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यति श्रीनयनसुखजी विरचित । ११ प्राकृतके शब्द सिद्धि किये हैं। सातौं ही विभक्ति पटलिंग करता करम, कर्ण संप्रदान अपादान कहि दिये हैं । फेरि अधिकरण समास द्वंदजादि कहे, तद्धितादि क्रियाके सुभाव दरसिये हैं । तेई शब्द फेरि संसकृतसेती सिद्ध किये, शब्दविद्याधीश ज्ञानी ताकौं प्रणमिये हैं ॥ ३९॥
यशोनन्दि माणिक्यनन्दि आदि। रची हैं रुचिर जैनसंहिता सुगुरु फेर, वर्ण और आश्रमोंकी संहिता सुनाई है । यशोनंदिसंहिता रची है वीरसंहिता सुनी हैं दशसंहिना सुगुरुनें बनाई है ॥ भये मुनि माणिकादिनंदि नामा महागुणी, सातौं नय पांचौं परमाणता जनाई है। रच्यो है प्रमेय-अरविंद-मारतंड ग्रंथ, वस्तुकी खभाव साधि भ्रमता हनाई है ॥४०॥
जिनसेन स्वामी। सिरी जिनसेन मुनि भये हैं महान गुनि, रच्यो है महापुराण आदि नाम धरिकै । कल्पकालतनैं पटकालनकी गति थिति, रचना प्रलेको हाल कह्यो शुद्ध करिकै ।। च्यार बीस तीर्थकर दशदोष चक्रधर, नारायण नवको कथानक उचरिकै । नव प्रतिनारायण नव हलधर कहे, जैसे जीव पुन्य पाप भोगैं बंध परिकै ॥४१॥ भोग भूमिको उद्योत जैसे जैसे सुख होत, चौदा मनुअंतरकी जैसी कही कथा है । जसै भोगभूमि गई जसें कर्मभूमि भई, आदि
१ प्रसिद्ध जैनेन्द्रमें प्राकृत के शब्दोकी सिद्धि नहीं है । २ वीरनन्दिसंहिता । ३ प्रमेयकमलमार्तण्ड । ४ महापुराणका पूर्वभाग आदिपुराण रचा ।