीव, हरै चिरकर्म-महागद ।। पशु पंछी सुनि तिरै, देव नर इन्द्र कहावै । मुनि हत्याके भरे, अनुक्रम शिवपुर पावै ॥ मणिमंत्ररूप जिन शारदा, मिथ्याविष नाशन जरी। परहेत सूत्रको पारमथि, टीका करि गुरु उद्धरी॥१५॥ सूत्रकारों तथा टीकाकारोंकी प्रशंसा ।
दोहा। जिन जिन श्रीमुनिरायनें, सूत्रकारिका कीन । कछुयक तिनके नाम गुण, कहत नैनसुख दीन॥१६॥ चाल-" चैत पीछले पाख रामनौमीको जनम लिया ।"
इस बारहमासेकी । राग-बरवा ।
भगवान उमास्वामी। प्रथम उमास्वामी तत्त्वारर्थ, अधिगम श्रुत बरना। मोक्षशास्त्र जैवंत जगतमैं, है तारन तरना॥
आप्तको जानैं सिर न्याया, १ पर्वत । २ मुनियोके द्वारा पूजनीय । ३ गंगा । ४ सीमा । ५ महारोग। ६ तत्त्वार्थाधिगमसूत्र।
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यति श्रीनयनसुखजी विरचित । दर्शनज्ञानचरित्रमई शिवमारग बतलाया ॥ १७॥ जीव अजीव दरव गुण परजय, नाना विध गाये । लागी कर्म अविद्या जिनकै, तिनकौं समझाये॥
दश अध्याय करी, कलिकलंकनिर्दलन धर्मकी, दे गये मूल जरी॥
मेरे मन ऐसा गुरु भावै, आप तिरै औरनकौं तारै, मारग बतलावै ॥ १८ ॥
समन्तभद्रस्वामी। श्रीसामंतभद्र आचारज, कथन किया नीका । गंधशतक नामा जिन रचियौ, महाभाष्य टीका ॥
सप्त नय जामैं गुरु बरनी, जिनत वस्तु म्वभाव सधै अझ, मंशय भ्रम हरनी॥१९॥ भई आतमा भ्रष्ट सदात, मारग ना पावै । संशय विभ्रम हेत औरकी, औरहि बतलावै ॥
सुगुरुने सबका भ्रम खंडा, शिप्यनकौं दे गये जेनका, जेवंता झंडा ।।
मेरे मन ऐसा गुरु भावे, आप तिरै औरनिकों तारे, मारग बतलावै ।। २० ॥
अकलंकभट्ट । पीछे श्रीअकलंकदेव मुनि, भए सुगुरु ज्ञानी । बड़े वंशमैं जनम लियौ जिन, बड़ी दया ठानी ।।
सूत्रमैं जान मन दीना, १ गन्धहस्तिमहाभाष्य-तत्त्वार्थसूत्रकी बड़ी टीका ।
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मुनिवंशदीपिका |
रचिकै राजवारतिक टीका, अर्थ प्रगट कीना ॥ २१ ॥ tय निक्षेप प्रमाण कथन सब, सम्यकके कारन | सोलह सहस प्रमान रच्यौ भौ, - सागर से तारन || उमास्वामीका मत लीना,
ताका शुभ उपदेश सुगुरुनैं, हमकौं दे दीना ॥ मेरे मन ऐसा गुरु भावै,
आप तिरै औरनिकौं तारे, मारग बतलावै ॥ २२ ॥ विद्यानन्द स्वामी ।
विद्यानंदि मुनिंद जगत में, भए सुगुरु ज्ञानी । आतपरीक्षा शास्त्र रच्यो, त्रय सहस्र परवानी । आप्तमीमांसा पुनि बरनी,
ठारा सहस प्रमाण ग्रंथ, सो मिथ्यातमहरनी ॥ २३ ॥ पुरुष प्रमाणतनी मुरनर मुनि, कर सबी पूजा । वीतराग सर्वज्ञ विना नाहें, आप्तदेव दूजा ।
वही है देव देव नीका, श्लोकवारतिक रची फेरि, दशमूत्रनिकी टीका ||२४|| बीस हजार प्रमाण कही इस, ग्रंथतनी सूची | परउपगारनिमित्त दे गए, मोक्षमहल- कूँची || पार नहिं सतगुरुके गुनका,
रचे और बहु ग्रंथ ठीक नहिं, मिला मुझे उनका । मेरे मन ऐना गुरु भावै,
आप तिरै औरनिकौं तारै, मारग बतलावें ॥ २५ ॥ पूज्यपादस्वामी |
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यति श्रीनयनसुखजी विरचित । पादपूज्य गुरुदेवज्ञानकी, जाऊं बलिहारी । जिन रचियौ सर्वार्थसिद्धि शुभ, टीका अघहारी ।। ____जीवकौं बहुविधि समझाया, तत्त्वारथ अधिगम शिवश्रुतका, भेद जु बतलाया ॥२६॥ चार सहस परमित वह टीका, सतगुरुनैं भाखी । बंध मोक्षकी कथा जीवकी, छानी नहिं राखी ॥
सुगुरुका जो कोई गुण भूलै, हिंडै' बहु संमार सदा, जगजालमाहिं झूलै ॥
मेरे मन ऐसा गुरु भावे, आप तिर औरनिकों तारे, मारग बतलावै ।। २७ ।।
धरसेन स्वामी। श्रीधरसेन मुनीश्वर जगम, ऐसा तप कीना। अग्रायणी पूर्वका किंचित्, ज्ञान जिनौं लीना ।
शिष्य गुणवंत दोय जिनकै । पुष्पदंत भुजबली ज्ञानकी, वृद्धि भई तिनकै ॥२८॥ धवल कोक (?) गंभीर ग्रंथमैं, कर्मप्रकृति भाखी। जैसे उदय उदीरण हो है, छानी नहीं राखी॥
देशकर्णाटकके माहीं, विद्यमान इस कालमाहिं, पर ज्ञानगम्य नाहीं।
__ मेरे मन ऐसा गुरु भावै, १ फिरे, भ्रमण करे । २ छुपी । ३ मूडबिद्री (सौथ-कानड़ा)मे । ४ ज्ञानगम्य नहीं है, इसका अभिप्राय यही लेना कि, कठिन है । पर परिश्रम करनेसे विद्वान उन्हें अब भी पढ़ सकते है और अभिप्राय समझ सकते है।
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मुनिवंशदीपिका। आप तिर औरनिकौं तारै, मारग बतलावै ॥२९॥
धरसेनकी शिष्यपरंपरा। ताही संप्रदायके श्रीगुरु, देवोंके कारन । धवल जय धवल महाधवल श्रुत, तीनौं अघहारन।
उसी करणाटकमैं पावै, सुन नर मुनि धर भाव भक्ति नित, दर्शनकौं आ3॥३०॥ श्रीचामुंडरायकृत वनमैं, जिनमंदिर कहियै । तामैं तीनौं ग्रंथ ताड़के, पत्रोंपर लिहियै ॥
लिखी करणाटकवरणोंमें । एक बात तुम और सुनो जी अपने करणोंमैं ।
मेरे मन ऐसा गुरु भावै, आप तिरै औरनिकौं तारै, मारग बतलावै ॥ ३१॥ नेमिचन्द्रसिद्धान्तचक्रवर्ती ।
सवैया इकतीसा। आचारज सिरी नेमिचंद्र करणाटकमैं, धवलादि मूत्रनके पारगामी भये हैं । ताही अनुसारतें गोमट्टसार आदि कैई, गाथाबंध ग्रंथ सतगुरु वरनये हैं । लौकिक अलौकिक गणितकारतामैं कह्यौ, द्रव्य क्षेत्र काल भाव भिन्न भिन्न कहे हैं। पायो है 'सिद्धांतचक्रवर्ति' पद जगमाहि, ऐसे गुरु जानि दास नैनसुख नये हैं ॥ ३२॥
गुणधरस्वामी।
गीताछंद। मुनिराज श्रीगुणधर जगतमैं, ज्ञान गुण ऐसा लिया। १ पुरानी कर्णाटकी लिपिमें—जिसके पढ़नेवाले जानवाले इने गिने है।
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यति श्रीनयनसुखजी विरचित। ज्ञानप्रवाद सिद्धांतका, जिन तीसरा प्राभृत किया । कुज्ञान अरु सुज्ञान कहि, विज्ञानकी कथनी करी । सो गुरु सदा जयवंत जिन, भविजीवकी संशय हरी॥३३॥ हस्तिनाग और यतिनायक।
सवैया। हस्तिनाग नामा मुनि ज्ञान परवादतने, तीजे प्राभृतको ज्ञान पढ़ लियौ है । तानैं यतिनायक मुनीशकौं पढ़ायौ तब, तानें सूत्रचूर्णिका तदनुकूल कियौ है ॥ ताकौं फेरि अरथ-समुद्धरण टीका करी, सत्यक्षीरसागर” सार काढ़ि पियौ है । ताहीके रसैया परमारथ सधैया जन, तिनके पदारविंदमाहिं सीस दियौ है ॥ ३४ ॥
कुन्दकुन्दाचार्य। कुंदकुंद मुनिराज चूर्णिका समुद्धरण, दोनोंतनौं ज्ञान पाय तीन सूत्र कहे हैं । पंचासतिकाय समैसार प्रवचनसार, जाकौं सुनि संतनके चित्त थिर भए हैं ॥ आतमीक परम धरम करता करम, क्रियाके सरूप भिन्न भिन्न वरनएं हैं । जीव नटवाके सब नाटक बताये गुरु, स्याद्वाद जोरतें मिथ्यात वन दहे हैं ॥ ३५॥
अमृतचन्द्रसूरि। अमृतसुचंद मुनि रची देववंद पुनि, टीका समसार प्रवचनसार ग्रंथकी । 'पुरुषअरथसिद्धिको उपाय'
१ रसिया । २ इन तीन सूत्रोके सिवाय कुन्दकुन्दखामीके ८१ पाहुड़ तथा द्वादशानुप्रेक्षा आदि और भी बहुतसे ग्रन्थ है । ३ देवों करके पूज्य । ४ पुरुषार्थसिद्ध्युपाय । पंचास्तिकायटीका तथा तत्त्वार्थसार आदि और भी कई
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मुनिवंशदीपिका |
ग्रंथ फेर, रच्यौ जामैं राखी मरयाद मोक्ष पंथकी ॥ चरणानुयोग दरवानुयोग जामैं कहे, जाकौं सुनि शुद्ध बुद्धि होत है असंतकी । वीतराग भाव धरि जानिवेक आप पर, कीये हैं कथन जैसी आज्ञा अरहंतकी || ३६ || वसुनन्दि, वहकेर, योगीन्द्रदेव, और शुभचन्द्र |
वसुनंदि तथा वट्टकेर मुनिइंद चंद, दोऊ मुनि धरमधुरंधर सु भए हैं ॥ कहे वसुनंदिसंहितादिक अनेक ग्रंथ, जाक सुनि मिथ्यामती जैनी होय गए हैं । जोगीन्द्र मुनिंद्रचंद्रजीने फेर आतमाके, हेत परमातमाप्रकाश वरनए हैं । शुभचंद्रजीने ज्ञानअर्णव सिद्धांत कौ, जामैं दशलक्षण धरम कह दए हैं ॥ ३७ ॥
पद्मनन्दि, शिवकोटि ।
पद्मनंदिजीनें पद्मनंदिपंचवीसी रची, महाज्ञानके प्रमान देव गुण गाये हैं | आराधनंसार शिवकोटि मुनिजीनें रच्यौ, सातसंधिमाहिं शुभ मारग बताये हैं | दरशन ज्ञान और चारितको रूप कहाँ, चौथी बेर बाराभावनाके भाव भाये हैं । जाकी कथा मुनि राग दोप भाव हनि सदा, भव्य जीव अनुकूल मारगमें आये है || ३८ ॥ देवनन्द स्वामी |
देवनंदिने जिनेंद्रव्याकरण आगममैं, नाना भांति
ग्रन्थ अमृतचन्द्रस्वामीके है । १ भगवती आराधना | २ पूज्यपाद और देवनंदिको दो समझकर कविवरने दो जगह लिखे है । यथार्थमें पूज्यपादका ही दूसरा नाम देवनन्दि है । ३ जैनेन्द्रसूत्र |
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यति श्रीनयनसुखजी विरचित । ११ प्राकृतके शब्द सिद्धि किये हैं। सातौं ही विभक्ति पटलिंग करता करम, कर्ण संप्रदान अपादान कहि दिये हैं । फेरि अधिकरण समास द्वंदजादि कहे, तद्धितादि क्रियाके सुभाव दरसिये हैं । तेई शब्द फेरि संसकृतसेती सिद्ध किये, शब्दविद्याधीश ज्ञानी ताकौं प्रणमिये हैं ॥ ३९॥
यशोनन्दि माणिक्यनन्दि आदि। रची हैं रुचिर जैनसंहिता सुगुरु फेर, वर्ण और आश्रमोंकी संहिता सुनाई है । यशोनंदिसंहिता रची है वीरसंहिता सुनी हैं दशसंहिना सुगुरुनें बनाई है ॥ भये मुनि माणिकादिनंदि नामा महागुणी, सातौं नय पांचौं परमाणता जनाई है। रच्यो है प्रमेय-अरविंद-मारतंड ग्रंथ, वस्तुकी खभाव साधि भ्रमता हनाई है ॥४०॥
जिनसेन स्वामी। सिरी जिनसेन मुनि भये हैं महान गुनि, रच्यो है महापुराण आदि नाम धरिकै । कल्पकालतनैं पटकालनकी गति थिति, रचना प्रलेको हाल कह्यो शुद्ध करिकै ।। च्यार बीस तीर्थकर दशदोष चक्रधर, नारायण नवको कथानक उचरिकै । नव प्रतिनारायण नव हलधर कहे, जैसे जीव पुन्य पाप भोगैं बंध परिकै ॥४१॥ भोग भूमिको उद्योत जैसे जैसे सुख होत, चौदा मनुअंतरकी जैसी कही कथा है । जसै भोगभूमि गई जसें कर्मभूमि भई, आदि
१ प्रसिद्ध जैनेन्द्रमें प्राकृत के शब्दोकी सिद्धि नहीं है । २ वीरनन्दिसंहिता । ३ प्रमेयकमलमार्तण्ड । ४ महापुराणका पूर्वभाग आदिपुराण रचा ।
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मुनिवंशदीपिका । नाथ ईश्वरको जन्मयोग यथा है । प्रभुने भवांतरमैं जैसे जैसैं तप कीये,जैसे दान दीये जातें जन्ममर्ण हता है। देश वर्ण वंश असि मसि कृषि दीक्षा निरवान इतिहासनको ठीक ठीक पता है ॥ ४२ ॥
गुणभद्राचार्य । गुणभद्रसरि भए गुणभरपूर जानैं, कियौ भर्म दुरि रच्यो उत्तरपुरान है । भूत वा भविष्यत वरतमान तीर्थराज, तनैं मात तात गोत कुलको कथान है। आयु काय जनम पुरीको भिन्न भिन्न भेद, अंतराल भोग जोग पानौं ही कल्यान है। वर्तमानकालमैं कलंकी जेते होनहार, रचना प्रलैको जामैं ठीक ठीक ज्ञान है ॥४३॥
रविषेण और जिनसेन । सिरी रविषेण मुनिरायनैं रच्यो है सिरी, रामको पुराण जाके सुनैं कर्म कटें हैं । पुन्य और पापको प्रगट फल जामैं देखि, ज्ञान पाय जीव भ्रम भावनतें हटें हैं ॥ पुन्नाटक गणमैं भये हैं पुनि दूजे सिरी, जिनसेन मुनि जाकौं सब जीव र₹ हैं। रच्यो हरिवंशको पुराणतनौं सुवखान, जामैं साधु संतनके चित्त आय डटें हैं ॥ ४४ ।।
___गमकाचार्य और वादिराजमुनि । भये हैं गमक नाम साध तजिकै उपाधि, ज्ञानकी चम१ हरिवंशके कर्ता जिनसेन और आदिपुराणके कर्ता जिनसेन एक ही है। यह बात अब निर्विबाद सिद्ध हो चुकी है । पहले कविवर सरीखा बहुत लोगोका ख्याल था । २ गमक नामके आचार्य नहीं हुए है। नयनसुखजीने वृन्दावनजीकी गुर्वावलीका 'वंदामि गमक साधु जो टीकाके धरैया'
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यति श्रीनयनसुखजी विरचित ।
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कतैं रमक राग हरी है । छमक छमक पद पदकी जमक जोरि, नाना भांति काव्यनकी रचना सु करी है । वादिराज मुनि परवाद हरवे के हेत, रचे हैं अनेक ग्रंथ जामैं नय धरी है। ज्ञानकी छरी है लर परी है अज्ञानसेती, सुघरमैं धरी है सुगंधसेती भरी है ॥ ४५ ॥
सिद्धसेन आदि ।
सिद्धसेन भये फेर भये देवदिवाकर, फेर जयवाद फेर सिंहदेव भये हैं । फेर सिंहजय जसोधरजी भये हैं। फेर, सिरीदत्त काणभिक्ष आठवें सु कहे हैं । पात्रकेशरी - मुनीश सिरी वज्रसूरी ईश, महासेन वीरसेन जयसेन लहे हैं । फेर सिरी जटाचार तथा सिरीपाल देव, वागमीक प्रभाकर तिन्हें हम नये हैं ।। ४६ ।
उपसंहार ।
ऐसे ऐसे च्यारौं अनुजोगके कथैया श्रुत- सिंधुके मथैया शिवपंथ पग दीनों है । पर उपगारहेत होय के प्रशांतचेत,
यह पद देखकर गमक नामके कोई साधु समझ लिये है और यहां लिख दिया है । यथार्थ में गमक का अर्थ 'ग्रन्थकर्ताकी कृतिका मर्म शोधकर निकालनेवाले' होता है । वृन्दावनजीने वाग्मी, गमक, वादी और कवि सबको नमस्कार किया है | १ वृन्दावनजीकी गुर्वावलीका अभिप्राय न समझकर नयनसुखजीने यहां भी ऐसी ही भूलकी है । देवदिवाकर कोई जुदे आचार्य नहीं है । सिद्धसेन ही सिद्धसेनदिवाकर कहलाते थे । 'देव' शब्द दिवाकरके साथ नही है, किन्तु गुरुके साथका है यथा- " जयवंत सिद्धसेन सुगुरूदेव दिवाकर | जय वादिसिंह देवसिंह जैति जसोधर ||२४|| " इसी प्रकारसे जयवाद, सिंहदेव और सिंहजयमें भी ' दसरामसरा ' हुआ है । वादिसिंह और देवसिंह चाहिये ।
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मुनिवंशदीपिका। रचे जैन ग्रंथ और जग जस लीनों है ॥ प्रथमानुजोगमैं कयौ है पुन्य पाप फल, करणानुजोगमैं त्रिलोक दरसीनौं है । चरणानुजोग मुनि श्रावक अचार भेद, दरवानुजोग आतमीक रस भीनौं है ॥ ४७॥ ऐसें मुनिवंशदीपिकाको वरनन कियौ, गुरुनकी जैसी करतूति सुनि लही है। पिछले समैकी बात ग्रंथनमें अवदात, सोई मैं करी विख्यात जानौं याही सही है । जब गुरुकुलइतिहास सुनिव आवै, तब मन भावे जैनपंथ झूठा नहीं है। ऐसी परतीतसे जगत विपरीत लागै, याहीतें गुरोंकी नाममाला हम कही है ॥४८॥
ग्रन्थकर्ताका परिचय । देश कुरुजांगलमै वसे हैं अनेक पुर, सिरी हस्तनागपुर जैनहीको धाम है । ताहीकी पछांहमाहिं कांधलानगर एक, तामै मेरे गुरु जाको भूधरजी नाम है ॥ ताके हम शिष्य परतच्छ जग जानत है, चलन गृहस्थ कहिवेको यति राम है । दास नैनसुख अरदास करै संतनसौं, रची मैं सुधारौ तुम थारौ यह काम है ॥४९ ॥ विक्रमको संवत उन्नीससौ छबीस अब, भाद्रपदतनी वर्तमान तिथि कारी है। पांचै भृगुवार अश्वनी नक्षत्रकेमँझार, रचना जमक जोरि मोरिकै सुधारी है । जौली नभमाहिं भानु मंडल मृगांक रहै, जौ लौ कनकाचल अचल अविकारी है ॥ तोलौं भवि जीवनके कंठमैं उद्योत करो, गुरुनकी नाममाला आशिप हमारी है ॥ ५० ॥
इति श्रीमुनिवंशदीपिका समाप्ता ।
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काशी निवासी कविवर बाबू वृन्दावनजी कृत
गुरुस्तुति ।
शैर ।
जैवंत दयावंत सुगुरु देव हमारे । संसार विषमखारसौं जिन भक्त उधारे ॥ टेक ॥ जिनवीरके पीछें यहां निर्वानके धानी । वासठ वरपमें तीन भये केवलज्ञानी ॥ फिर सौ वरमें पांच ही श्रुतकेवली भये । सर्वांग द्वादशांगके उमंग रस लये || जैवंत ॥ १ ॥ fae बाद वर्ष एक शतक और तिरासी । इसमें हुए दशपूर्वरयार अंगके भासी ॥ ग्यारे महामुनीश ज्ञानदानके दाता । गुरुदेव सोइ देहिंगे भविवृन्दको साता || जैवंत ॥ २ ॥ तिसवाद वर्ष दोय शतक बीसकेमाहीं ।
मुनि पंच ग्यार अंगके पाठी हुए यांहीं ॥ तिस बाद वरप एकसौ अठारमें जानी । मुनि चार हुए एक आचारांगके ज्ञानी ॥ जैवंत ॥ ३ ॥ तिम बाद हुए हैं जु सुगुरु पूर्वके धारक । करुणानिधान भक्तको भवसिंधुउधारक || करकंजतें गुरु मेरे ऊपर छाँह कीजिये । दुखदको निकंदके, अनंद दीजिये ॥ जैवंत ॥ ४ ॥ जिनवीरके पीछेस वरष छहसौ तिरासी । तब तक रहे इक अंगके गुरुदेव अभ्यासी ॥
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गुरुस्तुति ।
तिस बाद कोई फिर न हुए अंगके धारी । पर होते भये महा सुविद्वान उदारी || जैवंत ॥५॥ जिनस रहा इस कालमें जिनधर्म्मका साका । रोपा है सात मंगका अभंग पताका || गुरुदेव नयंधरको आदि दे बड़े नामी । निरग्रंथ जैनपंथके गुरुदेव जो स्वामी ॥ जैवंत ॥६॥
भाखौं कहां लौं नाम बड़ी बार लगेगा । परनाम करौं जिससे बेड़ा पार लगेगा || जिसमें से कछुक नाम सूत्रकारके कहों । जिन नामके प्रभावसों परभावको दहीं ॥ जैवंत ॥ ७ ॥ तत्वार्थसूत्र नामि उमास्वामि किया है । गुरुदेवने संछेपसे क्या काम किया है । जिसमें अपार अर्थने विश्राम किया है । बुधवृंद जिसे ओरसे परनाम किया है || जैवंत ||८|| वह सूत्र है इस कालमें जिनपंथकी पूंजी । सम्यक्त्व ज्ञान भाव है जिस सूत्रकी कुंजी || लड़ते हैं उसी सूत्रसौं परवाद के मूंजी । फिर हारके हट जाते हैं इक पक्षके लूंजी || जैवंत ॥९॥ स्वामी समंतभद्र महाभाष्य रचा है । सर्वग सात भंगका उमंग मचा है ॥ परवादियों का सर्व गर्व जिस्से पचा है। निर्वान सदनका सोई सोपान जचा है । जैवंत ॥ १० ॥
अकलंकदेव राजवारतीक बनाया ।
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कविवर बाबू वृन्दावनजी कृत परमान नय निछेपसौं सब बस्तु बताया ।। इसलोकवारतीक विद्यानंदजी मंडा । गुरुदेवने जड़मूलसौं पाखंडको खंडा । जैवंत ॥११॥ गुरु पूज्यपादजी हुए मरजादके धोरी। सर्वार्थसिद्धि सूत्रकी टीका जिन्हों जोरी ।। जिसके लखेसौं फिर न रहै चित्तमें भरम । भविजीवको भाष है सुपरभावका मग्म ॥ जैवंत ॥१२॥ धरसेन गुरूजी हरौ भवि वृंदकी व्यथा । अग्रायणीय पूर्वमें कुछ ज्ञान जिन्हें था । तिनके हुए दो शिष्य पुष्पदंत भुजबली । धवलादिकांका मूत्र किया जिस्से मग चली जै०१३ गुरु औरने उस मूत्रका सब अर्थ लहा है। तिन धवल महाधवल जयसुधवल कहा है। गुरु नेमिचंद्रजी हुए धवलादिके पाठी। मिडांतके चक्रीशकी पदवी जिन्हों गांठी।जै०।१४। तिन तीनही मिद्धांतके अनुसारसौं प्यारे । गोमट्टसार आदि सुसिद्धांत उचारे ॥ यह पहिले मुसिद्धांतका विरतंत कहा है। अब और सुनो भावसौं जो भेद महा है।जै० ॥१५॥ गुणधर मुनीशने पढ़ा था तीजा प्राभृत । ज्ञानप्रवाद पूर्वमें जो भेद है आश्रित । गुरु हस्तिनागजीने सोई जिनसौं लहा है। फिर तिनसौं यतीनायकने मूल गहा है ।। जै० ॥१६॥ तिन चूर्णिका स्वरूप तिस्से सूत्र बनाया।
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गुरुस्तुति ।
परमान छै हजार यौं सिद्धांत में गाया || तिसका किया उद्धरण समुद्धरण जु टीका । वारह हजार के प्रमान ज्ञानकी ठीका ॥ जै० ॥ १७ ॥ तिसहीसे रचा कुंदकुंदजीने मुशासन । जो आत्मीक पर्म धर्मका है प्रकाशन ॥ पंचास्तिकाय समयसार सारप्रवचन | इत्यादि सुसिद्धांत स्यादवादका रचन ॥ जै० ॥ १८ ॥ सम्यक्त्वज्ञान दर्श मुचारित्र अनूपा । गुरुदेव अध्यात्मीक धर्म निरूपा ।। गुरदेव अमीने तिनकी करी टीका ।। झरता है निजानंद अमीवृंद सरीका || जै० ॥ १९ ॥ चरनानुवेदभेदके निवेदके करता । गुरदेव जे भये हैं पापतापके हरता ॥ श्रीबकेर देवजी वसुनंदजी चकी । निरग्रंथ ग्रंथ पंथके निरग्रंथक शक्री || जैवंत ॥२०॥ योगींद्रदेव ने रचा परमातमा - प्रकाश । शुभचंद्रने किया है ज्ञानआरणौ विकाश ।। की पद्मनंदजीने पद्मनंदिपचीसी । शिवकोटिने आराधनासुसार रचीसी ॥ जैवंत ॥२१॥ दोसंघ तीनसंघ चारसंध पांचसंघ । पटसंघ सातसंघलौं गुरू रचा प्रबंध || गुरु देवनंदिने किया जिनेन्द्रव्याकरन | जिससे हुआ परवादियों के मानका हरन ॥ जैवंत ॥ २२॥ गुरुदेव रची है रूचिर जैनसंहिता ।
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कविवर बाबू वृन्दावनजी कृत । १९ वरनाश्रमादिकी क्रिया कहैं हैं संहिता ।। वसुनंदि वीरनंदि यशोनंदि संहिता । इत्यादि बनी हैं दशों परकार संहिता ॥ २३ ॥ परमेयकमलमारतंडके हुए कर्ता । माणिक्यनंदि देव नयप्रमाणके भर्ता ॥ जैवंत सिद्धसेन सुगुरुदेव दिवाकर । जैवादिसिंह देवसिंह जैति यशोधर ॥जैवंता२४॥ श्रीदत्त काणभिक्षु और पात्रकेसरी । श्रीवज्रसूर महासेन श्रीप्रभाकरी ॥ श्रीजटाचार वीरमेन महासेन हैं। जैमेन शिरीपाल मुझे कामधेन हैं । जैवंत ॥२५॥ इन एक एक गुरूने जो ग्रंथ बनाया । कहि कौन सके नाम कोई पार न पाया । जिनमेन गुरूने महापुराण रचा है। मरजाद क्रियाकांडका सब भेद खचा है ॥ २६ ॥ गुणभद्र गुरूने रचा उत्तरपुराणको। सो देव सुगुरुदेवजी कल्यानथानको ॥ रविसंन गुरूजीने रचा रामका पुरान । जो मोह तिमर भाननेको भानुके समान ।। जै० ॥२७॥ पुन्नाटगणविपं हुए जिनसेन दूसरे। हरिवंशको बनाके दास आसको भरे ॥ इत्यादि जे वसुवीस सुगुण मूलके धारी ।
निग्रंथ हुए हैं गुरू जिनग्रंथके कारी । जैवंत ॥२८॥ x १ ये दूसरे जिनसेन नहीं है किंतु आदिपुराणके कर्ता ही है।
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गुरुस्तुति । वंदौं तिन्हें मुनि जे हुए कवि काव्य करैया । वंदामि गमक साधु जो टीकाके धरैया ॥ वादी नमो मुनिवादमें परवाद हरैया । गुरुवागमीककों नमों उपदेशभरैया॥जैवंत॥२९॥ ये नाम सुगुरुदेवका कल्याण करै है। मवि वृंदका ततकाल ही दुखद्वंद हरै है ॥ धनधान्य ऋद्धि सिद्धि नवौं निद्धि भरै है। आनंदकंद देहि सबी विघ्न टरै है । जैवंत ॥३०॥ इह कंठमें धारै जो सुगुर नामकी माला । परतीतिसौं उरप्रीतिसौं ध्यावै जु त्रिकाला॥ यह लोकका सुख भोग सो सुर लोकमें जावै । नरलोकमें फिर आयके निखानको पावै ।। ३१ ॥ जैवंत दयावंत सुगुरु देव हमारे । संसार विपम खारसौं जिन भक्त उधारे ॥
इति श्रीगुरुस्तुति समाप्त । कविवर वृन्दावनजी रचित ।
गुर्वष्टक ।
कवित्त ३१ मात्रा। संघसहित श्रीकुंदकुंद गुरु, वदंन हेत गए गिरनार | वाद परौ तहँ संशयमतिसौं, साक्षी बदी अंबिकाकार ॥ 'सत्य पंथ निरग्रंथ दिगम्बर, ' कही सुरी तहँ प्रगट पुकार। सो गुरुदेव वसो उर मेरे, विघ्न हरण मंगल करतार ॥१॥ श्रीअकलंकदेव मुनिवरसौं, वाद रच्यौ जहँ बौद्ध विचार ।
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गुर्वष्टक |
तारा देवी घटमें थापी, पटके ओट करत उच्चार | their स्यादवादवल मुनिवर, बौद्धवेधि तारामदटार । सो. ॥२॥ स्वामि संमभद्र मुनिवरसौं, शिवकोटी हठ कियौ अपार । वंदन करौ शंभुपिंडीकौ, तब गुरु रच्यौ स्वयंभू भार ॥ वंदन करत पिंडिका फाटी, प्रगट भये जिनचंद्र उदार । सो ०३ श्रीमत मानतुंग मुनिवरपर, भूप कोप जब कियौ गँवार । बंद कियौ तालेमें तबहीं, भक्तामर गुरु रच्यौ उदार ॥ चक्रेश्वरी प्रगटतब हैकै, बंधन काट कियौ जयकार । सो. ॥४॥ श्रीमतवादिराज मुनिवरसों, कौ कुष्ट भूपति जिहँबार । श्रावक सेठ को तिहँ अवसर, मेरे गुरु कंचनतन धार ॥ तबहीं एकीभाव रच्यौ गुरु, तन सुवर्णदुति भयौ अपार । सो. ॥५॥ श्रीमत कुमुदचंद्र मुनिवरसों, वाद परौ जहँ सभामझार । तबहीं श्रीकल्यानधाम श्रुति, श्रीगुरू रचनारची अपार || तत्र प्रतिमा श्रीपार्श्वनाथकी, प्रगट भई त्रिभुवन जयकार । सो. ६ श्रीमत विद्यानंदि जब श्रीदेवागम श्रुति मुनी सुधार । अर्थहेत पहुंचौ जिनमंदिर, मिलौ अर्थ तह सुखदातार ॥ तब व्रत परम दिगम्बरको घर, परमतको कीनो परिहार | सो. ॥७॥ श्रीमत अभयचंद्र गुरुसों जब, दिल्लीपति इमि कही पुकार । कै तुम मोहि दिखावहु अतिशय, के पकरौ मेरो मत सार ॥ तब गुरु प्रगट अलौकिक अतिशय, तुरत हरौ ताको मदभार । सो गुरुदेव बसौ उर मेरे, विघ्न हरण मंगल करतार ॥ ८ ॥ दोहा । विधन हरण मंगलकरण, वांछित फलदातार । वृंदावन अष्टक रच्यौ, करौ कंठ सुखकार ॥ इति गुर्वष्टक |
२१
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प्रकीर्णक ।
प्रकीर्णक।
माधवी छन्द। रविसे रविसेन अचारज हैं, भविवारिजके विकसावन हारे । जिन पद्मपुरान बखान कियौ, भवसागरते जग जन्तु उधारे ॥ सियराम कथा सु जथारज भाखि, मिथ्यात समूह समस्त विदारे । भवि वृन्द विथा अब क्यों न हरौ, गुरुदेव तुम्हीं मम प्रान अधारे ॥१॥ __ भगवजिनसेन कविंद नमौं, जिन आदि जिनिंदके छंद सुधारे । प्रथमानुसुवेद निवेदनमैं, जिनको परधान प्रमान उचारे ॥ जगमैं मुद मंगल भूरि भरे, दुख दूर करे भवसागर तारे । भवि वृन्द विथा अब क्यों न हरौ, गुरुदेव तुम्ही मम प्रान अधारे ॥२॥
अशोकपुष्पमंजरी छन्द । जासके मुखारविंदतें प्रकास भास वृन्द
स्यादवाद जैन वैन इंदु कुंदकुंदसे । तासके अभ्यासतै विकास भेद-ज्ञान होत,
मूढ़ सो लखै नहीं कुबुद्धि कुंदकुंदसे ॥ देत हैं असीस सीस नाय इंद चंद जाहि,
मोह-मार-खंड मारतंड कुंदकुंदसे । सुद्ध बुद्धि वृद्धिदा प्रसिद्ध रिद्धि सिद्धिदा,
हुए न हैं न होहिंगे मुनिंद कुंदकुंदसे ॥३॥
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सुलभ ग्रन्थमालाका विज्ञापन ।
___ अनुभवसे विदित हुआ है कि, पुस्तकोंकी कीमत जित
नी कम होती है, उतना ही उनका अधिक प्रचार होता है। है इसलिये श्रीजैनग्रन्थरत्नाकरकी ओरसे सुलभजैनग्रन्थमालानामकी एक सीरीज प्रकाशित करनेका विचार किया गया है।
इस ग्रन्थमालाकेद्वारा जितनी पुस्तकें प्रकाशित होंगी, वे लाग-1 है तके दामोंपर अथवा उसमें भी यथासंभव घाटा खाकर बेची 5
जावेंगी । लागतके दामों में पुस्तककी बनवाई, प्रूफ संशोधन ? कराई. छपाई, बायडिंग बगैरह सब खर्च शामिल समझे जावेंगे। रकमका व्याज नहीं लिया जायगा । घाटेकी रकम कार्यालयके धर्मादा खातेसे अथवा दूसरे धर्मात्माओंसे पूरी कराई जायगी। ___ सुलभ ग्रन्थमालाकी यह दूसरी पुस्तक है । यह इन्दौर निवासी शेठ ऋषभचन्दजी काशलीवालकी स्वर्गवासिनी पत्नी सौ० चिरौंजीबाई-के स्मरणार्थ प्रकाशित की जाती 5 है। इसकी १५०० प्रतियोंका कुलखर्च लगभग ५० रुपया
पड़ा है । इसलिये मूल्य आधा आना रक्खा जाता है। । प्रन्थमालाकी तीसरी पुस्तक शीघ्र ही प्रकाशित की जायगी । र बम्बई-हीराबाग।।
निवेदकर पौषकृष्णा पश्चमी । श्रीवीर नि० स० २४३७ । श्रीनाथूरामप्रेमी।
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सूचीपत्र मंगाइये । सब जगहके छपे हुए संस्कृत, प्राकृत, हिन्दी, मराठी, और गुजरातीके शुद्ध जैनग्रन्थोंके मिलनेका ठिकानाःमैनेजर-श्रीजैनग्रन्थरत्नाकरकार्यालय,
हीराबाग पो० गिरगांव ( बम्बई. )
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ॐ
श्रीपरमात्मने नमः ।
स्वर्गीय कविवर भूधरदासजीकृत
जैनशतक |
प्रकाशक - पन्नालाल जैन ।
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श्रीपरमात्मने नमः। स्वर्गीय कविवर भूधरदासजीविरचित
जैनशतक।
जिसको मुम्बीस्थ-जैनग्रन्थरत्नाकरकार्यालयके मालिकने
देवर्ग जिला मागरनिवासी
कविवर नाथूराम प्रेमास संशोधन कराकर
मुम्बयीके निर्णयसागर छापेखानमें छपाकर
प्रसिद्ध किया ।
वीरनिर्वाण संवत २४३३ । ईस्वी सन १९०७ । प्रथमावृत्ति २००० प्रति] * [मूल्य J॥ आने ।
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ऑनमःसिद्धभ्यः।
कविवर भूधरदासविरचित जैनशतक।
DOGICAL STIGOROAD
श्रीआदिनाथस्तुति ।
संवया (मात्रा ३१) ज्ञानजिहाज बैठ गनधरसे, गुनपयोधि जिस नाहिं तरे हैं । अमरसमूह आन अवनीसों, घसि घसि शीम प्रनाम करे हैं ॥ किधी भाल-कुकरमकी रेखा, दृर करनकी बुद्धि धरे हैं। ऐम आदिनाथके अहनिशि. हाथ जोर हम पॉय परे हैं ॥१॥ ___ काउसंग्गमुद्रा धरि वनम, ठाड़े रिषभ रिद्धि तज है हीनी । निहचल अंग मेरु है मानों. दोऊं भुजा छोर
जिन दीनी॥ फँमे अनंत जंतु जग-चहले, दुखी देख करना चित लीनी । काढ़न काज तिन्हें समरथ प्रभु, किधी बाँह ये दीरघ कीनी ॥ २॥ है करनों कछु न करनतें कारज, तातें पानि प्रलंब
कर है । रह्यो न कछु पाँयनतें पवो, ताहीतें पद नाहिं कटर हैं ॥ निरख चुके नैनन सब यातें, नैन नासिका. अनी धरे हैं । कानन कहा सुने?यों कानन, जोगलीन
जिनराज खरे हैं ॥३॥ र १ अहर्निशि-रात्रिदिन । २ कायोत्सग । ३ कीचडमे। ४ चलना ।
५ नोक । ६ कानोसे । ७ जगलमे । acco Qamasaavanawar 0000000
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जैनशतक ।
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छप्पय। जयो नाभिभूपालबाल, सुकुमाल सुलच्छन । जयो स्वर्ग पातालपाल, गुनमाल प्रतिच्छन । दृग विशाल वर भाल, लाल नख चरन विरजहिं ।
रूप रसाल मराल चाल, सुन्दर लखि लजहि ॥ रिपुजाल काल रिसंहेश हम, फँसे जन्म जंबालदह । यातें निकाल बेहाल अति, भो दयाल दुख टाल यह ॥
चन्द्रप्रभस्तुति।
संवया ( मात्रा ३२ )। चितवत वदन अमल चंद्रोपम, तज चिंता चित भये अकामी । त्रिभुवनचंद पापतपचंदन, नमत चरन चंद्रादिक नामी ॥ तिहुँ जग छई चंद्रिकाकीरति, चिहनचंद्र चिंतत शिवगामी । वन्दों चतुर-चकोरचंद्रमा, चंद्रवरन चंद्रप्रभ स्वामी ॥५॥
शान्तिनाथस्तुति।
मत्तगयन्द ( सवैया )। ___ शांति जिनेश जयो जगतेश, हरै अघताप निशेश
की नाई । सेवत आय सुरासुरराय, नमैं सिरनाय । महीतलताई ॥ मोलि लगे मनिनील दिपैं, प्रभुके
१ ऋषभेश, आदिनाथ । २ कीचडका द्रह । ३ चन्द्रमाका हे चिन्ह जिसके । ४ चन्द्रमा । ५ मुकुटमें ।
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कविवर भूधरदासविरचित
चरनों झलकै बहु झांई । सूँघन पाँय - सरोज-सुगंधि, किधौं चलि ये अलिकति आई ॥ ६ ॥
श्रीनेमिजिनस्तुति | कवित्त मनहर |
३
शोभित प्रियंग अंग देखें दुख होय भंग, लाजत अनंग जैसे दीप भानुभासतें । बालब्रह्मचारी उग्रसेनकी कुमारी जादों, नाथ तैं निकारी जन्मकादोदुखरासतें ॥ भीम भवकानन में आन न सहाय स्वामी, अहो नेमि नामी तक आयो तुम तामतें । जैसे कृपाकंद वनजीवनकी बंद छोरी, त्यों ही दासको खलास कीजे भवपासतें ॥ ७ ॥
श्रीपार्श्वनाथस्तुति । छप्पय ( सिंहावलोकन )
जनम-जलधि- जलजानं, जान भविहंस - मानसर । सरव इंद्र मिल आन, आनं जिस धरहिं शीसपर || पर उपगारी बार्न, बानं उत्थपई कुनयगन । गनसरोजवन-भान, भान मम मोह- तिमिरघन ॥ घनवरन देह- दुख-दाह-हर, हरखत हेरि मयूर - मन । मनमथ - मतंग- हरि पासजिन, जिंन विसरहु छिन
जगतजन ॥ ८ ॥
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१ छाया । २ चरणकमलकी सुगधि । ३ कीचड । ४ जलयान, जहाज | ५ भाज्ञा । ६ स्वभाव । ७ वाणी । ८ उखाडती है । ९ देखकर । १० पार्श्वजिन ।
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जैनशतक |
श्रीवर्डमानजिनस्तुति । दोहा |
दिन कर्माचल दलनपेवि, भवि- सरोज- रविराय । कंचनछवि कर जोर कवि, नमत वीर जिन पाय ॥ ९ सवैया (३१ मात्रा.)
रहो दूर अंतरकी महिमा, बाहिज गुनवरनत बल काँप । एक हजार आठ लच्छन तन, तेज कोटि रवि किरन उथा ॥ सुरपति सहस आंखअंजुलिसों. रूपामृत पीवत नहिं धप । तुम विन को समरत्थ वीरजिन, जगसों काहि मोखमें थाप ॥ १० ॥
श्री सिद्धस्तुति ।
मत्तगयंद |
ध्यान हुताशनमें अरि ईंधन. झोंक दियो रिपु रोक निवारी । शोक हस्त्रो भविलोकनको वर, केवलभानमयूख उधारी ॥ लोक अलोक विलोक भये शिव, जन्मजरामृतपंक पखारी । सिद्धन थोक बसें शिवलोक, तिन्हें पगधोक त्रिकाल हमारी ॥ ११ ॥
तीरथनाथ प्रनाम करें, तिनके गुनवर्ननमें बुधि हारी । मोम गयो गल ममझार रह्यो, तहँ व्योमं तदाकृतिधारी । लोक गहीरनदीपति नीर, गये तिरतीर
१ वज्र । २ तृप्त होवे । ३ निकालकर । ४ ध्यानरूपी अग्नि । ५ किरणं । ६ साचमे । ७ आकाश । ८ गभीर समुद्र ।
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कविवर भूधरदासविरचित. भये अविकारी। सिद्धनथोक बसें शिवलोक, तिन्हें पगधोक त्रिकाल हमारी ॥ १२ ॥
साधुस्तुति।
कवित्त मनहर । शीतरितु-जोरें' अंग सब ही सकारें तहां, तनको न मोर नदीधारें धीर जे खरे।जेठकी झकोरें जहां अंडा ए चील छोरें पशु, पंछी छांह लोर गिरिकोरें तपवे धरे॥
घोर घन घोरें घटा चहुंओर डोरें, ज्यों ज्यों चलत हि| लोरे त्यों त्यों फोरें बल य अरे । देहनेह तोर परमारथसों है प्रीति जार, ऐसे गुरुओरें हम हाथ अंजुली करें॥१३॥
जिनवाणीस्तुति ।
मत्तगयंद ( संवैया )। वीरहिमाचलते निकरी, गुरु गौतमके मुखकुंडढरी है । मोह-महाचल भेद चली, जगकी जड़तातप
दूर करी है ॥ ज्ञानपयोनिधिमाहिं रली, बहु भंगत३ रंगनिसों उछरी है । ता शुचि शारद गंगनदीप्रति,
में अंजुली निजशीस धरी है ॥१४॥ , या जगमंदिरमें अनिवार, अज्ञान अँधेर छयो अति . भारी। श्रीजिनकी धुनि दीपशिखा सम, जो नहिं होत प्रकाशनहारी ॥ तो किहभांति पदारथपांति, कहां
१ जोरमे । २ हुँदै । ३ मोहरूपी महापर्वत । ४ जिमका निवारण न हो सके । ५ पदार्थोकी तत्त्वोकी पक्ति । compareer coopencoreDVERTYoor coreovemesVED
ی ر کرتی رہتی میراث فرهنت سرور واقعہ
مرده برداری مردم ده رمه براہ مقره تبرقرفانه رده ردقه
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जैनशतक ।
लहते रहते अविचारी । याविधि संत कहैं धनि हैं, धन हैं जिनवन बड़े उपगारी ॥ १५ ॥ इति मंगलाचरण |
जिनवाणी और मिथ्यावाणी । कवित्त मनहर |
कैसेकर केतकी कनेर एक कहे जाँय, आकदूध गाय दूध अंतर घनेर है । पीरी होत री री पैन रीस करे कंचनकी, कहां कागवानी कहां कोयलकी टेर है ॥ कहां भान भारो कहां, आंगिया विचारो कहां, पूनों को उजारो कहां मावस अँधेर हैं । पच्छ छोर पारखी निहारो नेक नीके करि, जैनवेन औरवेन तनों ही फेर है ॥ १६ ॥ वैराग्यकामना |
कब गृहवाससों उदास होय वन सेऊं. वेऊं निजरूप गति रोकूं मनं-करीकी । रहि हों अडोल एक आसन अचल अंग, सहि हों परीसा शीत घाम - मेघझरीकी ॥ सारंगसमाज खाज कबधों खुजै है आन, ध्यानदलजोर जीतूं सेना मोहअरीकी । एकलविहारी
-
१ पीतल । २ हिस- बराबरी । ३ खद्योत, पटवीजना । ४ अमावस्या | ५ दूसरे धर्मवालोकं वचनोमे । ६ जानू अनुभवू । ७ मनरूपी हाथीकी ८ मृगोके समूह |
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कविवर भूधरदासविरचित-- जथाजातलिंगधारी कब, होहुं इच्छाचारी बलिहारिहुं वा घरीकी ॥ १७॥
राग वैराग्यका अन्तर कथन.। रागउदै भोगभाव लागत सुहावनेसे, विनाराग एसे लागे जसें नाग कारे हैं । रागहीसों पाग रहे तनमें
सदीव जीव, राग गये आवत गिलानि होत न्यारे हैं । में रागमों जगतरीति झूटी सव सांच जाने, राग मिटे
सूझत असार खेल सारे हैं । रागी विनरागीके विचार बड़ो ही भेद, जैसे "भटा पथ्य काहु काहुको से बयारे हैं” ॥ १८॥
भोगनिषेध ।
मत्तगयंद ( सवैया )। __ तू नित चाहत भोग नये नर, पूरवपुन्य विना किमि पहै । कर्मसँजोग मिल कहिं जोग, गहे तब रोग न भोग सके है ॥ जो दिन चारको व्यांत बन्यो कहुँ, तो परि दुर्गतिमें पछते है । याहिते यार! सलाह यही है “गई कर जा ” निवाह न है है ॥१९॥
देहस्वरूप। मातपिता-रज-वीरजसों, उपजी सब सात कुधात १ भटा अर्थात् वैगन किसीको पथ्य होते है और किसीको वादी होते है। Faroovesasrepveresvesves Cococco Saves werest
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जैनशतक । भरी है । माखिनके पर माफिक बाहर, चामके बेठन बेढ़.धरी है। नाहिं तो आय लगें अब ही, बक वायस जीव बचें न घरी है । देहदशा यहि दीखत भ्रात ! धिनात नहीं किन ? बुद्धि हरी है ॥ २० ॥
संसारस्वरूप।
कवित्त मनहर । काहूघर पुत्र जायो काईके वियोग आयो, काहू रागरंग काहू रोआ रोई करी है । जहां भान ऊगत
उछाह गीत गान देखे, सांझसमै ताही थान हाय हैहाय परी है ॥ ऐसी जगरीतको न देख भयभीत
होय, हा ! हा! नर मूढ़. तेरी मति कोने हरी है ? । मानुषजनम पाय सोवत बिहायो जाय, खोवत करोरनकी एक एक घरी है ॥ २१॥
सोरठा। कर कर जिनगुन पाठ, जात अकारथरे जिया ? आठ पहरमें साठ, घरीं घनेरे मोलकीं ॥ २२ ॥ कानी कौड़ी काज, कोरिनको लिख देत खत।। ऐसे मूरखराज, जगवासी जिय देखिये ! ॥२३॥
१ मक्खियोके पखो जैसे चमडेके बठनसे [ वेष्टनसे ] घिरी हुई। ou vox voor vor Ort vervolg og OVOG OVOG OVE YOGVAX VOGT
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कविवर भूधरदासविरचित
दोहा। कानी कौड़ी विषय सुख, भवदुख करज अपार । बिना दिय नहिं छुटि है, लेशक दाम उधार ॥ २४ ॥
शिक्षा।
छप्पय । दश दिन विषयविनोद, फेर बहु विपतिपरंपर । अशुचिगेह यह देह, नेह जानत न आप पर ॥ मित्र बंधु सनमंधि और, परिजन जे अंगी।
अरे अंध ! सब धंध, जान स्वारथके संगी ॥ परहित अकाज अपनो न कर, मूढराज!अब समझ उर । तजिलोकलाज निजकाजको. आज दाव है कहत गुर ॥
कवित्त मनहर । __ जोली देह तरी काढू रोगों न घेरी जाली, जरा । नाहिं नेरी जासों पराधीन परि है । जालों जमनामा
वरी देय न दमामा जोली, मानै कान रामा बुद्धि , जाइ न विगरि है ॥ ताली मित्र! मेरे निज कारज ३ सवार ले रे, पौरुप थकेंगे फेर पीछे कहा करि है ।
अहो आग आये जब झोंपरी जरन लागे, कुआके है खुदाये तब कौन काज सरि है ॥ २६ ॥
ما در ایران راه اندازه مهریه نفقه فر قرقره ای از شیری
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१ लेशमात्र भी । २ नगाडा । ३ आज्ञा । ४ स्त्री। aasaomaraGVAGroovesresvarvesarasvcoesrasvaavanasamasya
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है सो वरप आयु ताका लेखा करि देखा जब, आधी
तो अकारथ ही सोवत विहाय रे । आधीमें अनेक
रोग बालवृद्धदशाभोग, और हुं सँजोग केते ऐसे है, बीत जॉयर ॥ बाकी अब कहा रही ताहि तू विचार
सही.कारजकी बात यही नीकै मन लाय रे । खातिरमें , - आवे तो खलासीकर इतनेमें, भाव फँसि फंदवीच दीनों समुझाय रे ॥ २७ ॥
बुढ़ापा। बालपने वाल रह्यो पीछे गृहभार वह्यो, लोकलाजकाज वांध्यो पापनको ढेर है । अपनो अकाज कीनों लोकनमें जस लीनों. परभी विसार दीनों विष । वश जेर है ॥ ऐसे ही गई विहाय अलपमी रही आय. नरपरजाय यह आँधेकी बटर है। आय सतं भैया ! अब काल है अवैया अहो ! जानी रे सयाने तेरे अजी डू अँधेर है ॥ २८॥
मत्तगयंद । मेवया ।। ___ बालपन न सँभार सक्यो कछु, जानत नाहिं हिताहितहीको । यौवन वैसे वसी वनिता उर, के नित राग रह्यो लछमीको ॥ यों पन दोइ विगोइ दये नर, डारत
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१ आयु-उमर । २ सफेद बाल । ३ वयम-उमर । Gravacresvetovalveg roverenovee r vol vervo volvere
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कविवर भूधरदामविरचित- ११ क्यों नरके निजजीको । आये हैं सतं अजों शठ चेत, है "गई सुगई अब राख रहीको” ॥ २९ ॥
कवित्त मनहर। ___ सार नर देह सब कारजको जोग येह, यह तो विख्यात बात वेदनमें बैच है । तामें तरुनाई धर्म। संवनको सम भाई, सेये तब विष जैसे माखी मधुरचै ।
है ॥ मोहमदभोय धनरामाहित रोज रोये, याही दिन खोय खाय कोदों जिम मचे है । अरे मुन बोरे !
अब आय मीस धीरे अजी, सावधान हो रे नर नरक: सों बचे है ॥ ३० ॥
मत्तगयन्द ( संवया )। वाय लगी कि बलाय लगी, मदमत्त भयो नर: * भृलत त्यों ही । वृद्ध भये न भजे भगवान, विर्ष विष
रवात अघात न क्यों ही ॥ सीस भयो वगुलासम सेत, : रद्यो उरअंतर श्याम अजों ही । मानुपभी मुकता* फलहार, गवार ताहित तोरत यों ही ॥ ३१ ॥
संमारीजीवका चितवन । चाहत हैं धन होय किसी विध, तो सब काज सरै
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जियरा जी । गेह चुनाय करूं गहना कछु, व्याह 3. सुतासुत बाँटिये भांजी ॥ चिन्तत यों दिन जाहिं चले
जम, आन अचानक देत दगाजी । खेलत खेल खिलारि गये, “रह जाइ झपी शतरंजकी बाजी"॥
तेज तुरंग सुरंग भले रथ, मत्त मतंग उतंग खरे ही । दास खवाम अवाम अटा धन, जोरकरोरन १ कोश भरे ही ॥ ऐसे भये तो कहा भयो हे नर ! छोर
चले जब अंत छरे ही । धाम खरे रहे काम परे रहे, १ दाम गरे रहे ठाम धेरे ही ॥ ३३ ॥
अभिमाननिषेध ।
कवित्त मनहर । ___ कंचनभंडार भरे मोतिनके पुंज परे, घने लोग द्वार खरे मारग निहारते । जान चदि डोलत हैं झीने : सुर बोलत हैं, काहुकी हू ओर नेक नीक न चितारते ॥ कौलों धन खांग कोऊ कहें या न लांग तेई, फिर पाँय , नांगे कांगे परपग झारत । एते पै अयाने गरवाने रहें: विभौ पाय. धिक है समझ ऐसी धर्म ना सँभारते ३४
देखो भरजोबनमें पुत्रको वियोग आयो, तसंहि
१ विवाह वगैरह उत्सवोंमे जो मिष्टान्न वाटा जाता है, उसे भाजी १ कहते है । २ जमी हुई। ३ 'गडे रहे' तथा-'डरे रहे' ऐमा भी 7 पाट है।
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कविवर भूधरदासविरचित
१३
निहारी निजनारी कालमगमें । जे जे पुन्यवान जीव दीखते थे यानही पै, रंक भये फिरें तेऊ पनह्रीं न पगमं ॥ एते पै अभाग धनजीतवसों धेरै राग. होय न विराग जाने रंहगो अलगमें । आंखिन त्रिलोक अंध की अँधेरी करें, ऐसे राजरोगको इलाज कहा जगमें ॥ ३५ ॥
दोहा |
जैनवचन अंजनवटी, आंजें सुगुरु प्रवीन । रागतिमिर तोड़ न मिट. बड़ो रोग लख लीन ॥ ३६ ॥
मनहर ।
जोई दिन कट सोई आवमें अवश्य घंटे, बूंद बूंद air जैसे अंजुलीको जल है । देह नितझीन होत नैन तेज हीन होत, जोवन मलीन होत छीन होत बल है । आंबे जरा नेरी तकै अंतकअहेरी आय, परभा नजीक जाय नरभी निफल है । मिलके मिलापी जन पूँछत कुशल मेरी, "ऐसी दशामाहीं मित्र ! काहेकी कुशल है ' ॥ ३७ ॥
१ शशक ( खर्गेश ) सब जगह अधेरा हो गया, रूपी व्याधा ।
अपनी आखे बंद करके जानता है, अब मुझे कोई देखता ही नहीं है । २ जमराज
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मत्तगयंद (संवैया )। दृष्टि घटी पलटी तनकी छवि, बंक भई गति लंक नई है। रूस रही परनी घरनी अति, रंक भयो परयंक 0 लई है | कॉपत नार वह मुख लार, महामति संगति
छार दई है । अंग उपंग पुराने परे, तिशना उर और नवीन भई है ॥ ३८॥
कवित्त मनहर । रूपको न खोज रह्यो तर ज्या तुपार दह्यो, भयो पतझार किधी रही डार सूनीसी। कुबरी भई है।
कटि दूवरी भई है देह, ऊबरी इतेक आयु मेरमाहिं 1. पूनीमी ॥ जोवनने विदा लीनी जराने जुहार कीनी,
हीनी भई सुधि बुधि सबै वात ऊनीसी । तेज , घट्यो ताव घट्यो जीतवको चाव घट्यो, और सब
घट्यो एक तिस्ना दिन दूनीसी ॥ ३९॥ है अहो इन आपने अभाग उद नाहिं जानी,
वीतरागवानी सार दयारस भीनी है । जोवनके जोर थिर जंगम अनेक जीव, जाने जे सताये कछु करुनान कीनी है । तेई अब जीवरास आये परलोकपास, लेंगे बैर देंगे दुख भई ना नवीनी है । उनहीके भयको
१ विवाहित । २ चार पाई। ३ गर्दन । U2 Voever arriver Verbrecen cover leveren van eXpremoremos
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कविवर भृधग्दामविरचित- १५ भरोसो जान कांपत है, याही डर ' डोकराने लाठी हाथ लीनी है ' ॥४०॥ ___जाको इंद्र चाहैं अहमिंद्रसे उमाह जासों, जीवमुक्तमाह जाय भीमल बहाव है । ऐसो
नरजन्म पाय विष विष खाय खोयो, जैसे काच , सां₹ मूढ़ मानक गमाव है ॥ मायानदी वूड़ भीजा ३ कायावल तेज छीजा, आया पन तीजा अब कहा . बनि आव है । तातें निज सीम ढोल नीचे नैन किये डोल, कहा बड़ बोल वृद्ध वदन दुराव है ॥ ४१ ॥
मनगयद , सवैया।। देवहु जोर जराभटको, जमराज महीपतिको अगवानी । उज्जलकश निगान धेरै, बहु रोगनकी । मंग फौज पलानी। कायपुरी तजि भाजि चल्यो जिहिं,
आवत जोवनभूप गुमानी । लूट लई नगरी सिगरी, दिन दोयम खोय है नाम निशानी ॥ ४२ ॥
दोहा। सुमतीहित जोवन समय, मेवहु विषय विडार । खलसांटें नहिं खोइये. जन्मजवाहर मार ॥४३॥
कर्तव्यशिक्षा।
मनहर। देव गुरु सांचे मान सांचो धर्म हिये आन, सांचोही. १ बुने । २ वदलेमें।
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जैनशतक। पुरान सुनि सांचे पंथ आव रे । जीवनकी दया पाल झूठ तज चोरी टाल, देख नी विरानी बाल तिसना
घटाव रे ॥ अपनी बड़ाई परनिंदा मत करै भाई, यही ई चतुराई मद मांसको बचाव रे । साध खटकर्म
धीर संगतिमें बेठ वीर, जो है धर्मसाधनको तेरे चित चाव रे ॥४४॥ ___ सांचो देव सोई जामें दोषको न लेश कोई,
वह गुरु जाके उर काहुकी न चाह है। सही धर्म , है वही जहां करुना प्रधान कही, ग्रंथ जहां आदि अंत । रु एकसो निवाह है ॥ यही जग रत्न चार इनको परख
यार! सांच लेहु झूठे डार, नरभीको लाह है । मानुप विवेक विना पशुकी समान गिना, तातें यह ठीक बात पारनी सलाह है ॥ ४५ ॥
सांच देवका लक्षण ।
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जो जगवस्तु समस्त, हस्ततल जेम निहार । जगजनको संसार, सिंधुके पार उतारै ।।
आदि-अंत-अविरोधि, वचन सबको सुखदानी । १ गुन अनंत जिहंमाहिं, रोगकी नाहिं निशानी ॥ माधव महेश ब्रह्मा किधी, वर्धमान के बुद्ध यह ।
१ स्त्री। २ दया । Hamrosaasaaves SSCGVYeapravaavesvaranasarasvent
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कविवर भूधरदासविरचितये चिहन जान जाके चरन, नमो नमो मुझ देव वह ॥
यज्ञहिंसक।
कवित्त मनहर । __कहै दीन पशु सुन यज्ञके करया मोहि, होमत हुताशनमें कौनसी वड़ाई है ? । स्वर्गसुख मैं न चहुं
देहु मुझे" यों न कह, घास खाय रहूं मेरे यही मन - भाई है ॥ जो तू यह जानत है वेद यों बखानत है, : जज्ञजयो जीव पाव स्वर्गसुखदाई है । डार क्यों न 3 वीर यामें अपने कुटुंबहीको, मोह जिन जारै जगदीशकी दुहाई है ॥४७॥ साती बारगर्भित पंट्कर्मोपदेश ।
छप्पय । अघ अँधेर आदित्य, नित्य स्वाध्याय करिज। सोमांपम संसार तापहर, तप करलिज ॥ जिनवरपूजा नेम करो, नित मंगल दायन ।
बुध संजम आदरहु, धरहु चित श्रीगुरुपायन ॥ है, निजवितसमान अभिमान विन, सुकर सुपत्तहिं दानकर । यो मनि सुधर्म पटकम भनि, नरभौलाहो लेहु नर ॥
दोहा। * ये ही छह विधि कर्म भज, सात विसन तज बीर । । इस ही पेंडें पहुंचि है, क्रम क्रम भवजलतीर ॥४९॥
१ इस छप्पयमे साता दिनके नाम आये है । २ मार्गसे ।। OVOX OSVOD OS X OO OOOOoorex oc cover anlegra EGO OCH
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सप्तव्यसन। जूआखेलन मांस मद, वेश्याविसन शिकार । चोरी पररमनीरमन, सातों पाप निवार ॥ ५० ॥
आनिषेत्र ।
छप्पय । सकल-पापसंकेत, आपदाहेत कुलच्छन । कलहखेत दारिद्र देत, दीसत निज अच्छन । गुनसमेत जसोत, कंत रवि रोकत जैसे।।
औगुननिकरनिकेत, लत लख बुधजन एमे ॥ जुआ समान इह लोकम, आन अनीति न पेखिये । इस विसनरायके खेलको, कौतुक ह नहिं देखिये ॥५१
मांसनिषेध । जंगम जियको नाश होय. तत्र मांस कहावै । ___ सपरस आकृति नाम, गन्ध उर घिन उपजावै ।।
नरक जोग निरदई खाहिं, नर नीच अधरमी।
नाम लेत तज देत असन, उत्तमकुलकरमी ॥ में यह निपटनिंद्य अपवित्र अति.कृमिकुलरासनिवासनित । आमिष अभच्छ याको सदा, बरजो दोष दयालचित५२
मदिरानिषेध ।
दुर्मिल ( सवैया )। कृमिरास कुवास सराय दह, शुचिता सब छीवत १ नत्रांसे।
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कविवर भूधरदासविरचित
१९
जात सही । जिहिं पान किये सुधि जात हिये, जननीजन जानत नार यही ॥ मदिरा सम आननपिद्ध कहा, यह जान भले कुलमें न गही । धिक है उनको वह जीभ जलो, जिन मूटुनके मत लीन कही५३ वेश्यानिषेध |
धनकारन पापनि प्रीति करें, नहिं तोरत नेह जथा तिनको | लव चाखत नीचनके मुँहकी, शुचिता सब जाय छिये जिनको || मद मांस वजारनि खाय सदा, अँधले विमनी न करें घिनको । गनिका सँग जे सठ लीन रहें,धिक है! धिक है! धिक है! तिनको ५४ आग्वेदनिषेध |
कवित्त मनहर |
arrai बस ऐसो आन न गरीव जीव, प्राननसों प्यारे प्रान पूंजी जिस यह है । कायर सुभाव धर काहंसों न द्रोह कर, सवहीसों डरे दांत लिये तृन रहे है ॥ काहसों न रोप पुनि काह न पोष चह, काके परोप परदीप नाहिं कह है । नेकु स्वाद सारिवे को ऐसे मृग मारियेको, हाहा रे ! कठोर ! तेरो कैसे कर बहै है ।। ५५ ।।
१ तिनका, तृण । २ लार । ३ जगलमे । ४ परोक्षमे । ५ हाथ चलता है, उठता है ।
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जैनशतक ।
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चोरीनिषध।
छप्पय । चिंता तजै न चोर, रहे चौंकायत सार । पीटै धनी विलोक, लोक निर्दइ मिलि मारे । प्रजापाल करि कोप, तोपमों रोप उड़ावै । मेरै महा दुखपेख, अंत नीची गति पावै ॥ अति विपतिमूल चोरीविसन, प्रगट त्रास आवै नजर । परवित अदत्त अंगार गिन, नीतिनिपुन परसें न कर ॥ ५६ ॥
परस्त्रीसेवननिषेध । है कुगतिवहन गुनगहनदहन दावानलसी है । सुजम
चंद्रधनघटा, देहकृशकरन खसी है ॥ धनसरसोखन धूप, धरमदिनसांझ समानी । विपतभुजंगनिवासबांबई बेद वखानी ॥ इहिविधि अनेक आंगुनभरी, प्रानहरनफाँसी प्रवल । मत करहु मित्र ! यह जान जिय, परवनितासों प्रीति पल ॥ ५७ ॥
स्त्रीत्यागप्रशंसा।
दुर्मिल संवया । दिवि दीपकलोय वनी वनिता, जड़जीव पतंग है जहां परते । दुख पावत प्रान गँवावत हैं, बरजे न
१ दूसरेका धन । २ विना दिया। ३ मुयशरूपी चन्द्रमाको ढकनक । १ लिये बादलोकी घटा । ८ क्षयीरोग । ५ धर्मरूपी दिनका अन्त करने ॐ वाली संध्या। ६ सांपके रहने की बावी । ७ आकाशमे। ८ दीपककी 8
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___कविवर भूधरदासविरचित- २१, रहैं हठसों जरते ॥ इहिभांति विचच्छन अच्छनके . वश, होय अनीति नहीं करते । परती लखि जे धरती निरखें, धनि हैं ! धनि हैं ! धनि हैं ! नर ते ॥ ५८ ॥
दिढ शीलशिरोमनकारजमें,जगमें यश आरज तेइ लह । तिनके जुग लोचन वारिज हैं, इहिभांत अचा, रज आप कह ॥ परकामनिको मुखचंद चित, मुंद
जाहिं सदा यह टेव गहें । धनि जीवन है तिन जीवनको, धनि माय उन उरमांझ बह ॥ ५९॥
कुशीलनिन्दा।
मतगयन्द संवया । जे परनारि निहारि निलज्ज, हसै विगसें बुधिहीन बड़ेरे । जूठनकी जिमि पातर पखि, खुशी उर कूकर । होत घनेरे ॥ है जिनकी यह टेव सदा, तिनको इह,
भी अपकीरति है रे। ह परलोकविपं दृढ़दंड, कर शतखंड सुखाचलकेरे ॥ ६० ॥
व्यसनसेवी।
छप्पय । ६ प्रथम पांडवा भूप, खेलि जूआ सब खोयो । मांस, खाय बकराय, पाय विपदा बहु रोयो ॥ विन जाने
१ आर्य, श्रेष्ठ । २ कमल । ३ माता । ८ धारण करे। ५ आदत । छ ६ “ह परलोक विषै विजुरी सु.-'' ऐसा भी पाठ है। ७ वज्र दड । ॐ ८ सुखरूपी पर्वतके। JanamaARCH 200000 preovagress Pascoverest
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जैनशतक । मदपानजोग, जादोंगन दज्झे । चारुदत्त दुख सहे, वैसवा-विसन अरुज्झे॥ नृप ब्रह्मदत्त आखेटेसों, द्विज शिवभूति अदत्तरति । पररमनिराचि रावन - गयो, साता सेवत कौन गति ? ॥ ६१॥
दोहा। पाप नाम नरपति कर, नरक नगरमें राज। तिन पठये पायक विमन,निजपुरवसती काज॥६२ जिनके जिनके वचनकी, बसी हिये परतीत । विसनप्रीति ते नर तजी, नरकवास भयभीत ६३
कुकविनिन्दा।
मत्तगयन्द संवया । ___ राग उदै जग अंध भयो, सहजै सब लोगन लाज गमाई । सीग्व विना नर सीखत है. विषयादिक मेव-:
नकी सुघराई ॥ तापर और रचे रसकाव्य, कहा : कहिये तिनकी निठुराई । अंध असूझनकी अखियानमें, झोंकत हैं रज रामदुहाई ॥ ६४ ॥
कंचन कुंभनकी उपमा, कहि देत उरोजनको कवि वार । उपर श्याम विलोकत वे, मनिनीलमकी ढकनी है हूँकि छारे ॥ यों सतवन कहें न कुपंडित, ये जुग: . आमिपपिंड उघारे । साधन झार दई मुंह छार, भये इहि हेत किधी कुच कारे ॥६५॥
१ जले । २ वेश्याव्यसन। : शिकार से । ४ सिपाही। ५ "विषयानके 8 सेवनकी" ऐसा भी पाट है । ६ मूर्ख । ७ मासके लौदे । haocGrosvaravasacocal C ode-cords/9VODOOSE
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कविवर भूधरदासविरचित- २३ _हे विधि ! भूल भई तुमतें, समुझे न कहां
कशतूरि बनाइ । दीन कुरंगनके तनमें, तृन - दंत धरे करुना नहिं आई ॥ क्यों न करी तिन जीहै भन ज, रसकाव्य करें परकों दुखदाई । साधु अनुग्रह : दुजन दंड. दुह सधते विसरी चतुराई ॥ ६६ ॥
मनरूपहाथी ।
छप्पय । ज्ञान महावत डारि. मुमति संकल गहि खंडै । गुरु अंकुहा नहिं गिने, ब्रह्मव्रत-विरख विहंडे ॥ करि निधत सर न्हानि. केलि अघरजसी ठाने । करनच। पलता धरै, कुमति करनी रति मान ॥ डोलत सुछन्द
मदमत्त अति, गुण-पथिकन आवत उरै । वैराग्य संभ बांधि नर ! मनमतंग विचरत वुरै ॥ ६७॥
गुमउपकार।
कवित्त मनहर । ढईसी सराय काय पंथी जीव वस्यो आय, रत्नत्रय निधि जाप मोख जाको घर है । मिथ्यानिशि कारी १ जहां मोहअंधकार भारी, कामादिक तस्कर समूहनको
थर है ॥ सोवे जो अचेत सोई खोवै निज संपदाको, . तहां गुरु पाहरू पुकार दया कर है । गाफिल न हूजे १ १ हरिणोके । २ वृक्ष। ३ कानोंकी चपलता, पक्षभे इन्द्रियाक ॐ विपयोकी चपलता। ८ हथिनी । ५ निकट । Gerovog velvom vervoll Velvetro covas vagravar. Xro VOX VOX VTS VOLVO
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जैनशतक |
भ्रात ! ऐसी है अँधेरी रात, जाग रे बेटोही ! इहाँ चोरनको डर है ॥ ६८ ॥
कपायजीतने का उपाय ।
मत्तगयन्द सवैया
छेमनिवास छिमा धुवनी विन, क्रोध पिशाच उर न टरैगो । कोमलभाव उपाव विना, यह मान महामद कौन रेगो || आर्जवसार कुठार विना, छलवेल निकंदन कौन करेगो । तोपशिरोमनि मंत्र पढ़े विन, लोभ फेणीविप क्यों उतरंगो ॥ ६९ ॥
मिष्टवचन |
terest area बोल बुरे नर ! नाहक क्यों जम धर्म गावें । कोमल वैन च किन ऐन, लगे कछ हूँ न सबै मन भावे || तालु छिंदै रसना न भिदै, न घंटे कछु अंक दरिद्र न आवै । जीभ कहें जिय हानि नहीं, तुझ जी सब जीवनको सुख पांव ॥ ७० ॥ धैर्यधारणांपदेश | कवित्त मनहर |
आयो है अचानक भयानक असाताकर्म, ताके करवेो बली कौन अह रे । जे जे मन भाये ते कमाये पूर्व पाप आप, तेई अब आये निज उदै काल
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१ मुसाफिर । २ धूनी । ३ सर्पका जहर |
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कविवर भूधर दासविरचित- २५, १ लहरे । एरे मेरे वीर ! काहे होत है अधीर यामें,
कोऊको न सीर तू अकलो आप सह रे । भये दिलगीर कछू पीर न विनसि जाय, याहीतें सयाने तू तमासगीर रह रे ॥ ७१ ॥
होनहार दुर्निवार । __ कैसे कैसे बली भूप भूपर विख्यात भये, वैरीकुल कांपे नेकु भोंहोंक विकारसों। लंधे गिरि सायर दिवा यरसे दिपें जिनों, कायर किये हैं भट कोटिन हुँकारसों ॥ ऐसे महामानी मौत आय हू न हारमानी, उतरे न नेकु कभू मानक पहारमों । देवसों न हारे पुनि दानेसों न हारे और, काहसों न हारे एक हारे नहारसों ॥ ७२॥
कालसामर्थ्य । ___ लोह मई कोट कई कोटनकी ओट करो, काँगुरेइन तोपरोपि राखो पट भरिक । इन्द्र चन्द्र चौंकायत है। चौकस ह चौकी देहु, चाव रंग चमू चहूं ओर रहो
घरिक ॥ तहाँ एक भोहिरा बनाय बीच बैठो पुनि, बोलो मत कोऊ जो बुलाव नाम टेरिक । ऐसी पर पंच पांति रचो क्यों न भांति भांति, कैसेहू न छोरै जम देख्यो हम हेरिकै ॥ ७३ ॥ __१ साझा । २ सागर-समुद्र । ३ दिवाकर सूर्य । ४ दानव-दैत्य । 3 ५ सेना। 302. Vale Velorex VOSSO DOVOLVOVOG MOSTOVOLVO
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मत्तगयन्द सवैया । __ अन्तकसों न छुटे निहचै पर, मूरख जीव निरन्तर धूजे । चाहत है चितमें नित ही, सुख होय न लाभ मनोरथ पूजे ॥ तो पन मूढ़ बँध्यो भय आस, वृथा बहु दुःखदवानल! भूजे । छोड़ विचच्छन. ये जड़ लच्छन, धीरज धारि सुखी किन हूजे ॥ ७४॥
धैर्यशिक्षा। ___ जो धनलाभ लिलार लिख्यो, लघु दीरघसुक्र
तके अनुसार । सो लहि है कछु फेर नहीं, मरुदेशके १ ढेर सुमेर सिधार ॥ घाट न बाढ़ कहीं वह होय, कहा कर आवत सोच विचारै । कूप किधों भर सागरमें नर !, गागर मान मिल जल सारे ॥ ७५ ॥
__ आशानदी ।
मनहर कवित्त । मोहसे महान ऊंचे परवतसों ढर आई, तिहूं जग । भूतलको पाय विसतरी है । विविध मनोरथमें भूरि
जल भरी बहु, तिसना तरंगनिसों आकुलता धरी है। परै भ्रम भौंर जहां रागसो मगर तहां, चिंता तटतुंग धर्मवृच्छ ढाय परी है । ऐसी यह आशा नाम नदी है अगाध ताको, धन्य साधु धीरजजहाज चढ़ि तरी है ॥ ७६ ॥ १ जमराज । २ का डर ।
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कविवर भूधरदासविरचित
महामूढ़ वर्णन। ___ जीवन कितेक तामें कहा वीत बाकी रह्यो, ताप अंध कौन कौन करे हेर फेर ही । आपको चतुर जाने औरनको मूह मान, सांझ होन आई है विचारत सवेर ही ॥ चामहीक चखनतें चितवै सकल चाल, उरसों न चौंध कर राख्यो है अंधेर ही। वाह बानतानकै अचानक ही ऐसो जम,दीस है मसान थान हाइनको ढेर ही ७७ __ केती बार स्वान सिंघ सांबर सियाल सांप, बानर बिलाव सूसा सूरी उदरै पस्यो । केती बार चील चमगीदर चकोर चिरा, चक्रवाक चातक चँडूल तन भी धस्यो । केती बार कच्छ मच्छ मेंडक गिंडोला मीन,
शंख सीप कोंडी है जलूका जलमें तिस्यो । कोऊ • कह "जायरे जनावर!" तो बुरो माने,यों न मूढ जाने । . मैं अनेकबार हे मस्सो ॥ ७८ ॥
दुष्टकथन ।
छप्पय. करि गुणअम्रतपान, दोषविष विषम समप्पै । बँकचाल नहिं तजे, जुगल जिह्वा मुख थप्पै ॥ तकै निरन्तर छिद्र, उदै परदीप न रँच्चै । विन कारण दुख करै, वैरविष कबहुं न मुच्चै ॥७९
१ देखे । २ शुकरी । ३ जोक । ४ अच्छालगतार्ह ५ छोडताहै । are revervoveroverete veroverbeveer COVOCVEVOS
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जनशतक । वर मौनमंत्रसों होय वश, संगत कीये हान है । बहु मिलत बान यातें सही, दुर्जन सांप समान है।
विधातासों तक।
___ मनहर कवित्त । सजन जो रचे तो सुधारस सों कौन काज, दुष्ट जीव किये कालकूटसों कहा रही । दाता निरमापे फिर थापे क्यों कलप वृच्छ, याचक विचारे लघु तृण कहते हैं सही । इष्टक संयोगते न सीरो घनसार कछु,
जगतको ख्याल इंद्रजाल सम है वही । ऐसी दोय दोय बात दीखें विधि एकहीसी, काहेको वनाई मेरे धोखो मन है यही ॥ ८॥ चौवीमतीर्थकरोंके चिह्न ।
छप्पय । गंऊपुत्र गजराज, बाजि बानर मनमोहै । कोक कमल सांथिया. मोम सफरीपति सोहे ॥ सुरतरु गैंडा महिष, कोल पुनि सेही जानो। वज्र हिरन अज मीन, कलश कच्छप उरआनो ॥ शंतपत्र शंख अहिराज हरि, ऋषभदेवजिन आदि ले। श्रीवद्धमानलों जानिये, चिहन चारु चौवीस ये॥८१॥
१ शीतल । २ बैल । ३ चन्द्रमा । ४ मकर । ५ कल्पवृक्ष । ६ शकर । ७ रक्तकमर । ८ सर्प।
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कविवर भूधरदासविरचित
श्री ऋषभदेवके पूर्वभव । कवित्त मनहर |
आदि जयवर्मा दूजे महाबलभूप तीजे, सुरगईशान ललितांग देव थयो है । चौथे वज्रजंघ एह पांचवें जुगल देह, सम्यक ले दूजे देवलोक फिर गयो है ॥ सातवें सुबुद्धिराय आठवें अच्युतइन्द्र, नवमें नरेन्द्र वज्रनाभ नाम भयो है । दशैं अहमिन्द्र जान ग्यारवें ऋपभभान, नाभिवंश भूधरके सीस जन्म लयो है || ८२ ॥
श्रीचन्द्रप्रभके पूर्वभव । गीता. ।
श्रीवर्म भूपति पाल हमी, स्वर्ग पहले सुर भयो । पुनि अजितमेन छखंडनायक. इन्द्र अच्युतमें थयो । वर परम नाभिनरेश निर्जर, वैजयंति विमानमें । चंद्राभ स्वामी सातवें भव, भये पुरुषपुरानमें ॥८३॥ श्री शान्तिनाथके पूर्वभव । कवित्त ( ३१ मात्रा ) सिरीसेन आरज पुनि स्वर्ग, अमिततेज खेचर पद पाय । सुर रविचूल स्वर्ग आनतमें, अपराजित वलभद्र कहाय ॥ अच्युतेंद्र वज्रायुध चक्री, फिर
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जैनशतक ।
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0 अहमिंद्र मेघरथराय । सरवारथसिद्धेश शान्तजिन, ये प्रभुकी द्वादश परजाय ॥ ८४ ॥
नेमिनाथके पूर्वभव ।
छप्पय । पहले भव वनभील, दुतिय अभिकेतु सेठ घर ।
तीजे सुर सौधर्म, चौम चिन्तागति नभचर ॥ 1पंचम चौथे स्वर्ग, छठे अपराजित राजा। । अच्युतेंद्र सातये, अमरकुलतिलक विराजा ।। . सुप्रतिष्ठराय आठम नर्वे, जन्मजयन्तविमान धर । फिर भये नेमि हरिवंशशशि,ये दशभव सुधि करहु नर।।
श्रीपार्श्वनाथके भवान्तर ।
कवित्त ( ३१ भात्रा )। __विप्रपूत मरुभूत विचच्छन, वज्रघोष गज गहन ६ मंझार । सुर पुनि सहसरश्मि विद्याधर, अच्युतस्वर्ग
अमरिभरतार ॥ मनुजइंद्र मध्यम ग्रेवेयिक, राजपुत्र आनंदकुमार । आनतेंद्र दशवें भव जिनवर, भये पासप्रभुके अवतार ॥ ८६ ॥
राजा यशोधरके भवान्तर ।
मत्तगयंद सवैया । राय यशोधर चन्द्रमती, पहले भव मंडल मोर ४ कहाये । जाहक सर्प नदीमध मच्छ, अजा अज भैंस
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कविवर भूधरदासविरचित
३१
अजा फिर जाये || फेरि भये कुकड़ा कुंकड़ी, इन सात भवांतरमें दुख पाये । चूनमई चरणायुध मार, कथा सुन संत हिये नरमाये ॥ ८७ ॥ सुबुद्धिसखी के प्रति वचन । मनहर कवित्त |
कह एक सखी स्थानी सुनरी सुबुद्धि रानी, तेरो पति दुखी देख लागै उर और है । महा अपराधी एक पुग्गल है छहों माहिं, सोई दुख देत दीखे नानपरकार है | कहत सुबुद्धि आली? कहा दोष पुग्गल को, अपनी ही भूल लाल होत आप ख्वार है । "खोटो दाम आपनो सराफै कहा लगै वीर," कोऊको न दोष मेरो भोंदू भरतार है ॥ ८८ ॥
गुजराती भाषामें शिक्षा । करिखा ।
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ज्ञानमय रूप रूंडो सदा सासतो, ओलखे क्यों न सुखपिंड भोला | वेगळी दहंथी नेह तूं शुं करै, एहनी टेव जो मेह ओला ॥ मे मान भवदुक्ख पायी पंछी, चैन लोध्यो नथी एक तोला । वेळी दुख वृच्छनो बीज बने, आपथी आपने आप बोला ॥ ८९ ॥
१ मुर्गी । २ मुर्गा । ३ शूल, ४ सुन्दर । ५ पहिचानें । ६ पुथकू । ७ देहसे । ८ क्या । ९ मेरुके प्रमाण । १० पाये । ११ पीछे । १२ मिला । १३ नहीं । १४ फिर । १५ बोता है । १६ और ।
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जैनशतक |
द्रव्यलिंगी मुनि | मत्तगयंद सवैया |
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शीत सह तन धूप हैं तरुहेट रहें करुना उर आनें । झूठ कहैं न अदत्त गर्दै वनिता न चहैं लव लोभ न जानें || मौन वह पछि भेद लहँ नहिं, नेम गर्दै व्रत रीति पिछानें । यो निवह परमोख नहीं, विन ज्ञान यह जिनवीर बखान ॥ ९० ॥
अनुभवप्रशंसा | कवित्त मनहर |
जीवन अलप आयु बुद्धिबलहीन तामें. आगम अगाधसिंधु कैसे ताहि डांक है । द्वादशांग मूल एक अनुभा अपूर्व कला, भवावहारी घनसारकी सलाक है | यह एक सीख लीजे याहीको अभ्यास कीजे, याको रस पीजे एमो वीरजिन वाक है । इतनी ही सार यही आतमको हितकार, यहीं लों मदार फिर आगे ढूढाक है ॥ ९१ ॥ भगवत्प्रार्थना |
आगम अभ्यास होहु सेवा सरवज्ञ तेरी, संगति सदीव मिलौ साधरमी जनकी । सन्तनके गुनको बखान यह बान परो, मैटो देव देव ! पर औगुन कथ
१ थांह पाचेगा । २ ससाररूपी उष्णताको हरन करनेवाला ।
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कविवर भृधरदासविरचित
नकी ॥ सबहीसों ऐन सुखदैन मुखवैन भाखों, भावना त्रिकाल गखों आतमीक धनकी । जौलों कर्म काट खोलों मोक्षके कपाट तौलों, ये ही बात हूजा प्रभु पूजौ आस मनकी ॥ ९२ ॥ जिनधर्मप्रशंसा । दोहा |
३३
छये अनादि अज्ञानसों. जगजीवनके नैन । सब मत मूठी धूलकी. अंजन है मत जैन ॥ ९३ ॥ मूल नदी के तिरनको. और जतन कछु है न । सब मत घाट कुघाट हैं, राजघाट है जैन ॥ ९४ ॥ तीनभवन में भर रहे, थावर जंगम जीव ।
सब मत भक्षक देखिये, रक्षक जैन सदीव ॥ ९५ ॥ इस अपार जगजलधिमें, नहिं नहिं और इलाज ।
पाहनवाहन धर्म सब, जिनवरधर्म जिहाज ॥ ९६ ॥ मिथ्यामतके मदछके, सब मतवाले लोय ।
सब मतवाले जानिये, जिनमत मत्त न होय ॥९७॥ मतगुमानगिरिपर चढ़े, बड़े भये मनमाहिं ।
लघु देखें सब लोककों, क्यों हूं उतरत नाहिं ॥ ९८ ॥ चामखनसों सब मती, चितवत करत नवेर ।
ज्ञाननैनसों जैन ही, जोवत इतनो फेर ॥ ९९ ॥ ज्यों बजाज ढिग राखिक, पट परखे परवीन ।
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त्यों मतसों मतकी परख, पावैं पुरुष अमीन ॥ १०० दोय पक्ष जिनमतविष, नय निश्चय व्यवहार ।
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जैनशतक ।
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तिन विन लहै न हंस यह, शिवसरवरकी पार ॥ 0 सीझे सीझै सीझ हैं, तीनलोक तिहुँकाल
जिनमतको उपकार सव, जिन भ्रम करहु दयाल॥ 1 महिमा जिनवर वचनकी, नहीं वचनबल होय । । भुजबलसों सागर अगम, तिरै न तीरहिं कोय१०३ अपने अपने पंथको, पोखै सकल जहाँन ।
तेसैं यह मतपोखना, मत समझो मतिवान॥१०४ इस असार संसारमें, और न सरन उपाय । जन्म जन्म हूजो हमें, जिनवरधर्म सहाय ॥ १०५
अन्तप्रशस्ति ।
___ कवित्त मनहर । आगरेमें बालबुद्धि भूधर खंडेलवाल, बालकके ख्यालसो कवित्त कर जान हैं । ऐसे ही करत भयो जैसिंघसवाई सूबा, हाकिम गुलाबचंद आये तिहि थाने । हैं ॥ हरीसिंघ साहके सुवंश धर्मरागी नर, तिनके कहेसों जोरि कीनी एक ठान है । फिरि फिरि प्रेरे मेरे आलसको अंत भयो, उनकी सहाय यह मेरे मन माने है ॥ १०६॥
दोहा । सतरहसे इक्यासिया, पोह पाख तमलीन । तिथि तेरस रविवारको, शतक समापत कीन१०७
समाप्तोऽयं ग्रन्थः ।
श्रीशुभमस्तु । कल्याणमस्तु । & PeନଳଚଳଚBes
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छात्रोंकेलिये उपदेश ।
मुंशीलाल एम्. ए.
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श्रीः
छात्रोंकेलिये उपदेश।
जिम
लाला मुंगीलाल एम्. ए. गवर्नमेंटपेन्शनर
लाहौरने बनाया
और
देवरीनिवासी श्रीनाथूरामप्रेमीद्वारा
चम्बईके निर्णयसागर प्रेनमें बालकृष्ण रामचन्द्र घाणेकरके
प्रबन्धसे छपाकर प्रकाशित किया ।
प्रथमावृत्तिः]
जून मन ५५.१० ई.
[ मूल्य ।।
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छात्रोकेलिये उपदेश.
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शीलका प्रभाव। किसी दसकी उन्नति इसपर निर्भर नहीं है कि उसकी आय अधिक हो. सीमा दृढ़ हों वा गृह मुन्दर हों, वरञ्च उसकी उन्नति इसपर आश्रित है कि वहांक रहनेवाल लोग सभ्य सुशील और मुशिक्षित हो।
संमाग्मं शील एक बहुत बड़ी प्रेरक शक्ति समझी जाती है, क्योकि यह मनुष्यको उच्च पदवीपर पहुंचाकर उत्तमताका आदर्श बना देती है। स्वभावतः जो लोग उत्तम नियमोंपर चलनेवाले हैं व परिश्रमी सरल और निष्कपट होते है और इतर जन उनके कहनेपर चलते है। प्रकृति यही चाहती है कि ऐसे मनुष्योंपर भरोसा करना और उनके अनुसार चलना चाहिये । संसारमें सकल गुण और भलाइयां इन्हींके कारण विद्यमान हैं और जबतक ऐस महात्मा और साधुजन इस संसारमें न हों तबतक यह संसार रहनेक योग्य हो ही नहीं सकता।
यद्यपि धीशक्ति वा बुद्धिमत्ता श्लाघनीय है तथापि सुशीलता सम्माननीय है । बुद्धिमत्ता मस्तकसे और सुशीलता हृदयसे सम्बन्ध रखती है। सच पूछो तो हृदयशक्ति ही इस जीवनमें सर्वत्र प्रबल है । प्रत्येक समाजमें बुद्धिमान् पुरुषका आदर उसकी
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तीक्ष्ण बुद्धिके कारण और सुशील पुरुषका सम्मान उसके शुद्ध अन्त करण वा संज्ञानके कारण होता है, परन्तु भेद यह है कि बुद्धिमान् पुरुषकी केवल श्लाघा ही श्लाघा होती है और सुशील पुरुषके आचरणको सब लोग ग्रहण करना चाहते हैं।
उच्च पदवीके लोग साधारण मनुष्य जातिमे अलग है और यह पदवी एक दृमरेकी अपेक्षा हीमे प्राप्त हो सकती है। मानुषी जीवनका क्रम प्रत्येक दशामें ऐसा परिमित रक्ग्वा गया है कि बहुत थोड़े लोगोंको उच्च पदवीतक पहुंचनेका अवसर मिलता है. परन्तु प्रत्येक पुरुष आदरसत्कारपूर्वक अपना जीवन सुष्टु रीतिसे व्यतीत कर सकता है । छोटे २ कामोंमें भी मनुष्य सग्लता विशुद्धता और श्रद्धालुताका बर्ता कर सकता है और अपनी २ दशामें उसके अनुसार कृत्य करता रहता है। ___ मनुष्यका जीवन बहुधा साधारण कृत्योंके लिए ही है और अधिक करके वही गुण प्रबल है जिनसे नित्यप्रति काम पडता रहता है ।
प्रत्येकको अपना कृत्य या कर्तव्य करना चाहिये । जान बूझकर कृत्य न करना एक बड़ा भारी दोष है, इस दोपसे हम बचना चाहिये और कटिबद्ध होकर इसका सामना करना चाहिये । कृ. त्यके करनम आनन्द है और उसके न करनेमे दुःख प्राप्त होता है । प्रत्येकको, चाहे स्त्री हो चाहे पुरुष, अपने २ कृत्य वा कर्तव्य धर्मका जानना अवश्य है । धर्म वा कृत्य मनुप्यके साथ यहां भी है और इस जीवनके अन्तमें भी माथ रहेंगे। __बुद्धिमत्तासे मनुष्य अधिक चमत्कारी और आश्चर्यजनक काम कर सकता है, प्रचुर धनसे बहुतसे अद्भुत काम निकल सकते है, परन्तु जो काम दृढ़ श्रद्धालु और धार्मिक पुरुषोंसे प्रकट होते हैं वे बहुत
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ही हृदयंगम और योग्य होते हैं। देखो तीक्ष्णबुद्धि बिरलोंहीके भाग्यमें होती है और धनसम्पदा भी किसी २ को मिलती है, परन्तु यह सब लोग कर सकते है कि वे अपने २ अङ्गीकार किये हुए कृत्यको पूरे २ बल और हृदयसे करें । अपना २ कृत्य करना लोगोंका परम धर्म है; इस कृत्यका करना, चाहे एक छोटीसी बात प्रतीत हो. अवश्य है और जो कोई अपना कृत्य करता है वह इसके बदलेमें किसी प्रकारकी श्लाघा वा पारितोषिकका अधि. कारी नहीं है. परन्तु केवल कृत्य और निष्काम कृत्य होनेके कारण आप ही आप उसका उत्तम फल मिलेगा ! भक्त और श्रद्धालुका परिश्रम कभी वृथा नहीं जाता, उसका फल अवश्य उसको मिलेगा, विपरीत इसके नीक्ष्णबुद्धिवालोंके हार कुम्हलाकर मुरझा जाते है और निरे भाग्यवालोके पारितोषिक वृथा आडम्बर हैं।
इम समाग्मं. उसकी रचनाके अनुसार, प्रत्येक मनुप्यके जीवनकी, सामाजिक और गृही होनेके कारण. अपनी अलग २ दशा है। कुछ पुरुप तो राज्य करते है, कुछ सेवक हैं, कुछ शिक्षक वा गुम है और कुछ शिष्य वा चेले है इत्यादि । इन कई प्रकार के सम्बन्धोंसे अनेक प्रकारके ऋण और कृत्य उत्पन्न होते हैं । जीवनका बड़ा उद्देश्य और लाभ यह है कि अपने ही आनन्दको न बढ़ाया जाए वरञ्च औरोंके आनन्द और सुखको अधिक किया जाए और यह तब ही हो सकता है जब हम अपने २ कृत्योंको श्रद्धा और भक्ति से पूरा करें ।। __ यहां हम छात्रसम्बन्धी कुछ कृत्य वर्णन करते हैं । छात्रोंको ये कृत्य करने योग्य है-१. आज्ञानुवृत्तिः २. कालानुवृत्तिः (कालानुवर्तिता) ३. परिश्रम ४. परस्पर एकता और प्रेम जो मीतिके
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अनुसार हों और न्यायपर आश्रित हों ५. निष्कपटता, सरलता और सत्यवादिता।
१. आज्ञानुवृत्ति या वश्यताके अर्थ पाठशालाके बनाए हुए नियमों के अनुसार चलना है । इस कृत्य वा गुणका होना मनुष्यसम्बन्धी समाजके सकल भागोंमें आवश्यक है। इसके विना समाज ही नहीं रह सकती । फौजी सिपाहियों के लिए भी यह सबसे उत्तम गुण है; उन्हें चाहिये कि चुप चाप होकर अपने अफसरका हुकम मानें और तनिक भी चूं न करें, नहीं तो सारा प्रबन्ध उलट पुलट हो जायगा और खलबली मच जाएगी । देखो अपने माता पिताके कहेमें चलना अच्छे बालकोंका सबसे पहला कृत्य है । वश्यता ईश्वरका सर्वोपरि न्याय है । इसी प्रकार छात्रोंमें वश्यताका होना अतीव आवश्यक है, क्योंकि इसके विना पाठशालाका प्रबन्ध और शासन रखना बड़ा कठिन है, और जहां शासन नहीं वहां किसी प्रकारकी ठीक २ शिक्षा हो नहीं सकती। पाठशालामें इस गुणका होना अतीव श्लाघनीय है, क्योंकि और सब गुण इसीपर निर्भर हैं और इसीसे उत्पन्न होते है। सोचो यदि तुम अपने गुरु वा शिक्षककी आज्ञा न मानोगे, तो फिर तुम उसके उपदेशका कुछ भी आदर न करोगे और उसकी उत्तमसे उत्तम और उपयोगी शिक्षापर तनिक भी ध्यान न दोगे । इससे तुम्हें आज्ञा उल्लंघन करनेकी बान पड़जाएगी और तुम अपना समय वृथा खोने लगोगे, और इस प्रकार शिक्षासे तुम्हारे आचरण नहीं सुधरेंगे, वरच्च शिक्षाका तुमपर उलटा प्रभाव पड़ेगा और तुम समाजके लिए भार और कष्टका कारण होगे ।
फिर यह भी याद रखना चाहिये कि आज्ञाभा करनेसे हमारा
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आत्मसम्मान जाता रहता है । यदि हम सुशील और नियमों के अनुसार चलनेवाले हैं, तो हमपर उत्तम रीतिसे शासन किया जाएगा; और यदि हम नियमोंको उल्लंघन करेंगे और इस कारण दुर्विनीत और दुराचारी बनेंगे, तो हमपर कुरीतिसे शासन किया जाएगा और हमें दण्ड मिलेगा । किसी विभागके अध्यक्षको अ. त्यन्त ताड़ना करनी और कठोर नियम बनाने पड़ेंगे, यदि जिन लोगोंसे उसे बरतना है वे अन्यायी दुराचारी और दुर्दान्त हों । इस लिए आत्ममान रखने और अपनेसे बड़ोंकी आशीर्वाद लेनेके लिए हमें आज्ञाकारी होना चाहिये । __ आज्ञानुवर्ती होनेसे तुम आगे जाकर अपने जीवन में ऋद्धि सिद्धि प्राप्त करोगे । तुम्हें यह भी याद रखना चाहिये कि आज्ञापालन और मकल गुणोंकी नाई दो परमकोटियोंका मध्यभाग है, अर्थात् इसके एक ओर आज्ञाभंग है और दूसरी ओर दासत्व है और यह इन दोनोंसे भिन्न है और इनके मध्यमें स्थित है । तुम्हें चाहिये कि आज्ञानुवृत्तिके उत्तम गुणको अपनेमें धारण करो और उसके अनुसार चलो।
२. एक और ऐसा ही आवश्यक गुण कालानुवृत्ति है । जीवनके सब कामोंमें इस गुणका होना अवश्य है । यदि यह न हो तो प्रत्येक वस्तुमें खलबली पड़जाए । छात्रोंमें इस गुणका होना अतीव आवश्यक है । कालानुवृत्तिसे हमारा तात्पर्य यह है कि प्रतिज्ञाके समयका ध्यान रक्खा जाए, यह नहीं कि एक बार वा दो बार वा कभी २, वरञ्च सदाके लिए ध्यान रक्खा जाए; यदि वह प्रतिज्ञाकी अवधि कुछ कालतक वा सदाके लिए हो तो उस समयतक बराबर ध्यान रखना चाहिये । यदि कोई छात्र पाठशा
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लामें नित्य और ठीक समयपर नहीं आता, तो वह नियमोंका उल्लंघन करके अपने अध्यापकोंका निरादर करता है; इस लिए एक तो उसके अध्यापक उसको कृपादृष्टिसे नहीं देखते, दूसरे वह शिक्षासे लाभ नहीं उठा सकता और आयुःपर्यन्त मूर्ख रहता है ।
और यदि यह बुरी बान उसमें सदाके लिए पड़गई और आयु:पर्यन्त रही, तो उसका शील भङ्ग हो गया और वह किसी सांसारिक काममें नहीं फलता फूलता । तुममें सोच समझ है और आगे जाकर तुम संतानवाले होगे, तुम्हें चाहिये कि आज्ञापालन और कालानुवृत्तिके गुणोंको ग्रहण करो इसलिए कि तुम अपने छोटे भाई बहनों और सन्तानको श्रेष्ठ उदाहरण बताओ और स्वयं उतम आदर्श बनकर दिखाओ । तुम अगले वंशके चलानेवाले हो, इस लिए हिन्दुस्तानकी अगली दशाका उत्तम होना बहुत करके तुम्हारे ही उत्तम और धार्मिक शीलपर निर्भर है । कहते है कि जाति व्यक्तियोंसे मिलकर बनी है और यदि किसी जातिकी प्रत्येक व्यक्ति उत्तम सज्जन और धार्मिक है तो वह सारी जाति उत्तम सज्जन और धार्मिक कहलाई जा सकती है । अपने समयको बहुमूल्य समझनेमे तुम अपने आपको जीते जी बहुत कुछ सुधार सकते हो और तुम्हारे पीछे लोग तुमको भलाईसे याद करेंग और तुम्हारा यश और कीर्ति इस संसारमें रहेगी और लोग तुम्हारा अनुकरण करेंगे।
३. अब हम परिश्रमका वर्णन करते है । प्रत्येक मनुष्यको अपना २ काम करना पड़ता है और यह काम करनेकी शक्ति सर्वोत्तम दान है जो ईश्वरने मनुप्यको दी है । जीवनका सबसे अधिक राख उन लोगोंको दिया गया है जो अच्छे और पवित्र
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कामके करनेमें लगे हुए है । निकम्मे और आलसी मनुष्य अपने लिए भार हैं और उनको अपने जीवनमें कुछ भी स्वाद नहीं आता । इस कारण परिश्रम शाप वा हानि नहीं है वरञ्च एक महादान और लाभ है । जो कुछ कि मनुष्य कर सकता है वह उसका सबसे बड़ा भूषण है और उस कामके करनेसे वह अपना ही मान और हर्ष बढ़ाता है अर्थात् काम करनेसे मनुष्यका सब आदर करते हैं और वह उच्च पदवी और आनन्दको प्राप्त होता है। __ओ हो ! जो लोग परिश्रम करते है और जो यत्न करते है, उनमें एक बड़ी भारी शक्ति आ जाती है । तुझे चाहिये कि अपने अमृल्य समयको वृथा न खोओ, उसमें यथाशक्ति उत्तम २ कार्य करते रहो । कामका करना सर्वोत्तम अधिकार है और मनुष्यके लिए बड़ा उत्तम दान है । तुम्हें उचित है कि अपने जन्मके अ. धिकारपर अपने आपपर और अपनी आत्माओंपर दृढ़ रहो । जो लोग ठाली बैटे रहते हैं और कुछ करना नहीं चाहते, वे अपने जीवन में क्लान्त और दीन रहते हैं और उनका जीना धिक्कार है ।
परिश्रमका फल अवश्य मिलता है । इस लिए तुम्हें अपने इष्ट मनोरथकी सिद्धिके लिए परिश्रम करना योग्य है । तुम्हें चाहिये कि जो काम करना है उसे तन मन धनसे करो । विद्या बड़े कठिन परिश्रमसे ही प्राप्त हो सकती है और विद्याके प्राप्त करनेके लिए कोई सीधी सड़क वा राजमार्ग नहीं बना हुआ है। जिन लोगोंको तुम पूर्व समयमें धीशक्तिसम्पन्न कहते हो, जिन्होंने बड़ी कीर्ति और यश प्राप्त किया है और जो बड़े बुद्धिमान् प्रसिद्ध हुए हैं, उन सबको अपने कार्यमें सिद्धि प्राप्त करने और अपनी की
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र्तिको स्थित रखनेके लिए बड़ा भारी परिश्रम करना पड़ा है
और वे आधी २ राततक दीपक जलाकर पढ़ते और सोचते रहे हैं और स्वयंसिद्ध तो इनमेंसे एक ही आध निकलेंगे। ___ और लो! परिश्रम करनेसे मनुष्य आलसी और निकम्मा नहीं रहता और अपनी शक्तियोंको वृथा नहीं गंवाता, अर्थात् परिश्रम आलस्यका नाश करनेवाला है । बाल्य और तरुण अवस्थामें हमारी शक्तियां अति प्रबल होती हैं और यदि इनको किसी उपयोगी कार्यमें न लगाया जाए तो ये हमें बुरे कामोंकी ओर ले जाएंगी। अंगरेज़ी भाषामें एक कहादत प्रसिद्ध है जिसका अर्थ यह है कि निकम्मा और आलसी पुरुष वा स्त्री भूत पिशाच को अपनी ओर लुभा लेती है, अर्थात् ठाली बैटेको बुराइयां ही बुराइयां सूझती रहतो हैं ।
४. चौथी बात परम्पर एकता और प्रेम है । तुममें परस्पर प्यार और प्रीति होनी चाहिये । बहुधा छोटी २ बातोंपर लड़ाई भिड़ाई हो जाती है; तुम्हें चाहिये कि इस उत्तम नियमपर चलो, " तुम औरोंके साथ इसी प्रकार वर्तो, जैसा कि तुम चाहते हो कि और लोग तुम्हारी साथ बर्ते" । तुम्हें एक दूसरेके भावोंका ध्यान रखना चाहिये, और किसीका वृथा जी नहीं दुखाना चाहिये । तुम्हारी एकताकी नीव सच्चे और धार्मिक नियमोंपर होनी चाहिये, क्योंकि जो एकता अधर्मपर आश्रित होती है उसकी जड़ बोदी होती है और वह चाहे जब टूट जाती है । और यह अधर्मसम्बन्धी एकता कभी ठीक नहीं, क्योंकि यह नीतिविरुद्ध है और जलके बुलबुलेके समान झट नष्ट हो जाती है । तुम्हें चाहिये कि ऋजुता और सरलता बर्तो, सज्जन पुरुषोंके सङ्गमें
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रहो और दुर्जनों से बचो । यदि तुम्हारा साथी वा तुम्हारी श्रेणीका लड़का कोई बुरा काम करे तो तुम झट उस कामको बुरा कहो और अपने साथीको सुधारनेका यत्न करो। तुम्हें चाहिये कि पाठशालाका शासन रखने, दुर्जनोंका पता लगाने और उन्हें उचित दण्ड दिलाने में अपने शिक्षकों के सहायक बनो । ऐसा करने से तुम अपने साथियों का भला कर रहे हो, क्योंकि तुम इस प्रकार सरलता के पक्षपाती होकर भलाईका बीज बो रहे हो और बुराईको जड़ से उखाड़ रहे हो ।
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५. सबसे पिछली बात यह है कि तुम अपने शीलमें निष्कपट, सरल और सत्यवादी बनो । निष्कपटता वा ऋजुता सर्वोत्तम गुण है । कई एक निकम्मे और दुष्ट छात्र परीक्षामें सफल होनेके लिए अनुचित उपाय करते हैं, पाठशालासे छुट्टी लेनेके लिए अपने पिता वा रक्षक के झूठे हस्तलेख बना लेते हैं वा सच्चा हेतु छोड़कर झूठा हेतु घड़ लेते हैं, इस भयसे कि सच्ची वार्ता लिखने से उन्हें छुट्टी नहीं मिलेगी । तुम्हें कदापि ऐसा नहीं करना चाहिये और आशा है कि तुम अपना मनोरथ सिद्ध करनेके लिए अनुचित उपाय काममें लाना बहुत ही बुरा समझोगे और अपने सारे बर्ताव में सचाई और साधुतासे काम लोगे ।
सबसे उत्तम बात यह है कि तुम ईश्वर परमात्माको पहचानो, उससे प्यार करो और उसीकी आज्ञाका पालन करो यहां तक कि तुम्हारे शीलमें परमात्माकेसे गुण आजाएं ।
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( १० )
२.
हे छात्रो ! तुम आगे आनेवाले वंशके चलानेवाले हो और तुमहीपर हिन्दुस्तानकी आगामी उन्नति और उच्च दशाका निर्भर है । लड़कपनमें जैसी तुम्हारी बान पड़ जाएगी, वैसी ही बान जवानी और बुढ़ापे में होंगी । तुम्हें चाहिये कि अपनी बान डालने में नियम और रीतिसे काम लो और सज्जन और धार्मिक बनना सीखो । इस संसार में और विशेष करके युवा अवस्था में हमारा शील पूरा २ सुधरा हुआ नहीं होता और हमारी बान परिवर्तनशील होकर बदलती रहती है उस समय हमारी प्रवृत्ति बुराई ग्रहण करनेकी ओर होती है । परन्तु तुम्हें यह बात जाननी अवश्य है कि आनन्द वा परम गुख सज्जनताईमें ही है । सुखी होनेके लिए हमारा अन्तःकरण शुद्ध और पवित्र होना चाहिये अर्थात् जब हमारा अन्तःकरण प्रसन्न और संतुष्ट होकर हमारे कामों को सराहता है तब ही परमसुख प्राप्त होता है । जिस मनुष्यकी वृत्ति सात्विक और धार्मिक है और जो अपना कृत्य भक्ति से श्रद्धापूर्वक करता है, उसका भीतरी आत्मा वा अन्तःकरण सर्वदा संतुष्ट रहता है । विपरीत इसके पापी मन, जो पछतावेके दुःख और कष्ट सहता रहता है, सदा बेचैन रहता है और कभी भी सुखी नहीं होता । फिर देखो कि आनन्द वा सुख चिरस्थायी और निरन्तर होना चाहिये न कि क्षणिक और थोड़े काल के लिए हो, ऐसा सुख पुण्य वा धर्मसे ही प्राप्त हो सकता है क्योंकि धर्म सदा स्थिर है और काल और दशा से बदल नहीं सकता । धार्मिक पुरुषका सुख बाह्य बातोंपर निर्भर नहीं होता, इस लिए प्रायः उसका सुख उससे पृथक् नही हो सकता अर्थात्
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( ११ )
धार्मिक पुरुष सदा आनन्द में मग्न रहता है । प्रत्येक वस्तुमें पवित्रताका होना उत्तम है, परन्तु हृदयकी पवित्रता वा विशुद्धताकी सब बड़ाई करते हैं और उसे प्राप्त करना चाहते हैं । पुण्य वा धर्म वा सात्त्विक वृत्ति निर्मल जलकी नाई है और प्रकाशका चिन्ह है, और पाप वा अधर्म वा तामसिक वृत्ति मैले और गंदले जलके समान है और अन्धकारका चिन्ह है । इस कारण यह बात अतीव आवश्यक है कि हम पवित्र शुद्ध और धार्मिक जीवन व्यतीत करें और तब ही हमको अपने जीवन में ऋद्धि सिद्धि और परम सुख मिल सकता है ।
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इससे पहले हम उन गुणोंका वर्णन कर चुके हैं जिनका बीज हमें अपने हृदय बोना चाहिये । वे गुण आज्ञापालन, समयानुसरण ( कालानुवृत्ति), परिश्रम, एकता और प्रेम, निष्कपटता, सरलता और सत्यवादिता है । इनके अतिरिक्त हमारे आचरण भी उत्तम होने चाहिये और हमें एक दूसरेके साथ मित्रता रखनी चाहिये ।
१. कभी २ ऐसा होता है कि तुम अपनी श्रेणीके किसी लड़केसे एक पुस्तक वा लेखिनी मांगी लेते हो और वह तुम्हें कृपा करके दे देता है, परन्तु तुम उस पुस्तकको लेते समय और उल्टा देते समय उसके अनुग्रहीत नहीं होते अर्थात् दोनों समय यह नहीं कहते कि मै आपका बड़ा अनुग्रहीत हूं । कभी २ तुम ऐसे अक्खड़ और अविनीत हो जाते हो कि उस वस्तुको दूरसे ही उसकी ओर फेंक देते हो तथा उस वस्तुको जहांका तहां पड़ा रहने देते हो और उसे लौटाकर नहीं देते । इस कारण वह वस्तु खोई जाती है और उसके खोए जानेका दोष तुमपर होता है ।
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१२ )
याद रक्खो कि छोटेसे छोटे काम के लिए भी तुम्हें अनुग्रहीत होना चाहिये ।
२. कभी २ तुम वृथा अभिमान के मारे अपने आपमें फूले नहीं समाते और मनमें यह समझने लगते हो कि हमें औरों से अधिक ज्ञान है; पर तुम्हें यह जानना चाहिये कि शून्य थैला सीधा नहीं खड़ा हो सकता । औरोंको दोष लगाने से पहले अपने ही दोषोंपर दृष्टि डालो | बुद्धिमान् और नम्र बनो । इस निम्नलिखित लोकके अनुसार चलो
विद्या ददाति विनयं विनय याति पात्रताम् । पात्रत्वाद्धनमाप्नोति धनाद्धर्म ततः सुखम् ॥
३. अवधान और वश्यता, अर्थात् ध्यान और नम्रता विद्याप्राप्ति के लिए आवश्यक हैं । यदि श्रेणिमें कोई बात सिखलाई जाए और तुम पाठको सुनो ही नहीं वरश्व अपनी श्रेणिमें पास बैठे हुए लड़केसे चुपके २ बातें करने और कानाफूसी करने लगो तो तुम और तुम्हारी श्रेणी के लड़के भी शिक्षासे लाभ नहीं उठा सकते । फिर यह देखो कि पढ़ते समय बातें करना और पाठपर ध्यान न देना उत्तम आचरणके विरुद्ध है, क्योंकि ऐसा करने से तुम अपने शिक्षकका निरादर करते हो और अपना और उसका समय भी वृथा खोते हो । जब तुम्हारा शिक्षक श्रेणीमें नहीं है या कुछ और काम कर रहा है तो तुम्हें चाहिये कि तुम सब चुप चाप रहो और वृथा कोलाहल न करो, क्योंकि यह बात उत्तम आचरणके विरुद्ध है कि जब तुम अकेले हो तो कव्वोंकी नांई कांएं २ करने और चिल्लाने लगो ।
४. आज कल उन्नतिका समय है । हिन्दुस्तान के सकल भागों
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में समानें बन रही हैं और हमारे बहुतसे भाई नई २ बातें सीखने, विद्या और कला प्राप्त करने, डिगरियां लेने इत्यादि कामोंके लिए अंगरेजोंकी विलायत और अन्य देशोंमें जाते हैं । तुमसे बहुतसे अनेक धर्मसम्बन्धी समाजों और सभाओंके सभासद हो
और देशके सुधारके लिए बहुधा जो उपदेश दिए जाते हैं उन्हें सुनने जाते हो । निस्संदेह ये सब अच्छे समयके चिन्ह हैं और इनसे विदित होता है कि आगे उन्नतिका काल शीघ्र ही आनेवाला है । हमें केवल इस बातका ध्यान रखना चाहिये कि हम आपसमें फूट न डालें और पृथक् २ भेद न बना लें और हमें चाहिये कि जो नई बात ग्रहण करें उसे पहले भली भांति सोच समझलें और भेडाचालकी नाई अंधाधुंद काम न करें।
५. तुम्हें छात्रोंकी नाई सर्वहितकारी पुस्तकालयोंमें जाना चाहिय । वहां जाकर पुस्तकें पढ़ो, जो कुछ पढ़ो उसे सोचो और अपने शब्दोंमें वर्णन करनेका यत्न करो । महान् और कुलीन पुरुषोंके जीवनचरित्र पढ़ो और उनके वृत्तान्तसे धर्म और नीतिकी शिक्षा ग्रहण करो।
६. आज कल लोगोंमें जो दूषण फैल गए है उनका अनुकरण न करो। हमारे कुछ भाइयोंको कोरी बातें बनाने और मदिरा पीनेका चस्का पड़ गया है । बड़े खेदकी बात है कि आज कल ज्यों २ सभ्यता बढ़ती जाती है लोगोंमें मदिरापान करनेकी बुरी बान फैलती जाती है। विपरीत इसके तुम्हें चाहिये कि धैर्य और दृढतासे अपना काम किए जाओ और शांतखभाव और संयत रहो; क्योंकि जबतक धीरता, लगातार परिश्रम, और संयमसे काम न किया जाए, तो कुछ भी श्लाघनीय कर्म नहीं हो सकता।
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यही प्रार्थना करो कि परमात्मा तुमको बुद्धि दे और तुम्हारी प्रवृत्ति उत्तम और धार्मिक कामों में हो और तुम अपने जीवनमें परिश्रम और सोच विचारसे काम लो और परमेश्वरपर भरोसा रक्खो ।
३. (क) हिन्दुस्तानकी अगली दशा, भली वा बुरी, बहुत कुछ तुम्हारी ही शक्ति पर निर्भर है। तुम जो आज कलके वंशकी नई पौद वा बच्चे हो अगले वंशके पिता हो । इसलिए तुम्हें विचारना चाहिये कि तुम्हारा बाल्यावस्थामें क्या कृत्य है । बहुतसे लोग यह कहते हैं कि आज कलकी अंग्रेजी पाठशालाओंकी शिक्षासे उत्तम
और व्युत्पन्न पुरुष बनकर नहीं निकलते जैसे कि पुरानी देशी पाठशालाओंसे पढ़कर निकलते थे; वरञ्च अब जो युवा पुरुष पढ़कर निकलते हैं उनमें पल्लवग्राही पांडित्य होता है, वे निरे अभिमानसे भरे होते हैं और अपने शील और गुणोंकी वृथा बड़ाई करते रहते है । आज कलकी विद्यासे उनमें निरर्थक स्वतन्त्रता उत्पन्न हो जाती है, वे अपने बड़ोंका ठीक २ सम्मान और आदर नहीं करते, उनके आचरण बिगड़ जाते है और वे पुरुषार्थहीन और सहजचकित हो जाते हैं । हम ठीक २ निर्णय नहीं कर सकते कि ये दूषण कहां तक ठीक हैं, परन्तु हम यह कह सकते हैं कि अंग्रेजी और नागरी पुस्तकें जो लड़कोंको मिडल और हाईस्कूलोंमें पढ़ाई जाती है उनमें इतनी नीतिशिक्षा और उत्तम भाव भरे हुए हैं कि यदि वे लड़कोंको भली प्रकार समझाकर पढ़ाई जाएं और यदि शिक्षक आप आदर्श बनकर दिखाएं और उन पुस्तकोंके
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लेखोंको भली भांति हृदयस्थ करके उनके भाव और तात्पर्यका उत्तमता जतलाएँ तो अवश्य इन युवा पुरुषोंके मनपर हितकारी
और उत्तम प्रभाव पड़ेगा । ये ऊपर लिखे हुए दूषण भी कहीं २ पाए जाते हैं, पर बहुधा ये दूषण निर्मूल हैं । परन्तु हमें इन दूषणोंको योंही नहीं समझना चाहिये; विपरीत इसके हम सबको एक एक करके इन बातोंको सोचना चाहिये और अपना शील सुधारनेका यन्न करना चाहिये और धीरे २ ऐसा यत्न करना चाहिये कि हममें लेशमात्र भी दृषण न रहे । देखो जो लोग हमें हमारे दृषण बताते हैं उनको हमें अपना शत्रु नहीं जानना चाहिये वरञ्च उन्हें अपना हितषी, परम मित्र और नीतिशिक्षा करनेवाले जानना चाहिये । इस लिए हमें किसी बातको साधारण दृष्टिसे नहीं पढ़ना वा देखना चाहिये और उसको भुसपर नहीं लीपना चाहिये वरञ्च उसको ठीक २ विचारना और उसके गुण और दोषको समझना चाहिये । हमें चाहिये कि अपने में वश्यता, परिश्रम, अध्यवसाय, कालानुवर्तिता, अर्थशुचित्त्व और मत्यशीलताकी बान डालकर अपने छोटे भाई, बहन और बच्चों
और अपने पड़ौसी मित्र और महपाठियोंके साम्हने अपने आपको उत्तम आदर्श बनाकर दिखाएं; सबके साथ सुजनता और शिष्टाचारसे बर्ते; अपने बड़ोंका सम्मान करें और उनके उत्तम उपदेशको कान देकर सुनें और उसके अनुसार चलें; लज्जा और आत्मसम्मानको ग्रहण करें अर्थात् अवमानना और अभिमानितासे बचें । हमें अपने शीलमें शुद्ध और पवित्र होना चाहिये । हम यह तो जानते हैं कि बाह्य वस्तुओंमें पवित्रताका होना कैसा अवश्य है । यथा हम सदा पवित्र और निर्मल जल पीना, खच्छ और उज्वल
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( १६ ) वस्त्र पहनना और शुद्ध और सरल भोजन खाना चाहते हैं । पर इससे अवश्यतर यह है कि हमारा मन और हमारे आचरण पवित्र हो । सच है ' साचे राचे राम' अर्थात् जिनका हृदय शुद्ध और मन पवित्र है वे साक्षात् ईश्वरके दर्शन करके कृतार्थ होंगे। इसके लिए 'पवित्र जीवन और नीतिशिक्षा, ' 'शान्तिसार,' और 'शील
और भावना' नामकी पुस्तकें पड़ो जिनका मूल्य केवल डेढ़ २ आना है।
(ख) हमें जड़ और मूढ़ होकर विद्याके केवल ग्राहक नहीं होना चाहिये । अर्थात् हम ऐसे थैले वा पात्र नहीं हैं कि जिसमें विद्या ठूस २ कर बिना सोचे समझे भर लें, विपरीत इसके हमें
अतन्द्रित और व्यवसायी बनना चाहिये और सच्चे ज्ञान और विद्यासागरको जहांसे मिले सोच समझकर प्राप्त करना चाहिये । हमें अपनी उपलम्भन और अवेक्षणशक्तियोंको बढ़ाना और उन्नति देना चाहिये । अवेक्षण और तुलनाके विना केवल पुस्तकीय विद्यासे हमारी मानसिक शक्तियां उन्नत नहीं हो सकती । शिक्षाका मुख्य उद्देश्य यह है कि मनुप्यको मनुष्य बनाया जाए, उसकी खाभाविक शक्तियोंको उन्नति दी जाए, और साथ ही उसे नीगेगता विद्यासार ज्ञान और नीतिकी बड़ी २ बात सिखाई जाएं, इस लिए कि वह इस संसारमें आनन्दमय धार्मिक और पवित्र जीवन व्यतीत कर, आगेके लिए उच्च और उत्तम आशाएं रक्खे जैसा कि उसके मानसिक संतोष और शुद्ध अन्तःकरणसे प्रकट है। स्कूलमें तुम्हें 'ड्राइंग' अवश्य सीखना चाहिये, क्योंकि उससे हाथ जमता है, अवेक्षण और तुलनाकी शक्तियां बढ़ती हैं, हमारा वस्तुओंका ज्ञान जो पहले अनिश्चित और संदिग्ध था अब ठीक २ और
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( १७ )
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विशेष (विशिष्ट) हो जाता है और धीरे २ अनेक आकृतियोंके देखने और मिलाने जुलानेसे नई आकृतियां बना लेते और नई २ बातें निकाल सकते है | इस कारण ड्राइंग' बड़ा उपयोगी है । ड्राइंगका व्यवहारिक लाभ यह है कि इससे वस्तुओं में सौन्दर्य विदित करने और उनको क्रम देनेकी शक्ति बढ़ती है और हस्तलेख सुधरता है । ड्राइंग के सीखनेसे कुछ छात्र दफ्तरों में क्लार्क और नक्शे - नवीस ( लेखक वा चित्रकार) बन सकेंगे । एक प्रसिद्ध मनुष्यका लेख है, - " स्वेच्छालेख ( Free-hand Drawing ), आदर्शलेख ( Model Drawug ), ( Paspective Drawing ) सब स्कुलो में क्योंकि यह विषय शिक्षाके विचार से बहुमूल्य है अर्थात् यह हस्तचक्षुसाधन हैं और इसके सिवा ड्राइंग प्रत्येक शिल्पकार के लिए भी बड़ा उपयोगी है " ।
यथादृश्यचित्रालेख सिखाने चाहिये,
(ग) मानमिक शिक्षा के साथ २ शारीरिक शिक्षा भी होनी चाहिये । स्कूलों में शारीरिक शिक्षाके फैलानेके लिए बहुत कुछ किया जाता है । आधा घंटा प्रतिदिन ड्रिल और जिमनैटिक्स के लिए दिया जाता है और शिक्षाकी इस अतीव आवश्यक शाखा में छात्रोंकी उन्नति विदित करनेके लिए विशेष २ शिक्षक नियत है । प्रतिवर्ष व्यायाम और गंदवल्लाके खेल होते रहते हैं और इन खेलोंके कारण सरकारी, इमदादी (साहाय्यकारी) और निजकी पाठशालाओं में मित्रतापूर्वक स्पर्धा बढ़ती जाती है । इन खेलो में तुम्हें सदा निष्कपटतासे बर्तना चाहिये और सरलतापूर्वक यथाशक्ति औरोंसे बढ़नेका यत्न करना चाहिये और फिर यदि हम हार जाएं तो कुछ बात नहीं । हार जानेसे तुम्हें किसी प्रकार अपना जी नहीं छोड़ बैठना
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चाहिये विपरीत इसके तुम्हें आगेके लिए दुगने उत्साह और साहससे काम करना चाहिये । व्यायाम बड़ी अच्छी वस्तु है, इससे मनुष्य नीरोग रहता है, शरीर सुडौल और सुन्दर निकल आता है, भूख अधिक लगती है, जो खाओ सो पच जाता है और जी प्रसन्न रहता है।
इसके अतिरिक्त एक बात और है जिसका तुम्हें अवश्य ध्यान रखना चाहिये । कुछ लड़के हट्टे कट्टे होते हैं पर और कुमार्गगामी लड़के उन्हें बिगाड़ देते हैं और इस कारण उनका सारा यौवन और सौन्दर्य नष्ट हो जाता है और इसी लिए उनका बुद्धिचातुर्य भी जाता रहता है । तुम जानते हो कि मुस्थ मनके लिए सुस्थ शरीरका होना अवश्य है । ये सब बातें सोचकर तुम्हें चाहिये कि बुरी संगतसे बचो और उन सब बातों से दूर रहो जिनसे आचरण बिगड़े और जीवन अपवित्र हो जाए । इस मंसारमें बहुतसी वस्तुएँ ऐसी हैं जो हमें बुगईकी ओर ले जाती हैं और उनसे बचनेकी सबसे उत्तम रीति यही है कि हमें सदा अच्छे काम करने लगे रहना चाहिये।
(घ) सबमे पिछली पर सबसे उत्तम शिक्षा यह है कि हम धर्मसम्बन्धी कृत्योंको अर्थात् वश्यता परिश्रम आदिकको भली भांति समझें और उनको अपने जीवन में वर्ते, और सभ्य जातिकी नाई अच्छे आचरण मीखें और सुशील बने । इन सब बातोंकी आवश्यकता हम पहले तुम्हारे आगे वर्णन कर चुके है और बहुधा तुम्हारी पढ़ाईकी पुस्तकोंमें भी इन बातोंका व्याख्यान दिया हुआ है और तुम्हारे शिक्षक भी प्रायः तुम्हें यही बातें सिखाते रहते हैं । तुम्हारे जैसे छात्रों के लिए सर्वोत्तम उपदेश यह है कि
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अपना काम आदिसे ही क्रमानुसार विधिवत् और सुन्दरतासे करो, अपने ही बनाए हुए संक्षेप और सारसंग्रहपर भरोसा रक्खो
और दूसरोंने जो रुपया कमानेके लिए पुस्तकोंके संक्षेप किये हैं उनको मोल लेकर न पढ़ो और न कण्ठ करो, अपने कृत्य करनेमें बराबर लगे रहो और अपनी नीरोगता और आचरणका ध्यान रखकर प्रयत्नसे पढ़ते लिखते रहो ।
(क) जीवनके सरल नियम । अब म कुछ प्रस्ताव वर्णन करते है जिनके अनुसार काम कग्नेस श्रेय प्राप्त होता है। ये एक प्रकारकी पगडंडियां हैं जिनपर चलनस मनुष्य उत्तम पद प्राप्त कर लेता है । आध्यात्मिक पगडंडियों में सबसे उत्तम पगडंडी यह है कि मनुष्य जीवनके सीधे मादे नियमोंको भले प्रकार समझे । जो मनुष्य इन नियमोंको समझकर उनके अनुसार चलता है, उसे परम सुख और शान्ति प्राप्त होती है, लोभ जाता रहता है, संशय भ्रम और घबराहट मिट जाती है और सकल दुःखोंसे निवृत्ति हो जाती है। जो नियम सांसारिक वा भौतिक वस्तुओंमें हैं वे ही आध्यात्मिक वस्तुओंमें भी पाए जाते हैं।
सांसारिक वस्तुओंमें यह एक नियम है कि प्रत्येक मनुष्य अपना पालन पोषण आप करे, अपनी जीविका आप कमाए, और जो काम नहीं करेगा उसे भोजन भी नहीं मिलेगा । लोग इस नियमको ठीक और अच्छा जानकर इसपर चलते हैं और
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( २० ) इस प्रकार अपनी रोज़ी कमाते हैं । परन्तु वे आध्यात्मिक वस्तुओंमें इस नियमके व्यापारको नहीं मानते । उनका विचार है कि भौतिक वस्तुओं की प्राप्तिके लिए तो कमाना अवश्य है और जो कोई संसार में इस नियमके विरुद्ध करेगा, वह भूखा नंगा फिरेगा। उनके मतमें आध्यात्मिक वस्तुओंके लिए भीख मांगना उचित है। क्योंकि उनका विचार है कि आध्यात्मिक वस्तुओंकी प्राप्तिके लिए परिश्रम करने या उनके लेनेके लिए अपने आपको योग्य बनानेकी आवश्यकता नहीं अर्थात् ये आध्यात्मिक श्रेय आप ही आप प्राप्त हो जाएगे । इसका फल यह है कि बहुतमे लोग अध्यात्मविद्यामे रहित होकर यों ही भीग्ब मांगते फिरते हैं, दुःग्व और कष्ट सहते है और अध्यात्मसम्बन्धी आनन्द ज्ञान और शान्ति उनको नहीं मिलती। ___ यदि तुम्हें किसी सांसारिक वस्तु भोजन बम्बादिकी आवश्यकता होती है तो तुम बेचनेवालसे भीग्व नहीं मांगतेः उसमें इनके दाम पूछते हो और अपने पासमे दाम दकर वस्तु ले लेते हो । मूल्य देकर ही वस्तुका लेना ठीक समझते हो और इसमे भिन्न कुछ करना नहीं चाहते । यही नियम आध्यात्मिक वस्तुओंमें भी प्रचलिन है । इसी प्रकार यदि तुम्हें किसी आध्यात्मिक वस्तु आनन्द विश्वास या शान्तिकी आवश्यकता हो तो उसके बदलेमें कुछ देकर ही उसे लेना चाहिये अर्थात् उसके दाम दे देने चाहियें । जैसे तुम्हें किसी सांसारिक वस्नुके लिए अपना भौतिक धन देना पड़ता है, इसी प्रकार आध्यात्मिक वस्तुके लिए भी कोई न कोई अमूर्त वस्तु अवश्य दान करनी होगी । तुम्हें पहले किसी बुरी कामना व्यसन विषयभोग अभिमान या लालसाका
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(२१) त्याग करना होगा और फिर तुम्हें उसके बदलेमें आध्यात्मिक सुख मिल सकता है । देखो जबतक कृपण अपना रुपया हाथसे नहीं छोड़ता उसे कोई सांसारिक सुख प्राप्त नहीं हो सका , धन दौलत होनेपर भी सदा कष्ट भोगता रहता है । इसी प्रकार जो मनुष्य भोग विलास नहीं छोड़ना और जो क्रोध, निर्दयता, विषयभोग, अभिमान, अहंकार आदिमें आसक्त होकर इनहीमें निमग्न रहता है वह मानो आध्यात्मिक कृपण है, उसे कोई आत्मसम्बन्धी सुख प्राप्त नहीं हो सकता और वह सांसारिक आनन्दका धन होनेपर भी सदा आत्मसम्बन्धी दुःख भोगता रहता है । ____ जो मनुप्य सांसारिक कामोमें चतुर है वह न तो भीख मांगता है, न चोरी करता है. वरञ्च परिश्रम करता है और प्रत्येक वस्तुको मोल देकर लेता है और संसार उसकी इस ऋजुताके लिए उसका आदर सत्कार करता है । जो मनुष्य आध्यात्मिक रीतिम चतुर है वह भी न तो भीग्व मागता है न चोरी करता है, वरञ्च अपने भीनरी संसार में परिश्रम करता रहता है और अपनी आध्यात्मिक वस्तुओंको त्यागद्वारा मोल लेता रहता है । सारा संसार इसकी धर्मपरायणता और न्यायके कारण इमका सन्मान करता है।
सामारिक वस्तुओंमें यह एक और नियम है कि जो मनुष्य दृमरेके लिए कुछ कर्म वा सेवा करता है उसे जो वेतन ठहर गया है उसपर संतुष्ट रहना पड़ता हैं । यदि सप्ताहभर काम करने और अपना चेतन लेनक अनन्तर वह अपने स्वामीसे कुछ और अधिक रुपया मागे और यह कहे कि यद्यपि मेरा अधिक मांगना ठीक नहीं है और न भै वस्तुतः इसका अधिकारी हूं तथापि मैं आपसे कुछ अधिक लेने की आशा रखता हूं, तो उसे अधिक तो कुछ
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( २२ ) भी नहीं मिलेगा वरश्च वह अपने कामसे अलग कर दिया जायगा। परन्तु आध्यात्मिक वस्तुओंमें लोग वह श्रेय सम्पत्ति अर्थात् आध्यात्मिक वेतन मांगते हैं जो उन्होंने पहले नियत नहीं किया था, न जिसके लिए परिश्रम किया और न जिसके वे अधिकारी थे और यह नहीं समझते कि ऐसा करना हमारी मूर्खता या खार्थपरता है । कामके अनुसार ही वेतन मिलता है और प्रत्येक विचार और कर्मका ठीक २ बदला मिलता है यह जानकर ही ज्ञानी पुरुष सदा संतुष्ट और शान्त रहता है । वह जानता है कि मुझे अपने कियेका ही बुरा या भला फल मिलेगा। यह सर्वोत्तम नियम किसीका ऋण या अधिकार नहाँ रखता, जितना जिसका है वह अवश्य उसको मिलेगा । इस लिए प्रत्येक दशामें संतुष्ट रहना चाहिये, कष्ट और दुःखमें बुड़बुड़ना कदापि उचित नहीं, क्योंकि यह सब कुछ हमारी ही कमाईका फल है । जैसा किया वैसा पाया।
फिर यदि कोई मनुष्य सांसारिक धन सम्पत्ति इकट्ठी करके धनाढ्य बनना चाहता है तो उसे चाहिये कि विवेकसे व्यय करे और अपनी आयको इस प्रकार काममें लाए कि उससे पर्याप्त धन इकट्ठा कर ले और फिर इस धनको सोच समझकर किसी अच्छे काममें लगाए, इससे उसकी सांसारिक बुद्धि और सांसारिक धन दोनो बढ़ेगे । जो मनुष्य निकम्मा है और वृथा खर्च कर डालता है, वह कभी धनवान् नहीं बन सकता; वह तो अतिव्ययी और प्रभूतभक्ष्यपेयी है । इसी प्रकार जो आध्यात्मिक वस्तुओंसे भरपूर होना चाहता है, उसे भी विवेकसे काम करना चाहिये और अपनी मानसिक विभवसे ठीक २ काम लेना चाहिये । उसे
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( २३ )
अपनी जिह्वा और मनकी प्रेरणाओंको वशमें रखना चाहिये, निकम्मी बातें नहीं बनानी चाहिये, न झूठी युक्ति देनी चाहिये, और क्रोध अहंकारादिककी अतिसे बचना चाहिये । इस प्रकार वह कुछ ज्ञानका भण्डार इकट्ठा कर लेगा और यही उसका आध्यात्मिक मूलधन होगा, और फिर वह इस आध्यात्मिक ज्ञानसे संसारके लोगोंको लाभ पहुंचा सकता है, और जितना वह इसे खर्च करेगा उतना ही धनाढ्य अर्थात् श्रेयवान् होगा । इस प्रकार मनुष्य स्वर्गीय ज्ञान और स्वर्गीय धन इकट्ठा कर सकता है । जो मनुष्य अपनी तामसी वृत्तिके वशमें होकर विषयभोग और अनुचित कामनाओं के अनुसार चलता है और अपने मनको वशमें नहीं रख सकता वह आध्यात्मिक अतिव्ययी है: उसे दैवी श्रेय और स्वर्गीय सम्पत्ति कदापि नहीं प्राप्त हो सकती ।
यह एक शारीरिक वा भौतिक नियम है कि यदि हम किसी पहाड़की चोटी पर चढ़ना चाहते हैं तो हमें उस ओर चढ़ना चाहिये । पगडण्डी ढूंड़कर सावधानीसे उसपर चलना चाहिये और चढ़नेवालेको परिश्रम कठिनाइयों और थकनके कारण साहस नहीं छोड़ना चाहिये और न उल्टा हटना चाहिये । यदि ऐसा करेगा तो उसका प्रयोजन पूरा नहीं होगा । आध्यात्मिक नियम भी यही है । जो मनुष्य नीति या ज्ञानकी पराकाष्ठा को पहुंचना चाहता है, उसे वहां अपने ही उद्योगसे चढ़ना चाहिये । उसे मार्ग या पगडण्डी ढूंड़कर परिश्रम करके उसपर चलना चाहिये । उसे चाहिये कि धैर्यको हाथसे जाने दे और न उल्टा फिरे, वरञ्च सारी कठिनाइयों का सामना करे और कुछ कालके लिए सब प्रकार के प्रलोभन, मनोव्यथा और हृदयपीड़ाको सह ले और अन्तमें वह
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उत्तम नीतिकी पराकाष्ठा या सबसे ऊंची चोटीपर जा खड़ा होगा, सांसारिक विषयभोग मोह और दुःख आदिको नीचे छोड़ जाएगा और उसे अपने सिरके चारों ओर ऊपरकी तरफ़ अथाह स्वर्ग ही वर्ग दिखाई देगा। ___ यदि कोई मनुप्य किसी दूरके शहर या किसी अभीष्ट स्थानमें पहुंचना चाहता है, तो उसे वहां विचरण करना होगा । कोई ऐसा नियम नहीं है कि वह झट वहां जा बैठे, वह वहांपर अवश्य परिश्रम करके ही पहुंच सकता है । यदि वह पांव २ चले तो उसे बहुत कुछ परिश्रम करना पड़ेगा, पर उसे रुपया नहीं खरचना पड़ेगा; यदि वह बग्गी या रेलगाडामें बैठकर जाए तो उसे परिश्रम कम करना पड़ेगा पर रुपया देना पड़ेगा जो रुपया उसने परिश्रम करके कमाया है । इस लिए किसी स्थानपर पहुंचनेके लिए परिश्रमकी आवश्यकता है; परिश्रम विना कुछ नहीं हो सकता; यह नियम है । आध्यात्मिक नियम भी यही है । जो मनुप्य किसी आध्यात्मिक स्थान यथा शुद्धता, दया, ज्ञान, या शान्तिपर पहुंचना चाहता है तो उसे पर्यटन करना चाहिये और वहां पहुंचने के लिए परिश्रम करना चाहिये । कोई ऐसा नियम नहीं है कि वह इन मुन्दर आध्यात्मिक स्थानोंमें विना परिश्रम किए झट जा बैठे । पहले उसे अत्यन्त सीधा मार्ग ढूंड लेना चाहिये
और फिर वहां पहुंचने के लिए परिश्रम करना चाहिये और अन्तमें वह अपने अभीष्ट स्थानपर अवश्य पहुंच जाएगा। ___ जो कुछ होता है शुभ ही शुभ है, क्योंकि सब कुछ नियमानुसार होता है और इसी कारण प्रत्येक मनुष्य अपने जीवनमें पवित्र शुद्ध और सीधा मार्ग विदित कर सकता है और ऐसा मार्ग
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( २५ ) विदित करके प्रसन्न रह सकता है और सच्चा आनन्द प्राप्त कर लेता है। ___ यद्यपि इस संसारमें बहुत कुछ पाप और अज्ञान भरा हुआ है, बहुत कुछ कष्ट और दुःख सहना पड़ता है और बहुतसे आंसू बहाने पड़ते हैं; तथापि यह संसार बहुत कुछ पवित्रता और ज्ञानसे भरपूर है और इसमें बहुत कुछ शान्ति और प्रसन्नता विद्यमान है । देखो प्रत्येक पवित्र विचार और निष्काम कार्यका बहुधा शुभ परिणाम हुए विना नहीं रहता और यह परिणाम इस जीवनका प्रशस्त प्रयोजन है । मीठा बोलना, प्यारसे रहना, श्रद्धापूर्वक सुष्ठ रीतिसे अपने २ कृत्यको करना, कलह मेटना, पुराना विरोध छोड़ देना, कठोर वचनोंको क्षमा कर देना, मित्रका मित्रसे मिलाप होना, पापरूपी अन्धकारसे निकलकर धर्मके उज्वल मार्गमें आ जाना, बहुत कुछ देख भाल करके और ठोकरें खाकर पवित्र जीवन ग्रहण करना, अर्थात् दिव्य मार्गको प्राप्त कर लेना, ये सब सुखावह और मनोज्ञ प्रयोजन हैं । प्रत्येक मनुप्यको ऐसे प्रशस्त कार्य करनेका यत्न करना चाहिये ।
(ख) गुप्त त्याग या उत्सर्ग। त्यागके समान कोई वस्तु नहीं। त्यागसे तात्पर्य धर्म या पुण्यका त्याग नहीं है, वरञ्च अधर्म या पापका त्याग है। खार्थपूर्वक सुख और पापके हासमें धर्मकी वृद्धि, प्रमादके त्यागमें सत्य मार्गकी प्राप्ति होती है । देखो पुराने वस्त्र उतारकर ही नए वस्त्र
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( २६) पहन सकते हैं; माली घास पात उखाड़कर ही पेड़ोंको बढ़ा और फैला सकता है; मूर्खताके दूर करनेसे ही बुद्धिमत्ता आती है । इसी प्रकार पवित्र जीवन भी स्वार्थ और विषयभोगके त्यागनेसे ही प्राप्त हो सकता है। __ पहले पहल यह त्याग और हानि बड़ी भारी और दूभर प्रतीत होती है और इस त्यागसे अन्तमें जो लाभ और परमसुख प्राप्त होता है, मनुष्य उसे स्वार्थ और मोहके वशमें होकर इस समय अनुभव नहीं कर सकता । देखो जब कोई मद्यप ( शराबी) मद्य पीनेका त्याग करना चाहता है, तो उसे कुछ कालतक कैसा भारी दुःख होता है और वह अनुभव करता है कि अब मेरा बड़ा सुख चला; परन्तु जब उसकी पूर्ण जीत हो जाती है, जब मद्यपानकी इच्छा सर्वथा नष्ट हो जाती है और जब उसका मन शान्त होकर मद्यपानमें तनिक भी प्रवृत्त नहीं होता, तब जाकर उसे यह जान पड़ता है कि मैंने अपना स्वार्थविषयक सुख त्याग करनेसे अनगिनत और अनन्त लाभ उठाए हैं । अर्थात् उसने वह वस्तु तज दी है जो पाप और मिथ्या थी और जो पास रखनेके योग्य नहीं थी, वरन् उस वस्तु के रखनेमें निरन्तर दुःख ही दुःख मिलता था; अब उसके स्थानमें सुशीलता, वश्यता, मनकी शान्ति और संयम प्राप्त किया है, और यह नई वस्तु पुण्य और सत्य ही है, जिससे उसको अत्यन्त लाभ पहुंचा है।
सचा त्याग यही है । और जितने सच्चे त्याग हैं, वे सब पहले पहल दुःखदायी होते हैं, और इसी कारण मनुष्य इस सच्चे त्यागसे डरते और परे मागते हैं । वे अपने खार्थसम्बन्धी भोगके त्यागने और उसको पराजय करनेमें कुछ भी लाभ और प्रयोजन
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( २७ ) नहीं देखते; उन्हें उसका त्याग ऐसा भासता है जैसे कि किसी मिष्टान्न या सुखका खोया जाना, विष या दुःखका ग्रहण करना
और सर्व प्रकारके आनन्दको हाथसे दे बैठना। ___ मनुष्यको चाहिये कि बड़ी प्रसन्नता और नम्रतासे और लोगोंको सुख पहुंचानेके लिए अपनी खार्थसम्बन्धी बान और रीतोंको त्याग दे और इसके बदलेमें अपना लाभ न चाहे और अपने भलेकी आशा न रक्खे, अर्थात् औरोंको निष्काम लाभ पहुंचानेके आशयसे अपने स्वार्थको छोड़ दे; वरञ्च अपना आनन्द और अपने प्राणतक भी देनेके लिए उद्यत रहे, यदि ऐसा करनेसे वह संसारको अधिक सुन्दर, रमणीय और परम आनन्दका धाम बना सके । अब प्रश्न यह है क्या उसे इस त्यागसे सचमुच हानि पहुंचती है ? क्या कृपणको वर्णकी लालसाका त्याग करनेसे हानि पहुंचती है ? क्या चोरको चोरी करनेकी बान छोड़नेसे हानि पहुंचती है ? क्या लुच्चे या व्यभिचारीको अपने निकम्मे विषयभोगोंके छोड़ देनेसे हानि पहुंचती है ? खार्थके सर्वथा वा एकदेश त्यागनेसे किसी मनुष्यको हानि नहीं पहुंचती; फिर भी वह यह विचार करता है कि मुझे ऐसा करनेसे हानि पहुंचेगी और इसी विचारके कारण उसे दुःख और कष्ट सहने पड़ते हैं । इस दुःख सहनेमें ही त्याग है और इस हानिमें ही लाभ है। ___ सम्पूर्ण सच्चा त्याग भीतरी त्याग है; यह आत्मोत्सर्ग और गुप्त त्याग है और हृदयकी अतीव नम्रतासे उत्पन्न होता है । आत्मोत्सर्ग या आपेको त्यागनेसे ही कुछ लाभ पहुंच सकता है और जो मनुष्य आध्यात्मिक उन्नति करना चाहते हैं उनकी कभी न कभी यही दशा होगी । अब प्रश्न यह है कि यह आत्मोत्सर्ग किस
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(२८ )
बातमें है ? इसे किस प्रकार करना चाहिये ? यह कहां मिलता है ? उत्तर,—यह इस बातमें है कि नित्यप्रति खार्थपरताके विचार
और कार्य सर्वथा छोड़ दिए जाएं; इसे हमें औरोंके साथ साधारण वार्तालापमें बर्तना चाहिये; और यह अड़ी भीड़ और प्रलोभनके समयमें पाया जाता है।
हृदयसम्बन्धी वा हार्दिक गुप्तत्याग भी हैं जिनसे दोनोंको अर्थात् त्यागीको और उनको जिनके लिए वे त्याग किए जाते हैं बहुत कुछ लाभ पहुंच सकता है, यद्यपि इन त्यागोंके करनेमें बहुत कुछ यत्न करना और कष्ट उठाना पड़ता है । मनुष्य कोई बड़ी बात करनी चाहते है और कुछ ऐसे महान् त्यागके करनेकी इच्छा रखते हैं जो उनके बितसे बाहर है, परन्तु वे कोई अवश्य काम करना नहीं चाहते और वे उस वस्तुको जो उनके पास है
और जो त्यागनेके योग्य है कदापि त्यागना नहीं चाहते । जो बात तुम्हारे भीतर अतिदोपयुक्त है, जिम वातमें तुम्हारी मूर्खता प्रतीत होती है और जिस बातके करनेकी तुम्हें अत्यन्त लालसा होती है, सबसे पहले तुम उमे त्याग दो । इसमे तुम्हें शान्ति प्राप्त होगी । कदाचित् यह क्रोध या निर्दयता है । क्या तुम इस बातके लिए उद्यत हो कि क्रोधका भाव और वचन, निर्दयताका विचार और कार्य त्याग दो? क्या तुम इस बातके लिए उद्यत हो कि जो तुम्हें बुरा भला कहे, तुमपर आक्रमण करे, दोष लगाए और तुम्हारी साथ निर्दयतासे बर्त, इस सबको चुपकेसे सह लो और उस मनुष्यसे कुछ बदला न लो? वरञ्च क्या तुम इस बातके लिए उद्यत हो कि इन बुरे मूर्खताके कामोंके बदले उसके साथ दया और प्यारसे बर्तों और उसकी रक्षा करो? यदि ऐसा है, तो
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( २९ ) फिर हम यह कह सकते हैं कि तुम परम आनन्ददायक गुप्त स्याग करनेके लिए प्रस्तुत हो । ___ इस लिए तुम्हें क्रोध और निर्दयता छोड़कर भारी भरकम होना चाहिये; अपने आपको अपने वशमें रक्खो और निरन्तर पुण्य और धर्मके काम करनेसे अपराधीपर दया और क्षमा करनी सीखो । चण्ड खभाव, असहिष्णुता और अक्षमाको त्याग दो । इसी प्रकार और स्वार्थसम्बन्धी विषयभोग और क्षणभङ्गुर आनन्दोंको त्याग दो; उत्तम और उत्कृष्ट सुग्वमें अपने चित्तको लगाओ,
और विषयातीत होकर परमात्मामें मग्न हो और सच्चा आनन्द अनुभव करो। किसीसे द्वेषभाव न रक्वो और सबके साथ प्रीतिसे वा । अपवित्र इच्छाएं, आत्मकरुणा, आत्मश्लाघा और अभिमानको त्याग दो, क्योंकि ये सब मनके बुरे भाव हैं और हृदयके दृषक है। ___ यह आत्मोत्सर्ग और इस कारण परम ज्ञान और आनन्द किसी एक बड़े कामके करनेसे नहीं मिलता, वरच नित्यप्रति सां. सारिक जीवनमें बहुतसी छोटी २ बातोंके त्याग करनेसे और धीरे २ स्वार्थपर सत्यकी जय होनेसे ही मिलता है । जो मनुष्य प्रतिदिन अपने आपको थोड़ा २ करके वशमें करता रहता है और जो मनुष्य किसी निर्दयताके भाव, किसी अपवित्र वासना और किसी पापकी प्रवृत्तिको सर्वथा जीतकर उसपर प्रबल होता है, वही मनुष्य नित्यप्रति अधिक बलवान्, पवित्र, शुद्धहृदय
और बुद्धिमान होता जाता है, और प्रतिदिन सत्यकी उस पराकाष्ठाको पहुंचता रहता है जो प्रत्येक निष्काम और स्वार्थरहित कार्यके द्वारा कुछ २ भासती है।
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( ३० ) सत्यके प्रकाश और श्रेयको अपने बाहर और अपने परे न ढूंडो, वरञ्च अपने भीतर खोजो; सत्य तुम्हें अपने धर्म या कृत्यके सूक्ष्म और अविस्तृत गोलमें और तुम्हारे अपने हृदयके गुप्त और छोटे २ त्यागोंमें ही मिलेगा।
(ग) आनन्दका मार्ग। आनन्द संसारमें एक लोकविरुद्ध वस्तु है । आनन्द प्रत्येक भूमिमें उत्पन्न हो सकता है और प्रत्येक दशामें मिल सकता है । आनन्द बाह्य पदार्थोंमें विद्यमान नहीं है, परन्तु भीतरसे ही उपजता है। आनन्द आत्मिक सुख है और भीतरी जीवनका बाह्य विकास है। जैसे कि प्रकाश और तेज प्रकट होकर सूर्य के द्योतक हैं इसी प्रकार परम आनन्द या पूर्ण सुखसे शुद्ध आत्माका ज्ञान होता है । जिसका मन शान्त और हृदय पवित्र है, उसका शरीर कदापि दुर्मतिके तापसे तप्त नहीं होता । जो मनुष्य अपने धर्मपर स्थित है यदि उसको सूलीपर भी चढ़ाया जाए, तो उसको वह आनन्द होगा जो राजाको अपने राज्यसिंहासनपर भी नहीं मिल सकता। मनुष्य आप ही अपने आनन्दका उत्पादक है अर्थात् जो मनुष्य अपने जीवनको परम धर्म और उत्कृष्ट नियमोंके अनुसार व्यतीत करता है, पूर्ण आनन्द उसीको प्राप्त होता है । जो कुछ कि मनुष्य औरोंसे सीखता है वह केवल प्राप्ति या एक प्रकारका लाभ है, पर सच्चा लाभ या उन्नति वही है जो कुछ कि मनुष्य अपने यनसे आप ग्रहण करता है । जब आत्मा शुद्ध होकर अपने आ
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( ३१ )
पको पहचान लेता है और दुर्मह परमात्माको प्राप्त कर लेता है, वास्तविक आनन्द यही है । इस जीवनमें मनुष्यके लिए अपरिमित और पूर्ण आनन्दका प्राप्त होना कठिन क्या वरच असम्भव प्रतीत होता है। पूर्ण आनन्दसे बुद्धिकी पूर्णता, व्युत्पत्तिका परिपाक और सौभाग्यकी पारदर्शिता अभिप्रेत है । आनन्द लोकविरुद्ध इस लिए है कि वह दुःख कष्ट और दरिद्रता होनेपर भी प्रतीत हो सकता है, क्योंकि आनन्द हृदयकी प्रसन्नता और आत्मिक सुख है और सकल बाह्य दशाओंसे बढ़कर है ।
आनन्दकी प्राप्ति इन चार बातों से अर्थात् समर्पण, सरलीकरण, विजय या दमन और संज्ञानसे है ।
समर्पण से यह तात्पर्य है कि मनुष्य अपने जीवनको औरोंकी सेवामें, किसी उत्तम कार्य में, या किसी निष्काम उद्देश्य और परमार्थकी प्राप्ति में लगा दे । जीवनका अभिप्राय यह नहीं है कि हम घटनाओंके वश होकर अपने दिन किसी न किसी प्रकार पूरे कर दें, परन्तु जीवनका अभिप्राय यह है कि हम दिनपर दिन उन्नति करके परम धर्मकी पराकाष्ठापर पहुंच जाएं । जीवनका उद्देश्य निरा धनोपार्जन नहीं है । जो मनुष्य निष्काम होकर औरोंपर दया करता है, उनसे प्रीति रखता है, उनकी सहायता करता है, उनका दुःख निवारण करता है, कायरों और पतितजनों को धीर बंधाता है, और औरोंकी सेवा करनेमें कभी २ अपने आपेको भी भुला देता है, वही मनुष्य आनन्दके ठीक मार्गपर चल रहा है । समर्पणमें मनुष्य सदा परोपकार में रत होकर यथाशक्ति अपना सर्वस्व औरोंके लिए दे डालता है और अपना और औका सुधार करते हुए उत्तम कार्योंके करनेमें व्यग्र रहता है और
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( ३२ ) अन्य किसी प्रकारसे डरता नहीं है। सत्य है:-" परोपकाराय सतां विभूतयः।"
सरलीकरणमें मनुष्यका जीवन अधिक सरल और अधिक गम्भीर हो जाता है । इससे जीवनकी बाहरी टीपटाप और झूठे बखेड़े जाते रहते है और सच्चे गुण रह जाते हैं । इससे घबराहट, डर, व्यर्थ पछतावा और ऐसी बातें जो मन, आत्मा या शरीरको हानिकारक है सब जाती रहती हैं। जीवनका एक बड़ा उद्देश्य जिससे प्रत्येक दिनके विचार एकाग्रित हो जाते हैं और जिससे जीवनके दुःग्य, शोक और प्रमाद कुछ पीड़ा नहीं पहुंचा सकते, यही उद्देश्य सरलीकरणमें बड़ा सहायक है । देखो लड़ाई के समय सिपाही घायल होकर गी अपने घावोंको भृल जाते हैं या वे अपने घावोंकी पीडाको अनुभव ही नहीं करते, क्योंकि वे जानते हैं कि हम सचके लिए लड़ रहे हैं; इसी प्रकार सरलीकरणसे एक निकृष्ट पदका जीवन भी उन्नत हो जाता है, इससे जीवनमें उत्तमता और बड़ाई आ जाती है । इससे चित्तमें उदारता आ जाती है, आत्माकी उन्नति होती है और नैतिक शिक्षा मिलती है । इससे मनुष्य निष्काम होकर सरलता और ऋजुताका मार्ग ग्रह्ण करता है केवल इस लिए कि वह मार्ग सरल है न कि उसमें कुछ लाभ होगा या कोई सांसारिक कार्य सिद्ध होगा । इससे मनुष्यको ऐसी शान्ति और संतोष प्राप्त होगा जिसमें सूर्यरूपी आनन्दकी झलक होगी। सच कहा है:
अयं निजः परो वेति गणना लघुचेतसां । उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम् ॥
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विजयसे यह तात्पर्य है कि बुरी बानको वशमें कर लें, क्रोध और अन्य कषायोंको जीत लें, और इन्द्रियोंको दमन करके आत्मिक उन्नति प्राप्त कर लें । कभी २ जब तुम इस सांसारिक युद्धमें परास्त होने लगो; जब तुम्हें यह प्रतीत हो कि न्याय एक स्वप्नमात्र है, सरलता भक्ति और सत्यको कोई नहीं पूछता, और भूत चुडैल ही स्वामी है; जब आशा घटने और डिगमगाने लगे, यही तो समय है जब तुम्हें इस बातका पूर्ण विश्वास रखना चाहिये कि कुछ ही क्यों न हो सत्य अवश्य प्रबल होगा और सत्यहीकी जय होगी और इसी समयमें तुम्हें संदेह और निराशाको अपने मनसे सर्वथा दूर कर देना चाहिये, और तुम्हें इस भवसागरसे पार उतरनेके लिए कटिबद्ध होना चाहिये और इन सांसारिक घटनाओंपर प्रबल होनेके लिए अपने आपेको जीतना चाहिये । यही विजय है और यही एक सर्वोत्तम बात है । बहते पानीकी ओर चलना सुगम है, परन्तु पुरुष वही है जो, बहावके प्रतिकूल चले और कठिनाइयोंका सामना करे । जीवनका सार इसमें है कि जब तुम्हें अपने जीवनमें ईर्ष्या, विरोध, नीचता, विमति और प्रमाद आदि आक्रमण करें, उस समय तुम इन सबपर प्रबल हो जाओ । उस स्थिर दीपकगृहकी नाई बनो, जो समुद्रकी प्रचण्ड लहरोमें खड़ा होकर उजाला देता रहता है और उनके तीव्र झकोरोंका धीरतासे सहन करता है । विजय यही है । जब तुम्हें अपनी प्रतिष्ठा या नियमके भङ्ग करनेसे ख्याति, धन हार्दिक इच्छा या मनोकामनाके प्राप्त करनेका अवसर मिले और तुम उसके लोभमें आकर अपना नियम भङ्ग न करो, उस समय
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( ३४ ) तुम जयी कहलाते हो । यह भी विजय है और विजय आनन्दके राजमार्गका अंश है।
संज्ञानसे सदा आनन्द मिलता है क्योंकि यह अच्छे मन्त्रीका काम देता है और प्रत्येक कार्यमें हमारा उपदेशक और पथदर्शक है । जब कोई व्यक्ति बल या दिखावेकी युक्तिसे काम लिए विना अपने संज्ञान वा अन्तःकरणपर भरोसा करके उसकी सम्मति ग्रहण कर सकता है, तब वह सच्चा आनन्द अनुभव करने लगता है। परन्तु मनुप्यको इस बातका ध्यान रखना चाहिये कि उसका संज्ञान बिगड़ा हुआ न हो, इससे वह बुरे काम करेगा और उसका संज्ञान जो पहले उसको रोकता था अब परास्त हो जाएगा और बुरे कामोंके बार २ करनेसे उसमें बान पड़ जाएगी और अपने संज्ञानके उपदेशपर कुछ भी ध्यान न देगा । जो मनुष्य अपना जीवन समर्पण, सरलीकरण और विजयके अनुसार व्यतीत करना चाहता है और अपने भीतरी शुद्ध अन्तःकरणपर चरनेसे दिनपर दिन उत्तम बननेका यत्न करता है, वह संज्ञानपर पूरा २ भरोसा कर सकता है । वह सांसारिक लोगोंके कहनेकी कुछ परवाह नहीं करता और अपने संज्ञानकी सम्मतिपर चलता है। यह मंज्ञान उसका भीतरी आत्मा है जो उसके घटमें बोल रहा है और इसके पट खोलकर देखनेसे उसको सम्यग्ज्ञान हो जाता है ।
सच्चा आनन्द व्यक्तिगत नहीं है । सच्चा आनन्द उन्हींको प्राप्त होता है जो दया और प्रेमके द्वारा औरों को भी उत्तम बनाना चाहते हैं और समष्टिके आनन्दमें ही अपना आनन्द ढूंड़ते हैं और इतर मनुष्योंके सुखमें ही अपना सुख अनुभव करते हैं।
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( ३५ )
(घ) किसी कार्यका ठीक २ प्रारम्भ करना । देखो इस भौतिक संसार में प्रत्येक वस्तु पहले छोटीसी होती है और फिर धीरे २ बड़ी हो जाती है । देखो एक छोटासा नाला फैलकर एक बड़ी भारी नदी वा दर्या बन जाता है, बूंद २ करके घड़ा और फूइयां २ करके एक तालाब भर जाता है, एक छोटी बड़बट्टी से एक बड़ा भारी बड़का पेड़ ऊगकर बहुत दूरतक फैल जाता है जो सैकड़ों वर्षसे आंधी और मेहको झेल रहा है और जिसकी छाया तले एक पलटन विश्राम कर सकती है । मेहकी थोड़ी २ बूंदोंसे एक बड़ा भारी जलका प्रवाह वा जलौघ उत्पन्न हो जाता है । एक सुलगती हुई दियासलाईके असावधानी से गिर जाने से सारा घर, आसपासके घर, वरञ्च गांव भी जल सकता है ।
इसी प्रकार आध्यात्मिक संसार में भी जो बातें आदिमें छोटी २ प्रतीत होती हैं अन्तमें जाकर उनका प्रादुर्भाव बड़ी २ बातों में होता है | देखो एक सूक्ष्म कल्पनासे एक आश्चर्यजनक वस्तुका उत्पादन हो सकता है, एक वाक्यके कहनेसे एक देशकी अवस्था पलटा खा जाती है, एक पवित्र विचारसे सारे संसारका उद्धार हो जाता है और एक क्षणभरके इन्द्रियविकार वा कामचेष्टा से घोर पाप बंध जाते है ।
प्रत्येक मनुष्यका जीवन छोटी २ बातोंसे प्रारम्भ होता है । ये बातें और घटनायें प्रतिदिन और प्रतिक्षण मनुष्य के सामने आती रहती हैं । यद्यपि आदिमें जैसा कि ऊपर वर्णन किया गया है ये बातें छोटी २ हैं और तुच्छ और क्षुद्र प्रतीत होती हैं, परन्तु सच पूछो तो ये ही छोटी २ बातें इस जीवनमें अधिक आवश्यक हैं ।
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( ३६ )
प्रारम्भहीसे सब कुछ होता है । प्रारम्भ कारण है और कार - णसे कार्य्यसन्तति उत्पन्न होती है और कार्यमें सदा कारणके गुण होते हैं । प्रारम्भिक वा आदिकी प्रेरणासे उसके फल निश्चित होते हैं प्रत्येक प्रारम्भका अन्त वा उद्देश्य भी होना चाहिये । जैसे कि द्वारसे किसी मार्गको जाते हैं और मार्गसे किसी विशेष स्थानपर पहुंचते हैं इसी प्रकार उद्योग वा प्रारम्भ करनेसे फल प्राप्त होते हैं और फलोंसे कार्य समाप्ति होती है ।
इसी कारण शुद्ध रीतिपर प्रारम्भ करनेसे शुद्ध कार्य और अशुद्ध रीतिपर प्रारम्भ करनेसे अशुद्ध कार्य उत्पन्न होते हैं । तुम्हें चाहिये कि अत्यन्त सोच विचारपूर्वक काम करके अशुद्ध प्रारम्भोंसे बचो और शुद्ध प्रारम्भोंसे काम लो और इस प्रकार बुरे फलोंसे बचो और उत्तम फल भोगो ।
कुछ प्रारम्भ ऐसे भी हैं जो हमारे वशमें नहीं है । ये प्रारम्भ हमसे बाहर हैं, चराचर जगत् में है, हमारे चारोंओर इस खाभाविक संसार में है, और इतर जनोंमें हैं जो हमारी नाई स्वतन्त्र और स्वाधीन हैं ।
इस प्रकार के प्रारम्भोंसे तुम्हारा कुछ प्रयोजन नहीं, वरश्च तुम्हें अपनी शक्ति और ध्यान उन प्रारम्भोंकी ओर लगाना चाहिये जिनपर तुम्हारा पूरा २ वश है और जिनसे तुम्हारे जीवन में तुम्हें
अनेक प्रकारके फल उत्पन्न होते हैं । ये प्रारम्भ तुम्हारे ही विचार और कर्मों में पाए जाते हैं, अनेक घटनाओं में तुम्हारी ही मनोवृ तियां उपस्थित हैं, तुम्हारे नित्यके व्यवहार में दीख पड़ती हैं अर्थात् तुम्हारे जीवनमें विद्यमान हैं और तुम्हारा जीवन ही तुम्हारे काके अनुसार तुम्हारा उत्तम वा अधम संसार है |
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( ३७ )
नित्यप्रति प्रातःकाल उठो और शौचादिकसे निवृत्त होकर और नहा धोकर प्रार्थना करो और ईश्वरका धन्यवाद कहो कि उसने अबतक तुम्हारी रक्षा की। फिर वायुसेवनके लिये कुछ दूर बाहर जाओ, कहीं ऊंचे टीलेपर चढ़कर सूर्यको निकलते देखो।
नित्यप्रति उत्तम बातोंपर विचार करो और श्रेष्ठ कार्योंके भाव मनमें सोचो, भद्र पुरुष और महात्माओंसे मिलो जुलो और जहांतक हो सके परोपकार करनेमें तत्पर रहो।
प्रातःकाल उठनेसे मनुष्य सदा प्रसन्न रहता है, नीरोग रहता है और अपने कामकाजमें लगनेसे धन कमाता है । विपरीत इसके जो लोग दिन चढेतक बिछौनोंपर पड़े रहते हैं वे कभी प्रसन्न और प्रफुल्लवदन नहीं रहते, तनिक २ सी बातोंपर लड़ पड़ते हैं, खिजेहुए निगश और घबराए हुए रहते हैं।
एक और बड़ा आवश्यक उद्योग यह है कि कोई विशेष और भारी काम प्रारम्भ करो। देखो! मनुष्य घर किस प्रकार बनाने लगता है ? पहले वह उस घरका खाका सोच समझकर बनाता है
और फिर पक्की नींव रखकर उस खाकेके अनुसार प्रत्येक काम करता है । यदि वह प्रारम्भमें उपेक्षा करे अर्थात् ठीक २ सोचकर खाका न बनाए और योंही अंधाधुन्द काम करने लगे, तो उसका परिश्रम वृथा जाएगा । और यद्यपि उसका घर बिना ढए पूरा बन भी जाए तथापि उसकी नींव पक्की न होगी, उसके गिर जानेका भय होगा और वह किसी कामका न होगा । यही नियम प्रत्येक अवश्य कार्यमें प्रचलित है । अर्थात् प्रत्येक कार्यके ठीक २ प्रारम्भ करनेमें पहली आवश्यक बात यह है कि उसके करनेसे
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( ३८ )
पहले बड़ी २ बातें मनमें सोच लेनी चाहिये अर्थात् वह काम कितना है, उसको किस क्रम और किन २ उपायोंसे किया जाए, उसके करनेका क्या उद्देश्य है और उसकी समाप्तिसे क्या प्रयोजन सिद्ध होगा । जो काम विना सोचे समझे किया जायगा, उसके प्रारम्भ करने में सोच विचारसे ठीक २ उद्योग नहीं किया जाता और अन्त में सिद्धि नहीं प्राप्त होती ।
(ङ) छोटे २ काम और कृत्य ।
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हम पहले बता चुके हैं कि प्रत्येक कामका प्रारम्भ ठीक २ और भले प्रकार होना चाहिये; अर्थात् पहले सोच समझकर उस काम करनेके प्रकार, उपाय और फल जान लेने चाहिये, क्योंकि जो काम पहलेहीसे सोच समझकर किया जाता है उसीमें सिद्धि हो सकती है । जो मनुष्य अपने विचारोंके तत्त्व और महत्वपर ध्यान रखता है और जो बुरे भावोंको दूर करके अच्छे भाव वा विचार मनमें भरता रहता है, अन्तमें वह यह जान लेगा कि जो फल वह भोगता है उसके विचार ही उन फलोंके प्रारम्भ हैं, और विचार ही उसके जीवनकी प्रत्येक घटनामें प्रभाव डालते हैं, और इसी कारण शुद्ध और उत्तम विचारोंसे शान्ति और सुख प्राप्त होता है और अशुद्ध और अधम विचारोंसे घबराहट और दुःख मिलता है ।
अब हम यह बताना चाहते हैं, कि छोटे २ कामों और कृत्यों के करने में विषाद और हर्ष विद्यमान हैं । इसका यह तात्पर्य नहीं है कि कृत्यमें ही विषाद वा हर्ष उत्पन्न करनेकी कोई शक्ति है ।
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( ३९ )
उस कृत्य के विषय मनकी जो भावना होती है उस भावनामें यह शक्ति है और जिस प्रकार कोई कृत्य किया जाता है उसीपर प्रत्येक वस्तुका आश्रय है । देखो छोटे २ कामों को निष्कामता, बुद्धिमत्ता और पूर्णतासे करनेसे परम आनन्द वा हर्ष ही नहीं प्राप्त होता वरच एक बड़ी शक्ति वा सामर्थ्य उत्पन्न हो जाती है, क्योंकि सम्पूर्ण जीवन छोटी २ बातोंसे ही मिलकर बना है । बुद्धिमत्ता इसमें है कि जीवनके सारे काम जो नित्य प्रति होते रहते हैं सोच विचारकर किये जाएं और जब किसी वस्तुके भाग पूरे २ बनाए जाएंगे तो वह सम्पूर्ण वस्तु भी अति सुन्दर और निर्दोष होगी ।
संसार में देखो प्रत्येक वस्तु छोटी २ वस्तुओंसे मिलकर बनी है और बड़ी २ वस्तुओंकी पूर्णता छोटी २ वस्तुओं की पूर्णतापर निर्भर है। छोटे २ कामोंपर ध्यान न देनेसे बड़े २ काम बिगड़ जाते है । यथा ईंटपर ईंट भली प्रकार लगानेसे और लम्बसूत्रको ठीक २ रखकर काम करनेसे एक बड़ा और सुन्दर मन्दिर बन जाता है । इससे स्पष्ट विदित है कि छोटेसे ही बड़े होते हैं और जबतक छोटे २ कण और सामग्री ठीकसिर न मिलाई जाए तब - तक कोई उत्तम वस्तु प्रकट नहीं हो सकती ।
जो पुरुष केवल श्लाघाके अभिलाषी हैं और बड़े बनना चाहते हैं वे किसी बड़े कार्य करनेकी तो इच्छा रखते हैं पर जिन छोटे २ नित्य कार्यों पर तत्काल ही ध्यान देना चाहिये उनको तुच्छ समझकर छोड़ देते हैं । जैसे नम्रता न होनेके कारण मूर्ख विद्यासे शून्य रहता है और अपने घमण्डमें होकर अपने आपको बड़ा जानता है और अनहोने काम करने चाहता है ।
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(80)
छोटे २ कृत्योंपर ही ध्यान देनेसे धीरे २ बड़ा पुरुष बनता है । श्लाघा और पारितोषिककी अपेक्षा न करके और अभिमान और घमण्डको त्याग करके जो छोटे २ अवश्य कृत्योंको करता रहता है वही बुद्धिमान् और सामर्थ्यवान् होता है । यह मनुष्य बड़ाई नहीं चाहता; केवल आज्ञापालन, निष्कामता, सत्य और सरलताकी अभिलाषा रखता है और छोटे २ कार्यों और कृत्योंद्वारा इन गुणोंको प्राप्त करके उन्नतिको पहुंच जाता है ।
सच पूछो तो बड़ा मनुष्य वह है जो किसी कार्यको असावधानीसे नहीं करता और कभी घबराता नहीं, मूल और मूर्खताको छोड़कर और किसी बात से बचना नहीं चाहता, जो कार्य वा कृत्य उसके आगे आता है उसे ध्यान देकर करता है और विलम्ब नहीं लगाता । अपने कार्य और नित्यके कृत्य में पूरा २ ध्यान लगाता है और उसके करनेमें दुःख सुख दोनों को भूल जाता है और इस कारण उसमें आप ही आप वह सरलता और सामर्थ्य आ जाती है जिसे बड़ाई कहते हैं ।
जो मनुष्य प्रत्येक कृत्यको यथायोग्य पूर्णता और निष्कामतासे ध्यान देकर करता है उसमें काम करनेकी सामर्थ्य बुद्धिमत्ता साधुता और शीलके गुण उत्पन्न हो जाते हैं । बड़ा पुरुष वही है जो आप ही आप धीरे २ लगातार परिश्रम, धैर्य और यत्नसे उन्नति प्राप्त करे जैसे कि एक पेड़में धीरे २ समय पाकर सुन्दर फूल लगते हैं ।
याद रक्खो कि जैसे समुद्र बिन्दुओंसे मिलकर बना है, पृथिवी कणोंसे और तारे ज्योतिकी नोकोंसे, उसी प्रकार यह जीवन भी
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विचारों और कार्योंसे मिलकर बना है । जैसे किसी के विचार और कार्य होंगे वैसे ही उसका जीवन होगा । जैसे कि वर्ष क्षणोंसे मिलकर बना है, उसी प्रकार मनुष्यका शील भी उसके विचार और कार्योंसे मिलकर बना है और पूर्ण वस्तुमें उसके भागोंका चिन्ह अवश्य होगा | छोटे २ कृपा दान और उत्सर्गके काम करनेसे एक दयालु और दानी शील बनता है । छोटे २ कष्ट और दुःख सह लेने अपने आपको वशमें करने और इन्द्रियोंको जीत लेनेसे एक दृढ़ और उत्तम शील बनता है । पक्का सरल और अर्थशुचि ( हाथका सच्चा ) मनुष्य वही है, जो अपने जीवनकी छोटी २ बातों में सरलता और निष्कपटता बर्तता है । उत्तम और साधु जन वही है जो प्रत्येक बातमें जिसे वह कहता है और करता है साधुतासे काम लेता है ।
तुम्हें अपने कृत्य करनेमें जो कष्ट और खेद होता है वह केवल तुम्हारा मनका खेद है । यदि तुम उस कृत्यके विषय में अपनी मनोभावनाको बदल दो, तो उसी समय टेढ़ा मार्ग सीधा हो जाएगा और दुःख वा खेद के बदले सुख और आनन्द प्रतीत होगा ।
इस बातका ध्यान रक्खो कि प्रतिक्षण तुम दृढ़ता शुद्धता और किसी विशेष उद्देश्य से काम करो; प्रत्येक कर्म और कृत्यमें एकायता और निःस्वार्थसे काम लो; अपने प्रत्येक विचार वचन और कर्ममें मीठे और सच्चे बनो; इस प्रकार अनुभव और अभ्यासद्वारा अपने जीवनकी छोटी २ बातोंको उत्तम समझनेसे तुम धीरे २ चिरस्थायी श्रेय और परम सुख प्राप्त कर लोगे ।
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( ४२ )
(च) कठिनाइयों और संशयोंपर प्रबल होना । हम पहले बता चुके हैं कि किसी कामको प्रारम्भ करने से पहले आदिमें उसके करने की सारी बातें सोच लेनी चाहिये, और कोई कृत्य हो, चाहे छोटा चाहे बड़ा, उसे तन मन धनसे करना चाहिए । नित्यके छोटे २ कृत्योंके करने में कदापि असावधानी नहीं करनी चाहिए, क्योंकि इन्हीं कृत्योंको भली प्रकार और सोच समझकर करनेसे ही हमारा शील बनता है । अब हम यह बताना चाहते हैं, कि हमें कठिनाइयों और संशयोंका सामना करना चाहिये ।
सच पूछो तो कठिनाइयां अज्ञान और दुर्बलतासे उत्पन्न होती हैं, और उनसे हमें ज्ञान और बल प्राप्त करनेकी प्रेरणा होती है । भले प्रकार जीवन व्यतीत करनेसे ज्यों २ समझ बढ़ती जाती है, कठिनाइयां घटती जाती हैं, संशय और घबराहट दूर होते जाते हैं, जैसे कि किरणों के प्रकाशसे धुन्द जाती रहती है ।
वस्तुतः तुम्हारी कठिनाई किसी घटनासे उत्पन्न नहीं हुई, व रच तुम्हारी मानसिक अवस्था ही तुम्हारी कठिनाईका कारण है, क्योंकि जिस प्रकार तुम किसी घटनाको विचारते और सोचते हो उसी सोच विचारसे तुममें कठिनाई उपजती है । देखो जो बात बालक के लिए कठिन होती है, परिपक्क बुद्धिवाले मनुप्यके लिए कठिन नहीं होती, और जिस बातसे मूर्खको विहलता उत्पन्न होती है, उससे ज्ञानीके मनमें तनिक भी विह्वलता नहीं होती ।
देखो बालकके अशिक्षित मनको किसी सरल और सुगम पाठके सीखने में कितनी भारी २ कठिनाइयां प्रतीत होती हैं । इस कठिनाईका कारण बच्चे अज्ञता या अज्ञान है और उसमें समझ
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( ४३ )
उत्पन्न करने, उसे प्रसन्न रखने और दूसरोंके लिए उपयोगी बनानेके लिए इस अज्ञान और मूर्खताका दूर करना अवश्य है । कठिनाइयोंके विषयमें बड़े लड़कोंकी भी यही दशा है। प्रत्येक कठिनाईकी हमें नई २ बातें विदित होती जाती हैं, हमारा ज्ञान
और बुद्धिमत्ता बढ़ती जाती है, इससे बड़ी शिक्षा मिलती है और कठिनाईके साधनमें सफल होनेसे जी बड़ा प्रसन्न होता है।
कठिनाइयोंके विना उन्नति और बुद्धिप्रकाश नहीं हो सकता। जब मनुष्यको किसी काममें कठिनाइयों और रोकका सामना करना पड़ता है, तो इसका यह तात्पर्य है कि वह मूर्खताकी किसी विशेष सीमाको पहुंच गया है, और अब उसे इस कठिनाईसे निकलने और उत्तम मार्ग विदित करनेके लिए अपनी सम्पूर्ण शक्ति और बुद्धिमत्तासे काम लेना होगा, और उसकी भीतरी शक्तियां प्रकाशित होना चाहती हैं। ___ बहुतसे मार्ग ऐसे है जिनका अन्त घबराहट है, और ऐसे भी मार्ग हैं, जो अवश्य दुःख और कष्टकी टेढ़ी मेढ़ी औखी घाटियोंसे निकाल देते हैं । चाहे मनुष्य दुःखके बन्धनसे कैसा ही जकड़ा हुआ क्यों न हो फिर भी वह चाहे और यन करे तो उस बन्धनको तोड़कर निकल सकता है। परन्तु उससे निकलनेकी यह रीति नहीं है, कि निराश होकर बैठा रोने लगे, या बुड़बुड़ाने लगे और बेसोचे समझे यह चाहे कि मेरी तो इससे अन्य दशा हो जाए । उसे चाहिए कि इस दुविधामें सोच विचार और उद्यमसे काम ले, अपने आपको वशमें रक्खे, और पुरुषार्थ और उद्योग करके अपने आपको संभाले, घबराहट और चिंतासे तो अन्धकार
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( १४ ) बढ़ता है, और कठिनाई और भी अधिक प्रतीत होती है। यदि वह शान्त खभाव होकर उद्यम करने लगे और पिछली बातोंको एक २ करके सोचे तो वह अपनी भूल जान जाएगा, और उसे विदित हो जाएगा कि मैंने कहां २ ठोकरें खाई थीं, और यदि मैं तनिक विचार विवेक नियमावली या आत्मोत्सर्गसे काम लेता, तो सीधे मार्गपर पड़ जाता, और ठोकरें न खाता । जिस प्रकार अज्ञान, खार्थ, मूर्खता और अन्धकारके मार्ग हैं जिनका अन्त घबराहट
और संशय है, उसी प्रकार ज्ञान, आत्मत्याग, बुद्धिमत्ता और प्रकाशके भी मार्ग हैं जिनसे परम शान्ति और आनन्द प्राप्त होता है । जो मनुष्य इस बातको जानता है, वह साहस और धैर्यसे कठिनाइयोंका सामना करेगा और उसे उनपर प्रबल होनेसे भूल
और प्रमादमें सत्य, दुःखमें सुख और मनःक्षोभमें शांति प्राप्त होगी। __ अपनी कठिनाइयोंको दुःखदाई न समझो, वरञ्च यह समझो कि इनसे आगे जाकर लाभ होगा । यह भी न विचारो कि तुम इन कठिनाइयोंसे किसी प्रकार बच सकते हो, नहीं ऐसा कदापि नहीं हो सकता । तुम्हें चाहिये कि तुम इन कठिनाइयोंका शान्ति और गम्भीरतासे सामना करो, इनकी ऊंच नीचको देखो, इनके आदि अन्तपर विचार करो, और पूर्वापरपर ध्यान दो, भली भाँति सोचो समझो और अन्तमें इनपर प्रबल हो जाओ । ऐसा करनेसे तुममें बल और ज्ञान उत्पन्न होगा, और इस प्रकार श्रेय और सिद्धि प्राप्त करोगे । सच है:
न संशयमनारुह्य नरो भद्राणि पश्यति । संशयं पुनरारुह्य यदि जीवति पश्यति ॥
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( ४५ ) (छ) बोझ सिरसे उतारकर डाल देना । प्रत्येक मनुष्य यह चाहता है कि मैं बोझ उतारकर हलका हो जाऊं, परन्तु बोझ उतारनेकी उत्तम रीति क्या है? कोई मनुष्य सदाके लिए बोझ उठाना नहीं चाहता, उसका तात्पर्य केवल यह होता है कि इस बोझको थोड़ी दूर जाकर डाल दूं । युक्ति नहीं चाहती कि तुम निरन्तर दुःखका बोझ उठाते रहो । जिस प्रकार भौतिक वस्तुओंमें बोझ इसलिए उठाते हैं कि उसे एक स्थानसे लेकर दूसरे स्थानमें रख दें, इसी प्रकार आध्यात्मिक वस्तुओंमें भी बोझ उठाने वा दुःखके सहनेसे यही तात्पर्य होता है कि उससे अन्तमें कोई भलाई प्रतीत हो और इस भलाईके प्राप्त होनेपर हम उस बोझको अलग कर देते हैं, फिर इस बोझका उठाना आनन्ददायक होगा।
इस कारण कई एक तपस्वी और साधु जो अपने शरीरको अनेक प्रकारके कष्ट पहुंचाते है, यह सब वृथा है और इसी प्रकार मानसिक कष्ट भी वृथा है । ऐसा कोई बोझ नहीं जिससे खेद पहुंचे । यदि तुम कोई काम करना चाहते हो तो उसे हंसी खुशीसे करो, बुड़बुड़ाते हुए न करो। यदि कोई आवश्यक समय तुमपर आ पड़े वा कोई आवश्यक काम करना पड़े तो तुम्हें उसे अपना मित्र और सहायक समझना चाहिए, और यह तुम्हारी बड़ी भारी मूर्खता है जो तुम उस आवश्यक समय और कामको अपना शत्रु समझकर उससे बचना चाहते हो । देखो जो कृत्य हमें करने हैं यदि हम उनको प्रसन्नतापूर्वक न करें तो वह हमारे
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( ४६ )
लिए बोझ और कष्टका कारण होंगे । तुम्हें चाहिए कि अपने जीवनके कामों को बड़ी प्रसन्नता निःस्वार्थ और ध्यान से करो ।
तुम कहते हो, कि तुम्हें किसी विशेष कार्य्य वा कृत्यके करनेमें दुःख होता है और तुम यह कहकर उसे करते हो, “मैं यह कृत्य करता तो हूं, पर यह एक बड़ा भारी, कठिन और दुःखदाई काम है" । अब प्रश्न यह है कि क्या वह काम सचमुच दुःखदाई है या तुम्हारा स्वार्थ तुम्हें दुःख पहुंचा रहा है। सच पूछो तो जिस कृत्य के करने को तुम एक शाप, पराधीनता और दुःख समझ रहे हो, वही कृत्य तुम्हारे श्रेय स्वाधीनता और सुखका कारण है । सारी वस्तुएं एक प्रकारके दर्पण है जिनमें तुम अपना ही प्रतिबिम्ब देखते हो, और तुम अपने कृत्यमें जो बुराई और कष्ट देखते हो, वह केवल तुम्हारी ही भीतरी वा मानसिक दशाका प्रतिविम्ब है | यदि तुम उस वस्तु वा कृत्य के विषय में अपने मन और हृदय में ठीक और अच्छे विचार सोचो, तो वही कृत्य वा वस्तु तुम्हारी दृढता और कल्याणका कारण होगी और उसमें तुम्हें शुभ ही शुभ भास पड़ेगा ।
जिस कृत्यका करना ठीक और आवश्यक है, उसे अवश्य करो । यदि तुम अपने कृत्य से बचना चाहो, तो वही कृत्य देवताकी नाई तुम्हें बुरा भला कहेगा, और जिस भोग विलासके पीछे तुम दौड़ना चाहते हो, वही तुम्हारा शत्रु बनकर तुम्हें चाहक्तियां कहेगा । हे मूर्ख मनुष्यो ! तुम्हें कब समझ आवेगी और अपने भले बुरेको कब पहचानोगे ?
कौनसी वस्तु हैं जो दुःख देती है, कष्ट पहुंचाती है और बोझल प्रतीत होती है ? यह भोग विलास और तीव्र इच्छावाली
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( ४७ )
तामसिक वृत्ति है । इस तीव्र अनुराग मूर्खता और स्वार्थको अपने मन और हृदयसे निकाल दो, फिर तुम्हें अपने जीवनमें कष्ट नहीं पहुंचेगा । बोझ उतार डालनेका तात्पर्य यह है कि अपने भीतरी स्वार्थको तज दो और शुद्ध और पवित्र प्रेमको स्थान दो । तुम अपना काम सच्चे प्रेमसे करने लगो, फिर तुम प्रसन्न और आनन्दमय रहोगे ।
सच पूछो तो मन मूर्खताके कारण अपने लिए आप बोझ उत्पन्नकर लेता है, और इस कारण आप ही दण्ड भोगता है । किसी मनुष्यके भाग्यमें सारी उमर बोझ उठाना नहीं लिखा है और दुःख और कष्ट यही किसीके सिरपर नहीं आन पड़ते । ये सब अपनी ही बनाई हुई वस्तु है | विवेक मनका राजा है, और जब काम प्रवल हो जाता है, तो आध्यात्मिक राज्य में खलबली मच जाती है ।
यहां हम दृष्टान्त देते है, - एक श्री है उसका बड़ा कुनवा है और वह प्रत्येक सप्ताह में पांच रुपए में गुजारा करती है । अपने घरके सारे कृत्य करती है, कपड़ेतक भी आप ही धोती है अपने रोगी पड़ोसियोंको देखने और उनकी दवा दारू करने के लिए भी समय निकाल लेती है, और न उधार लेती है न कभी निराश होती है । प्रातःकालसे लेकर रात तक प्रसन्न रहती है और कभी अपनी दशापर बुड़बुड़ाती नहीं । वह यह सोचकर आनन्दमें है कि मुझसे औरोंको सुख मिलता है । यदि वह यह सोचती कि और लोग तो छुट्टियां मनाते हैं, सुन्दर पदार्थ रखते है, मैं न रङ्गभूमिमें जाकर नाटक देख सकती हूं, न गाना सुन सकती हूं,
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( १८ ) न अच्छी पुस्तकें पढ़ सकती हूं, न लोगोंके साथ मेल जोलकर सकती हूं, मुझे कोई आनन्द नहीं, सारे दिन घरके धंधोंमें ही फंसी रहती हूं और कठिनाईसे अपना और अपने बच्चोंका पेट पालती हूं तो उसका जीना बड़ा दूभर हो जाता।
अब एक दूसरी स्त्रीका दृष्टान्त लो। इसकी निजकी आय बहुत अधिक है, इसे समय और ऐश्वर्य सुखको भी प्राप्ति है, परन्तु जो इसे अपना कुछ थोडासा समय सुख और रुपया किसी अवश्य और शुभ कार्यमें लगाना पडता है, इसीसे वह सदा दुःखी और बेचैन रहती है । सच है कि जिसमें स्वार्थ है, उसको काम करनेमें आनन्द कहां ? ___ ऊपरकी दो घटनाओंसे क्या यह सिद्ध नहीं है, कि इनमें से कोई घटना भी दुःखदायी नहीं है, और दोनों घटनाएं प्रेम वा खार्थकी दृष्टिके अनुसार भली वा बुरी हैं । अर्थात् मन में ही सब कुछ है, बाह्य घटनामें कुछ भी नहीं रक्खा । सच है मनुप्य अपने मनहीके द्वारा स्वर्गका नरक और नरकका स्वर्ग बना सकता है;___मन एव मनुष्याणां कारणं वन्धमोक्षयोः ।
जिस मनुप्यने वेद, वेदान्त दा मीमांसाको अभी पढ़ना प्रारम्भ किया है, जब वह यह कहता है “यदि मैं ब्याह न करता और इस प्रकार स्त्री और बाल बच्चोंका बोझ अपने सिर पर न लेता, तो मैं बहुत काम कर सकता था, और जो कुछ मैंने अब सीखा है यदि वह बात मैं बरसों पहिले जानता, तो मैं कभी भी विवाह न करता, मेरे मतमें वह मनुष्य ठीक मार्गपर नहीं है, और जो बड़ा काम
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वह करना चाहता है उसे करनेके लिये असमर्थ है । क्योंकि यदि किसी मनुष्यको अपने भाइयोंसे इतना गहरा प्रेम है कि वह उनके लिये कुछ बड़ा काम करना चाहता है, तो वह इस अपने प्रेमको सदा और प्रत्येक दशामें रहकर प्रकट कर सकता है।
सच पूछो तो बोझ थोड़ा ही थोड़ा करके इकट्ठा होता है और धीरे २ ही उसका भार बढ़ता जाता है । देखो ! विना विचारे काम करने, अन्धे अनुरागमें वार २ फँसने, अपवित्र विचारको हृदयमें स्थान देने, कठोर शब्द वा वचन बोलने, मूर्खताका काम बार २ करने और इसी प्रकार बहुतसे बुरे काम करनेका भार दुःसह और कष्टदायी हो जाता है । पहले पहल और कुछ काल तक तो यह भार प्रतीत नहीं होता, परन्तु यह भार दिन २ बढ़ता जाता है और कुछ कालके अनन्तर यह इकट्ठा भार बड़ा दुःसह और भारी प्रतीत होने लगता है जब कि हम अपने खार्थका फल चखते हैं और हमारा हृदय इस कष्टदायक जीवनसे दुःखी हो जाता है । इस समय मनुष्यको चाहिये कि अपनी दशापर मली भांति विचार करे और इस बोझको उतारने अर्थात् इस कष्टको निवारण करनेकी अच्छी रीति हूंड़े । और इस रीतिके ढूंडनेके अनन्तर वह प्रज्ञा, पवित्र और प्रेमको विदित कर लेगा जिससे वह भली भांति जीवन व्यतीत करेगा, सुखसे रहेगा और उत्तमताईसे बर्तेगा।
और इस कष्ट और भारको दूर करके फुर्तीसे काम करेगा और दिन रात आनन्द से बिताएगा।
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( ५० )
(ज) दान । दान देने वा दूसरोंको लाभ पहुंचानेकी आठ सीढ़ियां क्रमसहित निम्नलिखित रीतिसे वर्णन की गई हैं। __पहली और सबसे निचली सीढ़ी यह है, दान देना पर इच्छासे न देना, अर्थात् हाथसे देना पर हृदयसे न देना ।
दूसरी सीढ़ी यह है-प्रसन्नतापूर्वक दान देना, परन्तु दुःखी पुरुषके कष्ट वा विपद्के अनुसार दान न देना।
तीसरी-प्रसन्नतापूर्वक और कष्टके अनुसार दान देना, पर विना मांगे न देना। ___ चौथी-प्रसन्नतापूर्वक, कष्टके अनुसार और मांगनेसे पहले ही दान देना पर दरिद्रीके हाथमें आप देना और सबके सामने देना, जिससे उसे लज्जाका दुःख सहना पड़े। __ पांचवीं-इस प्रकार देना कि दुःखी मनुष्य दान ले लें और उन्हें देनेवालेका पता विदित न हो। कितने एक पूर्वले पुरुष अर्थात् हमारे पिता और पितामह अपनी चादरके पिछले अंचल वा दुपट्टेके पल्लेमें रुपया बाँध दिया करते थे इस लिए कि दरिद्री जन उसे अलक्षित रीतिसे खोलकर ले लें। ___ छठी सीढ़ी—जो इससे कुछ बढ़कर है यह है कि जिनको हम दान देते हैं उनको तो जान लेना परन्तु अपने आपको उन्हें न जताना। __सातवीं-इस प्रकार दान देना कि दाता और ग्रहीता दोनोंमेंसे कोई किसीको न जाने । प्रायः करके कहीं २ मन्दिरोंमें गुप्त स्थान होता है वहांपर भले और सज्जन पुरुष कुछ द्रव्य, जो
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( ५१ )
उनका जी चाहे चुपके से रख देते हैं और इस द्रव्यसे दरिद्रोंका पालन पोषण होता है और उन्हें भी यह प्रतीत नहीं होता कि कौन उनका पालन पोषण करता है । हम आगे जाकर इस विषय में एक कहानी लिखेंगे । इसीको गुप्तदान महादान भी कहते हैं ।
आठवीं - सबसे पिछली और अत्युत्तम सीढ़ी यह है कि दानका ऐसा प्रबन्ध करना जिससे दरिद्रता आने ही न पाए, अर्थात् जिस भाईपर विपत् पड़ी है उसकी इस प्रकार सहायता करना कि उसको कुछ व्यापार सिखा दें या उसे किसी काममें डाल दें, जिससे वह निष्कपटतासे परिश्रम करके आप अपनी जीविका और उदरपूरणा कर सके और उसे दान लेनेके लिये दूसरोंके आगे हाथ पसारना न पड़े । वस्तुतः सर्वोत्तम दान इसीको कहते हैं । इसीलिये हमारा सबका यह कृत्य है कि दीन मनुष्यों, याचकों, भिखारियों और विधवा और दुःखी स्त्रियोंको काम सिखावें और अन्धों और अपाहजोंके लिये भी यथायोग्य काम सिखानेका प्रबन्ध करें और हट्टे कट्टे आज कलके साधुओंको भी पढ़ने लिखने धर्मोपदेश देनेमें प्रवृत्त करें, जिससे सबका उपकार हो और सारे संसारका उद्धार हो ।
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हे परम पिता परमेश्वर, परमात्मा ! ऐसी कृपा कर कि हम सब उत्तम २ कार्य्य करनेमें प्रवृत्त हों, अपने आचरण और शील सुधारें, एक दूसरेकी सहायता करें, और तेरे परम भक्त होकर तेरे गुणानुवाद सदा गाते रहें ।
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(झ) उत्तम शिक्षा । (गुप्त दान महादान ) हमारे एक विश्वविद्यालयमें एक युवा विद्याथीं एक आचार्यके साथ बाहर जा रहा था। यह आचार्य विद्यार्थियोंका मित्र कहलाता था। क्योंकि जो इससे किसी प्रकारकी शिक्षा ग्रहण करने आते थे, उनसे यह बड़ी दयालुतासे बर्तता था और उनका हित चाहता था। जब वे दोनों चले जा रहे थे, उन्होंने मार्गमें एक पुरानी जूतियोंका जोड़ा पड़ा देखा और विचार किया कि यह जोड़ा किसी दीन दरिद्री वा धनहीन मनुष्यका है जो पासके खेतमें काम कर रहा है और जो अपना दिनका काम लगभग पूरा कर चुका है।
विद्यार्थीने आचार्यसे कहा "आओ हम इस मनुष्यसे दाव खेलें, अर्थात् हम इसकी जूतियां छुपा देते हैं और आप इन झाड़ियोंकी ओझलमें हो जाते हैं। फिर वहां खड़े होकर यह देखेंगे कि जब वह मनुष्य यहां आकर अपनी जूतियां न देखेगा, तब कैसा घबरायगा" आचार्यने उत्तरमें यह कहा, "हे मित्र ! हमें दीनों और निर्धनोंसे कभी ऐसी हंसी नहीं करनी चाहिये जिसमें उनको कुछ हानि पहुंचे । देखो! तुम तो धनवान् हो और इस निर्धनके कारण तुम इस प्रकार काम करनेसे और भी अधिक हर्ष लाभ कर सकते हो । अर्थात् प्रत्येक जूतीमें एक २ अठमाशी या अशरफी डाल दो और फिर देखो कि अशरफी देखकर इस निर्धनकी क्या दशा होती है"। विद्याथीने ऐसा ही किया और फिर वे दोनों पास ही झाड़ीके पीछे छुप कर खड़े हो गए।
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। वह निर्धन शीघ्र ही अपना काम पूरा करके खेतके उस मार्गमें आया जहां यह अपना कोट और जूतियां उतार कर रख गया था । कोट पहनते समय पहले उसने एक जूतीमें पैर रक्खा, परन्तु किसी कठिन वस्तुके लगनेसे वह उसे टटोलनेके लिये झुका और उसे एक अशरफी मिली । फिर तो उसके मुखपर आश्चर्य और विस्मयके चिह्न प्रकट हुए। उसने उस मोहरको गाढ़ दृष्टिसे देखा, उलट पुलट किया और बार २ ध्यान देकर देखा । फिर उसने अपने चारों ओर देखा, पर कोई मनुष्य दिखाई न दिया। अब उसने अशरफी अपनी पाकटमें डाल ली
और फिर दूसरी जूती पहनने लगा, परन्तु दूसरी अशरफी देख कर तो उसे और भी अधिक आश्चर्य हुआ। ___ अब उसका जी हर्ष और कृतज्ञतासे भर आया । घुटनोंके बल होकर उसने ऊपर आकाशकी ओर देखा और बड़े उत्साहसे ईश्वरका धन्यवाद किया । इस प्रार्थनामें उसने अपनी रोगी और दीन स्त्रीका वर्णन किया और यह भी कहा कि मेरे बालक भूखे हैं, वे सब इस यथासमयके दानद्वारा, जो किसी अनजाने मनुष्यने कृपा करके दिया है, मरनेसे बच जाएंगे। परमात्मा उसका भला करे।
विद्यार्थीपर इस बातका बड़ा प्रभाव पड़ा और उसकी आखोंमें आंसू भर आए । तब आचार्यने कहा-यह बताओ कि तुम अब अधिक प्रसन्न हुए या अपना दाव खेलकर अधिक प्रसन्न होते ? विद्यार्थीने कहा-मैं आपकी शिक्षाको कदापि नहीं भूलंगा । अब यह निम्नलिखित वाक्य भली भांति मेरी समझमें आ गया,
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५४ )
जिसे मैं पहले नहीं समझा था कि, 'लेनेकी अपेक्षा देना बढ़ा लाभकारी और सुखदायक है ।"
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(ञ) संतोष ।
निस्संदेह बहुतसे मनुष्यों का यह विचार है कि संतोष केवल संकल्पमात्र है, और वस्तुतः कोई सत्य पदार्थ नहीं, क्योंकि वर्षों संतोषका पीछा किया फिर भी वह हाथ न आया ।
ऐसे भी मनुष्य हैं जिन्होंने रुपये के लिए सब कुछ खो दिया, इस आशासे कि अन्तमें हमें संतोष प्राप्त होगा, परन्तु जब उन्होंने अपने शेष जीवनको सुखसे व्यतीत करनेके लिए पर्याप्त धन इकट्ठा कर लिया तब भी उन्हें संतोष न आया, वरन पहले - से अधिक असंतोषी हो गए। उनका धन व सुवर्ण उनके लिए ऐसा हुआ जैसे कि प्यासे मनुष्यके लिए खारी जल - अर्थात् जितना अधिक धन हुआ उतनी ही उनकी प्यास वा धनोपार्जनकी कामना बढ़ती गई । और मनुष्योंने इसके विपरीत सम्पूर्ण धनका त्याग कर दिया, सामाजिक जीवनसे अलग होकर लोगोंसे मिलना जुलना छोड़ दिया, केवल धार्मिक रीतियोंमें प्रवृत्त होकर नियम और व्रत रखने लगे, और जप तप करने लगे, इस आशासे कि इसप्रकार से तो संतोष अवश्य मिलेगा; पर अन्तमें उन्होंने यह विदित कर लिया कि हमने भी ऐसी ही भूल की है जैसी कि धन इकट्ठा करनेवालोंने की थी ।
प्रश्न यह है कि संतोष कहां मिल मोल नहीं ले सकता, ढूंड़नेसे वह मिल नहीं
सकता है ? धन उसे सकता, जप तपसे
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वह हाथ नहीं मा जो यह कह । वह इस ला लिए क
वह हाथ नहीं आता, तो फिर क्या वह विद्यमान है ? हां! एक संतोषी मनुष्य था जो यह कह सकता था कि मैंने प्रत्येक दशामें संतुष्ट रहना सीख लिया है । वह इस लिए संतुष्ट था कि वह जानता था कि सारी वस्तुएं मिलकर भलेके लिए काम करती रहती हैं, अर्थात् जो कुछ होता है सब भलेके लिए ही होता है। यही नीव है जिसपर 'संतोषरूपी मन्दिर' बनना चाहिये,अर्थात् एक दृढ विश्वास कि इस सकल ब्रह्माण्ड में प्रेम और प्रज्ञाका राज्य है और जो शक्ति सबपर शासन करती है वह एक श्रेष्ठ शक्ति है । जब मनकी यह भावना हो जाए, तब नीव पड़जाती है और जो लोग ऐसी नीवपर गृह बनाएंगे, उनके गृह वा प्रासाद शान्तिमय बनेंगे।
इससे यह न समझना कि जो मनुष्य संतुष्ट है, वह आगे उन्नति नहीं कर सकता और न उसमें किसी प्रकारकी मनोकामना और उच्चपदकी आकांक्षा रही । ऐसी अवस्थाका नाम तो स्थिरता वा निश्चलता है । संतोषके यहांपर इससे अधिक विस्तृत अर्थ लिए गए है । शुभ [ धर्म ] सत्य और सौन्दर्यकी कामना कभी नहीं घटनी चाहिये, उच्चपदको प्राप्त करनेका यत्न कभी नहीं छोड़ना चाहिये । जब एक मनुप्यने प्रत्येक दशामें संतुष्ट रहना सीख लिया है या यह कहो कि जब एक मनुप्य अपने आपको सारी घटनाओं के अनुसार बना सकता है, तो फिर मनको शान्त रखनेके लिए किसी विशेष घटनाकी आवश्यकता नहीं, फिर इस बातका भी भय नहीं रहा कि उन्नतिसे संतोष जाता रहेगा। ऐसी भीतरी रमणीय दशा वा अध्यात्मज्ञान प्राप्त करनेसे हमें उन्नतिकी ओर अधिक प्रेरणा होती है । यदि
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( ५६ )
हमारी बाह्य घटना न बदले, तो फिर हमें किस प्रकार विदित हो कि हम इस उच्चपदको पहुंच गए हैं ? यदि हम दशा परिवर्तनको अनुभव न करें, तो फिर कौनसी वस्तु है जिससे हमारी परीक्षा हो सके कि हम सारी अवस्थाओं में शान्त संतुष्ट रहते हैं ।
आलस्य, उदासीनता, हर्ष, विषयासक्ति आदिमें संतोष नहीं है ये सब असन्तोषके कारण हैं। ये झूठे सिद्ध हैं, जो प्रतिज्ञा कुछ करते हैं और देते कुछ और हैं । जो मनुष्य यह सोचते हैं कि जो मनकी भावना हमने ऊपर वर्णन की है संतोष उस से कोई अलग वस्तु है, उससे वे धोखमें पड़े हुए हैं और मानो मूर्खता के मन्दिर में विश्राम कर रहे हैं और कभी न कभी अपनी भूलको जान लेंगे । पुण्य, उपकार वा भलाईही में सब प्रकारकी शक्ति है, यदि इस मतमें दृढ विश्वास रक्खा जाय तो इससे परम ज्ञान प्राप्त होगा और मूर्खता जाती रहेगी ।
यह कहावत प्रसिद्ध है कि “संतोषी नित्य सुखी ।" जिन लोगोंका यह विश्वास है कि सारी वस्तुएँ मिल कर भलेके लिए काम कर रही हैं, उन्हें सर्वत्र भलाई ही भलाई दीख पडती है । विषमें भी अमृत की धाराएं मिली हुई भासती हैं और बादलोंमें भी चाँदीकी सी श्वेत झलक दिखाई देती है । यह लोग सदा शुभचिन्तक हैं ।
सुना है कि कुछ लोग ऐसे भी हैं कि जब तक वे असन्तुष्ट न हों तब तक वे प्रसन्न नहीं होते । यदि ऐसे मनुष्य हैं तो उन्हें अपने आपसे असन्तुष्ट रहना चाहिए न कि अपनी बाह्य अवका वा घटनाओंसे । कौन जाने कि यदि वह अपने आप -
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( ५७ )
को बदल दें तो उनकी बाह्य घटनाएं भी बदल जाएं । सम्भव है कि उनकी बाह्य अवस्थाएं वा घटनाएं चाहे वे कैसी ही विरुद्ध हों उनकी भीतरी दशासे इतना गाढ़ सम्बन्ध रखती हों कि यह घटनाएं उनके सुधार के लिए आवश्यक हैं और उनको अन्तमें यह बात विदित हो जायगी कि ऐसी घटनाओंका होना हमारे सुधारनेके लिए अवश्य था ।
संतोष प्राप्त करने के लिए यह भी अवश्य है कि हम चित्तमें किसी प्रकारका संभ्रम वा संशय न लाएं, क्योंकि जब हम दुविधा में होते हैं तो हमारे भीतर कलह होता रहता है, और हम शान्तिरूपी जलमें हल चल मचाया करते हैं और यदि इस संभ्रमको दूर न किया जायगा, तो शान्तिरूपी समुद्र की गहराइयों के भीतर से असन्तोषका भयानकरूप जलके ऊपर दिखाई देगा । इस विह्वलता और संभ्रमसे बचनेके लिए मनुष्य को चाहिये कि अपने विचार और खभावमें सदा सरलता और निष्कपटताके अटल नियम बतें ।
असन्तोषका एक बड़ा भारी कारण यह है कि हम यह सोचते रहते हैं कि और लोग हमारे विषय में क्या कहते होंगे । यदि मैं सीधे मार्गपर चल रहा हूं और ऋजुतासे काम ले रहा हूं, तो मुझे इस बातकी क्यों चिन्ता होनी चाहिये कि मेरे पड़ौसी मेरे विषय में क्या कहते होंगे ? लोगों के मत और विचार सदा बदलते रहते हैं परन्तु हमारे चाल चलन वा शीलके विषयमें ईश्वरकी जो न्यायपूर्वक सम्मति है वह तो हमारे ही बदलने से बदल सकती है। इस लिए मनुष्योंकी सम्मतियोंसे
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( ५८ )
बढ़कर ईश्वर परमात्मापर ही भरोसा रक्खूंगा और जो काम उसको पसन्द होगा, वही करूंगा ।
संतोषी मनुष्य के पास ईर्षा विरोध द्वेष और क्रोध कदापि नहीं फटकते; यद्यपि ये उसके हृदयके पास आकर उसके भीतर प्रवेश करना चाहें तथापि वह दृढमति होकर इनको स्वीकार नहीं करता, क्योंकि यदि ये एक बार भी संतोषरूपी गृहमें प्रविष्ट हो जाएं, तो इनके रहते समय शान्ति कहां ? पर यदि विश्वास आशा और प्रेम भीतर उपस्थित हैं तो फिर इन बिना बुलाये आनेचालों से कुछ भी खेद न होगा ।
संतोष बड़ी उत्तम वस्तु है, शोभायमान हो जाते हैं । उनके
इससे स्त्री पुरुषोंके चरित्र बड़े मुखोंपर तेज और उनके जीनमें मनोहारिता प्रतीत होती है । उनके वाक्य में बड़ी शान्ति भासती है और इससे उनकी भीतरी शान्ति प्रकट होती है । उनके रूपसे भी शान्ति बरसती हैं, वे उन्मत्तोंकी नाई संकेत नहीं करते और न घबराकर बातें करते हैं । वे बनावटी कष्ट और दुःखकी बातें सुनाकर इतर जनोंके वृथा कर्णछेद नहीं करते, वरञ्च जो लोग उनको जानते हैं उन सबके लिए वे बड़े आनन्ददायी और ब्रह्मखरूप हैं ।
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(ट) सहानुभूति ।
जब तक कि हम अपने आपको वशमें न कर लें, स्वार्थको न छोड़ दें, विद्वेष और अभिमानको न त्याग दें, और जब तक हम अपनी ही बड़ाई और रक्षाका ध्यान रखते हैं, तब तक हम
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दूसरोंके दुःख सुखमें अंश नहीं ले सकते । सहानुभूति इसीमें है कि हम आपेको भूल जाएं और दूसरोंका ध्यान रखें ।
दूसरों के साथ उनके दुःख सुखको अनुभव करनेके लिए यह अवश्य है कि पहले हम उनको अच्छी तरह जानें, अपने आपको कल्पनाशक्ति द्वारा उनकी अवस्थामें प्रवेश कर सकें, उनके साथ एक हो जाएं और उन्हींकी मानसिक दृष्टि से देखें । मनुष्य एक दूसरेके अभिप्रायको भले प्रकार नहीं समझते, इस लिए वे एक दूसरेको बुरा कहते हैं और उससे अलग रहना चाहते हैं ।
जीवन बराबर बढ़ता और उन्नति करता रहता है और पापी और धर्मात्मामें वस्तुतः कोई भेद नहीं है, केवल पदका अन्तर है। धर्मात्मा पहले किसी कालमें पापी था, और पापी किसी न किसी दिन धर्मात्मा बन जाएगा । पापी अभी बालक है; धर्मात्मा बड़ा मनुष्य है । जो मनुष्य पापियोंसे अलग होना चाहता है इस विचारसे कि वे दुष्ट हैं और उनसे अलग रहना अच्छा है, तो वह ऐसे मनुष्यके समान है जो छोटे बच्चोंसे मिलना नहीं चाहता, क्योंकि वे मूर्ख और उद्धत हैं और खिलौनोंसे खेलते रहते हैं।
जब मनुष्य विषयभोगकी इच्छासे रहित हो जाता है और खार्थ और अपनी आत्मश्लाघामय इच्छाओंको वशमें कर लेता है, तब वह सब प्रकारके पाप कष्ट और दुःखोंके मर्मको जानता है और नीतिसम्बन्धी भीतरी नियमको पूरा २ समझता है । अपने आपेको सर्वथा वशमें कर लेनेसे पूरा २ ज्ञान और पूरी २ सहानुभूति प्रकट होती है, और जो पुरुष इतर जनोंको शुद्ध हृदयसे देखता
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( ६० )
है वह उनकी अवस्थापर करुणादृष्टिसे विचार करता है, उनको अपना ही अंश समझता है और अपनेसे भिन्न और अपवित्र नहीं समझता, वरच अपना ही आत्मा जानकर यह कहता है कि वे भी मेरी ही तरह पाप कर रहे हैं, कष्ट उठा रहे हैं और दुःख भोग रहे हैं और इसपर भी यह जानकर प्रसन्न होगा कि वे भी अन्तमें मेरी तरह पूर्ण शान्तिको प्राप्त करेंगे ।
सहानुभूति परम सुख है; इसमें उत्तम श्रेय विद्यमान है । यह स्वर्गीय अवस्था है, क्योंकि इसमें स्वार्थ नष्ट हो जाता है और दूसरोंके साथ शुद्ध सुख और आध्यात्मिक आनन्द अनुभव करते हैं । जिस समय कोई मनुष्य सहानुभूति करना छोड़ देता है, तो यह जानो कि अब उसमें जीव नहीं रहा मानो वह मरेके समान है और देखना समझना और जानना भी छोड़ देता है '
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यह भी याद रक्खो, सहानुभूतिकी आवश्यकता धर्मात्माओं और सन्तोंको नहीं होती । आवश्यकता पापियों, मूर्खो और विकलोंहीको होती है अर्थात् उन लोगोंको जिन्होंने पाप करके बहुत कुछ कष्ट सहा है और चिरकाल तक दुःख उठाया है ।
सहानुभूति कई प्रकारसे प्रगट हो सकती है: — उसका एक प्रकार करुणा है, अर्थात् जो लोग कष्ट या दुःखमें ग्रस्त हैं उनपर दया करना इस आशयसे कि उनका दुःख थोड़ा हो जाए या बे उस दुःखको सह सकें । यह जब ही हो सकता है कि मनुष्य निष्ठुरता, क्रोध और वृथा दोषारोपणको अपने हृदयसे दूर कर दे और दया और करुणाभाव रक्खे |
सहानुभूतिका एक और प्रकार यह है कि जो लोग अपने
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( ६१ )
कामों और मनोरथोंमें सफल हुए हैं, हम भी उनके साथ प्रसन्न हों मानो उनकी सफलता हमारी ही सफलता है । अर्थात् दूसरोंको अच्छी अवस्थामें देखकर वा सुनकर प्रसन्न हों और किसी प्रकारका द्वेष और ईर्ष्या न रक्खें ।
तीसरा प्रकार यह है कि जो अपनेसे दुर्बल हैं और अपने आपको बचा नहीं सकते उनकी रक्षा करना । देखो जो प्राणी और जन्तु गूंगे हैं और अपने भाव जिह्वासे प्रकट नहीं कर सकते उन बेचारोंकी रक्षा करना परम धर्म है । हमें सामर्थ्य और शक्ति इस लिए दी गई है कि दुर्बलोंकी रक्षा करें न कि उनको मार डालें । प्राण सबमें एक हैं चाहे छोटा प्राणी हो चाहे बड़ा, इस लिए जीवमात्रकी रक्षा करनी उचित है ।
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दूसरोंपर सहानुभूति दिखाने से हम औरोंकी सहानुभूतिको अपनी ओर आकर्षण करते हैं । सहानुभूति करना कभी वृथा नहीं जाएगा । यदि नीचसे नीच प्राणीपर भी सहानुभूति करोगे, तो उससे भी तुम्हें लाभ पहुंचेगा । मैंने कारागार में एक अपराधीकी सच्ची कहानी सुनी है। यह अपराधी बड़ा ही निर्दयी और कठोर हृदय था, उसके संशोधनकी कोई आशा नहीं रही थी और कारागारवालोंने भी उसे दुर्दम्य और दुर्दान्त समझ रक्खा था । एक दिन इसी अपराधीने एक डरपोक और डरी हुई चूहीको पकड़ लिया और उसकी बेबसीकी अवस्था देखकर उसके मनमें दया आगई । और पहले कभी मनुष्योंको देखकर उसके कठोर हृदयमें ऐसी दया उत्पन्न नहीं हुई थी ।
उसने चूहीको अपनी कोठड़ीके भीतर एक पुरानी जूतीमें
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( ६२ ) रक्खा, वहीं उसको खाना खिलाता रहा और पानी देता रहा। वह उसे बड़ा प्यार करने लगा। इस प्रकार वह दुर्बल और विवश जनोंको प्यार करने लगा और प्रबल जनोंकी ओर उसका द्वेष जाता रहा। अब वह अपने हृदय और अपने हाथसे अपने भाइयोंका बुरा न चाहकर, भला चाहने लगा । वह अतीव वश्य और आज्ञाकारी हो गया । सब उसके इस परिवर्तनपर आश्चर्य करने लगे। उसका रूपरंग भी बदल गया, वह हंसमुख हो गया, अब उसकी आकृति भयानक नहीं रही, उसके मुख और आंखोंसे करुणा
और दया बरसने लगी। अब वह अपराधी नहीं रहा और उस के हृदयके भाव शुद्ध और पवित्र हो गए । जब वह कारागारसे छूटा तब उस चूहीको अपने साथ ले गया।
(ठ) सहानुभूति और निष्काम परोपकारमें ही सुख है।
कहते हैं कि जब युधिष्ठिर स्वर्गमें आए, तो विस्मित होकर इधर उधर देखने लगे। पर वे प्यारी आकृतियां जो संसारमें उनकी मित्र थीं अर्थात् नकुल, सहदेव, भीम, अर्जुन आदि कोई भी दिखाई नहीं दिया। इतनेमें दुर्योधन दिखाई पड़ा । युधिष्ठिरको आश्चर्य हुआ कि जिस मनुप्यके कारण महाभारतमें बहुतसे लोग मारे गए, और सारा भारत नष्ट हो गया और जो राज्येक बिगाड़ने, कुटुम्बियोंके मरवा डालने और करोड़ों शूरवीर राजपूतोंके सिर कटवानेका मूल कारण हुआ था, वह यहां भी उपस्थित है । यह देखकर राजाने घृणासे अपनी दृष्टि उस
ओरसे फेर ली और कहा “मैं वहां जाना चाहता हूं जहां अर्जुना. दिक हैं" । नारद ऋषिने मुसकराकर कहा,-"हे राजन् ! यह
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( ६३ )
आपकी भूल है; यह स्वर्ग है, यहांपर मित्रता और शत्रुताके सम्बन्ध दूर हो जाते हैं और दुर्योधन रणभूमिमें मारे जानेके कारण स्वर्गमें आया है" । युधिष्ठिर बोले "यह सब ठीक है; पर मैं अपने भाइयोंके साथ रहना चाहता हूं। बताइये, कर्ण कहां है, द्रौपदी कहां है, भीम, अर्जुन, नकुल, सहदेव कहां हैं, विलम्ब न कीजिए; मुझको वहां ले चलिये, मेरी आंखोंको उन प्यारी आकृतियोंको देखकर सुख मिलेगा । मै सच कहता हूं, मैं यहां न ठहरूंगा; यदि मेरे भाई साथ नहीं हैं, तो यह स्वर्ग भी मेरे लिए वर्ग नहीं है" ।
देवताओंने एक दूतको आज्ञा दी कि, जाओ इनको इनके प्यारे मित्रोंके पास ले जाओ । युधिष्ठिर उस दूतके साथ चल पड़े ।
रास्ते में कुछ भी दिखाई नहीं देता था और बड़ा अन्धेरा छाया हुआ था यहां तक कि हाथको हाथ नहीं सूझता था । ज्यों २ वे आगे बढ़े चले गए, त्यों २ अन्धेरा और भी बढ़ता जाता था । पैरों तले मनुष्योंकी खोपरियां पड़ी हैं, सड़े हुए शवसे अत्यन्त दुर्गन्ध आ रही है, धरती रुधिर के कारण चिकनी हो गई है, प्रतिक्षण पैरोंके फिसलनेका डर है । कहीं तो नुकीले कांटे हैं कहीं चुभने वाली पैनी झाड़ियां हैं, कहीं झुलसनेवाली रेत है और कहीं अंगारोंकी नांई उष्ण पत्थरोंके टुकडे पैरोंके नीचे आते हैं । युधिष्ठिर बहुत घबरा गए और कहने लगे, - "यहां सांस घुटता है और दुर्गंध मारे प्रकृति घबरा गई हैं" । दूत बोला"मुझे केवल यहां तक आनकी आज्ञा थी; यदि आपकी इच्छा हो या आप घबरा गए हों तो उलटे चलिये" ।
युधिष्ठिरका हृदय वशमें नहीं रहा था, उन्होंने मुंह फेर
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( ६४ )
लिया; पर अभी कठिनतासे उनको आगे बढ़नेका अवसर मिला होगा कि मृत्युकी हाय २ उनके कानमें आई और रोने चिछानेका शब्द सुनाई दिया- "महाराज ! तनिक ठहर जाओ ! हे धर्मात्मा ! आपके शरीरके हर्षदायक पवनके झोकोंसे हमको सुख मिला है । हम महाकष्ट में पड़े हैं । हमारे दुःखोंका यहां कोई अन्त नहीं है । हम महादुःखी हैं। हाय ! हमने संसारमें जो बुराइयां की थीं, उनका कैसा बुरा दण्ड मिल रहा है । आपके आनेसे तनिक सुख मिला है और कुछ चैन आया है, क्योंकि आप धर्मात्मा हो । आपके शरीरकी भांपसे हमको ठंडक पहुंच रही है । महाराज ! दया करो, कुछ कालके लिए ठहर जाओ, आपके कारण हम दीनोंको शान्ति प्राप्त हुई है" ।
धर्मात्मा और दयालु युधिष्ठिर खड़ा हो गया और प्रेम और दयाके भावसे पूछने लगा, - " हे दुःखसे सताए हुए लोगो ! तुम कौन हो" ? भिन्न २ प्रकारके शोक भरे शब्द कानमें सुनाई दिए, “महाराज ! मैं कर्ण हूं, मैं भीम हूं, मैं अर्जुन हूं, मैं नकुल हूं, मैं सहदेव हूं, मैं द्रौपदी हूं, हम द्रौपदीके पुत्र हैं" ।
“हे परमात्मन् ! इन निरपराधियोंने क्या अपराध किया था ? स्वर्गमें भी यह अन्धेर कि दुष्ट दुर्योधन तो सुख भोगे और ये साधु जन इस प्रकार दुःख उठाएं" । शोक क्रोध और आश्चर्यने एक २ करके राजाके हृदयपर आक्रमण किया । युधिष्ठिरने तेवर बदलकर दूतसे कहा, “ अभी उन देवताओंके पास लौट जा, जिनका तू दूत है और उनसे स्पष्ट कह दे कि मेरे भाइयोंको मेरे यहां रहनेसे सुख मिलता है, ही रहूंगा । पुझे अपने सुखकी
इस लिए मैं यहां । ये दुःखसे
चिन्ता नहीं है
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( ६५ )
सताई हुई आत्माएं मेरे यहां रहनेसे शान्ति पाती हैं, इस लिए मैं यहांसे पीछेको नहीं मुडूंगा और यही रहूंगा" ।
बाह री भक्ति और श्रद्धालुता ! इस निर्भय पुरुषार्थको धन्य है । इस आत्मत्याग इस निष्काम प्रेम और इस सच्चे पुरुषत्वकी कोई क्या महिमा वर्णन कर सकता है ।
उसी समय एक बड़ा भारी शब्द हुआ, अन्धेरा जाता रहा, चारों ओर प्रकाश ही प्रकाश हो गया, न कहीं दुर्गन्ध है न कहीं कांटे हैं, हर्षमें मग्न होकर देवता राग गाने लगे और इन्द्र अपने दिव्य मित्रोंको साथ लिए हुए वहां आकर उपस्थित हो गया और शान्तिदायक शब्दों में कहने लगा, – “हे मृत्युंजय युधिष्ठिर ! यह नरकका दृश्य केवल भ्रम था, इसकी कोई सत्ता नहीं है । तुमने कुरुक्षेत्रकी रणभूमिमें अपनी इच्छा के विरुद्ध झूठ बोला था जिस कारण द्रोण मारा गया था । यह अचिरस्थायी नरकका दृश्य केवल तुमको उस थोड़े से झूठ बोलने के कारण देखना पड़ा । अब आप मंगल मनाइये, चलिये सच्चे खर्गमें ठहरिये जहां आपके सारे भाई अपने कर्मोंका सुख भोग रहे हैं" ।
इससे विदित हुआ कि नरक और स्वर्ग क्या हैं | जहां मनुप्यसम्बन्धी सहानुभूति प्रचुर कार्य करती है, वहां स्वर्ग होता है; जहां स्वार्थपरता होती है, वहां नरक रहता है । जो लोग बुरी बानको छोड़कर सबके लिए सहानुभूति रखते हैं, वे केवल आप ही स्वर्गमें नहीं जाते वरश्च स्वर्गमें दूसरोंको भी जगह देते हैं । और केवल आप ही मृत्युपर जयी नहीं होते वरच
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( ६६ )
उनके कारण औरोंको भी अमृतत्वका पद प्राप्त होता है । धन्य हैं वे पुरुष जो इस प्रकारके गुणोंसे युक्त
हैं ।
(ड) सबसे प्रेम रखना और बुरी संगति से बचना । बुद्धिमान् और सिद्ध पुरुषोंकी सदासे यही शिक्षा रही है और संसार के सारे धर्म भी यही शिक्षा देते चले आए हैं कि हमें सबके साथ प्रेमभाव रखना चाहिये और साथ ही बुरे पुरुष और बुरी स्त्रियोंसे बचना चाहिये । ये दोनों बातें एक दूसरेके विरुद्ध नहीं हैं वरञ्च अनुकूल हैं ।
सबके साथ प्रेम रखने से निरा भाव ही अभिप्रेत नहीं है वरञ्च प्रेमकी व्यावहारिक रीति भी अनुगत है और भलाई करने और प्रेमी व्यावहारिक रीतिके लिए यह अवश्य है कि बुराई और द्वेषसे बचें |
जिस मनुष्य में हमारा प्रेम है यदि हम उसके भले या बुरे कामोंका विचार न करें तो उस मनुष्यके विषय हमारा निरा प्रेमभाव चाहे जब द्वेषमें बदल सकता है और सम्भव है फिर हम उससे घृणा करने लगें । इस प्रकारके भावमें दूसरे मनुष्यकी भलाई और उसके सुधारका विचार नहीं किया जाता वरच अपने ही भावकी तुष्टिका ध्यान रक्खा जाता है परन्तु प्रेमके दृढ नियममें दूसरे मनुष्यकी भलाईका अवश्य विचार किया जाता है और यदि हम बुरे मनुष्यके साथी हो जाएं और उससे प्रीतिभाव रखकर भी उसे बुरे काम करनेसे न रोकें वरश्च बुरे काम करने दें तो यह गाढ़ प्रीति नहीं है और दृढ प्रेम करनेके सच्चे नियपके विरुद्ध है ।
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( ६७ ) बुरे मनुप्योंसे बचनेमें एक और भी बात है और वह बात वस्तुओंमें योग्यताका स्पष्ट रीतिसे जान लेना है । कई एक मूल पदार्थ ऐसे हैं कि स्वभावहीसे उनका रसायनसंयोग हो नहीं सकता; इस लिए उन्हें मिलानेका यत्न करना केवल मूर्खता है । इसी प्रकार कई एक आध्यात्मिक मूल पदार्थ भी ऐसे हैं जो आपसमें मिल नहीं सकते और उनके संयोगका यत्न करना मूर्खताका द्योतक है । भलाई और बुराई पुण्य और पाप, राग और द्वेष, पवित्रता और अपवित्रता, शुद्धि और अशुद्धि, ये सदासे विरुद्ध
और पृथक् हैं । इनका संयोग असम्भव है । सम्भव नहीं कि ये आपसमें एक हो जाएं मिल जाएं और एक दूसरेके सहायक हों। इस लिए पवित्र और महात्मा मनुप्यका अपवित्र और दुरात्माके साथ मेल नहीं हो सकता । इनमें मेल तब ही हो सकता है जब कि सज्जन दुष्ट बन जाए या दुष्ट सज्जन हो जाए। __बुरे मनुप्यके पछताने और सुधर जानेका एक सबसे पक्का चिन्ह यह है कि वह अपने पहले साथियोंकी संगति सर्वथा छोड़ दे । जब कोई मनुष्य मद्यपानकी बुरी बानका त्याग कर देता है तो वह फिर कभी मदिरागृहमें अपने मदिरा पीनेवाले सङ्गियोंके साथ नहीं दिखाई देता । यही दशा प्रत्येक प्रकारकी बुराईकी है अर्थात् जब हम किसी बुराईसे बचते हैं तो उस बुराईके करनेवालों से भी परे रहते हैं । यह कहावत प्रसिद्ध है कि "जैसेको तैसा मिलता है," और "रुपयेको रुपया खेंचता है" और बुरे और भले पुरुषों में परस्पर मेल हो नहीं सकता। __ यह एक बड़ी उत्तम बात है कि जो कोई पवित्र जीवन व्यतीत करना चाहता है उसे कदापि दुष्टोंकी संगतिमें नहीं रहना
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(६८ ) चाहिये । उसे अपवित्र और पापी मनुष्योंके पास उन्हें लाभ पहुंचानेके लिए भी नहीं जाना चाहिये जबतक कि वह आप ऐसा पवित्र और दृढ न बन जाए कि बुरी संगतिके वशमें न आसके और बुरेका प्रभाव तनिक भी उसपर न पड़ सके वरञ्च बुराई और पापको सर्वथा दूर कर दे । उसे भले और सज्जन पुरुषोंकी ही संगतिमें रहना चाहिये इस लिए कि वह उनके उत्तम प्रभावके कारण बहुत शीघ्र उन्नति कर सके। ___ बुरे मनुष्योंके सुधारनेवाले भी बुरे मनुष्यों के संग नहीं रहते; वे भलाई करनेवालोंको ही अपना संगी बनाते हैं । पवित्र
और शुद्ध हृदयवालोंके संग रहनेके लिए यह अवश्य है कि आप भी पवित्र और शुद्धहृदय बन जाए ।
जिन लोगोंका मन पवित्र है वे बुराई करनेवालोंके पास तक नहीं फटकते और न उनकी ओर झांकते हैं । यह द्वेष नहीं है; यह बुद्धिमत्ता है। ___ जो मनुष्य चिरकाल तक किसी बुराई में लगा रहता है, इसका परिणाम यह होगा कि सब लोग उसको त्याग कर और वह दुःखी रहेगा, कोई उसको पूछेगा नहीं और वह अकेला रहजाएगा । यह बात उसके लिए अच्छी है । इस अकेले रहनेके दण्डसे वह ठीक मार्गपर आजाएगा और सुधर जाएगा । यह अच्छी बात है कि बुराई करनेवाला पछताए और मलाई करने लगे; इससे वह फिर प्रसन्न हो जाएगा और बिगड़े हुए मित्र फिर आकर उससे मिलेंगे।
रही नहीं कि सज्जन दुष्टोंसे बचते हैं और परे रहते हैं; व. रञ्च दुष्ट भी सज्जनोंके पास आनेसे शिजकते हैं क्योंकि स
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जनोंकी भलाई विना कहे ही दुष्टोंपर प्रकाशित हो जाती है और उनके पापका बुरा चित्र उनकी आंखोंके सामने खेंच देती है । ___ जब कोई मनुष्य किसी बुराईके मार्गमें प्रविष्ट होता है तो वह अपने आपको झट उन लोगोंकी संगतिमें देखता है जिन्होंने वही मार्ग ग्रहण किया है । जब कोई मनुष्य उत्तम मार्गपर चलता है तो वह उस उत्तम मार्गमें चलनेवालोंके संग हो जाता है । मानुषी खभावका यही नियम है ।
जब कोई मनुष्य अपनी भीतरी भलाईसे अलग हो जाता है तो वह भले लोगोंसे भी अलग हो जाता है और अपने ही जैसे लोगोंके साथ चलने फिरने लगता है । यह एक कारण है जिससे दुष्ट मनुष्य इस संसारमें या किसी और मनुप्यमें भलाई नहीं देखते । इन लोगोंने अपने आपको भलाईसे अलग करलिया और भलाई तक पहुंच नहीं सकते । पर बुराईकी ओर इनकी आंखें और मन खुले हुए हैं इस लिए इन्हें बुराई ही बुराई दिखाई देती है. क्योंकि उन्हींके विचारवाले लोग इन्हें सदा बुराईकी वार्ता सुनाते रहते हैं। ___ जब एक बुरा मनुष्य अच्छे मनुप्यमे मिलता है तो वह उससे अपने बुरे विचार और कामोंके छुपानेका यत्न करता है; पर ज्यों ही वह किसी दूसरे बुरे मनुष्यके संग मिलता है त्यों ही वह अपने हृदयका सारा मर्म निर्लज्ज होकर उसके आगे खोल देता है और इस बातसे प्रसन्न होता है कि मुझे मेरा साथी मिल. गया है।
संसारमें एक ओर तो चोरों, जुआरियों और अपराधियों के
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( ७० )
सङ्घ हैं और दूसरी ओर महात्माओं धर्मात्माओं और बुद्धिमानोंकी सभाएं हैं; इससे सिद्ध है कि मनुष्य स्वभावसे ही अपनी २ संगतिमें मिलना चाहते हैं और अपने ही जैसोंसे अपना भेद प्रगट करना चाहते हैं और दुष्टों और सज्जनोंमें कितना धरती आकाशका अन्तर है ।
ऋषि मुनि लोगोंने उत्तम जीवनकी एक सुन्दर नगरसे उपमा दी है; पर दुष्ट जीवनकी किसी नगरसे उपमा नहीं दी जा सकती; दुष्ट जीवन नगर रहित है; इसमें संलग्नशील, शिष्ट और मधुर मूल पदार्थ नहीं हैं जिनसे सभ्य नगर के रहनेवालोंकी अवस्था उत्पन्न हो सके; यह जाति से बाहर है और सब - ने इसे छोड़ रखा है; इसका कोई स्थान नहीं जहां यह शरण ले सके और ठहर सके ।
धर्मात्मा और पवित्र मनुष्य ऋजुताके सुन्दर नगर में बसते हैं और वे दुष्ट और पापी लोगोंसे अलग हैं जो उस नगरकी भित्तियोंके बाहर फिरते रहते हैं । क्योंकि जहां पुण्य है। वहां पाप नहीं आ सकता; पर इस नगरके द्वार सदा खुले रहते हैं। द्वारपाल देखते रहते हैं और प्रत्येक पछतानेवाले पापीको प्रसन्नता से भीतर आने देते हैं; क्योंकि यद्यपि पाप तो भीतर नहीं आ सकता, पर पापी पुण्यवान् होकर भीतर प्रवेश कर सकता है ।
यद्यपि सज्जन पुरुष दुष्टोंसे नहीं मिलते, तथापि वे उनसे कम प्रेम नहीं रखते और उनको सुधारनेका यत्न करते रहते हैं; पर इन दोनोंमें अन्तर अवश्य रहेगा, क्योंकि स्वर्ग और नरक
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( ७१ )
मिल नहीं सकते और सज्जनोंका दुष्टोंसे अलग रहना एक आध्यात्मिक आवश्यकता और एक दैवी नियम है ।
(ढ) सत्संगकी महिमा |
हिन्दीमें एक कहावत है कि " खर्बज़ा ख़बूजे को देखकर रङ्ग पकड़ता है,” इसी प्रकार संसार में भली और बुरी संगतिका प्रभाव पड़ता है । मनुष्य जिस जलवायुमें पलता है और जिन घटनाओंके वशमें रहता है, वैसे ही गुण उसमें उत्पन्न हो जाते हैं । उसकी संगति निश्चय करके इस बातका निर्णय कर दती है कि वह क्या है और क्या होगा और उसका अगला जीवन किस सांचे में ढलेगा । संमार में आप जो जो कुछ नई २ बातें देखते हैं वे सब परस्पर मिलाप और संगतिके फल हैं । भावों की हड़ता, हृदयकी धीरता, राज्योंके परिवर्तन, सभाकी उत्तम और नीच दशा, युवा पुरुषोंका पुरुषार्थ, बूढ़ोंकी बुद्धिमत्ता, रहने सहनेकी अच्छी और बुरी अवस्था, उन्नति और अवनतिके क्रम, बोल चाल, ये सब परस्पर संगतिके फल हैं; और मनुष्य जैसे पुरुषोंके साथ रहता है, वैसे ही उनके विचार और भावोंको अपने भीतर ले लेता है और उसकी आकृति और चाल ढाल वैसी ही बन जाती है । इस लिए सच कहा है,
साधुकी जिन संगत लीनी । उन्हीं कमाई पूरी कीनी ॥
यूनानके एक वैद्यका लड़का जुवारियोंके सङ्ग बैठा करता था । नापने कई बार रोका और बुरी संगतिके बुरे परिणाम भी
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( ७२ )
। लड़केने उ
समझाए पर लड़का सदा यही कहता रहा कि मैं थोड़ी देरके लिए जाता हूं उनकी संगति से मेरा क्या बिगाड़ हो सकता है । बाप बहुत दुःखी था । एक दिन उसने लड़केसे कहा, " तू तनिक इस कोयले को अपने हाथपर रख ले" । बेटेने वैसा ही किया । बाप ने कहा, "अच्छा अब फेंक दे” सको फेंक दिया । तब बापने कहा, – “ देख तेरी हथेलीपर काला धब्बा है या नहीं ?" लड़का बोला "हां जी" । तब उस वैद्यने समझाया, -- “ देख ! कोयला केवल एक पल भर तेरे हाथ में रहा, पर उसने भी अपना प्रभाव दिखा दिया; इसी प्रकार यद्यपि कोई मनुष्य थोड़ी देर के लिए बुरी संगतिमें जाए तथापि उसके प्रभावसे नहीं बच सकता" । उस दिनसे फिर लड़केने जुवारियोंके संग बैठना उठना बिल्कुल छोड़ दिया ।
वाल्मीकिका वर्णन करते हैं कि पहले वह डाकू था, डाका मनुष्यों को जानजो कुछ उसे इस
मारना और लूट मार करना उसका काम था, से मार डालना उसके बाएं हाथका कर्तब था, प्रकार मिलता था उसीसे उसके सम्बन्धी अपना पेट भरते थे I उमर बीत गई, उसका हृदय बड़ा कठोर हो गया, पथिक उसका नाम सुनकर कांपते थे और उसके उरसे कोई जंगलमें नहीं आ सकता था । एक दिन एक साधु अकस्मात् उधर से गुजरा, वह घातमें दबक रहा था, छलांग मारकर झट उसके सिरपर पहुंचा और कहने लगा, – “जो कुछ तेरे पास है मुझे सौंप दे, नहीं तो अच्छा नहीं होगा" | साधुने हंसकर कहा, "मेरे पास क्या है जो तुझको दूं; पर यदि तू मेरे प्रश्नका उत्तर देगा, तो मैं तेरा उपकार करूंगा” । वाल्मीकिको उसकी निर्भयता
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( ७३ ) देखकर आश्चर्य हुआ और यह देखकर तो वह दंग रह गया कि एक साधारण मनुष्य और वाल्मीकिसे इस बेपर्वाहीके साथ बात करे । वाल्मीकिने विस्मित होकर उसकी आकृतिको देखा, मुखकी कान्ति चारों ओर फैल रही थी, ईश्वरकी भक्तिका प्रकाश सर्वत्र दैदीप्यमान था, मानों वह साधु शान्तिका अवतार था, न किसीसे राग न किसीसे द्वेष । इस दमकती हुई आकृतिने उसके हृदयपर बड़ा प्रभाव डाला, उसने पूछा, "कहो क्या कहते हो" । उत्तर मिला,-"तुम मुझको केवल इतना बता दो कि लूट मार करके तुम जिन कुटुम्बियोंका पालन पोषण करते हो, वे तुम्हारे इस कार्यके फलमें अंश लेंगे या नहीं ?" वाल्मीकि कहते हैं कि “मेरे जीवनमें यह पहली घटना थी कि यह सीधा सादा प्रश्न किया गया, मुझे पहली ही बार इसके सोचनेका समय मिला, इस लिए मैं इसका कुछ उत्तर न दे सका । मैंने यह कहा, "मैं नहीं जानता, पर यदि कहो तो घरपर जाकर सबसे पूछ आऊ" । साधुने कहा,-"जा, मैं यहां तेरे उपकारके विचारसे ठहरा रहूंगा"। ___ वाल्मीकि गया और अपने माता, पिता, भ्राता, बन्धु सबसे पूछने लगा,-"लूट मार करना पाप है, जान मारना बुरा कर्म है, यह हम तुम्हारे पालनके लिए करते हैं, क्या तुम इस पापके दण्डमें भी मेरे साथी होगे?" सबने एक वचन होकर कहा,-"इस जगत्में प्रत्येक मनुष्य अपने २ कामका उत्तरदाता है" । उनका उत्तर सुनकर वाल्मीकिके अवसान जाते रहे, काटो तो शगरमें लहू नहीं, मुखकी छबि जाती रही । वाल्मीकिने फिर कोई बात नहीं कही, सीधा उस साधुके पास चला आया और
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( ७१ )
उसने वहां अपने घरके लोगोंका सारा वृत्तान्त कह सुनाया । साधु बोला,-"रे मूर्ख! अब तुझको समझ आई या नहीं ? देख ! संसारके प्यारे सम्बन्धी कैसे खार्थपर हैं । क्या अब भी तू उनके लिए पाप किए ही जाएगा ?"
वाल्मीकि चुप हो गया और चित्रकी नाई होकर विस्मयके साथ उसकी ओर देखा किया । वाल्मीकि ऋषि कहते हैं कि “वह साधु मेरे चुप रहनेका लाभ उठाकर देर तक मुझको उपदेश सुनाता रहा और उसकी संगतिकी विभूति और उसकी शिक्षाका प्रभाव यह हुआ कि मेरा जीवन सर्वथा पलट गया"।
नारद ऋषियों के शिगेमणि, देवताओंमें पूजनीक, मुनियोमें श्रेष्ठ, एक दासीके लड़के थे । उनकी मां एक साधुकी सेवा किया करती थी। नारद भी अपनी माताके साथ सदा साधुके भवनमें उपस्थित रहकर उसकी वाणी सुनते और उसकी टहल सेवा करते थे । साधुके सत्सङ्गका यह फल हुआ कि वह इस उच्च पदवीको पहुंच गए। __ इसी प्रकार अच्छे साधु महात्माओंके पास जानेसे मनुष्यमें साधु भाव और पवित्रता आती है, इसी लिए. कबीर साहिबन कहा है,
ऋद्धि सिद्धि मांगू नहीं, मांगू तुमसे एह ।
निस दिन दर्शन साधुका; कहे कबीर मोहि देह ॥ सुख देवें दुखको हरें, दूर करें अपराध ।
कहे कबीर वे कब मिलें, परम स्नेही साध ॥
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लाला मुंशीलाल एम्. ए. की बनाई हुई
हिन्दीकी पुस्तकें।
१ दरिद्रतासे श्रेय प्रथम भाग-मूल्य २ शीलसूत्र ३ पवित्र जीवन ....
४ शान्तिसार है ५ शील और भावना ...
*६ क्षत्रचूड़ामणिका हिन्दी अनुवाद (मूल संस्कृत समेत) ।।।)
ううううう
मिलनेका पत्तामुंशीलाल एम्. ए. गवर्नमेंट पेंशनर
काली माताकी गली गुमठी बाजार-लाहौर।
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* यह पुस्तकें जैन प्रन्थरत्नाकर कार्यालय-गिरगांव बम्बईसे मिल " सकती है।
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जनधर्म की फुल छपा हुई पुस्तक वा ग्रंथ इस पत सहा मलग
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लाला जैनालाल जैन-मु० देववन्द जि० सहारनपुर
श्रीपरमात्मने नमः
श्रीसोमप्रभाचार्यविरचिता
सुक्तमुक्तावली
तथा
जैनमन्थरत्नाकरस्थ
रत्नकणिका न. ३.
स्वर्गीय कविवर बनारसीदासजीकृत भाषासुक्तमुक्तावली.
जिसको देवरी जिला सागरनिवासी श्रीनाथूराम प्रेमी कविने संशोधन किया.
और
मुम्बयीस्थ
जैनग्रन्थरत्नाकर कार्यालयके स्वत्त्वाधिकारीने
निर्णयसागर छापखानेमें छपाकर प्रसिद्ध किया.
वीरसंवत् २४३१ | इस्वी सन १९०४. [ मूल्य । आने.
प्रथमबार ५०० प्रति ]
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beter tester tatatatatatatatatatatatatertretetetrtretato tatatatatan
श्रीसोमप्रभाचार्यविरचिता
सूक्तमुक्तावली
तथा
utoitetutentuk Kotekatere tretieteetaciet etre tre tre tretetet e t
स्वर्गीय कविवर बनारसीदासजीकृत भाषासूक्तमुक्तावली.
( सिंदृरप्रकर.) धर्माधिकार।
शार्दूलविक्रीडित । सिन्दूरप्रकरस्तपः करिशिरःकोडे कपायाटवी* दावार्चिर्निचयः प्रबोधदिवसप्रारम्भसूर्योदयः । ॐ मुक्तिस्त्रीकुचकुम्भकुङ्कुमरसः श्रेयस्तरोः पल्लवप्रोल्लासः क्रमयोर्नखद्युतिभरः पार्श्वप्रभोः पातु वः ॥१॥
पदपद। शोभित तपगजराज, सीम सिन्दूर पूरछवि । बोधदिवस आरंभ, करण कारण उदोत रवि ॥ मंगल तरु पल्लव, कषाय कांतार हुताशन ।
बहुगुणरत्ननिधान, मुक्तिकमलाकमलाशन ॥ इहिविधि अनेक उपमा सहित, अरुण चरण संताप हर।। जिनराय पार्श्वनखज्योति भर, नमत बनारसि जोर कर ॥१॥
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जैनग्रन्थरत्नाकरे
शार्दूलविक्रीडित ।
सन्तः सन्तु मम प्रसन्नमनसो वाचां विचारोद्यताः
सूतेऽम्भः कमलानि तत्परिमलं वाता वितन्वन्ति यत् । किं वाभ्यर्थनयानया यदि गुणोऽस्त्यासां ततस्ते स्वयं कर्तारः प्रथने न वेदथ यशः प्रत्यर्थिना तेन किम् ॥२॥ दोधकान्त बेसरीछन्द |
जैसे कमल सरोवर वासै । परिमल तास पवन परकाशै । त्यों कवि भाषहिं अक्षर जोर । संत मुजस प्रगटहि चहुँओर || जो गुणवन्त रसाल कवि, तौ जग महिमा होय । जो कवि अक्षर गुणरहित, तो आदरे न कोय ॥ २ ॥
इन्द्रवज्रा ।
त्रिवर्गसंसाधनमन्तरेण पशोरिवायुर्विफलं नरस्य । तत्रापि धर्मे प्रवरं वदन्ति न तं विना यद्भवतोऽर्थकामौ ॥ दोधकान्त बेसरीछन्द |
सुपुरुष तीन पदारथ साधहिं । धर्म विशेष जान आराधहिं । धरम प्रधान कहैं सब कोय । अर्थ काम धर्महितैं होय ॥
धर्म करत संसारसुख, धर्म करत निर्वान । धर्मपंथसाधनविना, नर तिर्येच समान ॥ ३ ॥
यः प्राप्य दुष्प्रापमिदं नरत्वं धर्मे न यत्नेन करोति मूढः । क्लेशप्रबन्धेन स लब्धमब्धौ चिन्तामणि पातयति प्रमादात् ॥
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बनारसीविलासः
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कवित्त मात्रिक. (३१ मात्रा) जैसे पुरुष कोइ धन कारण, हीडत दीपदीप चढ़ यान ।। आवत हाथ रतनचिन्तामणि, डारत जलधि जान पापान ॥ तैसे भ्रमत भ्रमत भवसागर, पावत नर शरीर परधान । धर्मयन नहिं करत 'बनारसि' खोवत वादि जनम अज्ञान ४
मन्दाक्रान्ता । स्वर्णस्थाले क्षिपति स रजः पादशौचं विधत्ते
पीयूषेण प्रवरकरिणं वाहयत्यधभारम् । चिन्तारत्नं विकिरति कराद्वायसोडायनार्थ यो दुष्पापं गमयति मुधा मर्त्यजन्म प्रमत्तः ॥ ५ ॥
मतगयन्द. (सवैया ) ज्यों मतिहीन विवेक विना नर, साजि मतङ्गज ईंधन ढोवै। * कंचन भाजन धूल भरै शट, मूढ सुधारससों पगधोवै ॥ वाहित काग उड़ावन कारण, डार महामाणि मूरख रोवै ।। त्यों यह दुर्लभ देह 'बनारसि', पाय अजान अकारथ खोवै५
शार्दूलविक्रीडित । ते धत्तुरतरुं वपन्ति भवने प्रोन्मूल्य कल्पद्रुमं
चिन्तारत्नमपास्य काचशकलं स्वीकुर्वते ते जडाः । विक्रीय द्विरदं गिरीन्द्रसदृशं क्रीणन्ति ते रासभं
ये लब्धं परिहत्य धर्ममधमा धावन्ति भोगाशया
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जैनग्रन्थरत्नाकरे
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कवित्त मात्रिक. (३१ मात्रा) ज्यों जरमूर उखारि कल्पतरु, बोवत मूढ कनकको खेत। ज्यों गजराज बेच गिरिवर सम, कर कुबुद्धि मोल खंर लेत ||
जैसे छोड़ि रतन चिन्तामणि. मूरख काचखंडमन देत । १ तैसे धर्म विसार 'बनारसि' धावत अधम विषयसुखहेत ||६||
शिखरिणी। अपारे संसारे कथमपि समासाद्य नृभवं ___न धर्म यः कुर्याद्विपयसुखतृष्णातरलितः ।
डन्पारावारे प्रवरमपहाय प्रवहणं __स मुख्यो मूर्खाणामुपलमुपलब्धुं प्रयतते ॥ ७ ॥
__ सोरठा। ज्यों जल बूढ़त कोय, बाहन तज पाहन गहै । त्यों नर मूरख होय, धर्म छांडि सेक्त विषय ॥ ७ ॥
द्वार गाथा।
शार्दूलविक्रीडित। । भक्तिं तीर्थकरे गुरौ जिनमते संधे च हिंसानृत3 स्तेयाब्रह्मपरिग्रहव्युपरमं क्रोधाधरीणां जयम् । ई सौजन्यं गुणिसङ्गमिन्द्रियदमं दानं तपोभावनां 1 वैराग्यं च कुरुष्व निर्वृतिपदे यद्यस्ति गन्तुं मनः ॥८॥
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१ धतूरा. २ गर्दभ (गधा).
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बनारसीविलासः
षट्पद ।
जिन पूजहु गुरुनमहु, जैनमतवैन बखानहु । संघ भक्ति आदरहु, जीव हिंसा नविधानहु || झूट अदत्त कुशील, त्याग परिग्रह परमानहु | कोध मान छल लोभ जीत, सज्जनता ठानहु ॥ गुणिसंग करहु इन्द्रिय महु, देहु दान तप भावजुत । गहि मन विराग इहिविधि चहहु, जो जगमैं जीवनमुकत ॥ ८ ॥ पूजाधिकार ।
पापं लुम्पति दुर्गतिं दलयति व्यापादयत्यापदं
पुण्यं संचिनुते श्रियं वितनुते पुष्णाति नीरोगताम् । सौभाग्यं विदधाति पल्लवयति प्रीतिं प्रसूते यशः
स्वर्ग यच्छति निर्वृतिं च रचयत्यचर्हितां निर्मिता ॥ ९ ॥
३१ मात्रा संवैया छन्द ।
लोप दुरित हरे दुख संकट; आप रोग रहित नितदेह | पुण्य भंडार भरे जरा प्रगटे; मुकति पंथसौं करै सनेह || रचै सुहाग देय शोभा जग; परभव पँहुचावत सुरगेह । कुगतिबंध दलमलहि बनारसि; वीतराग पूजा फल येह ||९|| स्वर्गस्तस्य गृहाङ्गणं सहचरी साम्राज्यलक्ष्मीः शुभा सौभाग्यादिगुणावलिर्विलसति स्वैरं वपुर्वेश्मनि । संसारः सुतरः शिवं करतलकोडे लुठत्यञ्जसा
यः श्रद्धाभरभाजनं जिनपतेः पूजां विधत्ते जनः १०
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जैनग्रन्थरत्नाकरे
देवलोक ताको घर आँगन; राजरिद्ध सेर्वै तमु पाय ताको तन सौभाग्य आदि गुन; केलि विलास करै नित आय ॥ सोनर त्वरित तेरै भवसागर: निर्मल होय मोक्ष पद पाय । द्रव्य भाव बिधि सहित बनारसि; जो जिनवर पूजै मन लाय १० शिखरिणी ।
कदाचिन्नातङ्कः कुपित इव पश्यत्यभिमुखं विदूरे दारिद्र्यं चकितमिव नश्यत्यनुदिनम् । विरक्ता कान्तेव त्यजति कुगतिः सङ्गमुदयो
न मुञ्चत्यभ्यर्णे सुहृदिव जिनाच रचयतः ॥११॥ ज्यौं नर रहे रिसाय कोपकर; त्यौ चिन्ताभय विमुख बखान । ज्यौ कायर शंकै रिपु देखत त्यौ दरिद्र भाजै भय मान ॥ ज्यौ कुमार परिहरे खंडपति, त्यो दुर्गति छेडे पहिचान । हितु ज्यौं विभौ तजै नहिं संगत; सो सब जिनपूजाफल जान ११ शार्दूलविक्रीडित ।
यः पुष्पैर्जिनमर्चति स्मितसुरस्त्रीलोचनैः सोऽर्च्यते यस्तं वन्दत एकशस्त्रिजगता सोऽहर्निशं वन्द्यते । यस्तं स्तौति परत्र वृत्रदमनस्तोमेन स स्तूयते
यस्तं ध्यायति कुमकर्मनिधनः स ध्यायते योगिभिः ॥ जो जिनेंद्र पूजे फूलनसों; सुरनैनन पूजा तिस होय । बंदें भावसहित जो जिनवर वंदनीक त्रिभुवन में सोय ॥
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बनारसीविलासः
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जो जिन सुजस करै जन ताकी; महिमा इन्द्र करें सुरलोय । जो मिन ध्यान करत बनारसिध्या मुमि ताके गुण जोय॥१२॥
गुरु अधिकार ।
वंशस्थविलम् । अवद्यमुक्ते पथि यः प्रवर्त्तते प्रवर्तयत्यन्यजनं च निस्पृहः । ॐस सेवितव्यः स्वहितैषिणा गुरुः स्वयं तरंस्तारयितुं क्षमः
परम् ॥ १३ ॥ अडिल्ल छन्द । पापपंथ परिहर्गह; धरहिं शुभपंथ पग । पर उपगार निमित्तः बखानहि मोक्षमग ॥ सदा अवंछित चित्त; जु तारन तरन जग । ऐसे गुरुको मेवतः भागहिं करम ठग ॥ १३ ॥
मालिनी। विदलयति कुबोधं बोधयत्यागमार्थ
मुगतिकुगतिमार्गों पुण्यपापे व्यनक्ति । अवगमयति कृत्याकृत्यभेदं गुरुयों भवजलनिधिपोतस्तं विना नास्ति कश्चित् १४
हरिगीतिका छन्द। मिथ्यात दलन सिद्धांत साधक; मुकतिमारग जानिये । से करनी अकरनी सुगति दुर्गति; पुण्य पाप बखानिये ॥ ३ संसारसागरतरनतारन गुरु जहाज विशेखिये । जगमाहि गुरुसम कह बनारसि; और कोउ न देखिये ॥ १४ ॥
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जैनग्रन्थरत्नाकरे
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शिखरिणी। पिता माता भ्राता प्रियसहचरी सूनुनिवहः
सुहृत्स्वामी माद्यत्करिभटरथाश्वः परिकरः। निमजन्तं जन्तुं नरककुहरे रक्षितुमलं गुरोर्धर्माधर्मप्रकटनपरात्कोऽपि न परः ॥१५॥
मत्तगयन्द । मात पिता सुत बन्धु सखीजन; मीत हितू मुख कामन पीके । सेवक साज मतंगज बाज; महादल राज रथी रथनीके ॥ ॐ दुर्गति जाय दुखी विललाय; पर सिर आय अकेलहि जीके । * पंथ कुपंथ गुरू समझावत; और सगे सब म्वारथहीके ॥ १५ ॥
शार्दूलविक्रीडित । किं ध्यानेन भवत्वशेषविषयत्यागैस्तपोभिः कृतं ___पूर्ण भावनयालमिन्द्रियजयैः पर्याप्तमातागमैः । किं त्वेकं भवनाशनं कुरु गुरुप्रीत्या गुरोः शासनं सर्वे येन विना विनाथबलवत्स्वार्थाय नालं गुणाः।।
वस्तु छन्द । ध्यान धारन ध्यान धारन; विषै सुख त्याग । करुनारस आदरन; भूमि सैन इन्द्री निरोधन ॥ व्रत संजम दान तप; भगति भाव सिद्धंत साधन ॥ ये सब काम न आवहीं; ज्यौं विन नायक सैन ।
शिवसुख हेतु बनारसी; कर प्रतीत गुरुवैन ॥ १६॥ HTTTTTTTTTTTTTTTTTER
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बनारसीविलासः
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जिनमताधिकार ।
शिखरिणी। न देवं नादेवं न शुभगुरुमेनं न कुगुरुं
न धर्म नाधर्म न गुणपरिणद्धं न विगुणम् । न कृत्यं नांकृत्यं न हितमहितं नापि निपुणं विलोकन्ते लोका जिनवचनचक्षुर्विरहिताः ॥१७॥
कुंडलिया छन्द। देव अदेव नहीं लखें; सुगुरु कुगुरनहिं सूझ । धर्म अधर्म गनै नहीं; कर्म अकर्म न बूझ ॥ कर्म अकर्म न बूझः गुण रु औगुण नहिं जानहिं । हित अनहित नहि सधै; निपुणमूरख नहिं मानहिं ।। कहत बनारसि ज्ञानदृष्टि नहिं अंध अबेवहिं । जैनबचनदृगहीन; लखै नहि देव अदेवहिं ॥ १७ ॥
शार्दूलविक्रीडित । मानुष्यं विफलं वदन्ति हृदयं व्यर्थं वृथा श्रोत्रयो
निर्माणं गुणदोपभेदकलनां तेषामसंभाविनीम् । दुर्वारं नरकान्धकूपपतनं मुक्तिं बुधा दुर्लभां सार्वज्ञः समयो दयारसमयो येषां न कर्णातिथिः॥
३१ मात्रा सवैया छन्द। ताको मनुज जनम सब निष्फल; मन निष्फल निष्फल जुगकान। गुण अर दोष विचार भेद विधि; ताहि महा दुर्लभ है ज्ञान ॥
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जैनग्रन्थरत्नाकरे
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ताको सुगम नरक दुख संकट; अगमपथ पदवी निर्वान । जिनमतवचन दयारसगर्भित; जे न मुनत सिद्धंतबखान १८ पीयूषं विषवजलं ज्वलनवत्तेजस्तमःस्तोमव
मित्रं शात्रववत्नजं भुजगवञ्चिन्तामणिं लोष्टवत् । ज्योत्स्ना ग्रीष्मजधर्मवन्स मनुते कारुण्यपण्यापणं जैनेन्द्र मतमन्यदर्शनसमं यो दुर्मतिर्मन्यते ॥१९॥
पट्पद। अमृतको विष कहै; नीरको पावक मानहिं । तेज तिमरसम गिनहिं: मित्रकों शत्रु बग्वानहि ।। पहुपमाल कहिं नाग; रतन पत्थर सम तुलहिं ।
चंद्रकिरण आतप स्वरूप; इहि भांत जु भुल्लहि ।। ॐ करुणानिधान अमलानगुनः प्रघट बनारसि जैनमत । परमत समान जो मनधरत; सो अजान मूरख अपत ॥ १९॥ धर्म जागरयत्ययं विघटयत्युत्थापयत्युत्पथं ॐ भिन्ते मत्सरमुच्छिनत्ति कुनयं मनाति मिथ्यामतिम् ।
वैराग्यं वितनोति पुष्यति कृपां मुष्णाति तृष्णां च यसे तज्जैनं मतमर्चति प्रथयति ध्यायत्यधीते कृती ॥२०॥
मरहटा छन्द। शुभ धर्म विकाशै, पापविनाशै; कुपथउथप्पनहार । मिथ्यामतखंडे, कुनयविहंडै; मंडै दया अपार ।। तृष्णामदमारे, राग विडारै; यह जिनआगमसार । जो पूलै ध्या३, पढ़ें पढा; सो जगमाहिं उदार ॥२०॥
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बनारसीविलासः
संघ अधिकार । रत्नानामिव रोहण क्षितिधरः खं तारकाणामिव स्वर्गः कल्पमहीरुहामिव सरः पङ्केरुहाणामिव । पाथोधिः पयसामिवेन्दुमहसां स्थानं गुणानामसावित्यालोच्य विरच्यतां भगवतः संघस्य पूजाविधिः ॥ ३१ मात्रा सवैया छन्द ।
जैसे नभमंडल तारागण; गेहनशिखर रतनकी खान । ज्यों सुरलोक नृरि कलपद्रुम; ज्योंसरवर अंबुज वन जान || ज्यों समुद्र पूरन जलमंडित, ज्यों शशिछबिसमूह सुखदान | तैमै संघ सकल गुणमन्दिर, सेवहु भावभगति मन आन २१ यः संसारनिरासलालसमतिर्मुक्त्यर्थमुत्तिष्ठते
११
यं तीर्थ कथयन्ति पावनतया येनास्ति नान्यः समः । यस्मै स्वर्गपतिर्नमस्यति सतां यस्माच्छुभं जायते
स्फूर्तिर्यस्य परा वसन्ति च गुणा यस्मिन्स संघोऽर्च्यताम् जे संसार भोग आशातज ठानत मुकति पन्थकी दौर | जाकी सेव करत सुख उपजत, तिन समान उत्तम नहिं और ॥ इन्द्रादिक जाके पद वंदत, जो जंगम तीरथ शुचि ठौर । जामै नित निवास गुन मंडन, सो श्रीसंघ जगत शिरमौर ॥ २२ ॥ लक्ष्मीस्तं स्वयमभ्युपैति रभसात्कीर्तिस्तमालिङ्गति
प्रीतिस्तं भजते मतिः प्रयतते तं लब्धुमुत्कण्ठया । स्वः श्रीस्तं परिरब्धुमिच्छति मुहुर्मुक्तिस्तमालोकते
यः संघं गुणसंघकेलिसदनं श्रेयोरुचिः सेवते ॥ २३॥
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जैनग्रन्थरत्नाकरे ताको आय मिलै मुखसंपति, कीरति रहै तिहूं जग छाय। जिनसों प्रीत बढे ताके घट, दिन दिन धर्मबुद्धि अधिकाय ॥ छिनछिन ताहि लखै शिवसुन्दर, सुरगसंपदा मिलै मुभाय । बानारसि गुनरास संघकी, जो नर भगति करै मनलाय॥२३॥ यद्भक्तेः फलमर्हदादिपदवीमुख्यं कृपेः सस्यव
चक्रित्वत्रिदशेन्द्रतादि तृणवत्प्रासङ्गिकं गीयते । शक्ति यन्महिमस्तुतौ न दधते वाचोऽपि वाचस्पतेः
संघः सोऽघहरः पुनातु चरणन्यालैः सतां मन्दिरम् ॥ जाके भगत मुकतिपदपावत, इन्द्रादिक पद गिनत न कोय || ज्यों कृषि करत धानफल उपजत, सहज पयार घाम भुस होय॥ जाके गुन जस जंपनकारन, सुरगुरु थकित होत मदखोय । सो श्रीसंव पुनीत बनारसि, दुरित हरन बिचरन भविलोय २४
अहिंसा अधिकार । क्रीडाभूः सुकृतस्य दुष्कृतरजःसंहारवात्या भयो* दन्वन्नौर्व्यसनाग्निमेघपटली संकेतदृती श्रियाम् । निःश्रेणित्रिदिवौकसः प्रियसखी मुक्तः कुगत्यर्गला सत्त्वेषु क्रियतां कृपैव भवतु क्लेशैरशेषः परैः ॥ २५ ॥
- घनाक्षरी। सुक्रतकी खान इन्द्र पुरीकी नसैनी जान'
पापरजखंडनको, पौनरासि पेखिये । भवदुखपावकबुझायवेको मेघ माला,
कमला मिलायवेको दूती ज्यों विशेखिये ॥ HTTAR FREE
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बनारसीविलासः
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मुगति बधूसों प्रीत; पालवेकों आलीसम,
कुगतिके द्वार दृढ; आगलसी देखिये ॥ ऐसी दया कीजै चित; तिहलोकप्राणीहित, और करतूत काहू; लेखेमें न लेखिये ॥ २५ ॥
शिखरिणी। यदि ग्रावा तोये तरति तरणियद्यदयते __प्रतीच्यां सप्तार्चिर्यदि भजति शैत्यं कथमपि । यदि मापीठं स्यादुपरि सकलस्यापि जगतः प्रसूते सत्वानां तदपि न वधः क्वापि सुकृतम् ॥
अभानक छन्द । जो पश्चिम रवि उगै; तिरै पापान जल । जो उलटे भुवि लोक; होय शीतल अनल ॥ जो मेरू डिगमिग; सिद्धि कहँहोय मल । तव ह हिंसा करतः न उपजत पुण्यफल || २६ ॥
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मालिनी।
स कमलवनमग्नेर्वासरं भास्वदस्ता
दमृतमुरगवक्रात्साधुवाद विवादात् । रुगपगममजीर्णाजीवितं कालकृटादभिलपति वधाद्यः प्राणिनां धर्ममिच्छेत् ॥ २७ ॥
घनाक्षरी छन्द । अगनिमैं जैसें अरविंद न विलोकियत;
सूर अथवत जैसें बासर न मानिये । *'Y** ******དོས* “TPY****7** **།
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जैनमन्थरत्नाकरे
सांपके बदन जैसैं अमृत न उपजत; कालकूट खाये जैसैं जीवन न जानिये ॥ कलह करत नहिं पाइये सुजस जैसैं; बाढ़तरसांस रोग नाश न बखानिये । प्राणी बधमांहि तैसै धर्मकी निशानी नाहि, याहीतैं बनारसी विवेक मन आनिये ॥ २७ ॥ शार्दूलविक्रीडित |
आयुर्दीर्घतरं वपुर्वरतरं गोत्रं गरीयस्तरं वित्तं भूरितरं बलं बहुतरं स्वामित्वमुचैस्तरम् । आरोग्यं विगतान्तरं त्रिजगति श्लाघ्यत्वमल्पेतरं संसाराम्बुनिधिं करोति सुतरं चेतः कृपार्द्रान्तरम् ॥ ३१ मात्रा सवैया छन्द ।
१४
दीरघ आयु नाम कुल उत्तम गुण संपति आनंद निवास । उन्नति विभव सुगम भवसागर; तीन भवन महिमा परकास || भुजबलवंत अनंतरूप छवि; रोगरहित नित भोगविलास || जिनके चित्तदयाल तिन्होंके, सब सुख होंहि बनारसिदास ||
सत्यवचन अधिकार |
विश्वासायतनं विपत्तिदलनं देवैः कृताराधनं
मुक्तेः पथ्यदनं जलाग्निशमनं व्याघ्रोरगस्तम्भनम् । श्रेयः संवननं समृद्धिजननं सौजन्यसंजीवनं कीर्तेः केलिवनं प्रभावभवनं सत्यं वचः पावनम् २९
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बनारसीविलासः
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षट्पद । गुणनिवास विश्वास बास; दारिददुखखंडन । देवअराधन योग; मुकतिमारग मुखमंडन ॥ मुयशकेलि आराम; धाम सज्जन मनरंजन । नागबाघवशकरन; नीर पावक भयभंजन ॥ महिमा निधान सम्पतिसदन; मंगल मीत पुनीत मग । सुखरासि बनारसि दास भन; सत्यबचन जयवंत जग २९
शिखरिणी। यशो यस्माद्भस्मीभवति वनवढेरिव वनं
निदानां दुःखानां यदवनिरुहाणां जलमिव । न यत्र स्याच्छायातप इव तपःसंयमकथा कथंचित्तन्मिथ्यावचनमभिधत्ते न मतिमान् ॥३०॥
३५ मात्रा सवैया छन्द । जो भम्मत करै निज कीरति; ज्यों वनअग्नि दहै वन सोय । जाक सग अनेक दुख उपजत; बढ वृक्ष ज्यों सींचत तोय ॥
जामै धरम कथा नहि मुनियत; ज्यों रवि वीच छांहिं नहिं होय। * सो मिथ्यात्व वचन बानारसि; गहत न ताहि विचक्षण कोय ३०
वंशस्थविलम् । असत्यमप्रत्ययमूलकारणं कुवासनास समृद्धिवारणम् । विपन्निदानं परवश्वनोर्जितं कृतापराधं कृतिभिर्विवर्जितम्॥
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जैनग्रन्थरत्नाकरे
रोडक छन्द । कुमति कुरीत निवास; प्रीत परतीत निवारन । रिद्धसिद्धसुखहरन; विपत दारिद दुख कारन ।। परवंचन उतपत्ति; सहज अपराध कुलच्छन । सो यह मिथ्यावचन; नाहिं आदरत विचच्छन ॥३१॥
शार्दूलविक्रीडित । तस्याग्निर्जलमर्णवः स्थलमरिर्मित्रं सुराः किङ्कराः ___ कान्तारं नगरं गिरिरॅहमहिर्माल्यं मृगारिमृगः। पातालं बिलमस्त्रमुत्पलदलं व्यालः 'टगालो विषं पीयूषं विषमं समं च वचनं सत्याश्चितं वक्ति यः ३२
घनाक्षरी। पावकतै जल होय; वारिधतै थल होय, __ शस्त्रौं कमल होय; ग्राम होय बनते । कृपतै बिवर होय; पर्वततें घर होय, __ वासवतै दाम होय; हितू दुरजननैं ।। सिघनै कुरंग होय; व्याल म्यालअंग होय,
बिष पियूष होय; माला अहिफनतें । विषमतै सम होय; संकट न व्याप कोय, ___एते गुन होय सत्य; वादीके दरसते ॥ ३२ ॥
अदत्तादान अधिकार।
मालिनी। तमभिलपति सिद्धिस्तं वृणीते समृद्धि
स्तमभिसरति कीर्तिर्मुञ्चते तं भवार्तिः ।
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बनारसीविलासः
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स्पृहयति सुगतिस्तं नेक्षते दुर्गतिस्तं परिहरति विपत्तं यो न गृहात्यदत्तम् ॥ ३३ ॥
रोडक छन्द । ताहि रिद्धि अनुसर; सिद्धि अभिलाष धरै मन । विपत संगपरिहरै, जगत विस्तरै सुजसधन ।। भवआरति तिहिं तजे, कुगति बंछै न एक छन । सो सुरसम्पति लहै, गहै नहिं जो अदत्त धन ॥ ३३ ॥
शिखरिणी। अदत्तं नादत्ते कृतसुकृतकामः किमपि यः __ शुभश्रेणिस्तस्मिन्वसति कलहंसीव कमले। विपत्तस्माद्दरं व्रजति रजनीवाम्बरमणेविनीतं विद्येव त्रिदिवशिवलक्ष्मी जति तम्॥३४॥
(३१ मात्रा ) संवैया छन्द ।। *ताको मिले देवपद शिवपद, ज्यों विद्याधन लहै विनीत ।
नामैं आय रहै शुभ सम्पति, ज्यों कलहंस कमलसों मीत ॥ * ताहि विलोक दुरै दुग्व दारिद, ज्यों रवि आगम रैन विदीत । जो अदत्त धन तजत बनारसि, पुण्यवंत सो पुरुष पुनीत३४
शार्दूलविक्रीडित । यन्निवर्तितकीर्तिधर्मनिधनं सर्वागसां साधनं
प्रोन्मीलद्वधबन्धनं विरचितक्लिष्टाशयोद्बोधनम् ।। दौर्गत्यैकनिबन्धनं कृतसुगत्याम्लेषसंरोधनं ।
प्रोत्सर्पत्प्रधनं जिघृक्षति न तद्धीमानदत्तं धनम् ३५
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जैनग्रन्थग्नाकरे
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मरहटा छन्द। जो कीरति गोपहि, धरम विलोपहि, करहि महाअपराध । ॐ जो शुभगति तोरहि, दुरगति लोरहि, जोरहि युद्ध उपाध ॥
जो संकट आनहिं, दुर्गति ठानहिं, बधबंधनको गेह । सब औगुण मंडित, गहै न पंडित, मो अदत्तधन यह ॥३५॥
हरिणी । परजनमनःपीडाक्रीडावनं वधभावना
भवनमवनिव्यापिव्यापल्लताधनमण्डलम् । कुगतिगमने मार्गः स्वर्गापवर्गपुरार्गलं नियतमनुपादेयं स्तेयं नृणां हितकाविणाम् ॥ ३६ ॥
(३१ मात्रा) सवैया। जो परिजन संताप केलिवन; जो बध बंध कुबुद्धि निवाम । जो जग विपतिबलधनमंडल; जो दुर्गति माग्ग परकास ॥ जो सुरलोकद्वार दृढ आगल; जो अपहरण मुक्ति सुखवास। सो अदत्तधन तजत साधुजन; निजहितहेत वनारसिदास ३६
शीलाधिकार.
शार्दूलविक्रीडित । * दत्तस्तेन जगत्यकीर्तिपटहो गोत्रे मपीकूर्चक
श्चारित्रस्य जलाञ्जलिर्गुणगणारामस्य दावानलः । : संकेतः सकलापदां शिवपुरद्वारे कपाटो दृढः
शीलं येन निजं विलुप्तमखिलं त्रैलोक्यचिन्तामणिः ३७ *
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बनारसीविलासः
( ३१ मात्रा ) सवैया । सो अपयशको डंक बजावत; लावत कुल कलंक परधान । सो चारितको देत जलांजुलि गुन बनको दावानल दान || सो शिवपन्थकिवार बनावत; आपति बिपति मिलनको थान । चिन्तामणि समान जग जो नर; शील रतन निजकरत मलान ३७ मालिनी ।
हरति कुलकलङ्कं लुम्पते पापप सुकृतमुपचिनोति श्लाघ्यनामातनोति । नमयति सुरवर्ग हन्ति दुर्गापसर्ग
रचयति शुचि शीलं स्वर्गमोक्षौ सलीलम् ॥ ३८ ॥ रोडक छन्द |
कुल कलंक दलमलहि; पापमपंक पखारहि । दान संकट हरहि; जगत महिमा विस्तारहि ॥ सुरंग मुकति पद रहि; सुकृतसंचहि करुणारसि ।
सुरगन बंदहि चरन; शीलगुण कहत वनारसि ॥ ३८ ॥ शार्दूलविक्रीडित |
व्याघ्रव्यालजलानलादिविपदस्तेषां व्रजन्ति क्षयं
कल्याणानि समुल्लसन्ति विबुधाः सांनिध्यमध्यासते । कीर्तिः स्फूर्तिमियति यात्युपचयं धर्मः प्रणश्यत्यघं स्वर्निर्वाणसुखानि संनिदधते ये शीलमाविभ्रते ||३९||
मत्तगयन्द |
ताहि न वाघ भुजंगमको भय; पानि न वोरै न पावक जालै । ताके समीप रहैं सुर किन्नर; सो शुभ रीत करै अघ टा
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जैनग्रन्थरत्नाकरे तासु विवेक बढे घट अंतर; सो सुरके शिवके मुख माले। ताकि सुकीरति होय तिहूँ जग; जो नर शील अखंडित पालै॥३०॥ ॐ तोयत्यग्निरपि सजत्यहिरपि व्याघोऽपि सारङ्गति ____ व्यालोऽप्यश्चति पर्वतोऽप्युपलति श्वेडोऽपि पीयूषति। विघ्नोऽप्युत्सवति प्रियत्यरिरपि क्रीडातडागत्यपांनाथोऽपि स्वगृहत्यटव्यपि नृणां शीलप्रभावाडुवम् ४०
षट्पद। अग्नि नीरसम होय; मालसम होय भुजंगम । नाहर मृगसम होय; कुटिल गज होय तुरंगम ॥ विष पियूषसम होय; शिखरपाषान खंडमित ।
विघन उलट आनंद; होय रिपुपलट होयहित ॥ लीलातलावसम उदधिजल; गृहसमान अटवी विकट । इहिविधि अनेक दुख होहिं सुख; शीलवंत नरके निकट ॥४०॥
परिग्रहाधिकार. कालुप्यं जनयन् जडस्य रचयन्धर्मद्रमोन्मूलनं
क्लिननीतिकृपाक्षमाकमलिनी लोभाम्बुधिं वर्धयन् । मर्यादातटमुट्टजञ्छुभमनोहंसप्रवासं दिशकि न क्लेशकरः परिग्रहनदीपूरः प्रवृद्धिं गतः ॥ ४१ ॥
३१ मात्रा सवैया। में अंतर मलिन होय निज जीवन; विनसे धमतरोवरमूल । किल्सै दयानीतिनलिनीवन; धरै लोभ सागर तनथूल ॥
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बनारसीविलासः
२१
उठै बाद मरजाद मिटै सब; सुजन हंस नहिं पावहिं कूल - । बढ़त पूर पूरै दुख संकट; यह परिग्रह सरितासम तूल ॥ ४१ ॥
मालिनी ।
कलहकलभविन्ध्यः कोपगृध्रश्मशानं व्यसनभुजगरन्धं द्वेषदस्युप्रदोषः ।
सुकृतवनदवाग्निर्मार्दवाम्भोदवायु
र्नयनलिनतुषारो ऽत्यर्थमर्थानुरागः ॥ ४२ ॥
मनहरण ।
कलह गयन्द उपजायवेको विधगिरि; कोप गीध अघायको सुस्मशान है । सकट भुजंगके निवास करवेको विल; वैरभाव चौरको महानिशा समान है | कोमल सुगुनघनखंडबेको महा पौन; पुण्यबन दाहवेको दावानल दान है । नीत नय नीरज नसावेको हिम रासि; ऐसो परिग्रह राग दुखको निधान है ॥ ४२ ॥ शार्दूलविक्रीडित |
प्रत्यर्थी प्रशमस्य मित्रमधृतेर्मोहस्य विश्रामभूः पापानां खनिरापदां पद्मसद्ध्यानस्य लीलावनम् । व्याक्षेपस्य निधिर्मदस्य सचिवः शोकस्य हेतुः कलेः केलीवेश्म परिग्रहः परिहृतेर्योग्यो विविक्तात्मनाम् ४३
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जैनग्रन्थरत्नाकरे
ॐ २२
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प्रशमको अहित अधीरजको बाल हितः __महामोहराजाकी प्रसिद्ध राजधानी है । भ्रमको निधान दुरध्यानको विलासवनः
विपतको थान अभिमानकी निशानी ह ॥ दुरितको खेत रोग शोग उतपति हेत; ___कलहनिकेत दुरगतिको निदानी है ।
ऐसो परिग्रह भोग सवनको त्याग जोग; ___आतम गवेपीलोग याही भांति जानी है ॥ ४३ ॥ वह्विस्तृप्यति नेन्धनैरिह यथा नाम्भोभिगम्भोनिधिम स्तहल्लोभघनो धनैरपि धनैर्जन्तुर्न सतुष्यति । न त्वेवं मनुने विमुच्य विभवं निःशपमन्यं भवं यात्यान्मा तदहं मुधैव विदधाम्यनांसि भूयांसि किम् ।।
___पटपद । * ज्यों नहि अग्नि अघाय; पाय ईधन अनेक विधि ।
ज्यों सरिता घन नीर; नृपति नहि होय नीरनिधि । त्यो असंग्व धन बढत; मूढ संतोप न मानहि । पाप करत नहि डरत; वंध कारन मन आनहि ॥ परतछ विलोक जम्मन मरन; अथिर रुप संमारक्रम । समुझ न आप पर ताप गुन; प्रगट बनारसि मोह भ्रम ॥१४॥
___ क्रोधाधिकार. यो मित्रं मधुनो विकारकरणं संत्राससंपादने - सर्पस्य प्रतिबिम्बमगदहन समार्चिषः सोदरः । * ལོ ཏོ 'ལོ ས ས ས ས ས ས ས པ ས * ''' ས ས ས ས *
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बनारसीविलासः
चैतन्यस्य निषूदने विपतरोः सब्रह्मचारी चिरं
स क्रोधः कुशलाभिलाषकुशलैर्निर्मूलमुन्मूल्यताम्॥४५॥ गीताछन्द |
जो सुजन चित्त विकार कारन; मनहु मदिरा पान । जो भरम भय चिन्ता बढावत, असित सर्प समान ॥
जो जंतु जीवन हरन विपतरुः तनदहनदवदान | सो कोपराम विनाम भविजन; लहहु शिव मुखधान ॥ ४५ ॥ हारिणी । फलति कलितश्रेयः श्रेणीप्रसूनपरम्परः
प्रशमपयसा सिक्तो मुक्तिं तपश्चरणद्रुमः ।
यदि पुनरसी प्रत्यासत्ति प्रकोपहविर्भुजो
भजति लभते स्मीभावं तदा विफलोदयः ॥ ४६ ॥ ३१ मात्रा सवैया |
जब मुनि कोइ बोय तप तरुवर: उपशम जल सींचत चितखेत । उदित जान साखा गुण पल्लवः मंगल पहुप मुक्त फलहेत ॥ तब तिहि कोप दवानल उपजत, महामोह दल पवन समेत । सो भम्मंत करत छिन अंतर. दाहत बिरखसहित मुनिचेत४६ ॥ शार्दूलविक्रीडित | संतापं तनुते भिनत्ति विनयं सौहार्दमुत्सादय
त्युद्वेगं जनयत्यवद्यवचनं सूने विधत्ते कलिम् । कीर्ति कृन्तति दुर्मति वितरति व्याहन्ति पुण्योदयं दत्ते यः कुर्गात स हातुमुचितो रोषः सदोषः सताम् ॥
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२४
जैन ग्रन्थरत्नाकरे
वस्तुछन्द ।
कलह मंडन मंडन करन उद्वेग । यशखंडन हित हरन, दुखविलापसंतापसाधन ॥ दुरबैन समुच्चरन, धरम पुण्य मारग विराधन । विनय दमन दुरगति गमन, कुमति रमन गुणलोप 1 ये सब लक्षण जान मुनि, तजहि ततक्षण कोप ॥ ४७ ॥ यो धर्म दहति द्रुमं दव इवोन्मध्नाति नीति लतां
दन्तीवेन्दुकलां विधुंतुद इव श्राति कीर्ति नृणाम् । स्वार्थ वायुरिवाम्बुदं विघटयत्युल्लासयत्यापदं
तृष्णां धर्म इवोचितः कृतकृपालोपः स कोपः कथम् ॥
पदपद ।
कोप धरम धन है, अग्नि जिम विरख बिनासहि । कोप सुजस आवरहि, राहु जिम चंद गरासहि || कोप नीति दलमलहि. नाग जिम लता विहंडहि । कोप काज सब हरहि, पवन जिम जलधर खंडहि || संचरत कोप दुख ऊपजै, बढ़ें त्रषा जिम धूपमहँ । करुणा विलोप गुण गोप जुत. कोप निषेध मंहत कहँ ॥ ४८ ॥
मानाधिकार.
मन्दाक्रान्ता ।
यस्मादाविर्भवति विततिर्दुस्तरापन्नदीनां यस्मिन्शिष्टाभिरुचितगुणग्रामनामापि नास्ति ।
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बनारसीविलासः
२५
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ॐ यश्च व्याप्तं वहति वधधीधूम्यया क्रोधदावं
तं मानादि परिहर दुरारोहमौचित्यवृत्तेः ॥ ४९ ॥
___ (मात्रा ३१) सवैया। जातै निकस विपति सरिता सब; जगमें फैल रही चहुँ ओर । जाके ढिग गुणग्राम नाम नहिं, माया कुमतिगुफा अति घोर ॥ * जहँवधबुद्धि धूम रेखा सम; उदित कोप दावानल जोर । से मो अभिमान पहार पटंतर; तजत ताहि सर्वज्ञकिशोर ॥ ४९ ॥
शिखरिणी। शमालानं भञ्जन्विमलमतिनाडी विघटय. ___किरन्दुर्वाक्पांशून्करमगणयन्नागमसृणिम् ।
भ्रमन्नुन्या स्वैरं विनयवनवीथीं विदलयन् ___ जनः कं नानर्थ जनयति मदान्धो द्विप इव ॥५०॥
रोडक छन्द । भंजहिं उपशम थंभ; मुमति जंजीर विहंडहिं ।। कुवचन रज संग्रहहिं; विनयबनपंकति खंडहिं ।। जगमें फिरहिं म्वछन्द; वेद अंकुश नहिं मानहिं । गज ज्यों नर मदअन्ध; सहज सब अनरथ ठानहिं ॥५०॥
शार्दूलविक्रीडित । ॐ औचित्याचरणं विलुम्पति पयोवाहं नभस्वानिव
प्रध्वंसं विनयं नयत्यहिरिव प्राणस्पृशां जीवितम् । कीति कैरविणीं मतङ्गज इव प्रोन्मूलयत्यञ्जसा
मानो नीच इवोपकारनिकरं हन्ति त्रिवर्ग नृणाम् ५१ , ཀོ***********, *, *,ོ* པོ ས ས ས ས ས སོ་༼ས
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जैनमन्थरत्नाकरे
करिखा छन्द ।
मान सब उचित आचार भंजन करे; पवन संचार जिम घन विडहि | मान आदर तनय विनय लोपै सकल;
भुजग विष भीर जिम मरन मंडहि ॥ मानके उदित जगमाहि विनसै सुया.
कुपित मातंग जिम कुमुद खंडहि । मानकी रीति विपरीति करवृति जिम; अधमकी प्रीति नर नीत छंडहि ।। ५१ ।। वसन्ततिलका |
मुष्णाति यः कृतसमस्त समीहितार्थ संजीवनं विनयजीवितमङ्गभाजाम् ।
जात्यादिमान विषजं विषमं विकारं
तं मार्दवामृतरसेन नयस्व शान्तिम् ॥ ५२ ॥ ( मात्रा १५) चौपाई | मान विषम विपतन संचरे । विनय विनाश वॉछितहरे ॥ कोमल गुन अम्रत संजोग । विनशै मान विषम विपरोग ॥ ५२ ॥
मायाधिकार.
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मालिनी ।
कुशलजननवन्ध्यां सत्यसूर्यास्त संध्यां कुगतियुवतिमालां मोहमातङ्गशालाम् ।
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बनारसीविलासः
शमकमल हिमानीं दुर्यशोराजधानीं व्यसनशतसहायां दूरतो मुञ्च मायाम् ॥ ५३ ॥ रोडक छन्द ।
कुशल जननकों बॉझ; सत्य रविहरन सांझथिति । कुगति युवति उरमाल: मोह कुंजर निवास छिति ॥ शम वारिज हिमराशि; पाप संताप सहायनि । अयश खानि जग जान; तजहु माया दुख दायनि ॥ ५३ ॥
उपेन्द्रवज्रा |
विधाय मायां विविधैरुपायैः परस्य ये वञ्चनमाचरन्ति । ते वयन्ति त्रिदिवापवर्गसुखान्महामोहसखाः स्वमेव ५४
२७
वंशरी छन्द |
मोह मगन माया मति संचहि । कर उपाय ओरनको बंचहि । अपनी हानि लग्खें नहिं सोय । सुर्गात हरै दुर्गति दुख होय५४
वंशस्थ विलम् |
मायामविश्वासविलासमन्दिरं
दुराशयो यः कुरुते धनाशया ।
सोऽनर्थसार्थं न पतन्तमीक्षते
यथा विडालो लगुडं पयः पिवन् ॥ ५५ ॥
परिछन्द |
माया अविश्वास विलास गेह । जो करहि मूढ जन धन सनेह । सो कुगतिबंध नहि लखे एम। तजभय बिलाव पय पियतंजेम ५५
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जैनग्रन्थरत्नाकरे
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वसन्ततिलका। मुग्धप्रतारणपरायणमुजिहीते
यत्पाटवं कपटलम्पटचित्तवृत्तेः । जीर्यत्युपप्लवमवश्यमिहाप्यकृत्वा नापथ्यभोजनमिवामयमायतौ तत् ॥ ५६ ॥
___ अभानक छन्द । ज्यों रोगी कर कुपथ; बढावै रोग तन । खादलंपटी भयो; कहै मुझ जनम धन ॥ त्यों कपटी कर कपट; मुगधको धन हरहि । करहि कुगतिको बंध; हरष मनमें धरहि ॥ ५६ ॥
लोभाधिकार.
शार्दूलविक्रीडित। यदुर्गामटवीमटन्ति विकटं कामन्ति देशान्तरं से गाहन्ते गहनं समुद्रमतनुक्लेशां कृषि कुर्वते । सेवन्ते कृपणं पतिं गजघटासंघट्टदुःसंचरं सर्पन्ति प्रधनं धनान्धितधियस्तल्लोभविस्फूर्जितम् ५७
मनहरण। सहै घोर संकट समुद्रकी तरंगनिमै; ___कंपै चितभीत पंथ; गाहै बीच बनमै । ठान कृषिकर्म जामें; शर्मको न लेश कहुं: ___ संकलेशरूप होय; जूझ मरै रनमै ॥
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बनारसीविलासः
तजै निज धामको विराजि परदेश धावैः सेवै प्रभु कृपणमलीन रहै मनमैं । sto धन कारज अनारज मनुज मूढ, ऐसी करतूति करै; लोभकी लगन मैं ॥ ५७ ॥ मूलं मोहविषमस्य सुकृताम्भोराशि कुम्भोद्भवः क्रोधाग्नेररणिः प्रतापतरणिप्रच्छादने तोयदः । क्रीडासद्मकलेर्विवेकशशिनः स्वर्भानुरापन्नदीसिन्धुः कीर्तिलताकलापकलभो लोभः पराभूयताम्': पूरन प्रताप रवि, रोकको धाराघर; सुकृति समुद्र सोखवेको कुम्भनंद है | कोप दव पावक जननको अरणि दारु, मोह विप भूरुहको; महा दृढ कंद है || परम विवेक निशिमणि ग्रासवेको राहु; कीरति लता कलाप; दलन गयंद है । कलहको केलिभौन आपदा नदीको सिधु,
ऐसो लोभ याहूको विपाक दुख द्वंद है | ५८ ॥
वसन्ततिलका ।
निःशेषधर्मवनदाह विजृम्भमाणे दुःखौघभस्मनि विसर्पदकीर्तिधूमे । वाढं धनेन्धनसमागमदीप्यमाने
लोभानले शलभतां लभते गुणौघः ॥ ५९ ॥
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जैनग्रन्थरत्नाकरे
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परम धरम वन दहै; दुरित अंबर गति धारहि । कुयश धूम उदगरै; भरि भय भम्म विथारहि ।। दुख फलंग फुकरेः तरल तृष्णा कल काढहि । धन ईधन आगम; संजोग दिन दिन अति बाढहि ॥ लहलहै लोभ पायक प्रबल; पवन मोह उद्धत बहै । दज्झहि उदारता आदि बहुः गुण पतंग कँवरा कहै ।।५९
शार्दूलविक्रीडित । ३ जातः कल्पतरुः पुरः सुरगवी नेपां प्रविष्टा गृह
चिन्तारत्नमुपस्थित करतले प्राप्तो निधिः संनिधिम् । विश्वं वश्यमवश्यमेव सुलभाः स्वर्गापवर्गश्रियो * ये संतोषमशेषदोपदहनध्वंसाम्बुदं विभ्रते ॥ ६ ॥
(३१ मात्रा) संवया । विलसै कामधनु नाके घर; पूरे कल्पवृक्ष मुग्वपोष । र अग्वय भँडार भरे चिंतामणि तिनको सुलभ सुरग औ मोष ।।
ते नर स्ववश करें त्रिभुवनको; तिनमों विमुग्य रहे दुग्व दोष । । सबै निधान सदा ताके द्विग; जिनके हृदय बमत संतोष ॥६॥
मजनाधिकार.
शिखरिणी। वर क्षिप्तः पाणिः कुपितफणिनो वक्रकुहरे __ वरं झम्पापातो ज्वलदलनकुण्डे विरचितः । वरं प्रासप्रान्तः सपदि जठरान्तर्विनिहितो न जन्यं दौर्जन्यं तदपि विपदां सम विदुषा॥६॥ REETTET ME
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(१६ मात्रा) चौपाई। - बरु अहिवदन हत्थ निज डारहिं । अगनि कुंडमै तनपर जारहिं दारहिं उदर करहिं विष भक्षन। पै दुष्टता न गहहि विचक्षन ६१
वसन्ततिलका। सौजन्यमेव विदधाति यशश्चयं च ____ स्वधेयसं च विभवं च भवक्षयं च । दोर्जन्यमावहसि यत्कुमते तदर्थम्
धान्येऽनलं क्षिपसि तजलसेकसाध्ये ॥ ६२ ॥
___मत्तगयन्द ( सवैया )। ज्यो कृषिकार भयो चितवातुल, सो कृषिकी करनी इम ठानं । बीज बंब न करे जल सिचनः पावकसों फलको थल भानें ॥
त्यों कुमती निज स्वारथके हितः दुर्जनभाव हिये महि आनें। र संपति कारन बंध विदारन; सज्जनता मुग्वमूल न जाने ॥६२॥
पृथ्वी । वरं विभववन्ध्यता सुजनभावभाजां नृणा___ मसाधुचरितार्जिता न पुनर्जिताः संपदः । कृशन्वमपि शोभते सहजमायतो सुन्दरं विपाकविरसा न तु श्वयथुसंभवा स्थूलता ॥३३॥
अभानक छन्द । वर दरिद्रता होय; करत सज्जन कला ।
दुराचारसों मिलै; राज सो नहिं भला ।। ནཱ་ནཱy*》ས*********ཧ སོཙྪཱ ས༽'' '''
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ज्यों शरीर कृश सहज; सुशोभा देत है । सूज थूलता बढै; मरनको हेत है ॥ ६३ ॥ शार्दूलविक्रीडित ।
न ब्रूते परदूषणं परगुणं वक्त्यल्पमप्यन्वहं संतोषं वहते परर्द्धिषु पराबाधासु धत्ते शुचम् । स्वश्लाघां न करोति नोज्झति नयं नौचित्यमुल्लङ्घयत्युक्तोऽप्यप्रियमक्षमां न रचयत्येतश्चरित्रं सताम् ॥६४॥
पदपद ।
नहिं जंप पर दोप; अल्प परगुण बहु मानहि । हृदय धेरे संतोष दीन लखि करुणा ठानहि || उचित रीत आदरहि; विमल नय नीति न छंडहि । निज सल्हन परिहरहि; राम रचि विषय विहंडहि ॥ मंडहि न कोप दुर बचन सुन; सहज मधुर धुनि उच्चरहि । कहि कवरपाल जग जाल बसि; ये चरित्र सज्जन करहि ॥६४॥ गुणिसंगाधिकार
धर्मे ध्वस्तदयो यशयुतनयो वित्तं प्रमत्तः पुमाकाव्यं निष्प्रतिभस्तपः शमदमैः शून्योऽल्पमेधः श्रुतम् । वस्त्वालोकमलोचनश्चलमना ध्यानं च वाञ्छत्यसौ
यः सङ्गं गुणिनां विमुच्य विमतिः कल्याणमाकाङ्क्षति ॥ मत्तगयन्द ( सवैया ) ।
सो करुणाविन धर्म विचारतः नैन विना लखिवेको उमाहै । सो दुग्नीति धेरै यश हेतु, सुधी विन आगमको अवगाहै ||
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सो हियशून्य कवित्त करै समता विन सो तपसों तन दाहै । सो थिरता विन ध्यान धेरै शट; जो सत संग तजे हित चाहे६५
हरिणी। हति कुमति भिन्ते मोहं करोति विवेकितां
वितरति रतिं सूत नीति तनोति विनीतताम् । प्रथयति यशो धत्ते धर्म व्यपोहति दुर्गतिं जनयति नृणां किं नाभीष्टं गुणोत्तमसंगमः ॥६६॥
घनाक्षरी। कुमति निकंद होय महा मोह मंद होय;
जगमगै सुयश विवेक जगै हियेसों । नीतको दिढाव होय विनैको बढाव होय; ___ उपजे उछाह ज्यों प्रधान पद लियेसों । धर्मको प्रकाश होय दुर्गतिको नाश होय; ___ वरंत समाधि ज्यों पियूष रस पियेसों । तोप परि पर होय; दोप दृष्टि दूर होय, एत गुन होहि सत; संगतके कियेसों ।। ६६ ॥
शार्दूलविक्रीडित ।। लब्धुं बुद्धिकलापमापदमपाकर्तुं विहाँ पथि
प्राप्तुं कीर्तिमसाधुतां विधुवितुं धर्म समासेवितुम् । रोद्धं पापविपाकमाकलयितुं स्वर्गापवर्गश्रियं * चेत्त्वं चित्त समीहसे गुणवतां सङ्गं तदङ्गीकुरु ॥६॥ ༼*༼******** *****“
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जैनमन्थरत्नाकरे
कुंडलिया । 'कौरा ' ते मारग है, जे गुनिजनसेवंत । ज्ञानकला तिनके जगै, ते पावहि भव अंत || ते पावहिं भव अंत, शांत रस ते चित धारहिं । अघ आपद हरहिं, घरमकीरति विस्तारहि ॥ होंहि सहज जे पुरुष, गुनी बारिजके भौंरा । ते सुर संपति हैं, गहै ते मारग 'कोरा' ॥ ६७ ॥
हारिणी ।
हिमति महिमाम्भोजे चण्डानिलत्युद्बुदे द्विरदति दयारा क्षेमक्षमाभृति वज्रति समिति कुमत्यनौ कन्दत्यनीतिलतासु यः किमभिलषतां श्रेयः श्रेयान्स निर्गुणिसंगमः ॥ ६८ ॥
पदपद ।
जो महिमा गुन नहि, तुहिन जिम वारिज बारहि । जो प्रताप संहरहि, पवन जिम मेघ विहारहि || जो सम दम दलमलहि, दुरद जिम उपवन खंडहि । जो सुछेम छय करहि, वज्र जिम शिखर विहंडहि || जो कुमति अग्नि ईंधनसरिस कुनयलता दृढ मूल जग । सो दुष्टसंग दुख पुष्ट कर, तजहि विचक्षणता सुमग ॥ ६८ ॥ इन्द्रियाधिकार | शार्दूलविक्रीडित | आत्मानं कुपथेन निर्गमयितुं यः शुकलाश्वायते कृत्याकृत्यविवेकजीवितहतौ यः कृष्णसर्पायते ।
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३५
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यः पुण्यद्रुमखण्डखण्डनविधौ स्फूर्जत्कुठारायते ___ तं लुप्तव्रतमुद्रमिन्द्रियगणं जित्वा शुभंयुभव ॥ ६९ ॥
हरिगीतिका। जे जगत जनको कुपंथ डारहिं, बक्र शिक्षित तुरगसे । जे हरहिं परम विवेक जीवन, काल दारुण उरगसे ।। जे पुण्यवृक्षकुठार तीखन, गुपति व्रत मुद्रा करें । ते करनसुभट प्रहार भविजन, तब सुमारग पग धेरै ॥ ६९॥
शिखरिणी। प्रतिष्ठां यनिष्ठां नयति नयनिष्ठां विघटय___त्यकृत्यप्वाधत्ते मतिमतपसि प्रेम तनुते । विवेकस्योन्सेकं विदलयति दत्ते च विपदं पदं तद्दोपाणां करणनिकुरुम्बं कुरु वशे ॥ ७॥
घनाक्षरी। ये ही है कुगतिके निदानी दुख दोष दानी; ___ इनहीकी संगतसों संग भार बहिये । इनकी मगनतासों विभोको विनाश होय, __इनहीकी प्रीतसों अनीत पन्थ गहिये । ये ही तपभावकों बिडारे दुराचार धारे, ___ इनहीकी तपत विवेक भूमि दहिये । ये ही इन्द्री सुभट इनहिं जीतै सोई साधु,
इनको मिलापी सो तो महापापी काहिये ॥ ७० ॥
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जैन ग्रन्थरत्नाकरे
शार्दूलविक्रीडित |
धत्तां मौनमगारमुज्झतु विधिप्रागल्भ्यमभ्यस्यतामस्त्वन्तर्गणमागमश्रममुपादत्तां तपस्तप्यताम् ।
श्रेयःपुञ्जनिकुञ्जभञ्जनमहावातं न चेदिन्द्रिय
व्रातं जेतुमवैति भस्मनि हुतं जानीत सर्वं ततः ७१ arth धेरेया गृह त्यागके करैया विधि,
रीत सधैया पर निन्दासों अपृठे है । विद्या अभ्यासी गिरिकंदराके बामी शचिः
अंगके अचारी हितकारी बैन हटे है । आगमके पाठी मन लाय महा काठी भारी ;
कष्टके सहनहार रामाहुसों रूठे है | इत्यादिक जीव सब कारज करत रीते; इन्द्रिनके जीते विना सरवंग झूठे है ॥ ७१ ॥
धर्मध्वंसधुरीणमभ्रमरसावारीणमापत्प्रथा
कर्माणमशर्मनिर्मितिकलापारीणमेकान्तनः ।
सर्वान्नीनमनात्मनीनमनयात्यन्तीनमिष्टे यथा
कामीनं कुपथाध्वनीनमजयन्नक्षाघमक्षेमभाक् ॥ ७२ ॥ धर्मतरुभंजनको महा मत्त कुंजरमे आपदा भंडार के भग्नको करोरी है ।
१ कुमतेत्यपि पाट:.
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बनारसीविलासः
सत्यशील रोकवेको पौढ़ परदार जैसे; दुर्गतिके मारग चलायकों धोरी हैं ।। कुमतिके अधिकारी कुनैपथके बिहारी;
भद्रभाव ईंधन जरायकों होरी है । मृपाके सहाई दुरभावना के भाई ऐसे;
विषयाभिलाषी जीव अघके अघोरी हैं ॥ ७२ ॥ कमलाधिकार |
निम्नं गच्छति निम्नगेव नितरां निद्वेव विष्कम्भते चैतन्यं मदिरेव पुष्यति मदं धूम्येव धत्तेऽन्धताम् । चापल्यं चपलेव चुम्बति दवज्वालेव तृष्णां नय
त्युल्लासं कुलटाङ्गनेव कमला स्वैरं परिभ्राम्यति ॥७३॥
३७
मतगयन्द |
नीचकी ओर और सरिता जिम, घूम बढ़ावत नींदकी नाई । चंचलता प्रघटै चपला जिम, अंध करें जिम धूमकी झाई || तेज करे तिसना व ज्यों भदः ज्यों मद पोषित मूढके तांई । ये करतूति करै कमला जग; डोलत ज्यों कुलटा विन सांई ॥ दायादाः स्पृहयन्ति तस्करगणा मुष्णन्ति भूमीभुजो
गृह्णन्ति च्छलमाकलय्य हुतभुग्भस्मीकरोति क्षणात् । अम्भ: प्लावयते क्षितौ विनिहितं यक्षा हरन्ते हठा
दुर्वृत्तास्तनया नयन्ति निधनं धिग्बह्वधीनं धनम् ७४
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जैनग्रन्थरत्नाकरे
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बंधु विरोध करै निशवासर; दंडनकों नरवे छल जोवे ।। * पावक दाहत नीर बहावत, हे दृगओट निशाचर ढोवै ॥ * भृतल रक्षित जक्ष हैरै करकै दुरव्रत्ति कुसंतति खोवै।
ये उतपात उठै धनके ढिग; दामधनी कहु क्यों सुख सौवै७४ * नीचस्यापि चिरं चटूनि रचयन्त्यायान्ति नीचैर्नति * शत्रोरप्यगुणात्मनोऽपि विद्धत्युच्चैर्गुणोत्कीर्तनम् ।। निर्वदं न विदन्ति किंचिदकृतज्ञस्यापि संवाक्रमे कष्टं कि न मनस्विनोऽपि मनुजाः कुर्वन्ति वित्तार्थिनः॥
घनाक्षरी। नीच धनवंत ताहि निख असीस देय;
वह न विलोकै यह चरन गहत है । वह अकृतज्ञ नर यह अज्ञताको घरः । ___ वह मद लीन यह दीनता कहत है । वह चित्त कोप ठाने यह वाको प्रभु मानः
वाक कुवचन सब यह पै सहत है । ऐसी गति धार न विचार कछु गुण दोष;
अरथाभिलाषी जीव अरथ चहत है ।। ७५ ॥ लक्ष्मीः सर्पति नीचमर्णवपयः सङ्गादिवाम्भोजिनी
संसर्गादिव कण्टकाकुलपदा न वापि धत्ते पदम् ।।
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बनारसीविलासः
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चैतन्यं विषसंनिधेरिव नृणामुजासयत्यासा ॐ धर्मस्थाननियोजनेन गुणिभिमा॑ह्यं तदस्याः फलम् ७६
नीचहीकी ओरकों उमंग चलै कमला सो;
पिता सिंधु सलिलखभाव याहि दियो है । रहै न सुथिर हे सकंटक चरन याको; ___ वसी कंजमाहिं कंजकैसो पद किया है ॥ जाको मिलै हितसों अचेत कर डारे ताहि; ___ विपकी बहन तातै विपकैसो हियो है।
मी ठगहारी जिन धरमक पंथडारी; ____ करके सुकृति तिन याको फल लियो है ।। ७६ ॥
दानाधिकार. चारित्रं चिनुते तनोति विनयं ज्ञानं नयत्युननि __ पुष्णाति प्रशमं तपः प्रबलयत्युल्लासयत्यागमम् । पुण्यं कन्दलयत्यघं दलयति स्वर्ग ददाति ऋभानिर्वाणश्रियमातनोति निहितं पात्रे पवित्रे धनम् ७७
३१ मात्रा सवैया छंद । चरन अखंड ज्ञान अति उज्जल; विनय विवेक प्रशम अमलान ।। * अनघ मुभाव मुकृति गुन संचय; उच्च अमरपद बंध विधान
आगमगम्य रम्य तपकी रुचि; उद्धत मुकति पंथ सोपान । - ये गुण प्रघट होंय तिनके घट; जे नर देहिं सुपत्तहिं दान७७ * ༼**སྨ-།***དཱི༼མདཱི**''' མ****༼རྩོམ་
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जैन ग्रन्थरत्नाकरे
दारिद्र्यं न तमीक्षते न भजते दौर्भाग्यमालम्बते नाकीर्तिर्न पराभवोऽभिलपते न व्याधिरास्कन्दति । दैन्यं नाद्रियते दुनोति न दरः क्लिश्नन्ति नैवापदः पात्रे यो वितरत्यनर्थदलनं दानं निदानं श्रियाम् ॥७८॥ पदपद ।
सो दरिद्र दल महि; ताहि दुर्भाग न गंज हि । सो न लहै अपमानः सु तो विपदा भयभंजहि ॥ तिहि न कोई दुख देहि . तासु तन व्याधि न बढइ 1 ताहि कुवश परहरहि, सुमुख दीनता न कट्टई ॥ सो लहहि उच्चपदजगत महँ, अब अनरथ नामहि सरख । कहै कुँवरपाल सो धन्य नर, जो सुर्खेत बोंब दरव ॥७८॥ लक्ष्मीः कामयते मतिर्मृगयते कीर्तिस्तमालोकते
४०
प्रीतिचुम्वति सेवते सुभगता नीरोगतालिङ्गति । श्रेयः संहतिरभ्युपैति वृणुते स्वर्गोपभोगस्थितिमुक्तिर्वाञ्छति यः प्रयच्छति पुमान्पुण्यार्थमर्थं निजम् ॥ घनाक्षरी ।
ताहिको सुबुद्धि बरे रमा नाकी चाह करे, चंदन सरूप हो सुयश ताहि चर । सहज सुहाग पार्श्वे सुरंग समीप आवै,
बार बार मुकति रमनि ताहि अरचे || ताहिके शरीरकों अलिंगति अरोगताई, मंगल करे मिलाई प्रीत करें परचे
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बनारसीविलासः
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जोई नर हो सुचेत चित्त समता समेत, धरमके हेतको सुखेत धन खरचै ॥ ७९ ॥
मन्दाक्रान्ता। तस्यासन्ना रतिग्नुचरी कीर्तिरुत्कण्ठिता श्रीः _ स्निग्धा बुद्धिः परिचयपरा चक्रवर्तित्वऋद्धिः । पाणौ प्राप्ता त्रिदिवकमला कामुकी मुक्तिसंपत् सप्तक्षत्र्यां वपति विपुलं वित्तवीजं निजं यः ॥ ८ ॥
पद्मावती। ताकी रति कीति दामी सम, सहसा राजरिद्धि घर आवै । सुमति सुता उपजे ताक घट, सो सुरलोक संपदा पावै ॥ नाकी दृष्टि लग्दै शिव मारग, सो निरबंध भावना भावै। जो नर त्याग कपट कुंवरा कह, विविसों सप्तखेत धन बावै ॥८०
तपप्रभावाधिकार ।
शार्दूलविक्रीडित । यत्पूर्वार्जितकर्मशैलकुलिशं यत्कामदावानल
ज्वालाजालजलं यदुग्रकरणग्रामाहिमन्त्राक्षरम् । यत्प्रत्यूहतमःसमूह दिवसं यल्लब्धिलक्ष्मीलता___ मूलं तद्विविधं यथाविधि तपः कुर्वीत वीतस्पृहः ८१
पदपद। जो पूरब कृत कर्म, पिड गिरदलन वज्रधर । जो मनमथ दव ज्वाल, माल सँग हरन मेघझर ॥
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जैनग्रन्थरत्नाकरे
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जो प्रचंड इंद्रिय भुजंग, थंभन सुमंत्र वर।
जो विभाव संतम सुपुंज, खंडन प्रभात कर ॥ जो लब्धि वेल उपजंत घट, तासु मूल दृढता सहित । सो सुतप अंग बहुविधि दुविधि, करहि विबुधिबंछारहित ८१ यस्माद्विघ्नपरम्परा विघटते दास्यं सुराः कुर्वते ___ कामः शाम्यति दाम्यतीन्द्रियगणः कल्याणमुन्सर्पति । उन्मीलन्ति महर्द्धयः कलयति ध्वंसं च यः कर्मणां स्वाधीनं त्रिदिवं शिवं च नतिलाध्यं तपस्तन्न किम्।।
। घनाक्षरी। जाके आदरत महा रिद्धिमों मिलाप होय, ___ मदन अव्याप होय कर्म बन दाहिये । विधन विनास होय गीग्वाण दास होय,
ज्ञानको प्रकाश होय भो समुद्र थाहिये ॥ देवपद खेल होय मंगलमों मेल होय,
इन्द्रिनिकी जेल होय मोषपंथ गाहिये । जाकी ऐसी महिमा प्रघट कहै कौरपाल,
तिहुंलोक तिहुंकाल सो तप सराहिये ।।८२।। कान्तारं न यथेतरो ज्वलयितुं दक्षो दवाग्निं विना ॐ दावाग्निं न यथापरः शमयितुं शक्तो विनाम्भोधरम् । अनिष्णातः पवनं विना निरसितुं नान्यो यथाम्भोधरं ३ कौंचं तपसा विना किमपरो हन्तुं समर्थस्तथा८३॥
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बनारसीविलासः
मत्तगयन्द।
जो वर कानन दाहनकों दव; पावकसों नहि दूसरो दीसै । जो दवआग बुझै न ततक्षण; जो न अखंडित मेघ बरीसै ॥ जो प्रघटै नहि जौलग मारुत; तौलग घोर घटा नहिं खीसै ॥ त्यों घटमें तपवज्रविना दृढ; कर्मकुलाचल और न पीसै ॥८३॥
स्रग्धरा।
संतोपस्थूलमूलः प्रशमपरिकरस्कन्धबन्धप्रपञ्चः __ पञ्चाक्षीरोधशाखः स्फुरदभयदलः शीलसंपत्प्रवालः श्रद्धाम्भःपूरसेकाद्विपुलकुलवलैश्वर्यसौन्दर्यभोगः स्वर्गादिप्राप्तिपुप्पः शिवपदफलदः स्यात्तपःकल्पवृक्षः ॥
पदपद। सुदृढ मूल संतोष; प्रथम गुन प्रबल पेड ध्रुव । पंचाचार सु शाख; शील संपति प्रवाल हुव ॥ अभय अंग दलपुंज; देवपद पहुप मुमंडित ।
सुकृतभाव विस्तार; भार शिव सुफल अखंडित ॥ * परतीत धार जल सिंच किय; अति उतंग दिन दिन पुषित । ३ जयवंत जगत यह सुतपतरु; मुनि विहंग सहि सुखित ॥ ८४ ॥
भावनाधिकार।
शार्दूलविक्रीडित । नीरागे तरुणीकटाक्षितमिव त्यागव्यपेतप्रभोः
सेवाकष्टमिवोपरोपणमिवाम्भोजन्मनामश्मनि ।
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१. तपः पादपोऽयमित्यपि पाठः. २. त्यागव्ययेन प्रभोः इत्यपि पाठः.
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विष्वग्वर्षमिवोपरक्षितितले दानार्हद तपः___ स्वाध्यायाध्ययनादि निष्फलमनुष्ठानं विना भावनाम्।।
पद्मावती छन्द। ज्यों नीराग पुरुषके सनमुख; पुरकामिनि कटाक्ष कर ऊठी। ज्यों धन त्यागरहित प्रभुसेवन; ऊसरमें बरषा जिम छूटी ॥ ज्यों शिलमाहि कमलको बोवन; पवन पकर जिम बांधिये मूटी। ये करतूति होय जिम निष्फल; त्यों विनभावक्रिया सब झूठी ८५ सर्व शीप्सति पुण्यमीप्सति दयां धित्सत्यघं भित्सति ___ क्रोधं दित्सति दानशीलतपसां साफल्यमादित्सति । कल्याणोपचयं चिकीर्षति भवाम्भोधेस्तटं लिप्सते मुक्तिस्त्रीं परिरिप्सते यदि जनस्नद्भावयेद्भावनाम् ८६
घनाक्षरी। पूरब करम दहै; सरवज्ञ पद लहै;
गहै पुण्यपंथ फिर पापमैं न आवना । करुनाकी कला जागै कठिन कपाय भागै; __ लागै दानशील तप मफल सुहावना ॥ पावै भवसिंधु तट ग्योलै मोक्षद्वार पट; ___ शर्म साध धर्मकी धराम कर धावना । एते सब काज करै अलखको अंगधरै;
चेरी चिदानंदकी अकेली एक भावना ॥ ८६ ॥
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पृथ्वी । विवेकवनसारिणी प्रशमशर्मसंजीवनी
भवार्णवमहातरी मदनदावमेघावलीम् । चलाक्षमृगवागुगं गुरुकषायशैलाशनि विमुक्तिपथवेसरी भजन भावनां किं परैः ।। ८७ ॥ प्रशमके पोपवेको अम्रतकी धागसम; ।
ज्ञानवन सींचवेको नदी नीरभरी है । चंचल करण मृग बांधवेकों वागुरासी;
कामदावानल नासवेको मेघ झरी है । प्रबल कपायगिरि भजवको बज्र गदा,
भो समुद्र तारवेको पौढी महा तरी है । मोक्षपन्थ गाहवेकों वेशरी विलायतकी, ऐसी शुद्ध भावना अखंड धार ढरी है ॥ ८७ ।।
शिखरिणी। धनं दत्तं वित्तं जिनवचनमभ्यस्तमखिलं
क्रियाकाण्डं चण्डं रचितमवनौ सुप्तमसकृत् ।। तपस्तीवं तनं चरणमपि चीण चिरतरं न चञ्चित्ते भावस्तुपवपनवत्सर्वमफलम् ॥ ८८ ॥
अभानक छन्द । गह पुनीत आचार, जिनागम जोवना ।
कर तप संजम दान, भूमि का सोवना ॥ १. अश्वतरी अर्थात् खच्चरी.
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ए करनी सब निफल, होय विन भावना । ज्यों तुप बोए हाथ, कछु नहिं आवना ।। ८८ ॥
वैरागाधिकार ।
हारिणी। यदशुभरजःपाथो दृप्नेन्द्रियद्विरदाङ्कशं ___ कुशलकुसुमोद्यानं माद्यन्मनःकपिशाला । विरतिरमणीलीलावेश्म स्मरज्वग्भेषजं शिवपथरथस्तद्वैगम्यं विमृश्य भवाभयः ॥ ८९ ॥
घनाक्षरी । अशुभता धृर हरवकों नीर पूर सम.
विमल विग्न कुलयको सुहाग है । उदिन मदन जुर नागवकों जुगकुश,
असगज यमनको अकुगको दाग है ॥ चंचल कुमन कपि गेकवको लोहफन्द.
कुगल कुलम उपजायवको बाग है। मृधा मोक्षमाग्ग चलायवको नामी ग्थ. मोहिनकारी भयभवन विगग है ।। ८ ।।
वसन्ततिलका। चण्डानिलः स्फुरितमन्दचयं दवानि
वृक्षवज तिमिग्मण्डलमकंबिम्बम् । वनं महानिवहं नयते यथान्तं
वैगग्यमकर्माप कर्म तथा समग्रम् ॥ १० ॥ -
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बनारसीविलासः
अमानक छन्द। ज्यों समीर गंभीर. घनाधन छय करे । वज्र विदार शिम्बर, दिवाकर तम हरै ।। ज्यों दव पावक पूर. दह वनकुंजको । त्यों भने बैंगग, कम्मके पुत्रको ॥ १० ॥
शिनरिणी। नमम्या देवानां चरणवरिवम्या शुभगुगे.
स्तपम्या निःसीमक्लमपदमुपाम्या गुणवताम् । निषद्यारण्य म्याकरणदमविद्या च शिवदा विगगः कगगःश्नपनिपुणोऽन्तः स्फुरति चेत् ॥
परमावती छन्द । : कीनी निन चुदवकी पृजा, तिन गुरु चरणकमल चित लायो।
मो बनवाम बन्यो निशवायर, तिन गुनबन पुरुष या गायो॥ निन नप लियो किया इन्द्री दम, मो पुग्न विद्या पढ आयो। म अपराध गानाको नज. जिन वगगरप धन पायो।।११
शालविक्रीडित । : भोगाकृष्णभुजङ्गभोगविषमान्गज्यं रजःसंनिभं : पन्धन्यधनियन्धनानि विषयग्रामं विशनोपमम् । '. भूति भूतिसहोदगं तृणनुलं स्प्रेणं विदित्या त्यज- स्तवासक्तिमनाविलो विलभते मुक्ति विरक्तः पुमान् ॥
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जैनग्रन्थरत्नाकरे
घनाक्षरी छन्द । जाकों भोग भाव दीस कार नागको फन,
गजको ममाज दीग्य जैसो रजकोष है । जाको परवार को बढाव घगवध मृझ.
विप उन्ब मौजको विचार विषपोप है ।। लमै यो विमति ज्या भममिको विभूति कह.. ___ बनता विदाममै विलोके दृ दोष है। सो जान त्याग यह महिमा विगगताकी. नाहीको वैगग मही ताक दिग मोप है ॥ २ ॥
इन अधिकार समाप्रम अथ उपदेश गाथा ।
उपेन्द्रवत्रा। जिनेन्द्र प्रजा गुरुपर्युपास्तिः सत्त्यानुकम्पा शुभपात्रदानम। गुणानुगगः श्रुतिगगमम्य नृजन्मवृक्षम्य फलान्यमुनि ?
मत्तगयन्द। के परमेश्वरकी अाचा विधि. मो गुरुको उपमन की। , दीन बिलोक दया याग्यि चिन, प्रामुक दान पनाह दी। ।। । गाहक हो गुनको गहिये, मचिों जिन आगमको रस पीन। य करनी करिय प्रटमै यम. यो जगम नरमीफल लीने ॥ ३॥ :
निर्वागणी । त्रिसंध्यं देवाची विरचय च यं प्रापय यशः
श्रियः पात्र वापं जनय नयमांग नय मनः । ----- -..."":' +--+-+-+-+-+-+-+-+ 4
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बनारसीविलासः
स्मरक्रोधाद्यारीन्दलय कलय प्राणिषु दयां
जिनोतं सिद्धान्तं शृणु वृणु जवान्मुक्तिकमलाम् ॥ हरिगीता छन्द |
जो रे साथ त्रिकाल सुमरण, जाम जगयश विस्तरे । जो सुने परमानहि सुरुचिमों, नीत माग्ग पग धेरै ॥ जो निरख दीन दया प्रभु, कामक्रोधादिक रे । जो धन सप्तसुत खरचे. ताहि शिवपति बेरे ॥ ९४ ॥ शार्दूलविक्रीडित | कृत्वाहपदपूजनं यतिजनं नत्वा विदित्वागमं
हित्वा धर्मकर्मठधियां पात्रेषु दत्वा धनम् । गत्वा पद्धतिमुत्तमक्रमजुगं जित्वान्नराविजं
स्मृत्वा पञ्चनमस्त्रियां कुरु करोडस्थमिटं सुखम् ॥
४९
वस्तु छन् ।
देव पूजहि देव पूजहिं नहि गुरु सेव | परमागमरुचि धहि नजहि दुष्टगत तनक्षण | गुणि संगति आदर करहि त्याग दुमन भक्षण || देहि सुपात्रहि दान नित जैसे पंचनवकार | ये करनी जे आचरहिं ने पांव भवपार || ९५ ॥ हारिणी । प्रसरति यथा कीर्तिर्दिक्षु क्षपाकरसोदराभ्युदयजननी यानि स्फीति यथा गुणसन्ततिः । कलयति यथा वृद्धि धर्मः कुकर्महतिक्षमः
कुशलसुलभ न्याय्ये कार्य तथा पथि वर्तनम् ॥ ९९६ ॥
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जैनग्रन्थरलाकरे ... .
दोहा छन्द । गुन अरु धर्म सुथिर रहै, यश प्रताप गंभीर । कुशल वृक्ष जिम लह लहे, तिहिं मारग चल बीर ! ॥२.६।।
शिखरिणी। करे श्लाघ्यस्स्यागः शिरसि गुरुपादप्रणमनं * मुखे सत्या वाणी श्रुतमधिगतं च श्रवणयोः । * हदि स्वच्छा वृत्तिर्विजयि भुजयोः पौरुपमहो विनाप्येश्वर्येण प्रकृतिमहतां मण्डनमिदम् ॥ ९.७ ।।
कवित्त छन्द ।। बदन विनय नुकट सिर ऊपर, मुगुम्वचन कुंडल जुगकान । अतर शत्रुविजय भुजमडन, मुकतमाल उर गुन अमलान || त्याग महज कर कटक विगजन, गाभिन मत्य बचन मुम्ब पान। भूषण नदि त ऊ तन मडिन. यात मन्नपुरूष परधान || २७॥
भवारण्यं मुक्या यदि जिगमिषुर्मुनिनगरी : तदानी मा काविषयविपवृषु वमतिम । : यतश्छायाप्यषां प्रथयति महामोहमचिग
दयं जन्तुर्यम्मान्पदपि न गन्तुं प्रभवति ॥ १.८ ॥ नोट-नीचं लिये नीन मा. मुरको नामले
घनाक्षरी। गहै जे सुजन रीत गुणीमों निवाहै प्रीन,
मवा मांध गुरुकी विनसों कर जोरकै ।
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1 इस मूल भोकका भाषानुवाद किसी भी प्रतिमें नहीं है। Warrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrr
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बनारसीविलासः विद्याको विसनधरै परतिय संग हरें,
दुर्जनकी संगतिसों बैठे मुख मोरकै ।। त लोकनिन्ध काज पूर्जे देव जिनराज, ___ करें जे करन थिर उमंग बहोरकै । तई जीव सुरखी होय तेई मोख मुखी होंय,
तेई होंहि परम करम फन्द नोरके ॥ १ ॥ पनिन्दा त्याग कर मनमें वैगग धर, ___ क्रोध मान माया लोभ चारों परिहा रे ॥ हिरदम तोप गहु मम नामों मीगे रहु, ___घरमको भेद लहु ग्वदमें न पर रे ॥ कम्मको वंश ग्वाय मुकतिको पन्थ जोय,
मुनिको बीजयीय दुर्गानमा डर रे । अंग् नर एसो होहि बार बार कहूं तोहि, नहि नो मिधार → निगोद नंगे घर रे ॥ २॥
३. मात्रा संवैया छन्द । .. आलम त्याग जाग नर चेतन. बर संभार मत करहु विलंब ।
हा न मम्ब लवलेश जगनहि. निब विरष लगै न अंब ॥ नात नं अतर विपक्ष हर. कर विलक्ष निज अक्षकदंब । गह गुन ज्ञान बैट चारितरथ, देहु मोष मग सन्मुख बंब ॥३॥
मालिनी। 3 अमजद जितदेवाचार्यपहोदयादि.
घुमणिविजयसिंहाचार्यपादारविन्दे ।
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जैनमन्थरत्नाकरे
Vilom sha
मधुकरसमतां यस्तेन सोमप्रभेण
व्यरचि मुनिपनेत्रा सूक्तिमुक्तावलीयम् ॥ ९९ ॥
५२
कवित्त छन्द ।
जैन वंश सर हंस दिगम्बरः मुनिपति अजितदेव अति आरज । ताके पद वादीमदभंजन; प्रघंटे विजयसेन आचारज || ताके पट्ट भये सोमप्रभः तिन ये ग्रन्थ कियो हित कारज | जाके पढत सुनत अवधारत. है सुपुरुष जे पुरुष अनारज॥९९॥
इन्द्रवजा
सोमप्रभाचार्यमभा व लोके वस्तु प्रकाशं कुरुते यथाशु | तथायमुश्चरूपदेशलेशः शुभोत्सवज्ञानगुणांस्तनोति ॥ १०० ॥ भाषाग्रन्थकर्त्ता की ओरसे नामादि.
,
दोहा छंद |
नाम सूक्तिमुक्तावली: द्वाविंशति अधिकार ।
ठान लोक परमान सवः इति ग्रन्थविस्तार ॥ १ ॥ sarve वनारसी: मित्र इकचिन ।
तिनहि अन्य भाषा कियो बहुविध इक्यानवः ऋतु श्रीषम वैशाख ।
:
सोमवार एकादशी: करनछत्र मिन पाय || ३ ॥
कवि || २ ॥
इनि वसीमनाचा रचिता निन्दरप्रकरापरपर्यायानुवरी भाषान्दानुवादसहिता समाप्ता ।
१ इस लोकका नाया छ मा नहिीं मिला.
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6
लीजिये-जैनप्रन्धरत्नाकरमें छपेहुये रन. पहिला रन-'ब्रह्मविलास' है. मूल्य 1) डॉ. खर्च कि यह प्रन्य भैया भगवतीदासजीकृत प्राचीन हिंदी कविताका है. इसमें ll छोटेमोटे ६७ अन्य (विषय) है. इसका दूसरा नाम भगवतीवि-18
लास भी हैं. सुंदर टाईपसे छपा ३०६ पृष्ठका अन्य है. Sai दूसरा रन-दौलतविलासप्रथमभाग है. मूल्य || डा)
इसमें कविवर पं० दौलतरामजीकृत उत्तमोत्तम स्तुति उपदेशी व 10 आध्यात्मिक पद, छहढाला और जकडियोंका संग्रह है. इसके दर्शन दुर्लभ थे हमने बडे परिश्रमसे संग्रह करके शुद्धतापूर्वक छपाये हैं. तीसरा रन-'स्वामिकार्तिकेशानुप्रेक्षा' है मूल्य १॥
यह अतिशय प्राचीन वैराग्योत्पादक प्रन्थ है. जैनधर्मके सब वि- अषय इसमें हैं. ऊपर गाथा उसके नीचे मस्कृत छाया और उसके | SA नीचें पडित जयचन्द्रजीकृत मनोहर भाषादीका और भावार्ष है. बडे बडे दोसी पृष्टका जिल्द बधा प्रन्थ है डाकखर्च ।। लगंगा.
शंथा रन-'आमपरीक्षा' मूल है. मूल्य ) डा. म. ॥ पांचवां रम-'आप्तमीमांसा' मूल है. मूल्य ४) डॉ० ॥
छहा रग-रनकरण्डश्रावकाचार' है. मूल्य ।) डॉ ju Ka सातवां रन-बनारसीविलास है. मृत्य १॥) डाक मर्च )
यह रन कविवर बनारसीदासजीके जीवनचरित्रमाहत छप रहा है.
आठवां रन-द्वादशानुप्रेक्षा भाषाटीकामहिन है. यह ॐ श्रीशुभचन्द्राचार्यविरचिन ज्ञानार्णवप्रन्थमेका दूसग अन्याय है. इसमें | १९२ संस्कृत श्लोक है. पडित जयचन्द्र जीकृत भाषाटीकासहित बारह
भावनाका बहुत ही उत्तम प्रन्थ है. मूल्य 1) टांक सर्च ST मिलनेका पना-पत्रालाल जैन, मालिक जैनग्रन्थरमाकर कार्यालय,
पोष्ट-गिरगांव, बमो.
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श्रीपरमात्मने नमः राजर्षिरमोघवर्षकृता प्रश्नोत्तररत्नमालिका।
SeceasencessCRIBEOSRCERasad
जिसको वेरनीनिवासी श्रीयत जिनवरदासने
भाषानुवादित किया
मुम्बईके-जैनप्रन्थरलाकर कार्यालयने ।
मुम्बईके श्रीगणेश प्रिंटिंग प्रेसमें छपाकर
प्रसिद्ध किया भारनिर्वाण संवत् ११४। ईसवी सन् १९.८ । प्रथमवार १... प्राप्ति ] [ मूल्य को पाने ।
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भूमिका |
यह छोटीसी पुस्तक इस लिये प्रकाशित की जाती है कि हमारे समाज के लोगों में विशेषकर बालक गणोंमें इसे कंठ करनेकी प्रवृत्ति हो जावे । बालकगण इसे कंठाम रखकर यदि परम्पर प्रश्नोत्तर किया करेंगे, तो विनोदके साथ २ अमूल्य २ शिक्षाओंका लाभ भी होगा । महाराज अमोघवर्षकी प्रश्नोतररत्नमालाके सिवाय उपयोगी समझकर एक अजान विद्वानकी बनाई हुई प्रश्नोत्तरमाला भी इसमें संग्रह की जाती है । ये दोनों मालायें कुछ दिन पहले जैनमित्रमें पं० लालारामजीके द्वारा सार्थ प्रकाशित हो चुकी हैं । हम उन्हें कुछ फेरफारके साथ ढंग बदलकर प्रसिद्ध करते है । आशा है कि हमारा ढंग पाठकोंको रुचिकर होगा ।
प्रश्नोतररत्नमाला कर्त्ता राष्ट्रकुटवंशीय राजा अमोघवर्ष हैं जो कि परम दिगम्बर जैन थे। आदि पुराणके कर्त्ता भगवजिनसेनाचार्य उनके गुरु थे । इस विषय में हम यहां स्वयं कुछ न लिखकर जैनमित्रके अंक ३ वर्ष ८ में श्रीनाथूराम प्रेमीका लिखा हुआ जो लेख प्रकाशित हुआ है, उसका अन्तिम भाग उद्धृत कर देते हैं। इससे पाठकोंको इस छोटीसी किन्तु अपूर्व पुस्तकका सविशेष परिचय मिलेगा ।
सरस्वती सेवक:-- जिनवरदास गुप्त ।
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प्रश्नोत्तररत्नमाला और राजा अमोघवर्ष ।
यह प्रश्नोचररत्नमाला एक २९ श्लोककी छोटीसी कविता है । परन्तु ऐसी मुन्दर और मनोहर है कि, इसे रत्नमाला कहनेमें कुछ भी संकोच नहीं होता । प्रत्येक धर्मके अनुयायी इसके उपदेशापर प्रसन्नतास चल सकते हैं । इसका एक एक श्लोक अमूल्य है । .. अच्छी वस्तुका म्वामी हर कोई बनना चाहता है " इस न्यायम आज इमकं चार मतवाले म्वामी बनाना चाहते हैं। १शंकराचार्य के अनुयायी. २ शुकदेवके अनुयायी. ३ श्वेताम्बरी और ४ दिगम्बरी । इनमम पहले दोके अनुयायियोंने तो इसमें अपने मतके पुष्ट करनेवाले छह मान शाके नये बनाकर मिला दिये हैं
और मंगलाचरण और प्रशस्निके आदि अन्तके दो श्लोक निकाल दिय है । परन्तु ऊपग्मे मिलाये हुए श्लोक ग्लोंमें कारखंडकी वरह पृथक् जान पड़ते हैं। यह सम्पूर्ण ग्रन्थ आर्याछन्दमें है पंरतु मिलाय हुए लोक वसन्ततिलका छन्दमें है. यह बात विचाणीय है । इसम जान पड़ता है कि. उक्त श्लोक पीछेसे कीमीन
१ सेन्यं मदा किं गुरुवेदवाक्यं ॥ ॥ कार्या प्रिया का शिवविष्णु भक्तिः .. ||}! किं कर्म कृत्वा नहि गोचर्नायं, कामारिक मारि ममर्चनाख्यम् ॥ २०॥ उपस्थिते प्राणहरे कृतान्ते किमाशु कार्य सुधिया प्रयत्नात । वाक्कायचितैः सुखदं यमनं मुगरिपादम्बुजमेव चिन्त्यम् ॥ २४ ॥ .... कि कर्म यत्प्रीतिकरं मुगरेः ... ॥ ३०॥
२ प्रणिपत्य वर्धमान प्रश्नोत्तररत्नमालिकां वक्ष्ये । नागनरामरवन्य देवं देवाधिपं वीरम् ॥ १ ॥
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( ४ )
मिला दिये हैं परंतु मिलानेवालेने बड़ी गलती की है कि, उनको आर्याछन्दमें नहीं बनाया । प्रशस्तिके लोकके स्थानमें दोनोंने ये रक्खा है, जिससे भी आभास होता है कि, इसमें जालसाजी की गई हैं । यदि शंकराचार्य और शुकदेव ही यथार्थ बनानेवाले होते. तो वे इस छोटीसी कवितामें अपना नाम पद्यही देते.
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में देनेकी आवश्यकता नहीं थी । क्योंकि ऐसी कविताओं में जिन्हें कि लोग कंठस्थ रखते हैं, गद्यमें लिखनेकी परिपाठी कम है । तीसरे अधिकारी श्वेताम्बरी भाई हैं वे इसे अपने आचार्य विमलदाससूरिकी बनाई हुई बतलाते हैं और प्रशान्तिमें नचे लिम्ब हुआ लोक पढते हैं.
चिता सितपटगुरुणा विमला विमलेन रत्नमालेव । प्रश्नोत्तरमालेयं कंठगता किं न भूषयति ॥
इस प्रतिके सिवाय उनके पास और कोई प्रमाण श्वेताम्बरीब आचार्यकी कृति सिद्ध करनेका नहीं है। शेष २८ लोक व ज्यांक त्यो मानते है। आचार्य विमलदास कब हुए, उन्होंने कॉन २ अन्ध बनाये और उन ग्रन्थोंमें उन्होंने इस कविताका जिकर
१ इति श्रीमच्छङ्कराचार्यविरचिता प्रश्नोत्तरमाला समाप्ता । ( राजा राजेन्द्रलालमित्र संग्रहीत हस्तलिखित संस्कृतपुस्तकोंकी सूचि जिल्द २ पृष्ट ३५५ और बम्बईकी छपी हुई अनेक आवृत्तियां )
इति श्रीशुकयतीन्द्रविरचिता प्रश्नोत्तरमाला समाप्ता । ( बंगाल एशियाटिक सुसायटीका जनरल, जिल्द १६ भाग २ पृष्ट १२३५) २ इंडियन एण्टिकेरी जिल्द १९ पृष्ठ ३७८ और काव्यमाला सतगुच्छक पृष्ट १२३ ।
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किया है कि, नहीं इसका संतोषप्रद उत्तर श्वेताम्बरी भाइयोंकी ओरसे नहीं मिलता।
चौथे अधिकारी दिगम्बरी भाई हैं। वे प्रशस्तिमें निमलोक पढते है:विवेकात्त्यक्तराज्येन राज्ञेयं रत्नमालिका । रचितामोघवर्षेण मुधियां सदलंकृतिः ।। २० ॥
अर्थात् विवेकसे जिसने राज्य छोड़कर दीक्षा ले ली है, ऐसे राजा अमाधवर्षने यह विद्वानोंके लिये सुन्दर आभूषणरूप रस्नमाला बनाई है। । अब यह विचार करना चाहिये कि. राजा अमोघवर्ष कौन था और कब हुआ । प्राचीन इतिहासोंके देखनेसे जाना जाता है कि. अमोघवर्ष यह नाम नहीं किन्तु पदवी थी. दक्षिणमें राज्य करने वाले राष्ट्रकूटवंशक ( राठौरवंशक ) चार राजाओंने और मालवेके परमार वंशीय राजा मुंजने धारण की थी। इनमें राठौर राजा अमोघवर्ष प्रथम और परमार गजा मुंज ये दो ही विद्वान् और कवि अं. शेष नीनके विद्वान होनमें कोई प्रमाण नहीं मिलता है और उनमम किमीने भी छह वर्षसे अधिक राज्य नहीं किया ।
परमार राजा मुंज जिसका दूसरा नाम वाक्पतिराज भी था. प्रसिद्ध गजा मांजका पितृव्य ( बड़ा काका ) था और उसकी मभाम अमितगति ( धर्मपरीक्षा--सुभाषितरलसंदोह-श्रावकाचार आदि जैनग्रन्थोंके कर्ता ), धनपाल (तिलकमंजरी महाकान्यक
१ इंडियन एण्टिकेरी जिल्द १९ पृष्ट ३७८ बम्बई गेनेटिअर जिल्द ? भाग २ पृष्ट २०१ और दिगम्बरीय भंडारोंकी अनेक प्रतियां।
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कर्ता श्वेताम्बरीय ), पनगुप्त धनंजय ( दशरूपकके कर्ता ), पनिक, हलायुध, आदि अनेक विद्वान् थे। यह स्वयं विद्वानथा परन्तु सुभाषितावली आदि ग्रन्थोमें थोड़ेसे श्लोकोंके सिवाय और कोई स्वतंत्र प्रन्य उसका आजकल नहीं मिलता है । हो सकता भ, कि प्रश्नोत्तररत्नमालाके कर्ता यही हों, परन्तु प्रशस्तिके श्लोकमें जो " विवेकमे राज्य छोडनेवाले " ऐसा पद दिया है. वह इसके विषयमें घटिन नहीं हो सकता। क्योंकि यह राज्य छोड़के दीक्षित नहीं होने पाया था और कल्याणके चालुक्य ( सोलंकी ) राजा तैलपपर चढाई करनेके समय केद होकर मारा गया था । अतएव प्रश्नात्तररत्नमालाका कर्ता मुंज नहीं हो सकता। ___ अब गएकटवंशीय प्रथम अमोघवर्षके विषयमें विचार कीजिये । यह दक्षिणके वनवास देशका गजा था और बंकापुर इमकी राज धानी थी। यह बड़ा भारी विद्वान् थी और कविगज इसकी उपाधि थी । इसका बनाया हुआकविराजमार्ग नामका एक अलंकारग्रन्थ कर्णाटकी भाषामें मिलता है । इसने ६० वर्ष लगभग गज्य करके अपने पुत्र कृष्णराजको (अकालेवर्षको राज्य देकर जिनदीक्षा ले ली थी।
, वंकापुरे जिनेन्द्राधि सरोजे दिन्दिरोपमः । अमोघवर्षनामा न्महागजा महोदयः ।। ( पाश्चाभ्युदयकान्यकी मुबोधिका टीका । )
२ अकालवर्ष शक संवत् ६२० में जब कि जिनमनके शिष्य श्रीगुणभद्राचार्यने उत्तर पुराण बनाया था. विद्यमान था । उन्होंने उत्तर पुगणकी प्रशस्तिमें लिम्बा है:----
अकालवर्षभपाले, पालयत्यखिलामिलाम् । तम्मिन् विध्वस्तनिःशेषद्विषि वीभ्रयशोजुषि । बनवासदेशमाखलं भुन्नति निष्कण्टकं सुखं मुनिग्न् । तपितृनिजनामकृते ख्याते बडापुरेष्वाधिक ॥
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जिनधर्मका यह परमभक्त था। आदि-पुराणके कर्ता भगवान् जिनसेनाचार्य इसके गुरु थे। कहते हैं कि, महाराज कुमारपालके समयमें श्वेताम्बरियोंका जैसा अभ्युदय भीहेमचन्द्राचार्यके कारण हुआ था, महाराज अमोववर्षके समयमें उससे भी कहीं बढकर अभ्युदय दिगम्बरियोंके भगवजिनसेनाचार्यके प्रमावसे हुआ था।
मेघदूतकाव्यकर्ता कालिदासने इसी अमोघवर्षकी समामें जाकर अपने काव्यका गर्व किया था, जिसे दलित करनेके लिये भगवजिनमेनजीने पार्थाभ्युदयकाव्य बनाया था। यह काव्य ऐसा अपूर्व
और चमत्कारकारि बना है कि, इसे पढकर विधगिण भी वाह २ करने है । इसमें मेघदत काव्य पूगका पूरा वेष्टित है। कालिदास इसे सुनकर निष्प्रभ हो गया था।
इसप्रकार गठौर महागज अमोघवर्षके विषयमें दोनों बातें सिद्ध होती हैं, एक तो यह कि वे स्वयं विद्वान् और विद्वानोंका आदर करनेवाले थे. और दूसरे उन्होंने विवेकसे राज्य छोड़कर जिनदीक्षा ले ली थी। इसमे निश्चय होता है कि, प्रभोत्तरत्नमालाके कर्ता ये ही अमोघवर्ष थे। परन्तु इतना कहनेसे ही हमारे विद्वान् पाठक कदाचित् इस बातपर विश्वास कर सकेंगे। इस लिये एक अत्यन्त पुष्ट प्रमाण उनके सन्मुख उपस्थित किया जाता है । वह यह कि, ईम्ची सनकी म्यारहवीं शताब्दीके पूर्वाधर्म प्रश्नोत्तररत्नमालाका तिब्बती भाषामें एक अनुवाद हुआ है उसमें लिम्बा है कि, यह अन्य बडे राजा अमोपवर्षने संस्कृतमें बनाया था और हमारे (दिगम्बरजैन ) भंडारमें मिली हुई. पुस्तकोंमें भी यही लिम्बा हुआ है । इससे अमोलवर्ष दिगम्बर जैनधर्मका अनुयायी था और उसीन इस पुस्तकका निर्माण किया था, इसमें अब कोई सन्देह बाकी नहीं रहा है। धन्यवाद है उस तिब्बती अन्यकर्ताको जिसने एक विदेशी भाषामें अनुवादकरके भी मूल
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(८)
अन्यका नाम देनेकी आदरणीय उदारता दिखलानेमें श्रुटि नहीं की आज उसीकी उदारतासे हमको यह निश्चय करनेका पुष्ट प्रमाण मिला है कि, यह ग्रन्थ यथार्थमें किसका है। अन्यथा जो जिसक जीमें आता था कहता था । महाराज अमोघवर्षका राज्याभिषेक शक संवत् ७३७ (विक्रम संवत् ८७२ ) में हुआ था । शक संवत् ७९७ (विक्रम संवत ९३२) से पूर्व उन्होंने राज्य छोड दिया था। और ७९९ (वि० संवत ९३४ ) तक वे विद्यामान थे। इसके पछेि किसी समयमें उनका देहान्त हुआ होगा। ऐसा प्राचीन लेखों
और ताम्रपत्रोंसे निश्चित हुआ है। अतएव यदि राज्य छोडनके पश्चात् मुनि अवस्थामें उन्होंने प्रश्नोत्तरलमाला बनाई हो तो उसका समय विक्रम संवत् ९३२ के लगभग स्थिर हो सकता है । __उपसंहारमें हम उन महाशयोंसे जो प्रश्नोत्तररत्नालाके अधिकारी बनते हैं, प्रार्थना करते हैं कि, महाराज अमोघवर्षने प्रश्नोत्तररत्नमाला जगत्के उपकारके लिये बनाई है उसके उपदेशसे लाभ उठानेका ठेका किसी एक सम्प्रदायको नहीं है । इस लिये आप सब लोग प्रसन्नतासे उसका पाठ कीजिये छपाइये परन्तु किसीकी कृतिको नष्ट करके उसके अपना व अपने आचार्योका स्वत्व स्थापित करना बुद्धिमानोंका कर्तव्य नहीं है । इसलिये जिस रूपमें वह है उसी रूपमें पठनपाठनमें लाइये अन्यथा आपके कारण आपके आचार्योंको इस श्लोकका निशाना बनाना पड़ेगाःकृत्वा कृती: पूर्वकृता पुरस्तात्मत्यादरं ताः पुनरीक्षमाणः । तथैव जल्पेदध योऽन्यथा वा स काव्यचोरोऽस्तु स पावकी च ।।
इत्पलम् विस्तरण . ( यशस्तिलकचम्पुकाव्ये ) चन्दाबाड़ी ) ६-११-०६।
नाथूराम प्रेमी।
धर्मसेवक--
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९.
श्रीमद्राजर्षिरमोघवर्षकृता ।
प्रश्नोत्तररत्नमालिका |
आर्या ।
प्रणिपत्य वर्धमानं प्रश्नोत्तररत्नमालिकां वक्ष्ये । नागनरामरवन्द्यं
देवं देवाधिपं वीरम् ॥ १॥
भवनवासी कल्पवासी देव - और मनुष्योंकरके बंदनकि, देवाधिदेव वर्धमान श्रीवीरनाथ अर्हन्तदेवको नमस्कार करके मैं ( अमोघवर्ष ) इस प्रश्नोत्तररत्नमालिकाको कहता हूं ॥ १ ॥ कः खलु नालंक्रियते दृष्टादृष्टार्थसाधनपटीयान् । कण्ठस्थितया विमलप्रश्नोत्तर - रत्नमालिकया ॥ २ ॥
प्रत्यक्ष और आगमकथित पदार्थोंकें जाननेमें चतुर ऐसा कौन पुरुष है, जो कंठमें धारण की हुई निर्मल प्रश्नोत्तररत्नमालाके द्वारा अपनेको अलंकृत न करे ? अर्थात् कोई नहीं । भावार्थइस रत्नमाला धारण करनेसे सभी श्रृंगारित होंगे ॥ २ ॥
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(२)
व:
भगवन् किमुपादेयम् ___ गुरुवचनं हेयमपि च किमकार्यम् । को गुरुरधिगतत्त्वः
सत्वहिताभ्युद्यतः सततम् ॥ ३॥ १ प्रभ-( भगवन् उपादेयं किम्- ) हे भगवन् उपादेव ( ग्रहण करनेयोग्य ) क्या है ? उत्तर-(गुरुवचनम् ) गुरुके वचन। २ प्रश्न-हेयमपिच किम्-) और हे अर्थात् त्याग करने योग्य क्या है ? उत्तर-(अकार्यम्-) अकार्य (निन्द्यकार्य) ।३ प्रश्न-(को गुरु:) गुरु कौन है । उत्तर-(अधिगततत्त्वः सत्वहिताभ्युद्यतः सततम) जो निरन्तर ही प्राणियों के हित करनेमें उधत हो और जो सम्पूर्ण तत्त्वोंका यथार्थ ज्ञाता हो ॥ ३ ॥
त्वरितं किं कर्तव्यं
विदुषा संमारसंततिच्छेदः। किं मोक्षतरो/जं
सम्यग्ज्ञानं क्रियासहितम् ॥ ४ ॥ ४ प्रश्न-विदुपा त्वरितं कि कर्तव्यं) विद्वान् पुरुषोंको कौनमा कार्य शीघ्र ही करना चाहिये । उत्तर--( संसारसन्नतिच्छेदः । संसारपरंपगका छेद अर्थात् जन्ममरणरूपी परिभ्रमणका नाश शीघ्र ही करना उचित है । ५ प्रश्न-(मोक्षतरोः बीजं किं) मोक्षरूपी वृक्षका बीज ( कारण ) क्या है ? उत्तर-(क्रियासहितं सम्यासानं) सम्यकचारितसहित सम्यम्झान है। सम्यग्दर्शन और सम्यमान
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( ३ ) दोनों सहभावी हैं । बिना सम्यग्दर्शनके सम्यग्ज्ञान नहिं हो सक्ता इसलिये सम्यग्नानके कहनेसे सम्यग्दर्शनको भी सूचितकर दिया अतः सम्यग्दर्शन, समज्ञान, और सम्यक्चारित्र ये तीनों मिलकर मोक्षतपी वृक्षक बीज हैं ॥ ४ ॥
किं पथ्यदनं धर्मः
कः शुचिरिह यस्य मानसं शुद्धम् । कः पण्डितो विवेकी
किं विषमवधीरिता गुरवः ॥ ५ ॥ ६ प्रश्न--पथिअदनं किं ) पग्लोककी यात्रा करनेवाले जीवोंको मार्गके लिये पाथेय ( कलेवा ) क्या है ? उत्तर-(धर्मः ) एकधर्म । ७ प्रश्न ( कः शुचिः इह ) इस संसारमें शुद्ध कौन है ? उत्तर-- ( यस्य मानसं शुद्धम् ) जिसका चित्त शुद्ध है । ८ प्रश्न-(क: पण्डितः ) पण्डित कौन है । उत्तर--(विवेकी) जिसको हित अहितका विवेक है । ९ प्रश्न (किं विषमं ) विष क्या है । उत्तर( अवधरिता गुरकः) तिरस्कार किये हुए गुरु अर्थात् गुरुओंका तिरस्कार करना सो विष है ।। ५॥ . किं संसारे सारं
बहुशोपि विचिन्त्यमानमिदमेव । मनुजेषु दृष्टतत्वं
खपरहितायोद्यतं जन्म ॥ ६॥ १. प्रा-(कि संसारे सारं ) इस संसारमें सार क्या है। उत्तर
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( ४ )
( बहुशोऽपि विचिन्त्यमाना मैदमेव मनुजेषु त्वं स्वपरहिताबोधतं जन्म ) मनुष्ययोनिमें ऐसा जन्म लेना कि, जिसमें - सम्पूर्ण तस्वोंको देखा और पढ़ा हो तथा जो अपने और दूसरोंके हितमें सदा उद्यत हो यही सार है सो बहुत बार विचार कर आचार्योंने निश्चय कर कहा है ॥ ६ ॥
मदिरेव मोहजनकः
कः स्नेहः के च दस्यवो विषयाः । का भववल्ली तृष्णा
को वैरी नन्वनुद्योगः ॥ ७ ॥
११ प्रश्न - ( मदिरेव मोहजनकः कः ) मदिराके समान मोहको उत्पन्न करनेवाला कौन है । उत्तर - ( स्नेहः ) स्नेह-प्रेम वा मोह । १२ प्रश्न - ( के च दस्यवः) इसजीवके रत्नत्रयोंका चौर कौन है । उत्तर- ( विषयाः ) इन्द्रियोंके विषय हैं । १३ प्रश्न- (का भगवती ) संसारके बढानेवाली बेल कौन है। उत्तर- (तृष्णा) योगोंकी आशा । १४ प्रश्न- ( को बैरी) जीवका शत्रु कौन है। उत्तर- ( नन्वनुद्योगः ) उद्योग न करना ही निश्वमसे इस जीवका बैरी है ॥ ७ ॥
कस्माद्भयमिह मरणादन्धादपि को विशिष्यते रागी ।
कः शूरो यो ललना
लोचनबाणैर्न च व्यथितः ॥ ८ ॥
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१५ प्रम-(कत्मादपबिह) इस संसारमें भय किससे होता है) उत्तर-(मरणात्) मरणसे। १६ पन-(अधादपि को विशिष्यते । नेत्रान्धसे भी अधिक बन्धा कौन है उत्तर-(रामी) रागयुक्त जीव । १७ प्रभ-( शरः) शूरवीर कौन है । उत्तर-(यो सलनालोच. नवागनं च व्यषितः) जो पुरुष स्त्रीके चंचल नेत्रोंके कटाक्षबाणोंसे व्यथिन नहीं हुआहै ॥ ८॥
पातुं कर्णाअलिभिः
किममृतमिव बुध्यते सदुपदेशः। किं गुरुताया मूलं
यदेतदमार्थनं नाम ॥ ९॥ १८ प्रश्न--(पातुं कर्माभिमः किममृतामेव बुध्यसे) कर्णरूपी अंजुलिसे अमृत के समान पीनेयोग्य क्या पदार्थ है । उत्तर-(सदुपदेशः) मे उपदेश । १९ प्रश्न-(किं गुरुताया पूलं ) गुरुताकी ( गम्भीरताकी ) जड क्या है । उत्तर-(यदेतदमार्वनं नाय) जो अपने लिये किसीसे वाचना नहिं करना वही गुरुता है ॥ ९ ॥
किं गहनं स्रीचरितम्
कश्चतुरो यो न खण्डितस्तेन । किं दारिद्यमसन्तो
पएव किं लाघवं याचा ॥१०॥ २० प्रभ-(किमान) गहन दुर्गम कठिनतासे जानने योग्य
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विवेकी कौन है । उत्तर-(यो न पण्डितस्तेन ) जो उन खियोंके चरित्रसे खाण्डत नहीं हुआ वही चतुर-विवेकी है । २२ प्रश्न-कि दारिद्रयम् ) दारिद्य क्या है। उत्तर-(असंतोष एव) सन्तोष न करना ही दरिद्रता है। २३ प्रश्न-(किं लापर्व) लघुता क्या है । उत्तर-(याआ) अपने लिये ही याचना (किसीसे मांगना) परम लघुता है ॥ १० ॥
किं जीवितमनवा
किं जाड्यं पाटवेऽप्यनभ्यासः । को जागर्ति विवेकी
का निद्रा मूढता जन्तोः ॥ ११ ॥ २४ प्रभ-(किं जीवितं ) संसारमें जीवित क्या है । उत्तर-- ( अनवचं ) पापरहित जर्जाना ही जीवन है । २५ प्रश्न-किनाव्यं) मूर्खता क्या है । उत्तर-(पाटवेऽप्पनभ्यासः ) चतुर होनेपर भी अभ्यास न करना सो मूर्खता है। २६ प्रभ-(को जागतिः ) संसारमें कौन जागता है। उत्तर-(विवेकी ) जो बुद्धिमान है वही जागता है। २८ प्रश्न-(का निद्रा ) निद्रा क्या है। उत्तर(मूढता जन्तोः) मनुष्योंकी मूढता ही बडी निद्रा है ॥ ११ ॥
नलिनीदलगतजललव
तरलं किं यौवनं धनमथायुः । के शशधरकरनिकरा
नुकारिणः सबना एवः ॥ १२ ॥
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( ७ )
२८ प्रश्न - ( नलिनीदलगत चळवतरलं किं ) कमलिनीके पतपर पडे हुये जलबिंदुके समान चंचल क्षणभंगुर क्या है ? उत्तर( यौवनं धनमथायुः ) ) यौवन, धन, और आयु ये तीनों ही क्षणस्थायी है । २९ प्रश्न - ( के शशधरकरनिकरानुकारिणः ) चंद्रमाके किरणसमूहके अनुकरण करनेवाले चंद्रमाके समान शीतल और सुखद कौन है। उत्तर - ( सज्जना एव) सज्जनपुरुष ॥ १२ ॥ को नरकः परवशता किं सौख्यं सर्वसंगविरतिर्या । किं सत्यं भूतहितं
किं प्रेयः प्राणिनामसवः ॥ १३ ॥
३० प्रश्न - - ( को नरकः ) नरक क्या है। उत्तर- ( परवशता ) परतन्त्र रहना ही नरकनिवास है । ३१ प्रश्न - ( कि सौख्यं ) सुख क्या है। उत्तर- (सर्व संगविरतिर्या) समस्तपरिग्रह छोडकर आत्मामें लीन होना सुख है । ३२ प्रश्न - ( किं सत्यं) सत्य क्या है । उत्तर--(भूतहितं) जीवोंका हित करना ही सत्यता है । ३३ प्रश्न(प्रेियः प्राणिनाम्) प्राणियोंके प्रिय क्या है । उत्तर- ( असवः ) प्राण ही सबसे प्रिय है ॥ १३ ॥
1
किं दानमनाकाङ्क्ष किं मित्रं यन्निवर्त्तयति पापात् । कोऽलङ्कारः शीलं
किं वाचां मण्डनं सत्यम् ॥ १४ ॥
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(८) ३४ प्रश्र-(कि दानं) दान क्या है। उत्तर-(अनाकासं) जो किसीप्रकारकी आकांक्षासे न किया जावे वही दान है । ३५ प्रम(किमि) मित्र कौन है । उत्तर-(यनिवर्तयति पापात् ) जो पापसे रक्षाकरे वही मित्र है । ३६ प्रश्र-(कोऽलंकारः) अलंकार-(भूषण) कौन है । उत्तर-(शीळं) शील-(ब्रह्मचर्य) ही मनुष्यका भूषण है। ३७ प्रश्न-(किं वाचां मण्डनं) वाणीका भूषण क्या है। उत्तर(सत्यम्) सत्य ही वाणीका भूषण है ।। १४ ।।
किमनर्थफलं मानस
मसङ्गतं का सुखावहा मैत्री। सर्वव्यसनविनाशे
को दक्षः सर्वथा त्यागः ॥ १५ ॥ ३८ प्रश्न-(किमनर्यफलं ) अनर्थका फल क्या है। उत्तर -- (मानसमसंगतं) मनकी असंगता होना ही अनर्थका फल है। ३९ प्रश्न-(का मुखावहा) सुखदेनेवाली क्या वस्तु है । उत्तर-(मैत्री) सर्व जीवोंसे मित्रता ही मुखदेनेवाली है । ४० प्रभ-(सर्वव्यसन विनाचे को दसः) समस्त व्यसनोके (दुःखोंके) नाश करनेमें चतुर कौन है । उत्तर-(सर्वया त्यागः) परिग्रह आदिका सर्वथा त्याग करना ही सब व्यसनोंको नाश करनेवाला है ॥ १५ ॥
कोन्यो यो कार्यरतः
को बधिरो यः शृणोति न हितानि ।
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(९) को मूको यः काले
प्रियाणि वक्तुं न जानाति ॥ १६ ॥ ४१ प्रभ-(कोऽधः) अन्धा कौन है । उत्तर-(योऽकार्यरतः) नो निन्द्यकाम करनेमें तत्पर हों। ४२ प्रश्न-(को बधिरः) बहिग कौन है । उत्तर-(यःशृणोति न हितानि) जो अपने हितकार्ग बचनोंकी नहीं सुनता है । ४३ प्रभ-(को मूकः) गूगा कौन है । उत्तर-(यः काले मियाणि वस्तुं न जानाति) जो ममयपर मिष्ट वचन कहना नहीं जानता है ॥ १६ ॥
किं मरणं मूर्खत्वं
किं चानयं यदवसरे दत्तम् । आमरणार्कि शल्यं
प्रच्छन्नं यत्कृतमकार्यम् ॥ १७ ॥ ४४ प्रश्र-(कि मरणं ) मरण क्या है। उत्तर ( मूखत्व ) मुखता । ४५ प्रश्न-(किंचानर्थ्य ) अमूल्य क्या है । उत्तर( यदवसरे दरम् ) समयपर दिया हुवा दान । ४६ प्रन-(आमर पारिक शल्यं) मरणपर्यंत सूईके समान हृदयमें चुभनेवाला क्या है । उत्तर--(प्रच्छवं यत्कृतमकार्यम् ) जो कुकार्य गुप्तगतिमे किया गया है ॥ १७ ॥
कुत्र विधेयो यत्नो
विद्याभ्यासे सदोषधे दाने ।
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( १० )
अवधीरणा क कार्या खलपरयोषित्परधनेषु ॥ १८ ॥
४७ प्रश्न - ( कुत्र विधेयो यत्नो ) किस विषय में यत्न करना चाहिये । उत्तर- ( विद्याभ्यासे सदौषधे दाने ) विद्याके अभ्यासमें और उत्तम ( शुद्ध ) औषधियोंके दानमें । ४८ प्रश्न - ( अवधीरणा क कार्या) अवहेलना ( निन्दा ) किसमें करनी चाहिये । उत्तर- ( खलपरयोषितपरधनेषु) दुष्ट पुरुष. wear. और परधनमें ॥ १८ ॥
काहर्निशमनुचिन्त्या संसारासारता न च प्रमदा । का प्रेमी विधेया
करुणादाक्षिण्यमपि मैत्री ।। १९ ।।
४९. प्रश्र ( काहर्निशमनुचिन्त्या ) गत दिन क्या चिन्त करना चाहिये । उत्तर - ( संसारासारता न च प्रमदा) संसारकी असारता चिन्तवन करना चाहियें न कि स्त्रीका स्वरूप । ५० प्रश्न - ( का प्रेयसी विधेया) किसको प्रिय बनाना चाहिये । उत्तर( करुणा दाक्षिण्यमपि मैत्री ) दया चतुरता और मित्रताको ।। १९ ।। कण्ठगतैरप्यसुभिः कस्यात्मा नो समर्प्यते जातु । मूर्खस्य विषादस्य च
गर्वस्य तथा कृतघ्नस्य ॥ २० ॥
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( ११ )
५१ प्रश्न - ( कण्ठगतैरप्यसुभिः कस्यात्मानो समर्प्यते जातु ) कंगठतप्राण होनेपर भी किसके अधीन अपनेको नहीं करना चाहिये । उत्तर- ( मूर्खस्य विषादस्य च गर्वस्य तथा कृतघ्नस्य ) मूर्ख पुरुष. विषादयुक्त, अभिमानी और कृतघ्नी पुरुषके ॥ २० ॥
कः पूज्यः सद्वृत्तः
कमधनमाचक्षते चलितवृत्तम् । केन जितं जगदेतत् सत्यतितिक्षावता पुंमा || २१ ||
५२ प्रश्न- ( कः पूज्यः, पूज्य कौन है। उत्तर - ( सदवृत्तः ) श्रेष्ठचारित्र : सम्यक्चरित्र) वान् पुरुष । ५३ प्रश्न- (कमधनमाचक्षते ) धनरहित किसे कहते है । उत्तर चलित वृत्तम् । जो चारित्र ( प्रतिज्ञा ) ने चलायमान है वही निर्धन है । ५४ प्रश्न - (केन जितं जगदेतत् ) जगतको किसने जीता है। उत्तर- ( सत्यतितिक्षावता पुंमा सत्य और शान्तपरिणामवाले पुरुषोंने || २१ ||
}
कस्मै नमः सुरैरपि सुतरां क्रियते दयाप्रधानाय । कस्मादुद्विजितव्यं
संसाररण्यतः सुधिया ॥ २२ ॥
}
५५ प्रश्न ( कस्मै नमः सुरैरपि सुतरां क्रियते वेदना नमस्कार किसको करते हैं। उत्तर- ( दयाप्रधानाय ) जो दयाधर्मके पालन करनेमें श्रेष्ठ है। ५६ प्रश्न- (कस्मादुद्विजितव्यं भय
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(१२)
किससे करना चाहिये । उत्तर-(संसारारण्यतः मुधिया) बुद्धिमान पुरुषको संसाररूपी महा अटवासे ॥ २२ ॥
कस्य वशे पाणिगणः
सत्यप्रियभाषिणो विनीतस्य । क स्थातव्यं न्याय्ये
पथि दृष्टादृष्टलाभाय ॥ २३ ।। ५७ प्रश्न--(कस्य वशे माणिगण!) प्राणीगण किसके वशमें रहते है। उत्तर--(सत्यप्रियभाषिणो विनीतस्य) मत्य तथा प्रिय बोल नेवाले और विनयवान्के । ५८ प्रश्न-(क स्थातव्यं , कहां ठहरना उचित है । उत्तर--( न्याय्ये पथि दृष्टादृष्ट लाभाय ) दृष्ट ( धनादिक ) अदृष्ट (पुण्यादिक) के लाभ के लिये न्यायमागमें ॥२३॥
विद्युदिलसितचपलं
किं दुर्जनसंगतं युवतयश्च । कुलशैलनिष्पकम्पाः
के कलिकालेऽपि मत्पुरुषाः ॥ २४ ॥ ५९.-प्रश्न-(विहिलसितचपलं कि) विजलीकी चमकके समान चंचल क्या है । उत्तर-(दुर्जनसंगतं युवतयब) दुर्जन पुरुषोंकी मंगति और स्त्रियोंका विलास । ६० प्रभ-(कुलझेलनिष्प्रकम्पा: के कलिकालेऽपि) इम कलिकालमें भी कुलाचल पर्वतोंके समान अचल कौन हैं। उत्तर-(सत्पुरुषाः) सजन पुल ॥ २४ ॥
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( १.३ )
किं शौच्यं कार्पण्यं सति विभवे किं प्रशस्यमौदार्यम् । तनुतरवित्तस्य तथा
प्रभविष्णोर्यत्सहिष्णुत्वम् ॥ २५ ॥
६१ प्रश्न - ( किं शौच्यं) खेद करने योग्य क्या है। उत्तर- (कार्पण्य) कृपणता कंजूसी । ६२ प्रश्न- ( - (सति विभवे किं प्रशस्यम् ) विभूतिके होते हुए प्रशंसा करनेयोग्य क्या है। उत्तर- (औदार्यम्) उदारता । ६३ प्रश्न - ( तनुतरवित्तस्य किं प्रशस्यम् ) और जो अत्यंत धनहीन है उसका क्या प्रशंसनीय है। उत्तर- (तथा) वही उदारता । ६४ प्रश्न- ( प्रभविष्णोः किं प्रशस्यं) बलवान् पुरुषोंका क्या प्रशंसनीय है। उत्तर-- ( यत्सहिष्णुत्वं ) सहनशीलता- -क्षमा ॥२५॥ चिंतामणिरिव दुर्लभमिह किं ननु कथयामि चतुर्भद्रम् । किं तददन्ति भूयो विधूततमसो विशेषेण || २६ ||
+
६५ प्रश्न (चिंतामणिरिव दुर्लभमिह किम् ) संसारमें चिन्तामणिके समान दुर्लभ क्या है। उत्तर- ( ननु कथयामि चतुर्भद्रम् ) मैं निश्व यसे कहता हूं कि चार भद्र ही अतिशय दुर्लभ है । ६६ प्रश्न - (कि तद्वदन्ति भूयो विधूततमसो विशेषेण ) जिनका अज्ञान अंधकार नष्ट हो गया है ऐसे महापुरुष उन चार भद्रोंका स्वरूप विशेष रूपमे 'सप्रकार कहते हैं ॥ २६ ॥
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(१४) दानं प्रियवाक्सहितं
ज्ञानमगर्व क्षमान्वितं शौर्यम् । त्यागसहितं च वित्तं
दुर्लभमेतचतुर्भद्रम् ॥ २७ ॥ उत्तर-(दानं प्रियवाक्सहितं ज्ञानमगर्व क्षमान्वितं शौर्यम् । त्याग माहितं च वित्तं दुर्लभमेतच्चतुर्भद्रम् ) मीठ वचनासहित दान. गर्वहित ज्ञान क्षमासहितशूरता और दानमहित धन य चार भद्र ( कल्याण ) अतिशय दुर्लभ है ।। २७॥
उपसंहार । इति कण्टगता विमला
प्रश्नोत्तररत्नमालिका येषां । ते मुक्ताभरणा अपि
विभान्ति विद्वत्ममाजेषु ।। २८ ।। अर्थात जिन पुरुषाके कटमें यह निमल प्रश्नानरूपी रत्नाकी माला रहती है वे मुक्ताभग्ण ( आभग्णरहिन । होनेपर भी अथवा मोतीयांक आभग्ण धारण किये रहनपर भी विद्वानांकी मभाम शाभाको प्राप्त होते है ।। २८ ॥ विवेकात्यक्तराज्येन
राज्ञयं रत्नमालिका।
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(१५) रचितामोघवर्षेण
मुधियां सदलंकृतिः ।। २९ ।। विवेकसे छोटा है गज्य जिसने ऐसे भूतपूर्व गजा अमोघवष माधुने मजनोंक लिय उत्तम भूषणममान यह ग्नमाला रची
श्रीमद्रापिग्मोघवर्षकृता प्रश्नोत्तररत्नमालिका।
समामा ।
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अपरा प्रश्नोत्तररत्नमालिका।
आया । किमिहाराध्यं भगवन्
रत्नत्रयतेजमा प्रतपमानम् शुद्धं निजात्मतत्त्वं
जिनरूपं मिद्धचक्रं च ॥१॥ १. प्रश्न (किमिहागध्यं भगवन् । हे भगवन संमाग्में आगधन करने योग्य कौन है । उत्तर । रत्नत्रयतेजमा प्रतपमान शुद्धं निजात्मतत्वं जिनरूप मिचक्र च । ग्नत्रयके नेजस देदीप्यमान अपना शुद्धात्मतत्त्व. जिनेन्द्रका म्वरुप और सिद्धोंका समूह ॥ १ ॥
को दवा निम्खिलज्ञो
निर्दोषः किं श्रुतं तदुद्दिष्टम् । को गुरुरविषयवृत्ति
निग्रन्थः स्वम्वरूपस्थः ॥ २ ॥ २ प्रश्न - ( का दवः । देव कौन है । उत्तर निखिलझोनिदोषः । जो अठारह प्रकारक दोषाम रहित और सम्पूर्ण पदार्थोंका जानन वाला है । ३ प्रश्न- किं श्रुतम्) शास्त्र कौन है। उत्तर-( तदुरिष्टम् ) जो उक्त निदोष सर्वज्ञदवका कहा हुआ है । ४ प्रश्न-( का गुरुः )
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(१८)
गुरु कौन है । उत्तर-(अविषयत्तिर्निग्रन्यः स्वस्वरूपस्यः) जिसकी प्रवृत्ति विषयोंमें नहीं है तथा जो परिग्रहहित और अपने आत्मस्वरूपमें स्थिर रहता है ॥२॥
किं दुर्लभं नृजन्म
प्राप्यदं भवति किं च कर्त्तव्यम् । आत्महितमहितमंग
त्यागो रागश्च गुरुवचने ॥ ३ ॥ , प्रश्न - कि दल मम । दुर्लभ क्या है। उत्तर । नृजन्म : मनुष्य जन्म । ६ प्रश्न प्राप्यदं भवति किं च कत्तव्यम ) दृम मनु प्य जन्मको पाकर क्या करना चाहिय । उत्तर-- आत्महितमाहित महत्यागा रागश्च गुरुवचन । आन्माका हित, अहितमा परिन हका त्याग और गुम्वचनामें प्रेम करना चाहिये ।। ३ ।।
का मुक्तिरविलकर्म
क्षतिरम्याः प्रापकश्च को मार्गः । दृष्टिर्जानं वृनं
कियत्मुखं तत्र चानन्तम ॥ ४ ॥ ७ प्रदन ( का मुक्तिः ) मोक्ष क्या है । उत्तर - ( मखिलकर्य भतिः ) समस्त कर्मोका नाश होना । ८ प्रश्न ( मस्याः प्रापकच को मार्गः । उसके ( मोक्षकं । प्राम करनेका मार्ग कौन है । उत्तर ५ अष्टिानं वृत्तम् ) सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्रकी
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(१९.)
एकता । २. ( कियत्मुग्वं नत्र च ) और उस मोक्षमें सुख किनना है । उनर - ( अनन्ता ) अनन्न ।। ४ ।।
किं हिंमाया मूलं
कोपः कात्मान्यवञ्चिका माया । कोत्रगुरुष्वपि पूजा
तिक्रमहेतुः खलो मानः ॥ ५ ॥ १० प्रश्न : कि हिंमाया मूलम् . हिंमाका मूल । कारण ) क्या है । उत्तर कोपः क्रोध । 2 प्रश्न कात्मान्यवाञ्चिका आपको और रसगंको ठगने वाली कौन है । उनर माया) माया अर्थान कपट हर ! १२ प्रश्न कात्र गुमध्वपि पूजातिक्रमहेनुः । गुरुजनोंके साकारता उलयन करनेवाला कौन है । उनर--स्खलो मानः : दुष्टमान अर्थात अहंकार ।' , किमनर्थम्य निदानं
लोभः किं मण्डनं च शुचि शीलम् । को महिमा विद्वत्ता
विवेकिता का व्रताचरणम् ॥ ६ ॥ १३ प्रश्न । किमनर्थस्य निदानम् । अनर्थका कारण क्या है पर । लामः । लोभ लालच । १४ प्रश्न: कि मण्डनं च ) और माइन अथात भूषण क्या है! (उचः शुचिशीलम् ) पवित्र ब्रह्मचर्य। १.५ प्रभ' को महिमा ) महिमा क्या है। उत्तर विद्वता ) विद्वत्ता
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(२०)
अथात् पंडिताई । १६ प्रश्न-(विवेकिता का ) विचारशीलता क्या है। उत्तर-( व्रताचरणं ) व्रतोंका आचरण करना, पालन करना ॥६॥
मनसापि किं न चिन्त्यं
परदाराः परधनं परापकृतिः। कीदृग्वचो न वाच्यं
परुषं पीडाकरं कटुकम् ॥ ७ ॥ १७ प्रश्न- मनसापि किं न चिन्त्यम् । मनमे भी किमका चिन्नवन नहीं करना चाहिये । उत्तर । परदागः परधन पराप कति । दूसरी स्त्रीका, दृस के धनका और दुसरेक अपकारका । १८ प्रश्न ( कीदृग्वचो न वाच्यम् , केमा वचन नहीं बोलना चाहिय । उत्तर परुपं पीडाकरं कदम जो कठोर पाहा करनेवाला और कडुवा हो ।। ७ ।।
किं हातव्यं मत
पेशन्यं व्यनिता च मात्मय॑म् । किमकरणीयं यत्पर
लोकविरुद्धं मनोनिष्टम् ॥ ८॥
प्रश्न- । किं हातव्यं मननम् . मटा त्याग करने योग्य क्या है । उत्तर - ( पैशुन्यं व्यसनिना च मात्मयम , चुगली करना. मप्तव्यसन और दूसरी बढी न महना । २० प्रश्न किमकर णीयम , न करने योग्य क्या है । उत्तर ( यत्सरलोकविरुद्ध मनोनिष्टम् । जो परलोकमे विरुद्ध और मनको अनिष्ट हो ॥ ८ ॥
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(२१) शम्पेव चञ्चला का ___ सम्पत्मत्काव्यमिव किमनवद्यम | जर्जावितमधर्मरहितं
कलङ्कमुक्तं यशोयुक्तम् ॥ ९॥ : प्रश्न । शम्पंव चञ्चला का ) विजलीक ममानचंचल म्य । । उत्तर । सम्पम् . लक्ष्मी-धन । २२ प्रश्न (सकाव्यमिव किमनवद्या उत्तम काव्यके समान प्रशंमिन क्या है। उत्तर
नोचितमधर्मगहतं कलङमुक्तं यशोयुक्तम् ) ऐमा जीवन कि मी पापहन निकलक और यशयुक्त हो । ० ॥
कि दिनकृत्यं जिनपति__ पूजामामयिकगुरूपास्तिः । त्रिविधशुचिपात्रदानं
शाम्राध्ययनं च मानन्दम ॥ १० ॥ अपन कि दिनकृत्यम , प्रतिदिन करने योग्य कृत्य क्या है. र । जिनपनिपूजामायिक गुरूपास्तिः त्रिविधचिपात्रदानं शाखाध्ययन च सानन्दम । जिनेन्द्रदेवकी पृजा. सामायिक, गुन्की उपनना नानप्रकारक पवित्र पात्रांको दान देना और प्रमन्नताक माध शामन्यायाय करना ॥ १० ॥
इत्यपरा प्रश्नोत्तरमालिका समाप्ता ।
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(२२)
ॐ द्रव्यसंग्रह । मूलगाथा, संस्कृत छाया, हिन्दी मराटी अन्वयार्थ और पास होनेकी कुंजी सहित दूसरी बार निर्णयमागरमं बहुत शुद्धनास माट कागजपर छपाया गया है। पहली बार प्रत्यक गाथाकी संस्कृत अया नही थी, वह अबकी बार लगा दी गई है । चतुर विद्यार्थी इसे विना गुरुके भी पढ सकता है. और परीक्षा देकर पास हा मकता है । मूल्य पहिले आठ आना था. अब छह आना कर दिया गया है।
तत्त्वार्थसूत्रकी बालबाधिनी भाषाटीका । तत्त्वार्थमूत्र हम लोगोंका परम पूज्य ग्रन्थ है । इसे प्रत्येक जैनी पढना पढाना अपना परम धर्म समझते । इमक एक बार के पाट मात्र एक उपवामका फल होता है । यह ग्रन्थ जैमा उपयोगी है
और जैनधर्मके पदार्थोका अटूट समुद्र जिस प्रकार इसमें भरकर गागरम मागरकी कहावत सिद्ध की गई है. उनके कनकी जरूरत नहीं है । इसकी प्रशंसा प्रगट करने के लिये इम अन्नघर जो अनक टीकायें बनाई गई है. वही बन है । परन्तु बंद कि.. अभी तक. इसकी कोई ऐसी टीका पाकर प्रकाशित नहीं ई. पढनेवाले, विद्यार्थियोंकी ममझमें आ सके । अभी तक, जो टीकामें छपी है. वे विशेष ज्ञातियों के ममझने योग्य है . बारकाके लिये जिम क्रमम होनी चाहिये उस क्रममें नहीं है । इन अभावको पातकं लिय हमने यह भाषाटीका तैयार की है यह टीका भादाम वाचनके लिये भी बड़े कामकी है । सधारण भाई भी दमक मृतका अय वाचकर समझ मकते है । रत्नकरंडक समान इसमें नी एट पदका अर्थ किया गया है और भावार्थ व विशेष वानं तथा टीकाय लिन्नी गई है । इसको एक बार पढ लेनक फिर मामाद्ध आदि बड़ी टीकाओंके पढनमें गति हो जावेगी । यह टीका विद्या
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(२३) थियोंके बड़े ही कामकी है । इसे विना गुरुके पढकर भी विद्यार्थी बडी मुग्मताके परीक्षा दे करना है। जहां तक बना है, प्रत्येक पदार्थ के लक्षण व स्वरूप इसमें संक्षेपतासे लिंग्व गये है । मूल्य मात्र १२ आने ग्वा गया है। पाठशालाओंके प्रबंधकर्ताओंका नमूनेके लिये इसकी एक एक प्रति जरूर मंगानी चाहिये थोडीमी प्रतियं रह गई है।
ॐ भक्तामरस्तोत्र । अन्वय हिन्दी अर्थ, भावार्थ और कविधर भाई नाथूराम
प्रेमीकृत नवीन भाषानुवाद माहित । जैनीके बालकके लेकर टेनक सब ही महामरम्नोत्रका पाट करते है। इसका पाट करना आनंददायक है । ग्बद है कि. अर्थ न मम. झनम हमारे यहुनन्न जना भाइ इम म्तात्रकी अर्थगर्भाग्ता और भनिगमक आबादम बचित रहत है उनके लिये हमने यह नवीन टीका तयार करवाई है । इसमें रत्नकरडक ममान पहिले प्रत्येक श्लाकका अगवानुगत पढायलम्बकर फिर प्रत्यकका भावाथ लिग्वा है । पश्चात हानिका आर नंन्द्र छन्दमें उसकी मुन्दर कविता बनाई गई है। जिम मूलका कोट भी भाव नही छोडा है ।
टिप्पामं अनेक प्रतियोले इस करके पाठान्तर और कठिन गब्दोंक अर्थदिय है। इस तरह यह पुस्तक माग सुन्दर नैयार हुई है। अभीतर एमां कोई भी टीका नहीं छपी थी। पाटगालाओं के विद्या थियों के लिये यह बड़े काम चीज है । भामिका श्रीमानतुंगमरिका १० - १२ गजका जीवनचरित्र है । बाती बातमें इसकी १००० कापी छह महीन विक गई। दृमबार संशाधिन और परिवार्द्धत करके छपाया ह । मूल्य निफ ।)
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जैनग्रंथरत्नाकरकार्यालयमें मिझनेवाले ग्रन्थ.
रु. आ. जैनबालबाधक-प्रथमभाग पूर्वार्द्ध माना पूर्ण... . ४ जैनवालबोधक-द्वितीय माग ... ... ... . ८ बालबोधव्याकरण-पूवाद ... ... ... ... . . बालबोधव्याकरण-उत्तरार्ध ... ... ... . मक्तामरस्तोत्र-अन्वय भय भाषाके पद्यानुवादसहित . मोक्षशास्त्र-तत्वार्यसूत्रको बालाबोधिनी भाषाटीका . कातंत्रपंचसंधि-भाषाटीकासहित ... ... ... . . धनंजयनाममाला-(जैनकोस.) भाषाटीसहित... . . नित्यनियमपूजा-संस्कृत भाषा दोनों ... ... मापापूजासंग्रह-पदोंमें होनेवाली सब पूजाये ... . वृंदावनचौवीसीपूजा--बहुत शुद्ध ... ... ... . दशलक्षणपूजासंस्कृतप्राइस-जयमालाके अर्थ सहित . रलकरंडश्रावकाचार-सान्वायार्थ द्रव्यसंग्रह-छाया, अन्वय, हिंदी, मराठी अर्थादियह . सनातनजैनग्रंथमाला प्रथम मुच्छक-बडे २ चौदह मस्छत ग्रन्थोंका सग्रह करन योग्य अति उपयोगी रेशमी गुरका । जैनस्त्रीशिक्षा-प्रथम माग पनालालछन... . . . . श्रीशिक्षा-द्वितीय माग , ... ... . . नारीधर्मप्रकान. बनारसीविलास-बनारसीदासजीके भावनचरित्र सहित १॥ . शीलकथा ५श्राने दर्शनकथा-(दोनों मुम्बईकी छपी). ५ मनोरमा उपन्यास-बाबू जैनेन्द्रकिशोरजीकृत ... . . हितोपदेश-भाषार्टीकासहित नीतिका अमूल्य ग्रंथ १ . मिलनेका पता-मैनेजर-जैनग्रंथरत्नाकर कार्यालय.
पो. गिरगांव बंबई.
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3-AIL
LANE
--
CASE
.
श्रीवीतरागाय नमः।
ANTARNE
ha
बारस अणुबेक्खा ।
संस्कृतछाया और भाषाटीकासहित ।
प्रकाशक
श्रीजैनग्रन्धरनाकरकार्यालय ।
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श्रीवीतरागाय नमः ।
सुलभ ग्रन्थमालाका प्रथम पुष्प ।
स्वर्गीय पंडित
श्रीलालजी के स्मरणार्थ ।
श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्यविरचिता
बारस अणुबेक्खा ।
[ द्वादशानुप्रेक्षा । ]
जिसे
पण्डित मनोहरलाल गुप्त और नाथूराम प्रेमीनं संस्कृतछाया और भाषाटीकासे विभूषित की और
श्रीजैनग्रन्थरत्नाकर कार्यालय बम्बईने
निर्णयसागर प्रेस कोलभाट लाईन नं. २३ में बा० रा० घाणेकर के प्रबन्धसे छपाकर प्रकाशित की ।
प्रथमावृत्ति ]
श्रीवीरनि० संवत् २४३७ । दिसम्बर सन् १९१० ।
[ मूल्य सवा आना ।
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PLISHED BY
Nathuram Premi, Proprietor Jam Granth Ratnakar Karyalaya
Hirabag, Near Kasar Patel Tanh,
BOMBAY.
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प्रस्तावना |
4968-04
पाठक महाशय ! आज आपको हम एक ऐसा ग्रन्थरत्न भेंट करते हैं, जो कालकी कुटिलगतिसे बिलकुल अप्रसिद्ध और लुप्तप्राय हो गया था । इसके रचयिता सुप्रसिद्ध आध्यात्मिक श्री कुन्दकुन्दाचार्य हैं । कुन्दकुन्दस्वामीके बनाये हुए जो ८४ पाहुड़ (प्राभृतग्रन्थ) कहे जाते हैं और जिनमें से नाटकसमयसार, प्रवचनसार, पंचास्तिकाय, रयणसार, षटपाहुड़आदि प्रसिद्ध हैं, उनमें इस वारस अणुबेक्खा ग्रन्थका नाम नहीं है । इससे यह भी अनुमान होता है कि. उक्त आचार्य महाराजके बनायेहुए पाहुड़ ग्रन्थोंके सिवाय और भी कई अन्य होंगे ।
इस अन्थका उद्धार हमने एक ऐसे हस्तलिखित गुटकेपर से किया है, जो अतिशय जीर्ण शीर्ण और प्राचीन है । यह गुटका बहुत ही कम होगा, तो लगभग चार सौ पांचसौ वर्षका लिखा हुआ होगा । इसपर संवत् १६३६ की लिखीहुई तो उसके एक स्वामीकी प्रशम्ति लिखी हुई है, जिसने कि किसी दूसरेसे लेकर उसपर अपना स्वामित्व स्थापन किया था । प्रायः प्रत्येक पत्रके चारों किनारे विशेष करके नीचेका किनारा झड़जानेमे अनेक अक्षर बिलकुल ही चले गये हैं । यदि यह ग्रन्थ कुछ दिनों और इसी दशा में पड़ा रहता और जैसा कि हम समझते हैं, अन्यत्र कहीं इसकी प्रति नहीं होगी, तो आश्चर्य नहीं कि, संसारसे अन्य अनेक ग्रन्थोंके समान इसका भी नामशेष हो जाता ।
भगवान् कुन्दकुन्दवामी वि० संवत् ४९ में नन्दिसंघके पांचवें
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पट्टपर बैठे थे ऐसा नन्दिसंघकी पट्टावलीमें लिखा हुआ है । इनके वक्रग्रीव, एलाचार्य, गृद्धपिच्छ, पद्मनन्दि ये चार नाम भी प्रसिद्ध हैं । आपके बनाये हुए ग्रन्थोंसे जैनसाहित्य दैदीप्यमान हो रहा है । आध्यात्मिक ग्रन्थोंका रचयिता आपके समान और कोई दूसरा नहीं हुआ है । आपके बनाये हुए सम्पूर्ण ग्रन्थ प्राकृत भाषामें हैं । ऐसे अगाध पांडित्यको पाकर भी आपका प्राकृत जैसी सरल भाषामें अन्थरचना करना यह प्रगट कर रहा है कि, आपको संस्कृतके प्रसिद्ध ग्रन्थकर्त्ता बननेकी अपेक्षा लोगोंको मोक्षमार्ग में लगाना बहुत प्यारा था । पाठक सोच सकते हैं कि, उस समय जब कि सारे देशमें प्राकृत भाषा बोली जाती थी, आपके प्राकृत ग्रन्थोंने कितने जीवोंको उपकार किया होगा - कितने जीव मोक्षमार्ग के सम्मुख किये होंगे ।
भगवान् कुन्दकुन्दका सामान्य चरित्र भाषाके अनेक ग्रन्थों में लिखा हुआ है और जैनमित्र आदि पत्रों में भी प्रकाशित हो चुका है, इसलिये उसे इस छोटीसी पुस्तककी प्रस्तावना में लिखना उचित न समझके हम इतना ही लिखकर संतोष करते हैं कि लगभग उन्नीस सौ वर्ष पहले जैनसाहित्यके आकाशमें एक ऐसा चन्द्रमा उदित हुआ था जिसकी चन्द्रिकासे सारा दुःखसंतप्त संमार आजतक धवलित और शान्तिसुधासंसिक्त हो रहा है और जिसके लिये कविवर वृन्दावनजीने कहा है
66
""
हुए न हैं न होंहिंगे मुनींद्र कुंदकुंदसे ।
इस ग्रन्थ में सब मिलाकर ९१ गाथाएं हैं, जिनमें से लगभग १८ गाथाएं क्षेपक मालूम पड़ती हैं । ऐसी गाथाओंके विषयमें
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हमने टिप्पणीमें उनके क्षेपक होनेका कारण अपनी समझके अनुसार लिख दिया है। दूसरे ग्रन्थकर्ताओंने इस ग्रन्थकी जो गाथाएं उद्धृत की हैं, अथवा दूसरे ग्रन्थों में इसकी जो गाथाएं प्रक्षिप्त होगई हैं, उनका उल्लेख भी कई जगह कर दिया गया है।
इस ग्रन्थकी रचनाका और स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षाकी रचनाका ढंग प्राय: एक सा जान पड़ता है और इन दोनोंकी कई एक गाथाएं भी ऐसी हैं, जो थोड़े बहुत शब्दोंके फेरफारसे प्रायः एकसी मिलती हैं । इससे लोग शंका कर सकते है कि, यह ग्रन्थ स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षाकी छाया लेकर बनाया गया होगा। क्योंकि स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षाकी भूमिकामें पूज्यवर पं० पन्नालाल जी बाकलीवालने अनुमान किया है कि, खामिकार्तिकेय दो हजार वर्ष पहले होगये हैं । और इससे उनका अस्तित्व कुन्दकुन्दम्वामीसे भी पहले सिद्ध होता है । परन्तु हमारी समझमें उक्त अनुमान ठीक नहीं है । विचार करनेसे ऐसा प्रतीत होता है कि कुन्दकुन्दम्वामीसे म्वामिकार्तिकेय बहुत ही पीछे हुए है । क्योंकि बम्बईके भंडार में जो एक 'आचार्यों और उनकी कृतिकी सूची' किसी विद्वान्की संग्रहकी हुई है, उसमें खामिकार्तिकेयको सेनसंघका आचार्य लिखा है। और सेनसंघकी पट्टावलीमें कुमारसेन नामके एक आचार्य वि० संवत् ८८८ में हुए भी है, जो श्रीविनयसेन आचार्य के शिष्य थे । खामिकार्तिके यानुप्रेक्षाके अन्तमें ग्रन्थकर्त्ताने अपना नाम 'सामिकुमार' अर्थात् 'स्वामिकुमार' लिखा है, जो कि 'स्वामिकुमारसेन' का संक्षिप्त
१-जिणवयणभावण सामिकुमारेण परमसद्धाए ।
रइया अणुवेक्खाओ चंचलमणरंभणटं च ॥ ४८७ ।।
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नाम है । महादेव के पुत्र षडाननका एक नाम कुमार है और एक नाम कार्तिकेय भी है। जान पड़ता है कि इसी कारण स्वामिकुमारका स्वौमिकार्तिकेय नाम भी पर्यायवाची होनेके कारण प्रचलित होगया है । और भी कई ग्रन्थकर्त्ताओंने इस तरह पर्यायवाची शब्द देकर अपना परिचय दिया है । जैसे कि 'पद्मनन्दिखामीने' अपना नाम एक जगह 'पंकजनन्दि' और दर्शनसार के कर्त्ता 'देवसेन' ने 'सुरसेन' लिखा है । 'खामिकुमारसेन' इस नाम में 'स्वामि' और 'सेन' ये दो पदवियां हैं । “तत्त्वार्थ सूत्रव्याख्याता स्वामीति परिपठ्यते " नीतिसारके इस वाक्यके अनुसार जो तत्त्वार्थसूत्रका व्याख्यान करनेवाला होता है. उसे स्वामी कहते हैं । और 'सेन' यह 'सेनसंघ' का सूचक पद है ।
कुमारसेन आचार्य जो विनयसेनके शिष्य थे, पीछेसे सन्यास - भंग हो जाने के कारण संघवाह्य कर दिये गये थे, और पीछे उन्होंने काष्ठासंघ चलाया था, ऐसा श्रीदेवमेनसूरिकृत दर्शनसार में लिखा है । इस लिये या तो स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्ष सन्यास भंग होनेके पहले ही ये बना चुके होंगे । क्योंकि काष्ठासंघकी जो दो चार भिन्न बातें है, वे इस ग्रन्थ में नहीं मालूम पड़ती हैं । या सेनसंघ और कोई आचार्य भी इसी नामके हुए होंगे, जिन्होंने स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा बनाई है । जो हो, परन्तु यह निश्चय है कि कुन्दकुन्दखामी से पहले स्वामिकुमार नहीं हुए हैं। क्योंकि एक तो सेनसंघकी पट्टावली में कुन्दकुन्दस्वामीके समय मे कई सौ वर्ष
१ - पाण्मातुर शक्तिधर कुमारः कचिदारणः । [ अमरकोष ] २ - कार्तिकेयो महासेनः शरजन्मा षडाननः । [ अमर० ]
३ --- श्रीमचन्द्राचार्य ने कार्तिकेयका एक नाम 'स्वामी' भी लिखा है ।
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पीछेतक इस नामके किसी आचार्यका पता नहीं लगता है, दूसरे 'स्वामिकुमारसेन' के नाममें यदि 'स्वामी' पद 'तत्त्वार्थसूत्रव्यान्याता' होनेके कारण है, और 'तत्त्वार्थसूत्र से श्रीउमास्वातिकृत तत्त्वार्थसूत्रका अभिप्राय है, तो तत्त्वार्थसूत्रकी रचना ही कुन्दकुन्दके समयमें नहीं हुई थी। क्योंकि उमाम्वाति कुन्दकुन्दके गियोंमें थे। ___ ऊपर कहा जा चुका है कि, यह ग्रन्थ केवल एक ही प्रतिमे सो भी जाण खंडिन तथा मूलमात्रपरस तयार किया गया है, इमलिये इसका सम्पादन जैसा होना चाहिये, वैसा अच्छा नहीं हो सका है । तो भी इसका शुद्धपाट लिखनेमें, संस्कृतछाया बनानेमें और अर्थ लिखनमें जितनी हम लोगोंकी शक्ति थी, उतना परिश्रम करनम कुछ भी कसर नहीं रक्खी है। इतनेपर भी यदि कुछ प्रमाद हुआ हो, तो उसके लिये हम पाठकोंसे क्षमा चाहते हैं। ___ पुस्तक जीर्ण होनक कारण जो अक्षर उड़ गये हैं, अथवा जो पड़े नहीं जाते हैं, उनके बदले हमने पूर्वापर अक्षरोंका सम्बन्ध मिलाकर कई स्थानों में अपनी ओरसे अक्षर कल्पित करके लिख दिये हैं। परन्तु पाठक ऐसे अक्षरोंको हमारे कल्पना किये हुए समझें इसलिये उन्हें कोप्टकके भीतर लिख दिये हैं। जिन शब्दोंका अभिप्राय समझमें नहीं आया है, अथवा जिनकी संस्कृतछाया ठीक २ नहीं मालूम हुई है, उनके आगे प्रश्नांक (?) लगा दिया हैं । यदि कहीं इस अलभ्य ग्रन्थकी दूसरी प्रति प्राप्त हो जायगी, तो अगामी संस्करणमें ये सब त्रुटियां अलग कर दी जावेगी ।
इति शुभम् ।
सरस्वतीसेवकमार्गशीर्षकृष्णा १४
मनोहरलाल गुप्त। श्रीवीर नि. २४३७ । .
नाथूगम प्रेमी।
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Karosse
PASTEHRASES RSeranaseHARAT
सुलभ ग्रन्थमालाका
विज्ञापन ।
CHAFERajesh
ERFEEMUCERFERERA
अनुभवसे विदित हुआ है कि, पुस्तकोंकी कीमत जितनी कम होती है, उतना ही उनका अधिक प्रचार होता है।
इस लिये श्रीजैनग्रन्थरत्नाकरकी ओरसे मुलभ जैनग्रन्थमाला* नामकी एक सीरीज प्रकाशित करनेका विचार किया गया है। इस ग्रन्थमालाकेद्वारा जितनी पुस्तकें प्रकाशित होंगी, वे लाग-1 तके दामोंपर अथवा उसमें भी यथासंभव घाटा ग्वाकर बेची जावेगी । लागनके दामों में पुस्तककी बनवाई, प्रूफ संशोधन , । कराई, छपाई, बायडिंग वगैरह सब खर्च शामिल समझे जायेंगे।
रकमका व्याज नहीं लिया जायगा । घाटकी रकम कार्यालयके धर्मादा खातेसे अथवा दूसरे धर्मात्माओंमे पूरी कराई जायगी। ___ मुलभ ग्रन्थमालाकी यह सबसे पहली पुस्तक है । यह मुरादाबाद निवासी वर्गीय पूज्यवर पंडित चुन्नीलालजी
के स्मरणार्थ प्रकाशित की जाती है। इसकी १००० प्रतियों का : कुलखर्च लगभग ९० रुपया पड़ा है। इसलिये मूल्य सवा * आना रक्खा जाता है । ग्रन्थमालाकी दृसरी पुस्तक शीघ्र ही प्रकाशित की जायगी।
निवेदक
श्रीनाथूरामप्रेमी। REFREERSers-1956 MEERASEALEx.net.in
SEP-2-
ASIENCE 1
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श्रीवीतरागाय नमः श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्यविरचिता बारस अणुबेक्खा।
[ द्वादशानुप्रेक्षा।] निदा -- - - मिऊण सव्वसिद्धे झाणुत्तमम्वविददीहसंसारे । दस दस दो दो यजिणे देस दो अणुपेहणं वोच्छे।।१
नत्वा गर्वसिद्धान् ध्यानोत्तमक्षपितदीर्घसंसारान् । दश दश द्वौ द्वौ च जिनान् दश द्वै। अनुप्रेक्षणानि वक्ष्ये ॥१॥ अर्थ-अपने परमशुक्ल ध्यानमे अनादि अनंत संसारको क्षय करनेवाले सम्पूर्ण सिद्धोंको तथा चावीस तीर्थकरोंको नमस्कार करके मैं बारह भावनाओंका स्वरूप कहता हूं। अडवममरणमेगत्तमण्णसंसार लोगममुचित्तं । . आसवमंवरणिजरधम्मं वोहिं च चिंतेजो ॥२॥
अद्भवमशरणमेकत्वमन्यसंमागे लोकमशुचित्वं ।
आम्रवसंवरनिर्जरधर्म बोधिं च चिन्तनीयम् ।। २ ॥ अर्थ-अनित्य, अशरण, एकत्व, अन्यत्व, संसार, लोक, अशुचित्व, आस्रव, संवर, निर्जरा, धर्म और बोधिदुर्लभ इन वारह भावनाओंका चिन्तवन करना चाहिये।
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हास
वासारित प्रामा
देवासुरमन लड्दै लोकपछि अथ अनित्यभावना |
भू. -हू
'वरभवणजाणवाहणसयणासण देवमणुवरायाणं । मादुपिदुसजणभिचसंबंधिणो य पिडिविया -
णिच्चा ॥ ३ ॥
दीलिपु
हवालद
वरभवनयानवाहनशयनाऽऽमनं देवमनुजराज्ञाम् । मातृपितृम्वजनभृत्यसम्बन्धिनश्च पितृव्योऽनित्याः ॥ ३ ॥
अर्थ - देवताओंके मनुष्योंके और राजाओंके सुन्दर महल, यान, वाहन, सेज, आसन, माता, पिता, कुटुम्बीजन, सेवक, सम्बन्धी ( रिश्तेदार ) और काका आदि सब अनित्य हैं अर्थात् ये कोई सदा रहनेवाले नहीं हैं । भ्रू अवधि बीतनेपर सब अलग हो जायेंगे।| सामरिंग दियरूवं आरोग्गं जोवणं वलं तेजें । सोहग्गं लावणं सुरवणुमिव सस्मयं ण हवे ||४|| समझेन्द्रियरूपं आरोग्यं यौवनं बलं तेजः ।
विप्रं
प
आप
सौभाग्यं लावण्यं सुरधनुरिव शाधनं न भवेत् ॥ अर्थ - जिस तरह आकाशमं प्रगट होनेवाला इन्द्रधनुष थोड़ी ही देर दिखलाई देकर फिर नहीं रहता है, उसी प्रकारसे पांचों इन्द्रियोंका स्वरूप, आरोग्य ( निरोगता ) जोवन, बल, तेज, सौभाग्य, और मौन्दर्य ( सुन्दरता ) सदा शाश्वत नहीं रहता है । अर्थात् ये सब बातें निरन्तर एकसी नहीं रहती हैं- क्षणभंगुर हैं । जलबुब्बुदसकवणूखणरुचिघणसोहमिव थिरं ण
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हवे । अहमिंदट्ठाणाई बलदेवप्पहुदिपजाया ॥५॥
जलबुद्दशक्रधनुःक्षणरुचिघनशोभेव स्थिरं न भवेत् ।
अहमिन्द्रस्थानानि बलदेवप्रभृतिपर्यायाः ॥ ५ ॥ अर्थ-अहमिन्द्रोंकी पदवियां और बलदेव नारायण चक्रवर्ती आदिकी पर्यायें पानीके बुलबुलेके समान, इन्द्र. धनुषकी शोभाके ममान, विजलीकी चमकके समान और बादलोंकी रंगविरंगी शोभाक समान स्थिर नहीं हैं। अर्थात् थोड़े ही समयमें नष्ट हो जानेवाली हैं। जीवणिवद्धं देहं खीरोदयमिव विणस्मदे सिग्छ । भोगोपभोगकारणदब्बं णिचं कहं होदि ॥६॥
जीवनिबद्धं देहं क्षीरोदकमिव विनश्यति शीघ्रम् । __ भोगोपभोगकारणद्रव्यं नित्यं कथं भवति ॥ ६ ॥
अर्थ-जब जीवसे अत्यंत मंबंध रखनेवाला शरीर ही दृश्य मिले हुए पानीकी तरह गीघ नष्ट हो जाता है, तब भोग और उपभोगके कारण दूमरे पदार्थ किस तरह
SHAN नित्य हो मकते हैं । अभिप्राय यह है कि, पानीमें दूधकी तरह जीव और शरीर इस तरह मिलकर एकमेक हो रहे हैं कि, जुदे नहीं मालूम पड़ते हैं। परंतु इतनी सघनतासे मिले हुए भी ये दोनों पदार्थ जब मृत्यु होनेपर अलग २ हो जाते हैं, तब संसारके भोग और उपभोगके पदार्थ जो शरीरसे प्रत्यक्ष ही जुदे तथा दूर हैं सदाकाल कैसे रह सकते हैं ?
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परमद्वेण दु आदा देवासुरमणुवराय विविहेहिं | वदिरित्तो सो अप्पा सस्सदमिदि चिंतये णिच्चं ॥७॥ परमार्थेन तु आत्मा देवासुरमनुजराजविविधैः ।
व्यतिरिक्तः स आत्मा शाश्वत इति चिन्तयेत् नित्यं ॥ ७ ॥ अर्थ- शुद्ध निश्चयनयसे ( यथार्थ में ) आत्माका स्वरूप सदैव इस तरह चिन्तवन करना चाहिये कि, यह देव, असुर, मनुष्य, और राजा आदिके विकल्पों में रहित है । अधीत् इसमें देवादिक भेद नहीं हैं-ज्ञानस्वरूप मात्र है और सदा स्थिर रहनेवाला है ।
अथ अशरणभावना |
मणिमंतोस हरक्खा हयगयरहओ य सयलविज्जाओ जीवाणं ण हि सरणं तिसु लोए मरणसमय म्हि || || मणिमन्त्री रक्षाः हयगजरथाश्च सकलविद्या | जीवानां नहि शरणं त्रिषु लोकेषु मरणसमये || ८ ॥ अर्थ-मरते समय प्राणियोंको तीनों लोकोंमें मणि, मंत्र, औषधि, रक्षक, घोड़ा, हाथी, रथ और जितनी विद्याएँ हैं, वे कोई भी शरण नहीं हैं । अर्थात् ये सब उन्हें मरनेसे नहीं बचा सकते हैं।
सग्गो हवे हि दुग्गं भिन्ना देवा य पहरणं वज्जं । अइरावणो गईदा इंदस्स ण विज्जदे सरणं ॥ ९ ॥
स्वर्गे भवत् हि दुर्गे भृत्या देवाश्च प्रहरणं वज्रं । ऐरावणो गजेन्द्रः इन्द्रस्य न विद्यते शरणं ॥ ९ ॥
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अर्थ-जिस इन्द्र के स्वर्ग तो किला है, देव नौकर चाकर हैं, वज्र हथियार है, और ऐरावत हाथी है, उसको भी कोई शरण नहीं है । अर्थात् रक्षा करनेकी ऐसी श्रेष्ठ सामग्रियोंके होते हुए भी उसे कोई नहीं बचा सकता है। फिर हे दीन पुरुषो ! तुम्हें कौन बचावंगा ? णवणिहि चउदहरयणं हयमत्तगइंदचाउरंगवलं । चकेसस्स ण सरणं पेच्छंतो कहिये काले ॥१०॥
नवनिधि. चतुर्दगरत्नं हयमत्तगजेन्द्र चतुरङ्गबलम् । चक्रेशम्य न शरणं पश्यत कर्दित कालेन ॥ १० ॥ अर्थ-हे भव्यजनो ! देखो, इसी तरह कालके आ दवानेपर ना निधियां, चौदह रत्न, घोड़ा-मतवाले हाथी, और चतुरंगिनी सेना आदि रक्षा करनेवाली सामग्री चक्रवर्तीको भी शरण नहीं होती है । अर्थात् जब मात आती है, तब चक्रवतीको भी जाना पड़ता है। उसका अपार वैभव उसे नहीं बचा मकता है। जाइजरमरणरोगभयदो रक्खेदि अप्पणो अप्पा। तम्हा आदा सरणं बंधोदयसत्तकम्मवदिरित्तो॥११॥
जानिजरामरणरोगभयतः रक्षति आत्मनः आत्मा । ___ तम्मादात्मा शरणं बन्धोदयसत्त्वकर्मव्यतिरिक्तः ॥ ११ ॥
अर्थ-जन्म, जरा, मरण. रोग और भय आदिसे आत्मा ही अपनी रक्षा करता है। इसलिये वास्तवमें (निश्चयनयसे) जो कर्मोकी बंध, उदय और सत्ता अवस्थासे जुदा है, वह आत्मा ही इस संसारमें शरण है। अर्थात्
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संसार में अपने आत्माके सिवाय अपना और कोई रक्षा करनेवाला नहीं है । यह स्वयं ही कर्मोंको खिपाकर जन्म जरा मरणादिके कष्टोंसे वच सकता है । अरुहा सिद्धा आइरिया उबझाया साहु पंचपरमेट्ठी । ते विहु चेदि जम्हा तम्हा आदा हु मे सरणं ||१२||
अर्हन्तः सिद्धाः आचार्या उपाध्यायाः साधवः पञ्चपरमेष्ठिनः । तेपि हि चेष्टन्ते यस्मात् तस्मात् आत्मा हि मे शरणम् ॥ १२ ॥ अर्थ — अरहंत, मिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु ये पांचों परमेष्ठी इस आत्माक ही परिणाम हैं । अर्थात् अरहंतादि अवस्थाएँ आत्माहीकी हैं। आत्मा ही तपश्चरण आदि करके इन पदोंको पाता है । इसलिये आत्मा ही मुझको शरण हैं ।
सम्मत्तं सण्णाणं सचारितं च मुत्तवो चेव । चउरो चेहदि आदे तम्हा आदा हु मे सरणम् ||१३|| सम्यक्त्वं सद्ज्ञानं सच्चारित्र च सत्तपश्चैव ।
चत्वारि चेष्टन्ते आत्मनि तस्माद् आत्मा हि मे शरणम् ॥ १३॥ अर्थ - इसी तरहसे आत्मामें सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यकुचारित्र और उत्तम तप ये चार अवस्थाएँ भी होती हैं । अर्थात् सम्यग्दर्शनादि आत्माहीके परिणाम हैं, इसलिये मुझे आत्मा ही शरण है ।
अथ एकत्वभावना ।
एको करेदि कम्मं एको हिंडदि य दीहसंसारे ।
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- एवं चितहि एवंत्तं
एक्को जायदि मरदि य तस्स फलं भुंजदे एक्को ॥१४॥
एकः करोति कर्म एकः हिण्डति च दीर्घसंसारे । एकः जायते म्रियते च तस्य फलं भुङ्क्ते एकः ॥ १४ ॥ अर्थ-यह आत्मा अकेला ही शुभाशुभ कर्म बाँधता है, अकेला ही अनादि संसारमें भ्रमण करता है, अकेला ही उत्पन्न होता हैं, अकेला ही मरता है और अकेला ही अपने कर्मोंका फल भोगता है। इसका कोई दूसरा साथी नहीं है ।
एको करेदि पात्रं विमयणिमित्ण तिव्वलोहेण । णिरयतिरियेसु जीवो तस्स फलं भुंजदे एक्को ॥ १५॥
एकः करोति पापं विषयनिमित्तेन नीत्रलोभेन ।
निग्यतिर्यक्षु जीवो तस्य फलं भुङ्ग एकः ॥ १५ ॥
अर्थ-यह जीव पांचइन्द्रिय के विषयोंके वश तीव्रलोभसे अकेला ही पाप करता है और नरक तथा तिर्यच गतिमें अकेला ही उनका फल भोगता है । अर्थात् उसके दुःखोंका बटवारा कोई भी नहीं करता है । rat करेदि पुण्णं धम्मणिमित्रोण पत्तदाणेण । मणुवदेवे जीवो तस्स फलं भुंजदे एको || १६ || एकः करोति पुण्यं धर्मनिमित्तेन पात्रदानेन । मानवदेवेषु जीवो तस्य फलं भुङ्क्ते एकः ।। १६ ।। अर्थ - और यह जीव धर्मके कारणरूप पात्रदानसे
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अकेला ही पुण्य करता है और मनुष्य तथा देवगतिमें अकेला ही उसका फल भोगता है। उत्तमपत्तं भणियं सम्मत्तगुणेण संजुदो साहू । सम्मादिट्ठी सावय मज्झिमपत्तो हु विण्णेयो॥१७॥
उत्तमपात्रं भणितं सम्यक्त्वगुणेन संयुतः साधुः । ___ सम्यग्दृष्टिः श्रावको मध्यमपात्रो हि विज्ञेयः ॥ १७ ॥
अर्थ-जो सम्यक्त्वगुणसहित मुनि हैं. उन्हें उत्तम पात्र कहा है और जो सम्यग्दृष्टी श्रावक हैं, उन्हें मध्यम पात्र समझना चाहिये। णिहिट्ठो जिणसमये अविरदमम्मो जहण्णपत्तोत्ति। सम्मत्तरयणरहियो अपत्तमिदि संपरिक्खेजो॥१८॥
निर्दिष्टः जिनसमये अविग्तसम्यक्त्व जघन्यपात्र इति ।
सम्यक्त्वरत्नरहितः अपात्रमिति संपरीक्ष्यः ॥ १८ ॥ अर्थ-जिनभगवानके मतमें व्रतरहित सम्यग्दृष्टीको जघन्यपात्र कहा है और मम्यत्त्वरूपी रक्षम रहित जीवको अपात्र माना है। इस तरह पात्र अपात्रोंकी परीक्षा करनी चाहिये। दंसणभट्टा भट्टा दंसणभट्टस्स णत्थि णिबाणं । सिझंति चरियभट्टा दंसणभट्टा ण सिझंति॥१९
१, १७-१८-और १९ वा गाथाएँ क्षेपक मालूम पड़ती है । इनममे पहली दो तो मालूम नहीं किस प्रन्थकी है, परंतु तीसरी "दंमणभट्टा" आदि गाथा दर्शनपाहुड़की है, जो कि इन्हीं ग्रन्थ कनाका बनाया हुआ है।
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दर्शनभ्रष्टा भ्रष्टा दर्शनभ्रष्टस्य नास्ति निर्वाणम् ।। सिद्धयन्ति चरितभ्रष्टा दर्शनभ्रष्टा न सिद्धयन्ति ॥ १९ ॥ अर्थ-जो सम्यग्दर्शनसे भ्रष्ट हैं, वे ही यथार्थमें भ्रष्ट हैं। क्योंकि दर्शनभ्रष्ट पुरुषोंको मोक्ष नहीं होता है । जो चारित्रमे भ्रष्ट हैं, वे तो मीझ जाते हैं, परन्तु जो दर्शनमे भ्रष्ट हैं, वे कभी नहीं सीझते हैं । अभिप्राय यह है कि जो सम्यग्दृष्टी पुरुष चारित्रमे रहित हैं, वे तो अपने सम्यक्त्वके प्रभावमे कभी न कभी उत्तम चारित्र धारण करके मुक्त हो जायेंगे। परन्तु जो मम्यक्त्वमे रहित हैं अर्थात् जिन्हें न कभी मम्यक्त्व हुआ और न होगा वे चाहे कैसा ही चारित्र पाले; परन्तु कभी मिद्ध नहीं होंगे-संसारमें रुलते ही रहेंगे।
__ अनुष्टुपश्लोकः । एकोहं णिम्ममो सुद्धो णाणदंसणलक्खणो । सुद्धेयत्तमुपादेयमेवं चिंतेइ सव्वदा ॥ २० ॥
एकोऽहं निर्ममः शुद्धः ज्ञानदर्शनलक्षणः । शुद्ध कन्वमुपादेयं एवं चिन्तयेत सर्वदा ॥ २० ॥ अर्थ में अकेला हूं, ममतारहित हूं, शुद्ध हूं और ज्ञानदर्शनम्वरूप हूं, इस लिये शुद्ध एकपना ही उपादेय (ग्रहण करने योग्य ) है, ऐसा निरन्तर चिन्तवन करना चाहिये।
अथ अन्यत्वभावना । मादापिदरसहोदरपुत्तकलत्तादिवंधुसंदोहो । जीवस्स ण संबंधो णियकजवसेण वनॊति ॥ २१ ॥
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मातृपितृसहोदरपुत्रकलत्रादिबन्धुसन्दोहः ।
जीवस्य न सम्बन्धो निजकार्यवशेन वर्तन्ते ॥२१॥ अर्थ-माता, पिता, भाई, पुत्र, स्त्री, आदि वन्धुजनोंका समूह अपने कार्यके वश ( मतलबसे ) सम्बन्ध रखता है, परन्तु यथार्थमें जीवका इनसे कोई सम्बन्ध नहीं है। अर्थात् ये सब जीवसे जुदे हैं। अण्णोअण्णं सोयदि मदोत्ति ममणाहगोत्ति मण्णंतो। अप्पाणं ण हु सोयदि संसारमहण्णवे बुड्।।२२।।
अन्यः अन्यं शोचति मदीयोस्ति ममनाथकः इति मन्यमानः ।
आत्मानं न हि गोचति संसारमहार्णवे पतितम् ॥ २२ ॥ अर्थ-ये जीव इम संसाररूपी महासमुद्र में पड़े हुए अपने आत्मकी चिन्ता तो नहीं करते हैं, किन्तु यह मेरा है और यह मेरे स्वामीका है, इस प्रकार मानते हुए एक दूसरेकी चिन्ता करते हैं।
अण्णं इमं सरीरादिगंपि जं होइ बाहिरं दव्वं । । णाणं दंसणमादा एवं चिंतेहि अण्णत्तं ।। २३ ।।
अन्यदिदं शरीरादिकं अपि यत् भवति बाह्यं द्रव्यम् । ज्ञानं दर्शनमात्मा एवं चिन्तय अन्यत्त्वम् ॥ २३ ॥ अर्थ-शरीरादिक जो ये बाहिरी द्रव्य हैं, सो भी सब अपनसे जुदे हैं और मेरा आत्मा ज्ञानदर्शनस्वरूप है, इस प्रकार अन्यत्व भावनाका तुमको चिन्तवन करना चाहिये।
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अथ संसारभावना। पंचविहे संसारे जाइजरामरणरोगभयपउरे। " जिणमग्गमपेच्छंतोजीवो परिभमदि चिरकालं २४ __ पंचविधे संसारे जातिजरामरणरोगभयप्रचुरे ।
जिनमार्गमपश्यन् जीवः परिभ्रमति चिरकालम् ॥ २४ ॥ अर्थ-यह जीव जिनमार्गकी ओर ध्यान नहीं देता है, इमलिये जन्म, बुढ़ापा, मरण, रोग और भयसे भरे हुए पांच प्रकारके संसारमें अनादि कालमे भटक रहा है। सव्वेपि पोग्गला खलु एगे मुत्तुझिया हु जीवेण । असयं अणंतखुत्तो पुग्गलपरियट्टसंसारे ।। २५ ।। . सर्वेऽपि पुद्गलाः खलु एकेन मुक्त्वा उज्झिताः हि जीवेन ।,
अमकृदनंतकृत्वः पुद्गलपरिवर्तसंसारे ॥ २५॥ का अर्थ-इस पुद्गलपरिवतनरूप संसारमें एक ही जीव सम्पूर्ण पुद्गलवर्गणाओंको अनेकवार-अनन्तवार भोगता है, और छोड़ देता है । भावार्थ-कोई जीव जब अनंतानंत पुद्गलीको अनंतवार ग्रहण करके छोड़ता है, तब उसका एक द्रव्यपरावर्तन होता है । इस जीवने ऐसे २ अनेक द्रव्यपरावर्तन किये हैं। सबम्हि लोयखेत्ते कमसो तण्णत्थि जण्ण उप्पण्णं।
१ मध्वपि इत्यादि ५ गाथाएँ पूज्यपादस्वामीने अपने सर्वार्थगिद्धि ग्रन्थमें उद्धृत की है और इन्हीकी आनुपूर्वी छाया गोमटयार संस्कृतटीकाकी भव्यमार्गणाम केशववर्णाने उदत की है।
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१२
उग्गाहणेण बहुसो परिभमिदो खेत्तसंसारे ॥ २६ ॥
. 27 भू.का.
उत्त
सर्वस्मिन् लोकक्षेत्रे क्रमशः तन्नास्ति यत्र न उत्पन्नम् । अवगाहनेन बहुशः परिभ्रमितः क्षेत्रसंसारे ॥ २६ ॥ अर्थ – क्षेत्रपरावर्तनरूप संसार में अनेकवार भ्रमण करता हुआ जीव तीनों लोकोंके सम्पूर्ण क्षेत्रमें ऐसा कोई भी स्थान नहीं है, जहांपर क्रमसे अपनी अवगाहना वा परिमाणको लेकर उत्पन्न न हुआ हो । भावार्थ-लोककाशके जितने प्रदेश हैं, उन सब प्रदेशों में क्रममे उत्पन्न होनेको तथा छोटेसे छोटे शरीरके प्रदेशोंसे लेकर बड़े बड़े शरीरतकके प्रदेशोंको क्रमसे पूरा करनेको क्षेत्रपरावर्तन कहते हैं ।
अवसप्पिणिउस्मप्पिणिसमयावलियासु णिखसेसासु । जादो मुदोय बहुमो परिभमिदो कालI संसारे ॥ २७ ॥
अवसर्पिण्युत्मर्पिणीसमयावलिकासु निग्वशेषासु ।
जातः मृतः च बहुशः परिभ्रमन् कालसंसारे ॥ २७ ॥ अर्थ- कालपरिवर्तनरूप संसारमें भ्रमण करता हुआ जीव उत्सर्पिणी अवसर्पिणी कालके सम्पूर्ण समयों और आवलियों में अनेक वार जन्म धारण करता है और मरता है । भावार्थ - उत्मर्पिणी और अवसर्पिणी कालके जितने समय होते हैं, उन सारे ममयों में क्रमसे जन्म लेने और मरनेको कालपरावर्तन कहते हैं । पिरयाउजहण्णादिसु जाव दु उवरिल्लवा (गा) दु
भूला. SF7
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गेवेजा। मिच्छत्तसंसिदेण दु वहुसो वि भवहिदीभमिदा ॥ २८॥ ४. निरयायुर्जघन्यादिषु यावत् तु उपरितना तु वेयिकाः । 3. मिथ्यात्वसंश्रितेन तु बहुशः अपि भवस्थितिः भ्रमिता ।। २८ ।।
अर्थ-इस मिथ्यात्वमयुक्त जीवने नरककी छोटीसे छोटी आयुसे लेकर ऊपरके ग्रंवयिक विमान तककी आयु क्रमसे अनेक वार पाकर भ्रमण किया है। भावार्थनरककी कमसे कम आयुसे लेकर ग्रंवयिक विमानकी अधिकसे अधिक आयु तकक जितने भेद हैं, उन सबका क्रमसे भोगना भवपरावर्तन कहलाता है। सब्बे पयडिहिदिओ अणुभागप्पदेसबंधटणाणि । जीवोमिच्छत्तवसा भमिदो पुण भावसंसारे ॥२९॥
सर्वाणि प्रकृतिस्थिती अनुभागप्रदेशबन्धस्थानानि ।। (जीवः मियान्यवशात भ्रमितः पुनः भाव संसारे ॥ २९ ॥
अर्थ-इम जीवन मिथ्यात्वक वशमें पड़कर प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशबंधक कारणभूत जितने प्रकारके परिणाम वा भाव हैं, उन सबको अनुभव करते हुए भावपरावतनरूप संसारमें अनेक वार भ्रमण किया है। भावार्थ-कमबंधोंके करनेवाले जितने प्रकारके भाव होते हैं, उन सबको क्रमसे अनुभव करनेको भावपरावर्तन कहते हैं। पुत्तकलत्तणिमित्तं अत्थं अजयदि पाबबुद्धीए ।
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१४ परिहरदि दयादाणं सो जीवो भमदि संसारे ॥३०॥
पुत्रकलत्रनिमित्तं अर्थ अर्जयति पापबुद्धया । परिहरति दया दानं सः जीवः भ्रमति संसारे ॥ ३० ॥ अर्थ-जो जीव स्त्रीपुत्रोंके लिये नानाप्रकारकी पापबुद्धियोंसे धन कमाता है, और दया करना वा दान देना छोड़ देता है, वह संसारमें भटकता है। मम पुत्तं मम भजाममधणधण्णोत्ति तिब्बकंखाए । चइऊण धम्मबुद्धिं पच्छा परिपडदिदीहसंसारे ॥३१
मम पुत्रो मम भार्या मम धनधान्यमिति तीवकांक्षया । त्यक्त्वा धर्मबुद्धिं पश्चात् परिपनति दीर्घसंसारे ।। ३१ ॥ अर्थ-"यह मेरा पुत्र है, यह मेरी स्त्री है, और यह मेरा धन धान्य है।" इस प्रकारकी गाढ़ी लालमासे जीव धर्मबुद्धिको छोड़ देता है और इमी कारण फिर मत्र ओरसे अनादि संसारमें पड़ता है। मिच्छोदयेण जीवो जिंदंतो जेण्णभासियं धम्म । कुधम्मकुलिंगकुतित्थं मण्णंतो भमदि संसारे ॥३२।।
मिथ्यात्वोदयेन जीवः निंदन् जैनभाषितं धर्मम् ।
कुधर्मकुलिङ्गकुतीर्थ मन्यमानः भ्रमति संसारे ॥ ३२ ॥ अर्थ-मिथ्यात्व कर्मके उदयसे जीव जिनभगवानके कहे हुए धर्मकी निंदा करता है और बुरे धर्मों, पाखंडी गुरुओं और मिथ्याशास्त्रोंको पूज्य मानता हुआ संसारमें भटकता फिरता है।
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१५
हंतूण जीवरासिं महुमंसं सेविऊण सुरपाणं । परदव्वपरकलत्तं गहिउण य भमदि संसारे ||३३||
हत्वा जीवराशि मधुमांसं सेवित्वा सुरापानम् । परद्रव्यपरकलत्रं गृहीत्वा च भ्रमति संसारे ॥ ३३ ॥ अर्थ - यह प्राणी जीवोंके समूहको मार करके, शहद ( मधु ) और मांसका सेवन करके, शराब पीके, पराया धन और पराई स्त्रीको छीन करके संसार में भटकता है । जत्तेण कुणइ पात्रं विसयणिमित्तं च अहणिसं जीवो । मोहंधयारसहिओ तेण दु परिपडदि संसारे ।। ३४ ।।
यत्न करोति पापं विपयनिमित्तं च अहर्निशं जीवः । मोहान्धकारसहितः तेन तु परिपतति संसारे ॥ ३४ ॥
अर्थ - यह जीव मोहरूपी अंधकारसे अंधा होकर रातदिन विषयोंके निमित्तसे जो पाप होते हैं, उन्हें यज्ञपूर्वक करता रहता है और इसीसे संसारमें पतन करता है। 'णिचिदरधादुसत्त य तरुदस वियलिंदियेसु छच्चेव । सुरणिरय तिरियचउरो चोद्दस मणुवे सदसहस्मा ३५
नित्येतरधातुसप्त च त रुद्रा विकलेन्द्रियेषु षट् चैव । सुरनिरयतिर्यक्चत्वारः चतुर्दश मनुजे शतसहस्राः ॥ ३५ ॥ अर्थ - नित्यनिगोद, इतर निगोद, और धातु अर्थात्
१ गोम्मटमार के जीवकांडकी ८९ नम्बरकी गाथा भी यहीं है । यहा क्षेपक मालूम पड़ती है ।
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पृथ्वीकाय, जलकाय, अग्निकाय, और वायुकायकी सात सात लाख (४२ लाख), वनस्पतिकायकी दश लाख, विकलेन्द्रियकी(द्वीन्द्रिय तेइन्द्री, चौइन्द्रीकी) छह लाख, देव, नारकी और तिर्यचोंकी चार चार लाख, और मनुष्योंकी चौदह लाख, इस तरह सब मिलाकर चौरासी लाख योनियां होती हैं। नगला. संजोगविप्पजोगं लाहालाहं सुहं च दुक्खं च ।
संसारे भूदाण होदि हु माणं तहावमाणं च ॥३६॥ 17 संयोगविप्रयोग लाभालाभं सुग्वं च दुःखं च ।।
__संमारे भूतानां भवति हि मानं तथावमानं च ॥ ३६ ॥
अर्थ-समारमें जितने प्राणी हैं, उन सबको मिलना, विछुरना, नफा, टोटा. मुख, दुग्व, और मान तथा अपमान ( तिरस्कार ) निरन्तर हुआ ही करते हैं। कम्मणिमित्तं जीवो हिंडदि संमारघोरकांतार। जीवस्मण संसारोणिचयणयकम्मणिम्मुको॥३७॥
कर्मनिमिनं जीवः हिंदुनि मलाग्योरकांतार ।
जीवम्य न मंसार : निश्चयनय कर्मनिमुक्तः ॥ ३७ ।। अर्थ-यद्यपि यह जीव कमकं निमित्तम मंमाररूपी बड़े भारी वनमें भटकता रहता है परन्तु निश्चयनयमे (यथार्थम) यह कमसे राहत है, और इसीलिये इसका भ्रमणरूप संमारसं कोई सम्बन्ध नहीं है।
१ "संसार अभूदमाणं च "एगा शंकित पाट हमको मिला था, उसे हमने इस तरह लिखना टीक समझा है ।
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१७
संसारमदिकंतो जीवोवादेयमिदि विचिंतिज्जो । संसारदुहतो जीवो सो हेयमिदि विचिंतिज्जो ॥३८
संसारमतिक्रान्तः जीव उपादेयमिति विचिन्तनीयम् । संसारदुःखाक्रान्तः जीवः स हेयमिति विचिन्तनीयम् ॥ ३८ ॥ अर्थ- जो जीव संसारसे पार हो गया है, वह तो उपादेय अर्थात् ध्यान करने योग्य है, ऐसा विचार करना चाहिये और जो संसाररूपी दुःखोंसे घिरा हुआ है, वह tय अर्थात् ध्यानयोग्य नहीं है, ऐसा चिन्तवन करना चाहिये । भावार्थ-परमात्मा ही ध्यान करनेके योग्य है, वहिरात्मा नहीं है ।
अथ लोकभावना |
जीवादिपयाणं समवाओ सो णिरुच्चये लोगो । तिविहो हवेइ लोगो अहमज्झिमउडुभेयेण ॥ ३९ ॥ जीवादिपदार्थानां समवायः स निरुच्यते लोकः ।
त्रिविधः भवेत् लोकः अधोमध्य मोर्ध्वभेदेन ॥ ३९ ॥
अर्थ -- जीवादि छह पदार्थोंका जो समूह है, उसे लोक कहते हैं और वह अधोलोक, मध्य लोक, और ऊर्ध्वलोकके भेदोंस तीन प्रकारका है । णिरया हवंति ट्ठा मज्झे दीबंबुरासयोसंखा | सग्गो तिसहि भेओ तो उड़ हवे मोक्खो ||४०|
निरया भवंति अधस्तनाः मध्ये द्वीपाम्बुराशयः असंख्याः । स्वर्गः त्रिषष्ठिभेदः एतस्मात् ऊर्ध्वं भवेत् मोक्षः || ४० ॥
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अर्थ-नरक अधो लोकमें हैं, असंख्यात द्वीप तथा समुद्र मध्यलोकमें हैं, और त्रेसठ प्रकारके स्वर्ग तथा मोक्ष ऊर्ध्वलोकमें हैं। इंगितीस सत्त चत्तारि दोण्णि एकेक छक्क चदुकप्पे। ति त्तिय एकेकेंदियणामा उडुआदितेसही॥४१॥
एकत्रिंशत् सप्त चत्वारि द्वौ एकैकं षट्रं चतुःकल्पे । त्रित्रिकमेकैकेन्द्रकनामानि ऋत्वादित्रिषष्टिः ॥ ४१ ॥ अर्थ-स्वर्गलोकमें ऋतु, चंद्र, विमल, वल्गु, वीर आदि ६३ विमान इन्द्रक संज्ञाके धारण करनेवाले हैं। उनका क्रम इस प्रकार है,-सौधर्म इशान स्वर्गके ३१, सानत्कुमार माहेन्द्रके ७, ब्रह्म ब्रह्मोत्तरके ४, लांतव कापिष्टके २, शुक्रमहाशुक्रका १, शतार सहस्रारका १, आनत, प्राणत, आरण और अच्युत इन चारकल्पोंके ६, अधोमध्य और ऊर्ध्व गैवेयिकके तीन तीनके हिसाबमे ९, अनुदिशका १, और अनुत्तरका १ सब मिलकर ६३॥ असुहेण णिश्यतिरियं सुहवजोगेण दिविजणरसोक्खं । सुद्धेण लहइ सिद्धिं एवं लोयं विचिंतिजो ॥ ४२ ॥
अशुभेन निरयतियञ्चं शुभोपयोगेन दिविज-नरसौख्यम् । ।
शुद्धेन लभते सिद्धिं एवं लोकः विचिन्तनीयः ॥ ४२ ॥ १ त्रैलोक्यमारकी ४६३ वी गाथा भी यही है। इससे यहां क्षेपक जान
पड़ता है।
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१९
अर्थ - यह जीव अशुभ विचारोंसे नरक तथा तिर्यंचगति पाता है, शुभविचारोंसे देवों तथा मनुष्योंके सुख भोगता है और शुद्ध विचारोंसे मोक्ष प्राप्त करता है, इस प्रकार लोक भावनाका चिन्तवन करना चाहिये ।
अथ अशुचिभावना |
अट्ठीहिं पडिबद्धं मंसविलित्तं तएण ओच्छण्णं । किमसंकुलेहिं भरिदम, चोक्खं देहं सयाकालं ४३
अस्थिभिः प्रतिबद्धं मांसविलिप्तं त्वचया अवच्छन्नम् । क्रिमिसंकुलै भरितं अप्रशस्तं देहं सदाकालम् ॥ ४३ ॥
अर्थ- हड्डियोंसे जकड़ी हुई है, मांसस लिपी हुई है, चमड़ेसे ढकी हुई है, और छोटे २ कीड़ोंके समूहसे भरी हुई है, इस तरहसे यह देह सदा ही मलीन है । दुग्गंधं वीभत्थं कलिमल (?) भरिदं अचेयणो मुत्तं । सड पडणं सहावं देहं इदि चिंतये णिच्चं ॥ ४४ ॥
दुर्गंधं बीभत्सं कलिमलभृतं अचेतनो मूर्त्तम् । स्खलनपतनं स्वभावं देहं इति चिन्तयेत् नित्यम् ॥ ४४ ॥
अर्थ - यह देह दुर्गंधमय है, डरावनी है, मलमूत्रसे भरी हुई है, जड़ है, मूर्तीक ( रूप रस गंध स्पर्शवाली ) है, और क्षीण होनेवाली तथा विनाशीक स्वभाववाली है; इस तरह निरन्तर इसका विचार करते रहना चाहिये ।
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रंसरहिरमंसमेदट्ठीमजसंकुलं मुत्तप्यकिमिबहुलं । दुग्गंधमसुचि चम्ममयमणिचमचेयणं पडणम्४५॥
रसरुधिरमांसमेदास्थिमज्जासंकुलं मूत्रपूयक्रिमिबहुलम् ।
दुर्गन्धं अशुचि चर्ममयं अनित्यं अचेतनं पतनम् ॥ १५॥ अर्थ-यह देह रस, रक्त, मांस, मेदा और मजा (चर्बी) से भरी हुई है, मूत्र, पीव और कीड़ोंकी इसमें अधिकता है, दुर्गन्धमय है, अपवित्र है, चमड़ेसे ढकी हुई है, स्थिर नहीं है, अचेतन है और अन्तमें नष्ट हो जानेवाली है। देहादोवदिरित्तो कम्मविरहिओ अणंतमुहणिलयो। चोक्खो हवेइ अप्पा इदि णिचं भावणं कुजा४६॥
देहात् व्यतिरिक्तः कर्मविरहितः अनन्तसुखनिलयः । _प्रशस्तः भवेत् आत्मा इति नित्यं भावनां कुर्यात् ॥ ४६ ।।
अर्थ-वास्तवमें आत्मा देहमे जुदा है, कर्मोंसे रहित है, अनन्त सुखोंका घर है, और इमलिये शुद्ध है; इसप्रकार निरन्तर ही भावना करते रहना चाहिये ।
अथ आसवभावना । मिच्छत्तं अविरमणं कसायजोगा य आसवा होति।
१ यह गाथा हमको क्षेपक मालूम पड़ती है। क्योंकि इसमें कही हुई सब बातें ऊपरकी दो गाथाओंमें आ चुकी है। इसके सिवाय इममें विशेष्यका निदेश भी कहीं नहीं किया है। ऊपरकी गाथाओंसे मिलते जुलते आशयवाली देखकर इसे किसी लेखक वा पाठकने प्रक्षिप्त कर दी होगी, ऐसा अनुमान होता है।
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पणपणचउतियभेदा सम्मं परिकित्तिदा समए ४७॥
मिथ्यात्वं अविरमणं कषाययोगाश्च आस्रवा भवन्ति । पञ्चपञ्चचतुःत्रिकभेदाः सम्यक् प्रकीर्तिताः समये ॥ ४७ ॥ अर्थ-मिथ्यात्व, अविरति (हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह ), कषाय, और योग (मन वचन कायकी प्रवृत्ति )रूप परिणाम आस्रव अर्थात् कर्मोंके आनेके द्वार हैं, और उनके क्रमसे पांच, पांच, चार, और तीन भेद जिनशासनमें भले प्रकार कहे हैं। भावार्थ-आत्माके मिथ्यात्वादिरूप परिणामोंका नाम आस्रव है। एयंतविणयविवरियसंसयमण्णाणमिदि हवे पंच । अविरमणं हिंसादी पंचविहो सो हवइ णियमेण ४८
एकान्तविनयविपरीतसंशयं अज्ञानं इति भवेत् पञ्च ।
अविरमणं हिंसादि पञ्चविधं तत् भवति नियमेन ॥ ४८ ॥ अर्थ-मिथ्यात्वके एकान्त, विनय, विपरीत, संशय और अज्ञान ये पांच भेद हैं, तथा अविरतिके हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह ये पांच भेद होते हैं । इनसे कम बढ़ नहीं होते हैं। परमात पो । कोहो माणो माया लोहोवि य चउविहं कसायं . खु । मणवचिकायेण पुणो जोगो तिवियप्पमिदि जाणे ॥ ४९ ॥ महानाही कारण बात।
क्रोधः मानः माया लोभः अपि च चतुर्विधं कषायं खलु । मनोवचःकायेन पुनः योगः त्रिविकल्प इति जानीहि ॥१९॥
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२२
अर्थ - ऐसा जानना चाहिये कि, क्रोध, मान, माया, और लोभ, ये चार कषायके भेद हैं और मन, वचन तथा काय ये तीन योगके भेद हैं। असुहेदरभेदेण दु एक्केकं वणिदं हवे दुविहं । आहारादी सण्णा अमुहमणं इदि विजाणेहि ५० अशुभेतरभेदेन तु एकैकं वर्णितं भवेत् द्विविधम् ।
आहारादिसंज्ञा अशुभमनः इति विजानीहि ॥ ५० ॥
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अर्थ - मन वचन और काय ये अशुभ और शुभके भेदसे दो दो प्रकारके हैं। इनमेंसे आहार, भय, मैथुन और परिग्रह इन चार प्रकारकी संज्ञाओं ( वांछाओं) को अशुभमन जानना चाहिये । भावार्थ - जिस मनमें आहार आदिकी अत्यन्त लोलुपता हो, उसे अशुभमन कहते हैं । किण्हादितिणि लेस्सा करणजसोक्खेसु गिद्दिपरिणामो | ईसाविसादभावो असहमति य जिणा वेंति ॥ ५१ ॥
कृष्णादितिस्रः लेश्याः करणजसौख्येषु गृद्धिपरिणामः । ईर्षाविपाभावः अशुभमन इति च जिना ब्रुवन्ति ॥ ५१ ॥ अर्थ - जिसमें कृष्ण, नील, कापोत ये तीन लेश्या हों, इन्द्रियसम्बन्धी सुखोंमें जिसके लोलुपतारूप परिणाम हों, और ईर्षा ( डाह ) तथा विषाद (खेद ) रूप जिसके भाव रहते हों, उसे भी श्रीजिनेन्द्रदेव अशुभ मन कहते हैं ।
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महावासा | रागो दोसो मोहो हास्सादी-णोकसायपरिणामो । थलो वा सहमो वा असुहमणोति य जिणा वेति ॥ ५२॥ पो .
पारस' . रागः द्वेषः मोहः हास्यादि-नोकषायपरिणामः । स्थूलः वा सूक्ष्मः वा अशुभमन इति च जिनाः ब्रुवन्ति ॥५२॥ अर्थ-राग, द्वेष, मोह, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, और नपुंसकवेदरूप परिणाम भी चाहे वे तीव्र हों, चाहे मन्द हों, अशुभमन है, ऐमा जिनदेव कहते हैं। भत्तिच्छिरायचोरकहाओ वयणं वियाण असुहमिदि । बंधणछेदणमारणकिरिया सा असुहकायेत्ति ॥ ५३ ॥
भक्तस्त्रीराजचौरकथाः वचनं विजानीहि अशुभमिति । बन्धनछेदनमारणक्रिया सा अशुभकाय इति ॥ ५३ ।। अर्थ-भोजनकथा, स्त्रीकथा. राजकथा, और चोरकथा करनेको अशुभवचन जानना चाहिये । और बाँधने, छेदने और मारनेकी क्रियाओंको अशुभकाय कहते हैं। मोत्तूण असुहभावं पुव्वुत्तं णिवसेसदो दव्वं । वदसमिदिसीलसंजमपरिणामं सुहमणं जाणे५४||
मुक्त्वा अशुभभावं पूर्वोक्तं निरवशेषतः द्रव्यम् । व्रतसमितिशीलसंयमपरिणामं शुभमनः जानीहि ॥ ५४ ॥
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२४
अर्थ-पहले कहे हुए रागद्वेषादि परिणामोंको और सम्पूर्ण धनधान्यादि परिग्रहोंको छोड़कर जो व्रत, समिति, शील और संयमरूप परिणाम होते है, उन्हें शुभमन जानना चाहिये। संसारछेदकारणवयणं सुहवयणमिदि जिणुद्दिढे । जिणदेवादिसु पूजा सुहकायंत्ति य हवे चेट्टा ५५
संसारछेदकारणवचनं शुभवचन मिति जिनोद्दिष्टम् ।
जिनदेवादिषु पूजा शुभकायमिति च भवेत् चेष्टा ॥ ५५ ॥ __ अर्थ-जन्ममरणरूप संमारके नष्ट करनेवाले वचनोंको जिनभगवानने शुभवचन कहा है और जिनदेव, जिनगुरु, तथा जिनशास्त्रोंकी पूजारूप कायकी चेष्टाको शुभकाय कहते हैं। जम्मसमुद्दे बहुदो(स-वीचिये)दुक्खजलचराकिण्णे जीवस्स परिव्भमणं कम्मासवकारणं होदि॥५६।।
जन्मममुद्रे बहुदोषवीचिके दुःख जलचराकीर्णे ।
जीवस्य परिभ्रमणं कर्मास्रवकारणं भवति ॥ १६ ॥ __ अर्थ-जिसमें क्षुधा तृषादि दोषरूपी तरंग उठती हैं.
और जो दुःखरूपी अनेक मच्छकच्छादि जलचरोंसे भरा हुआ है, ऐसे संसारसमुद्र में कर्मोके आस्रवके कारण ही जीव गोते खाता है । संसारमें भटकता फिरता है। कम्मासवेण जीवो वूडदि संसारसागरे घोरे । जग्णाणवसं किरिया मोक्खणिमित्तं परंपरया ५७||
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कर्मास्रवेण जीवः बुडति संसारसागरे घोरे ।
या ज्ञानवशा क्रिया मोक्षनिमित्तं परम्परया ॥ ५७ ॥ - अर्थ-जीव इस संसाररूपी महासमुद्रमें अज्ञानके वश कर्मोंका आस्रव करके डूबता है। क्योंकि जो किया ज्ञानपूर्वक होती है, वही परम्परासे मोक्षका कारण होती है । ( अज्ञानवश की हुई क्रिया नहीं )। आसवहेदू जीवो जम्मसमुद्दे णिमजदे खिप्पं । आसवकिरिया तम्हामोक्वणिमित्तंण चिंतेजो५८
आस्रबहेतोः जीवः जन्मममुद्रे निमजति क्षिप्रम् ।
आम्रवक्रिया तम्मान मोक्षनिमित्तं न चिन्तनीया ॥ ५८ ॥ अर्थ-जीव आस्रवके कारण संसारसमुद्र में शीघ्र ही गोते खाता है । इसलिये जिन क्रियाओंसे कर्मोंका आगमन होता है, वे मोक्षको ले जानेवाली नहीं हैं । ऐसा चिन्तवन करना चाहिये। पारंपजाएण दु आसवकिरियाए णत्थि णिव्वाणं। संसारगमणकारणमिदि शिंदं आसवो जाण ५९।।
पारम्पर्येण तु आस्रवक्रियया नास्ति निवाणम् । संसारगमनकारणमिति निन्धं आस्रवो जानीहि ॥ ५९॥ अर्थ-कर्मीका आस्रव करनेवाली क्रियासे परम्परासे भी निर्वाण नहीं हो सकता है । इसलिये संसारमें भटकानेवाले आस्रवको बुरा समझना चाहिये। पुवुत्तासवभेयो णिच्छयणयएण णत्थि जीवस्स । उहयासवणिम्मुकं अप्पाणं चिंतए णिचं ॥ ६०॥
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पूर्वोक्तास्रवभेदः निश्चयनयेन नास्ति जीवस्य । उभयास्रवनिर्मुक्तं आत्मानं चिन्तयेत् नित्यम् ॥ ६० ॥ अर्थ- पहले जो मिथ्यात्व अव्रत आदि आस्रवके भेद कह आये हैं, वे निश्चयनयसे जीवके नहीं होते हैं। इसलिये निरन्तर ही आत्माको द्रव्य और भावरूप दोनों प्रकार के आस्रवोंसे रहित चिंतवन करना चाहिये । अथ संवरभावना ।
चलमलिणमगाढं च वज्जिय सम्मत्तदिकवाडेण । मिच्छत्तासवदारणिरोहो होदिति जिणेहिं णिद्दिहं चलमलिनमगाढं च वर्जयित्वा सम्यक्त्वदृकपाटेन । मिथ्यात्वास्रवद्वारनिरोधः भवति इति जिन निर्दिष्टम् ॥ ६१ ॥ अर्थ -- जो चल, मंलिन और अगाढ़ इन तीन दोषों मे रहित है ऐसे सम्यक्त्वरूपी सघन किवाड़ोंसे मिथ्यात्वरूप आवका द्वार बन्द होता है, ऐसा जिनभगवानने कहा है । भावार्थ - आत्माके सम्यक्त्वरूप परिणामोंसे मिथ्यात्वका आस्रव रुककर मिथ्यात्व -संवर होता है ।
१ आत्माकी रागादि भावरूप प्रवृत्तिको भावाव कहते है । और उस प्रवृत्ति से कार्माण वर्गणाम् पुलस्कंचोके आगमनको द्रव्यास्त्र कहते हैं । २ देव गुरु शास्त्रों अपनी बुद्धि रखनेको चल दोष कहते है, जैसे यह देव मेरा है, यह मन्दिर मेरा है, यह दूसरेका देव है, यह दूसरेका मन्दिर है । इसप्रकारके परिणामोसे सम्यग्दर्शनमें चल दोष आता है । ३ सम्यक्यरूप परिणामोंमे सम्यनवरूप मोहकी प्रकृतिके उदयसे जो मलीनता होती है, उसे मल दोष कहते है । यह सोनेमें कुछ एक मैलेपन के समान होता है । ४ श्रद्धानमें शिथिलता होनेको अगाढ़ कहते हैं । जैसे सब तीर्थंकरोंके अनंतशक्ति के धारक होनेपर भी शान्तिनाथको शान्तिके करनेवाले और पार्श्वनाथको रक्षा करनेवाले मानना ।
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पंचमहब्वयमणसा अविरमणणिरोहणं हवे णियमा। कोहादिआसवाणं दाराणि कसायरहियपल्लगेहिं(?)
पंचमहाव्रतमनसा अविरमणनिरोधनं भवेत् नियमात् ।
क्रोधादिआस्रवाणां द्वाराणि कषायरहितपरिणामैः ॥ ६२ ॥ अर्थ-अहिंसादि पांच महाव्रतरूप परिणामोंसे नियमपूर्वक हिंसादि पांचों अबतोंका आगमन रुक जाता है
और क्रोधादि कषायरहित परिणामांसे क्रोधादि आनवोंके द्वार बन्द हो जाते हैं। भावार्थ-पांच महाव्रतोंसे पांच पापोंका संवर होता है और कपायोंके रोकनेसे कपाय-संबर होता है। सुहजोगेसु पवित्ती संवरणं कुणदि असुहजोगस्स। सुहजोगस्स गिरोहो सुद्धवजोगेण संभवदि।।६३॥
शुभयोगेपु प्रवृत्तिः संवरणं करोति अशुभयोगस्य । शुभयोगस्य निरोधः शुद्धोपयोगेन सम्भवति ।। ६३ ॥ अर्थ-मन वचन कायकी शुभ प्रवृत्तियोंसे अशुभयोगका संवर होता है और केवल आत्माके ध्यानरूप शुद्धोपयोगसे शुभयोगका संवर होता है। सुडुवजोगेण पुणो धम्मं सुकं च होदि जीवस्स । तम्हा संवरहेदू झाणोत्ति विचिंतये णिचं ॥ ६४ ॥
शुद्धोपयोगेन पुनः धर्म शुक्लं च भवति जीवस्य । तस्मात् संवरहेतुः ध्यानमिति विचिन्तयेत् नित्यम् ॥ ६४ ॥ अर्थ-इसके पश्चात् शुद्धोपयोगसे जीवके धर्मध्यान
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और शुक्लध्यान होते हैं । इसलिये संवरका कारण ध्यान है, ऐसा निरन्तर विचारते रहना चाहिये । भावार्थउत्तम क्षमादिरूप दश धर्मोके चिन्तवन करनेको धर्मध्यान कहते हैं और बाह्य परद्रव्योंके मिलापसे रहित केवल शुद्धात्माके ध्यानको शुक्लध्यान कहते हैं । इन दोनों ध्यानोंसे ही संवर होता है । जीवस्स ण संवरणं परमट्टणएण सुद्धभावादो । संवरभावविमुक्कं अप्पाणं चिंतये णिचं ॥ ६५ ॥
जीवस्य न संवरणं परमार्थनयेन शुद्धभावात् । संवरभावविमुक्तं आत्मानं चिन्तयेत् नित्यम् ॥ ६५ ॥ अर्थ - परन्तु शुद्ध निश्चयनयमे ( वास्तवमें) जीवके संवर ही नहीं है । इसलिये संवरके विकल्पसे रहित आरमाका निरन्तर शुद्धभावसे चिन्तवन करना चाहिये । भावार्थ - आस्रव संवर आदि अवस्थायें कर्मके मस्त्रन्धसे होती हैं, परन्तु वास्तव में आत्मा कर्मजंजालसे रहित शुद्धस्वरूप है ।
अथ निर्जराभावना | बंधपदेसग्गलणं णिज्जरणं इदि हि जि (णवरोप) तम् । जेण हवे संवरणं तेण दु णिज्जरणमिदि जाणे || ६६ || बन्धप्रदेशगलनं निर्जरणं इति हि जिनवरोपात्तम् ।
येन भवेत्संवरणं तेन तु निर्जरणमिति जानीहि ॥ ६६ ॥ अर्थ - कर्मबन्धके पुद्गलवर्गणारूप प्रदेशोंका जिनका कि आत्माके साथ सम्बन्ध हो जाता है, झड़ जाना ही
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निर्जरा है ऐसा जिनदेवने कहा है । और जिन परिणामोंसे संवर होता है, उनसे निर्जरा भी होती है। भावार्थऊपर कहे हुए जिन सम्यक्त्व महाव्रतादि परिणामोंसे संवर होता है, उनसे निर्जरा भी होती है । 'भी' कहनेका अभिप्राय यह है कि, निर्जराका मुख्य कारण तप हैं । सी पुण दुविहा या सकालपक्का तवेण कयमाणा । चादुगदीणं पढमा वयजुत्ताणं हवे बिदिया ॥६७॥
सा पुनः द्विविधा ज्ञेया स्वकालपक्का तपसा क्रियमाणा । चातुर्गतीनां प्रथमा व्रतयुक्तानां भवेत् द्वितीया ॥ ६७ ॥ अर्थ - ऊपर कही हुई निर्जरा दो प्रकारकी है, एक वह जो अपना काल पूर्ण करके पकती है अर्थात् जिसमें कामवगणा अपनी स्थितिको पूरी करके झड़ जाती हैं, और दूसरी वह जो तप करनेसे होती है अर्थात् जिसमें कामीणवर्गणा अपनी बंधकी स्थिति तपके द्वारा बीचमें ही पूरी करके - पक करके खिर जाती हैं। इनमेंसे पहली स्वकाप वा सविपाक निर्जरा चारों गतिवाले जीवोंके होती है और दूसरी तपकृता वा अविपाकनिर्जरा केवल व्रतधारी श्रावक तथा मुनियों के होती है । अथ धर्मभावना |
एयरसदसभेयं धम्मं सम्मत्तपुव्वयं भणियं । सागारणगाराणं उत्तम सुहसंपजुत्तेहिं ॥ ६८ ॥
१ स्वामिकार्तिक यानुप्रक्षा में भी यह गाथा आई है। वहां या तो यह क्षेपक झेगी या कार्तिकेयस्वामीने उसे इसीपरसे उद्धृतकरके संग्रह कर ली होगी ।
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एकादशदशभेदं धर्म सम्यक्त्वपूर्वकं भणितम् । सागारानगाराणां उत्तमसुखसम्प्रयुकैः ।। ६८ ॥ अर्थ-उत्तम सुख अर्थात् आत्मीक सुखमें लीन हुए जिनदेवने कहा है कि, श्रावकों और मुनियोंका धर्म जो कि सम्यक्त्वसहित होता है, क्रमसे ग्यारह प्रकारका और दश प्रकारका है । अर्थात् श्रावकोंका धर्म ग्यारह प्रकारका है और मुनियोंका दश प्रकारका है।। दंसणवयसामाइयपोसहसच्चित्तरायभत्ते य । बम्हारंभपरिग्गहअणुमणमुद्दिट्ट देसविरदेदे ।।६९।।
दर्शनव्रतसामायिकप्रोषधसचित्तरात्रिभक्ते च । ब्रह्मारंभपरिग्रह अनुमतमुद्दिष्टं देशविरतते ॥ ६ ॥ अर्थ-दर्शन, व्रत, सामायिक, प्रोषधोपवास, सचित्तत्याग, रात्रिभक्तत्याग, ब्रह्मचर्य, आरंभत्याग, परिग्रहत्याग, अनुमतित्याग और उदिष्टत्याग ये ग्यारह भेद देशवत अथवा श्रावकधर्मके हैं। ये भेद श्रावकोंकी ग्यारह प्रतिमाके नामसे प्रसिद्ध हैं। उत्तमखममद्दवजवसच्चसउच्चं च संजमं चेव । तवतागमकिंचण्हं बम्हा इदि दसविहं होदि॥७॥
उत्तमक्षमामार्दवार्जवसत्यशौचं च संयमः चैव ।
तपस्त्यागं आकिञ्चन्यं ब्रह्म इति दशविधं भवति ॥ ७० ॥ १ गोमटसारके जीवकांडकी ४७७ नम्बरकी गाथा और वसुनंदिश्रावकाचारकी चौथी गाथा भी यही है । यहांपर क्षेपक मालम पड़ती है। चार पाTE २२जी मारें।
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अर्थ - उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव, सत्य, शौच, संयम, तप, त्याग, आकिञ्चन्य, और ब्रह्मचर्य ये दश भेद मुनिधर्मके हैं ।
कोहुप्पत्तिस्स पुणो बहिरंगं जदि हवेदि सक्खादं । ण कुणदि किंचिवि कोहं तस्स खमा होदि धम्मोति
क्रोधोत्पत्तेः पुनः बहिरङ्गं यदि भवेत् साक्षात् ।
न करोति किञ्चिदपि क्रोधं तस्य क्षमा भवति धर्मः इति७१
अर्थ - क्रोधके उत्पन्न होनेके साक्षात् बाहिरी कारण मिलने पर भी जो थोड़ा भी क्रोध नहीं करता है, उसके उत्तमक्षमा धर्म होता है । कुलरूबजादिबुद्धिस तवसुदसीलेस गावं किंचि । जो णवि कुव्वदि समणो मद्दवधम्मं हवे तस्स ७२ कुलरूपजातिबुद्धिषु तपश्रुतशीलेषु गर्ने किञ्चित् ।
यः नैव करोनि समना मार्दवधर्मे भवेत् तस्य ॥ ७२ ॥
अर्थ - जो मनस्वी पुरुष कुल, रूप, जाति, बुद्धि, तप, शास्त्र, और शीलादिके विषय में घोड़ासा भी घमंड नहीं करता है, उसीके मार्दव धर्म होता है । मोत्तूण कुडिलभावं णिम्मलहिदयेण चरदि जो
१ कुल और जाति में इतना अन्तर है कि, कुल पिताके सम्बन्ध से होता है, और जाति माताके सम्बन्ध से होती है । किसी सूर्यवंशी राजाका एक पुत्र शूद्रा रानीके गर्भ से उत्पन्न हुआ हो, तो उसका कुल सूर्यवंश कहलायगा और जाति शूद्र कहलायगी ।
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समणो | अज्जवधम्मं तइयो तस्स दु संभवदि यिमेण ॥ ७३ ॥
मुक्त्वा कुटिलभावं निर्मलहृदयेन चरति यः समनाः । आर्जवधर्मः : तृतीयः तस्य तु संभवति नियमेन || ७३ || अर्थ - जो मनस्वी ( शुभविचारवाला) प्राणी कुटिलभाव वा मायाचारी परिणामोंको छोड़कर शुद्ध हृदयसे चारित्रका पालन करता है, उसके नियमसे तीसरा आर्जव नामका धर्म होता है । भावार्थ छल कपटको छोड़कर मन वचन कायकी सरल प्रवृतिको आर्जव धर्म कहते हैं । परसंतावयकारणवयणं मोत्तूण सपरहिदवयणं । जो वददि भिक्खु तुझ्यो तस्स दु धम्मो हवे सच्चं ७४
परसंतापककारणवचनं मुक्त्वा खपरहितवचनम् ।
यः वदति भिक्षुः तुरीयः तम्य तु धर्मः भवेत् सत्यम् ॥७४॥ अर्थ - जो मुनि दूसरेको क्लेश पहुंचानेवाले वचनों को छोड़कर अपने और दूसरेके हित करनेवाले वचन कहता है, उसके चौथा सत्यधर्म होता है । जिस वचनके कहनेसे अपना और पराया हित होता है, तथा दूसरेको कष्ट नहीं पहुंचता है, उसे सत्य धर्म कहते हैं । कंखाभावणिवित्तिं किच्चा वेरग्गभावणाजुत्तो | जो वट्टदि परममुणी तस्स दुधम्मो हवे सौचं ७५ कांक्षाभावनिवृतिं कृत्वा वैराग्यभावनायुक्तः ।
यः वर्तते परममुनिः तस्य तु धर्मः भवेत् शौचम् ॥ ७५ ॥
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अर्थ-जो परममुनि इच्छाओंको रोककर और वैराग्यरूप विचारोंसे युक्त होकर आचरण करता है, उसके शौचधर्म होता है । भावार्थ-लोभकपायका त्याग करके उदासीनरूप परिणाम रखनेको शौचधर्म कहते हैं। वेदसमिदिपालणाए दंडच्चारण इंदियजएण । परिणममाणस्स पुणो संजमधम्मो हवे णियमा ७६
व्रतसमितिपालनेन दण्डत्यागेन इन्द्रियजयेन । । परिणममानस्य पुनः संयमधर्मः भवेत् नियमात् ।। ७६ ॥ अर्थ-व्रतों और ममितियोंके पालनरूप, दंडत्याग अर्थात् मन वचन कायकी प्रवृत्तिके रोकनेरूप, और पांचों इन्द्रियोंके जीतनेरूप परिणाम जिस जीवके होते हैं, उनके मंयमधर्म नियमसे होता है । सामान्यरूपसे पांचों इन्द्रियों और मनके रोकनेसे संयमधर्म होता है । व्रत समिति गुप्ति इसीके भेद हैं। विसयकसायविणिग्गहभावं काऊण झाणसिज्झीए। जो भावइ अप्पाणं तस्स तवं होदि णियमेण ७७
विषयकषायविनिग्रहभावं कृत्वा ध्यानसिद्धयै । __ यः भावयति आत्मानं तस्य तपः भवति नियमेन ॥ ७७ ।।
अर्थ-पांचों इन्द्रियोंके विषयोंको तथा चारों कषायोंको रोककर शुभ ध्यानकी प्राप्तिके लिये जो अपनी १ इसी आशयकी गाथा गोमट्टमारके जीवकांटमें भी कही है;
वदसमिदिकसायाणं दंडाण तहिदियाण पंचण्हं । धारण पालण णिग्गह चाग जओ संजमो भणिओ॥४६५॥
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आत्माका विचार करता है, उसके नियमसे तप होता है। णिवेगतियं भावइ मोहं चइऊण सव्वदव्वेसु । जो तस्स हवेचागो इदि भणिदं जिणवरिंदेहिं ७८॥
निर्वेगत्रिकं भावयेत् मोहं त्यक्त्वा सर्वद्रव्येषु ।
यः तस्य भवेत् त्यागः इति भणितं जिनवरेन्द्रः ।। ७८ ॥ अर्थ-जिनेन्द्र भगवानने कहा है कि, जो जीव सारे परद्रव्योंसे मोह छोड़कर संसार, देह, और भोगोंसे उदासीनरूप परिणाम रखता है, उसके त्यागधर्म होता है। होऊण य णिस्संगो णियभावं णिग्गहिनु सुहदुहदं । णिदेण दु वट्टदि अणयारो तस्सकिंचण्हं ।।७९।।
भूत्वा च निम्सङ्गः निजभावं निग्रहीत्वा सुखदुःखदम् । निर्द्वन्द्वेन तु वर्तते अनगारः तम्याकिञ्चन्यम् ।। ७९ ॥ अर्थ--जो मुनि सब प्रकारके परिग्रहोंमे रहित होकर और सुख दुःखके देनेवाले कर्मजनित निजभावोंको रोककर निर्द्वन्द्वतासे अर्थात् निश्चिन्ततासे आचरण करता है, उसके आकिंचन्य धर्म होता है । भावार्थ-अन्तरंग
और बहिरंग परिग्रहके छोड़नेको आकिंचन्य कहते हैं। सव्वंगं पेच्छंतो इत्थीणं तासु मुयदि दुव्भावम् । सो बम्हचेरभावं मुक्कदि खल्लु दुद्धरं धरदि ।।८।।
सर्वाङ्गं पश्यन स्त्रीणां तामु मुञ्चति दुर्भावम् ।।
स ब्रह्मचर्यभावं सुकृतीः खलु दुर्द्धरं धरति ।। ८० ॥ अर्थ-जो पुण्यात्मा स्त्रियोंके सारे सुन्दर अंगोंको
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देखकर उनमें रागरूप बुरे परिणाम करना छोड़ देता है, वही दुर्द्धर ब्रह्मचर्यधर्मको धारण करता है। सावयधम्मं चत्ता जदिधम्मे जो हु वट्टए जीवो। सो ण य वजदि मोक्खं धम्म इदि चिंतये णिचं८१
श्रावकधर्म त्यत्तवा यतिधर्मे यः हि वर्तते जीवः ।
स न च वर्जति मोक्षं धर्ममिति चिन्तयेत् नित्यम् ।।८१।। अर्थ-जो जीव श्रावकधर्मको छोड़कर मुनियोंके धमैका आचरण करता है, वह मोक्षको नहीं छोड़ता है। अर्थात् मोक्षको पा लेता है। इस प्रकार धर्मभावनाका सदा ही चिन्तवन करते रहना चाहिये । भावार्थ-यद्यपि परंपरामे श्रावकधर्म भी मोक्षका कारण है, परन्तु वास्तवमें मुनिधर्मसे ही साक्षात् मोक्ष होता है, इसलिये इसे ही धारण करनेका उपदेश दिया है । णिच्छयणएण जीवो सागारणगारधम्मदो भिण्णो। मज्झत्थभावणाए सुद्धप्पं चिंतये णिचं ॥ ८२॥
निश्चयनयन जीवः मागारानागारधर्मतः भिन्नः ।
मध्यस्थभावनया शुद्धात्मानं चिन्तयेत् नित्यम् ॥ ८२ ।। १ पहले कही हुई ६८ नम्बरकी गाथाका और इसका सम्बन्ध मिलानेसे ऐसा मालूम होता है, कि ६८ वी गाथाके पश्चात्की गाथा यही है, बीच में जो गाथाय है, वे प्रतिमा और दशधर्मोके प्रकरणको देखकर किसीने क्षेपकके तौरपर शामिल कर दी है । और प्रतिमाओंके तो केवल नाममात्र गिना दिये है, परन्तु धर्मोका स्वरूप पूरा कह दिया गया है; इससे भी ये गाथाय क्षेपक मालूम होती हैं। ग्रन्थका तो दशधोंके समान ग्यारह प्रतिमाओंका स्वरूप भी जुदा २ कहते ।
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अर्थ-जीव निश्चयनयसे श्रावक और मुनिधर्मसे विलकुल जुदा है, इसलिये रागद्वेषरहित परिणामोंसे शुद्धस्वरूप आत्माका ही सदा ध्यान करना चाहिये । अथ बोधिदुर्लभ भावना ।
उप्पज्जदि सण्णाणं जेण उवारण तस्सुवायस्स | चिंता हवेइ वोही अचंत्तं दुलहं होदि ॥ ८३ ॥ उत्पद्यते सद्ज्ञानं येन उपायेन तम्योपायम्य । चिन्ता भवेत् बोधिः अत्यन्त दुर्लभं भवति ॥ ८३ ॥ अर्थ - जिम उपायसे सम्यग्ज्ञानकी उत्पत्ति हो, उस उपायकी चिन्ता करनेको अत्यन्त दुर्लभ बोधिभावना कहते हैं । क्योंकि बोधि अर्थात् सम्यग्ज्ञानका पाना बहुत ही कठिन है ।
कम्मुदयजपज्जाया हेयं खाओवसमयणाणं खु । सगदव्वमुवादेयं णिच्छयदो होदि सण्णाणं || ८४|| कर्मोदय पर्याया हेयं क्षायोपशमिकज्ञानं खलु ।
स्वकद्रव्यमुपादेयं निश्चयतः भवति सद्ज्ञानम् ॥ ८४ ॥ अर्थ - अशुद्ध निश्चयनयसे क्षायोपशमिकज्ञान कमक उदयसे जो कि परद्रव्य हैं उत्पन्न होता है, इसलिये हेय अर्थात् त्यागने योग्य है और सम्यग्ज्ञान ( बोधि ) स्वकद्रव्य है अर्थात् आत्माका निजस्वभाव है, इसलिये उपादेय ( ग्रहण करने योग्य ) है | मूलत्तरपयडीओ मिच्छत्तादी असंखलोगपरिमाणा ।
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परदव्वं सगदव्वं अप्पा इदि णिच्छयणएण||५||
मूलोत्तरप्रकृतयः मिथ्यात्वादयः असंख्यलोकपरिमाणाः । परद्रव्यं स्वकद्रव्यं आत्मा इति निश्चयनयेन ।। ८५ ॥ अर्थ-अशुद्ध निश्चयनयसे कर्मोकी जो मिथ्यात्व आदि मूलप्रकृतियाँ वा उत्तर प्रकृतियाँ गिनतीमें असंख्यात लोकके बराबर हैं, वे परद्रव्य हैं अर्थात् आत्मासे जुदी हैं और आत्मा निज द्रव्य है। एवं जायदि णाणं हेयमुबादेय णिच्छये णत्थि । चिंतेजइ मुणि बोहिं संसारविरमणटे य॥ ८६ ॥
एवं जायते ज्ञानं हेयोपादेयं निश्चयेन नास्ति । चिन्तयेत् मुनिः बोधि संसारविरमणार्थ च ॥ ८६ ।। अर्थ-इस प्रकार अशुद्ध निश्चयनयसे ज्ञान हेय उपादेयरूप होता है, परन्तु पीछे उममें (ज्ञानमें ) शुद्ध निश्चयनयसे हेय और उपादेयरूप विकल्प भी नहीं रहता है। मुनिको संसारमे विरक्त होनेके लिये सम्यक्ज्ञानका (बोधि भावनाका) इसी रूपमें चिन्तवन करना चाहिये। बारसअणुवेक्खाओ पञ्चक्खाणं तहेव पडिकमणं । आलोयणं समाही तम्हा भावेज अणुवेक्खा।८७॥
द्वादशानुप्रेक्षाः प्रत्याख्यानं तथैव प्रतिक्रमणम् ।
आलोचनं समाधिः तस्मात् भावयेत् अनुप्रेक्षाम् ॥ ८७ ॥ अर्थ-ये बारह भावना ही प्रत्याख्यान, प्रतिक्रमण, आलोचना, और समाधि (ध्यान) स्वरूप हैं, इसलिये निरन्तर इन्हींका चितवन करना चाहिये।
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रत्तिदिवं पडिकमणं पञ्चक्खाणं समाहिं सामइयं । आलोयणं पकुव्वदि जदि विज्जदि अप्पणो सत्ती८८
रात्रिंदिवं प्रतिक्रमणं प्रत्याख्यानं समाधिं सामयिकम् । आलोचनां प्रकुर्यात् यदि विद्यते आत्मनः शक्तिः ॥ ८८ ॥ अर्थ - यदि अपनी शक्ति हो, तो प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान, समाधि, सामायिक, और आलोचना रातदिन, करते रहो ।
मोक्खगया जे पुरिसा अणाइकालेण बारअणुवेखं । परिभाविऊण सम्मं पणमामि पुणो पुणो तेसिं ॥ ८९ ॥
मोक्षगता ये पुरुषा अनादिकालेन द्वादशानुप्रेक्षाम् । परिभाव्य सम्यक् प्रणमामि पुनः पुनः तेभ्यः ॥ ८९ ॥ अर्थ - जो पुरुष इन बारह भावनाओंका चितवन करके अनादि काल से आजतक मोक्षको गये हैं, उनको मैं मनवचनकायपूर्वक बारंबार नमस्कार करता हूं । किं पलवियेण बहुणा जे सिद्धा खरा गये काले । झंति य जे (भ) विया तज्जाणह तस्स माहप्पं ९०
किं प्रलपितेन बहुना ये सिद्धा नरवरा गते काले ।
सेत्स्यन्ति च ये भविकाः तद् जानीहि तस्याः माहात्म्यम् ९० अर्थ - इस विषय में अधिक कहने की जरूरत नहीं है । इतना ही बहुत है कि भूतकाल में जितने श्रेष्ठपुरुष सिद्ध हुए
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हैं और जो आगे होंगे वे सब इन्हीं भावनाओंका चिंतवन करके ही हुए हैं । इसे भावनाओंका ही माहात्म्य समझना चाहिये। इदि णिच्चयववहारंजं भणियं "कुंदकुंदमुणिणाहें। जो भावइ सुद्धमणो सो पावइ परमणिब्वाणं ९१॥
इति निश्चयव्यवहारं यत् भणितं कुन्दकुन्दमुनिनाथैः। __ यः भावयति शुद्धमनाः स प्राप्नोति परमनिर्वाणम् ॥ ९१ ॥
अर्थ-इस प्रकार निश्चय और व्यवहार नयसे यह वारह भावनाओंका स्वरूप जो मुनियोंके स्वामी श्रीकुन्दकुन्दाचार्यने कहा है, उसे जो पुरुष शुद्धचित्तसे चितवन करेगा, वह मोक्षको प्राप्त करेगा।
ददि बारसअणुवेक्खा । ?
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भूधरदासजीकृत बारह भावना ।
दोहा । राजा राणा छत्रपति, हाथिनके असवार । मरना सबको एकदिन, अपनी अपनी पार ॥१॥ दलबल देई देवता, मातपिता परिवार। मरती बिरियां जीवको, कोई न राखनहार ॥२॥ दामविना निरधन दुखी, तृष्णावश धनवान । कहूं न सुख संसारमें, सब जग देख्यौ छान ॥३॥ आप अकेला अवतरै, मग अकेला होय।। यो कबह या जीवकों, साथी सगा न कोय ॥४॥ जहां देह अपनी नहीं, तहां न अपना कोय । घर संपति पर प्रगट ये, पर हैं परिजन लोय ॥ ५॥ दिपै चाम चादर मढ़ी, हाड़ पीजरा देह । भीतर या सम जगत में, और नहीं घिनगेह ॥ ६॥
सोरठा। मोहनींदके जोर, जगवासी घृमै सदा । कर्म चोर चहुंओर, सरवस टूट मुधि नहीं ॥ ७॥ सतगुरु देय जगाय, मोहनींद जय उपशमै । तब कछु बनै उपाय, कर्मचोर आवत रुके ॥ ८॥
दोहा । ज्ञान दीप तप तेलभर, घर शोधे भ्रम छोर । या विधि विन निकसैं नहीं, पैठे पूरव चोर ॥२॥ पंचमहावत संचरन, समिति पंचपरकार । प्रवल पंच इन्द्रियविजय, धार निर्जरा सार ॥१०॥ चौदह राजु उतंग नभ, लोक पुरुषसंटान । तामें जीव अनादिन, भरमत हैं विन शान ॥ ११ ॥ जाँचे सुरतरु देय सुख, चिंतन चिंतारैन । विन जाँचे विन चिंतये, धर्म सकल सुखदैन ॥ १२ ॥ धन कन कंचन राजसुख, सबहि सुलभकर जान । दुलेभ है संसारमे, एक जथारथ ज्ञान ॥ १३ ॥
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