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निर्जरा है ऐसा जिनदेवने कहा है । और जिन परिणामोंसे संवर होता है, उनसे निर्जरा भी होती है। भावार्थऊपर कहे हुए जिन सम्यक्त्व महाव्रतादि परिणामोंसे संवर होता है, उनसे निर्जरा भी होती है । 'भी' कहनेका अभिप्राय यह है कि, निर्जराका मुख्य कारण तप हैं । सी पुण दुविहा या सकालपक्का तवेण कयमाणा । चादुगदीणं पढमा वयजुत्ताणं हवे बिदिया ॥६७॥
सा पुनः द्विविधा ज्ञेया स्वकालपक्का तपसा क्रियमाणा । चातुर्गतीनां प्रथमा व्रतयुक्तानां भवेत् द्वितीया ॥ ६७ ॥ अर्थ - ऊपर कही हुई निर्जरा दो प्रकारकी है, एक वह जो अपना काल पूर्ण करके पकती है अर्थात् जिसमें कामवगणा अपनी स्थितिको पूरी करके झड़ जाती हैं, और दूसरी वह जो तप करनेसे होती है अर्थात् जिसमें कामीणवर्गणा अपनी बंधकी स्थिति तपके द्वारा बीचमें ही पूरी करके - पक करके खिर जाती हैं। इनमेंसे पहली स्वकाप वा सविपाक निर्जरा चारों गतिवाले जीवोंके होती है और दूसरी तपकृता वा अविपाकनिर्जरा केवल व्रतधारी श्रावक तथा मुनियों के होती है । अथ धर्मभावना |
एयरसदसभेयं धम्मं सम्मत्तपुव्वयं भणियं । सागारणगाराणं उत्तम सुहसंपजुत्तेहिं ॥ ६८ ॥
१ स्वामिकार्तिक यानुप्रक्षा में भी यह गाथा आई है। वहां या तो यह क्षेपक झेगी या कार्तिकेयस्वामीने उसे इसीपरसे उद्धृतकरके संग्रह कर ली होगी ।