________________
४७
जैन बीसोंके मंदिर में उसी प्रकार अष्ट द्रव्यादिसे पूजन करते हैं जिस प्रकार कि वे अपने मंदिरों में करते हैं। जिनको ऐसा देखनेका अवसर न मिला हो वे दक्षिण देशकी ओर जाकर स्वयं देख सकते हैं । उधर जानेपर उनको ऐसी जैनजातियां भी आम तौरपर पूजन करती हुई मिलेंगी जिनमें पुनर्वि वाहकी प्रथा भी जारी है ।
इसके अतिरिक्त दस्सा जैनियोंने अनेक प्रतिष्ठाएँ भी कराई हैं । एक प्रतिष्ठा शोलापुरके सेठ रावजी नानचंदने कराई थी। पिछले साल भी दस्सा जैनियों की दो प्रतिष्ठाएँ हो चुकी हैं । प्रतिष्ठा करानेवाले भगवानकी प्रतिमा के साथ रथादिकमें बैठते हैं और स्वयं भगवानका अष्ट द्रव्यसे पूजन करते है । इसप्रकार प्रवृत्ति भी दस्सोंके पूजनाऽधिकारका भले प्रकार समर्थन करती है । इसलिये दस्सोंको बीसोंके समान ही पूजनका अधिकार प्राप्त है। किसी किसीका कहना है कि अपध्वंसज अर्थात् व्यभिचारजातको ही दस्सा कहते हैं और व्यभिचारजात पूजनके अधिकारी नहीं होते; परन्तु ऐसा कहने में कोई प्रमाण नहीं है । जब प्रवृत्तिकी ओर देखते हैं तो वह भी इसके विरुद्ध पाई जाती है- जो मनुष्य किसी वि. धवा स्त्रीको प्रगट रूपसे अपने घर में डाल लेता है अर्थात् उसके साथ कराओ ( धरेजा ) कर लेता है वह स्वयं व्यभिचारजात (व्यभिचारसे पैदा हुआ मनुष्य) न होते हुए भी दस्सा समझा जाता है । यदि कोई बीसा किसी नीच जाति ( शूद्रादिक ) की कन्यासे विवाह कर लेता है तो वह भी आजकल जातिसे च्युत किया जाकर दस्सा या गाटा बनादिया जाता है और उसकी संतान भी दस्सों में ही परिगणित होती है । इसीप्रकार यदि विधवाके साथ कराओ कर लेनेसे कोई पुत्र पैदा हो और उसका विवाह विधवासे न होकर किसी कन्यासे हो तो विधवा-पुत्रकी संतान व्यभिचारजात न होते हुए भी दस्सा ही कहलाती है । बहुधा वह संतान जो भर्तार के जीवित रहते हुए जारसे उत्पन्न होती है, वह व्यभिचारजात होते हुए भी दस्सों में शामिल नहीं की जाती । कहीं कहींपर दस्सेकी कन्यासे विवाह कर लेनेवाले बीसेको भी जाति से खारिज (च्युत) करके दस्सोंमें शामिल कर देते हैं; परन्तु बम्बई और दक्षिण प्रान्तादि बहुतसे स्थानोंमें यह प्रथा नहीं है । वहांपर दस्सों और बीसो में परस्पर