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जैनग्रन्थरत्नाकरे ताको आय मिलै मुखसंपति, कीरति रहै तिहूं जग छाय। जिनसों प्रीत बढे ताके घट, दिन दिन धर्मबुद्धि अधिकाय ॥ छिनछिन ताहि लखै शिवसुन्दर, सुरगसंपदा मिलै मुभाय । बानारसि गुनरास संघकी, जो नर भगति करै मनलाय॥२३॥ यद्भक्तेः फलमर्हदादिपदवीमुख्यं कृपेः सस्यव
चक्रित्वत्रिदशेन्द्रतादि तृणवत्प्रासङ्गिकं गीयते । शक्ति यन्महिमस्तुतौ न दधते वाचोऽपि वाचस्पतेः
संघः सोऽघहरः पुनातु चरणन्यालैः सतां मन्दिरम् ॥ जाके भगत मुकतिपदपावत, इन्द्रादिक पद गिनत न कोय || ज्यों कृषि करत धानफल उपजत, सहज पयार घाम भुस होय॥ जाके गुन जस जंपनकारन, सुरगुरु थकित होत मदखोय । सो श्रीसंव पुनीत बनारसि, दुरित हरन बिचरन भविलोय २४
अहिंसा अधिकार । क्रीडाभूः सुकृतस्य दुष्कृतरजःसंहारवात्या भयो* दन्वन्नौर्व्यसनाग्निमेघपटली संकेतदृती श्रियाम् । निःश्रेणित्रिदिवौकसः प्रियसखी मुक्तः कुगत्यर्गला सत्त्वेषु क्रियतां कृपैव भवतु क्लेशैरशेषः परैः ॥ २५ ॥
- घनाक्षरी। सुक्रतकी खान इन्द्र पुरीकी नसैनी जान'
पापरजखंडनको, पौनरासि पेखिये । भवदुखपावकबुझायवेको मेघ माला,
कमला मिलायवेको दूती ज्यों विशेखिये ॥ HTTAR FREE
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