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जैनशतक ।
लहते रहते अविचारी । याविधि संत कहैं धनि हैं, धन हैं जिनवन बड़े उपगारी ॥ १५ ॥ इति मंगलाचरण |
जिनवाणी और मिथ्यावाणी । कवित्त मनहर |
कैसेकर केतकी कनेर एक कहे जाँय, आकदूध गाय दूध अंतर घनेर है । पीरी होत री री पैन रीस करे कंचनकी, कहां कागवानी कहां कोयलकी टेर है ॥ कहां भान भारो कहां, आंगिया विचारो कहां, पूनों को उजारो कहां मावस अँधेर हैं । पच्छ छोर पारखी निहारो नेक नीके करि, जैनवेन औरवेन तनों ही फेर है ॥ १६ ॥ वैराग्यकामना |
कब गृहवाससों उदास होय वन सेऊं. वेऊं निजरूप गति रोकूं मनं-करीकी । रहि हों अडोल एक आसन अचल अंग, सहि हों परीसा शीत घाम - मेघझरीकी ॥ सारंगसमाज खाज कबधों खुजै है आन, ध्यानदलजोर जीतूं सेना मोहअरीकी । एकलविहारी
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१ पीतल । २ हिस- बराबरी । ३ खद्योत, पटवीजना । ४ अमावस्या | ५ दूसरे धर्मवालोकं वचनोमे । ६ जानू अनुभवू । ७ मनरूपी हाथीकी ८ मृगोके समूह |
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